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________________ (६६ ) अणेगछन्दा + इह = अणेगछंदाम् इह-अणेगछंदामिह । जुन्यण + अप्फुण्ण = जुव्वणम् अप्फुण्ण-जुन्धणमप्फुण्ण । २४. कुछ शब्दों का अन्तिम व्यञ्जन लोप होने की अपेक्षा पास वाले स्वर में ही मिल जाता है। जैसे :किम् + इहं = किमिहं निर् + अन्तर = निरन्तर । यद् + अस्ति = यदत्थि, जदत्थि दुर् + अतिक्रम = दुरतिक्रम । पुनर् + अपि = पुणरवि दुर् + अइक्कम = दुरइक्कम । २५. यहाँ सन्धि के जो-जो नियम बताये गये हैं उनका उपयोग दो पदों में ही करना चाहिये। जहाँ एक से अधिक नियम लागू हों वहाँ प्रचलित प्रयोगों के अनुसार सन्धि करनी चाहिए जिससे अर्थभ्रम न हो । अक्षरपरिवर्तन तथा लोप के नियम का उपयोग करते समय भी अर्थभ्रम न हो इसका ख्याल रखना जरूरी है। १. स्वरहीनं परेण संयोज्यम् । तथा हे० प्रा० व्या० ८।१।१४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001702
Book TitlePrakritmargopadeshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year1968
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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