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________________ ( १०९ ) ४. अव्वईभाव समास : जब युद्ध, अथवा झगड़ा बताने के लिए बराबर क्रिया बतानी हो तब इस समास का उपयोग होता है । जैसे भाषा में प्रचलित ' मारामारी', 'मुक्का-मुक्की' आदि शब्द इस समास के माने जाते हैं । प्रस्तुत में 'केसाकेसि', 'दण्डादण्डि' आदि शब्द हैं । इस समास में जिन दो शब्दों का समास होता है दोनों शब्द बिलकुल एक जैसे होने चाहिए । यही इसकी विशेषता है 'हत्थ' और 'पाय' ऐसे अलग-अलग शब्दों का यह समास नहीं हो सकता । यह समास अव्यय के समान हो माना जाता है | इसके अतिरिक्त अव्ययों के साथ भी यह समास होता है । उव - गुरुणो समोवं उपगुरु । अणु - भोयणस्स पच्छा अणुभोयणं । अहि (अधि ) -- अप्पंसि अंतो अज्झप्पं । जहा -- सति अणइक्कमिऊण जहासत्ति । जहा -- विहि अणइक्कमिऊण जहाविहि | जहा - जुग्गयं अणइक्कीमऊण जहारिहं पइ - पुरं पुरं पइ पइपुरं । समास में अधिकतर प्रथम शब्द के अन्तिम स्वर में ह्रस्व हो तो दीर्घ हो जाता है और दीर्घ हो तो ह्रस्व हो जाता है ។ । जैसे ― स्व को दीर्घ : अन्तर्वेदि—अंतावेइ सप्तविंशति—सत्तार्वासा भुजयन्त्र —भुआयंत, भुअयंत । पतिगृह — पईहर, पइहर । वारिमती - वारीमई, वारिभई । वेणुवन - वेलूवण, वेलुवण । १. दे० प्रा० व्या० ८|१|४| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001702
Book TitlePrakritmargopadeshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year1968
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size16 MB
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