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सत्रहवाँ पाठ निम्नलिखित प्रत्यय भी विशेषतः विध्यर्थ के हैं। एकव०
बहुव० प्र.पु० जामि
ज्जामो म०पु० ज्जासि, ज्जसि
ज्जाह १. पालिभाषा में विध्यर्थ को सप्तमी कहते हैं और संस्कृत में भी
आचार्य हेमचन्द्र ने 'सप्तमी' नाम को स्वीकार किया है । पाणिनीय
व्याकरण में सप्तमी को विधिलिङ्कहते हैं। पालि में सप्तमी-विध्यर्थ-के प्रत्यय:
परस्मैपद एकव०
बहुव० प्र०पु० एय्यामि, ए
एय्याम म०पु० एय्यासि, ए
एय्याथ तृ०पु० एय्य, ए
एय्युं
आत्मनेपद प्र०पु० एय्यं, ए--
एय्याम्हे म०पु० एथो
एय्यव्हो तृ०पु० एथ
एरं 'अस्' धातु के विध्यर्थ रूपप्र०पु० अस्सं
अस्साम म०पु० अस्स
अस्सथ तृ०पु० अस्स, सिया
अस्सु, सियुं १६वें पाठ में अपभ्रंश के आज्ञार्थ प्रत्यय बताए हैं वही प्रत्यय विध्यर्थ में भी उपयोग में आते हैं और धातु के रूप भी वैसे ही होते है ( दे० पृ० २८८।)
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