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________________ ( २५६ ) ओप्प ( अर्प) = पॉलिश करना, पानी चढ़ाना, चमक देना। पवस् ( प्र + वस् ) = प्रवास करना । उचिट्ठ ( उप + तिष्ठ ) = उपस्थित रहना, सेवा में हाज़िर रहना। ताव (ताप् )= तपना, तप्त करना । विक्के ( वि + क्री ) = बेचना, विक्रय करना। अप्प, ओप्प ( अर्पय् )= अर्पण करना, देना । पोल्, पीड् (पोड्) = पोड़ना, पोलना, पेरना। फल (फल )= फलना, फुलना। चित् (चिन्त् )= चिन्ता करना । वीसर् ( वि + स्मर )= विस्मरण करना, भूल जाना। संहर् ( सं + स्मर) = स्मरण करना, याद करना। खण् ( खन् )= खोदना । पाव ( प्र + आप )=प्राप्त करना, पाना । वक्खाण ( वि + आ + ख्यान )= व्याख्यान करना, विस्तार से कहना, प्रसिद्धि प्राप्त करना। अणुसास् ( अनु + शास् ) = शिक्षा देना, समझाना । संबुज्झ ( सं + बुध्य )= समझना, बोध प्राप्त करना। वण ( वन )=बुनना। कूज् , कूअ ( कूज् )= कुहू कुहू करना, फॅजना । वाक्य (हिन्दी) कुम्हार का कुल भी उत्तम होगा। व्यापारी गाँव-गाँव में प्रवास करेगा और वस्तुएँ बेचेगा। बढ़ई लकड़ियां छोलेगा और तत्पश्चात् गढ़ेगा । गृहस्थ ब्राह्मणों और साधुओं को अन्न देंगे। श्रमण महावीर कुम्हार और मोचो को धर्म समझायेंगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001702
Book TitlePrakritmargopadeshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year1968
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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