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________________ पं० स० ( ३६३ ) दुत्तो, दोश्रो, दोउ, दोहितो, दोसुंतो वित्तो, वे, वेउ, वेहितों, वेसुंतों दोसु, दोसुं, वेसु, वेसुं । 'ति' (त्रि ) तीनों लिङ्गों के रूप प्र० - द्वि० तिरिरण च० तथा ष० तिरह, तिरहं शेष रूप 'रिसि' शब्द के बहुवचन के रूपों की भाँति समझ लें । 'चउ' (चतुर्) तीनों लिङ्गों में रूप प्र० - द्वि चत्तारो ( चत्वारः), चउरो (चतुरः), चत्तारि ( चत्वारि ) तृ० - चऊहि, चऊहि, चऊहिँ चहि, चउहिं, चउहिँ च०- ष० चउरह, चउर शेष सभी रूप 'भारण' शब्द की भाँति होंगे । 'पंच' (पञ्चन्) तीनों लिङ्गों में रूप प्र० - द्वि० पंच तृ० - पंचेहि, पंचेहि, पंचेहि पंचहि पंचहि पचहिं च० तथा ष० - पंचरह, पंचराहं ( पालि - पंचन्तं ) शेष सभी रूप 'वीर' शब्द के बहुवचन के रूपों जैसे हैं । इसी प्रकार निम्नलिखित सभो शब्दों के रूप 'पञ्च' शब्द की भाँति होंगे- छ ( षट् ) = छः सत्त (सप्तन् ) = सात - सप्त = भाठ-भ्रष्ट अट्ठ (अष्टन्) नव ( नवन् ) = नव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001702
Book TitlePrakritmargopadeshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year1968
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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