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________________ ( ३०६ ) 'वाया' ( वाक् ) मूल अकारान्त नहीं है ) शब्द के सभी रूप माला जैसे ही होते हैं । इसकी विशेषता केवल सम्बोधन में ही है । " हे वाया !" ऐसा एक ही रूप बनता है । 'वाये !' 'वाया !' ऐसे दो रूप नहीं । до बुद्धी ( बुद्धि: ) द्वि० बुद्धि (बुद्धिम् ) तु० बुद्धीअ *इकारान्त 'बुद्धि' बुद्धीहि बुद्धि + आ = बुद्धीआ (बुद्धया) बुद्धीहि, बुद्धीs, बुद्धीए प्र० द्वि० तृ ०, च०, " पं०, प०, स० स० सं० शब्द के रूप बुद्धि + उ = बुद्धीउ बुद्धि + ओ = बुद्धीओ ( बुद्धयः ) बुद्धि = बुद्धी * पालि में ह्रस्व इकारान्त रत्ति (रात्रि ) का रूप - रत्ती, रत्तियो रत्ति रति रतिया रत्तियं रत्ति ! Jain Education International बुद्धि + उ = बुद्धीउ बुद्धि + ओ = बुद्धीओ बुद्धि = बुद्धी ( बुद्धी: ) १ बुद्धीहिं ( बुद्धिभिः ) "" रक्तीहि रत्तीभि ( तृ० पं० ) रत्तीनं ( च० ष० ) " रत्तीसु रत्ती, रतियो ! १. हे० प्रा० व्या० ८।३।२७ । २. हे० प्रा० व्या० ८१३१५ । ३. हे० प्रा० व्या० ८।३।२७ । ४. हे० प्रा० व्या० ८।३।२६ | For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001702
Book TitlePrakritmargopadeshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year1968
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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