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श्रेष्ठि- देवचंद - लालभाई- जैनपुस्तकोंद्धारे ग्रन्थाङ्कः १०७
श्रीदूसगणिशिष्य - श्रीदेववाचकविरचितम् नंदीसूत्रम् । 卐
फ
[ आचार्यश्रीमलयगिरिकृतटीकायाः संक्षेपरूप- अवचूर्या समलङ्कृतम् ]
संशोधकौ— जैनरत्न-व्याख्यानवाचस्पति - पूज्यपादाचार्यश्रीमद्विजयलब्धिसूरीश्वर चरणचञ्चरीकौ आचार्यश्रीविक्रमसूरि-पन्यासश्रीभास्करविजयौ सुरतवास्तव्यश्रेष्ठि–देवचंद-लालभाई - जैनपुस्तकोद्वारकोशस्य कार्यवाहको मोतीचंद मगनभाई चोकसी.
प्रकाशक
विक्रमसंवत् २०२५
इस्वीसन् १९६९
वीरसंवत् २४९५
मूल्यम् - रूप्यकचतुष्कम्
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श्रीनन्दिસૂત્રમ્ રા
प्रकाशकीय નિવેદન..
प्रकाशिकाः- देवचंद लालभाई जैनपुस्तकोद्धार संस्था
बडेखान चकलो, गोपीपुरा, सूरत. अस्य पुनर्मुद्रणाद्याः सर्वेऽधिकाराः एतत्संस्थाकार्यवाहकैः स्वायत्तीकृताः – નસવંત પ્રિન્ટીંગ પ્રેસ, વોશીવાડાની પોઢ, ઉપર, માવા-.
આ પ્રકાશકીય નિવેદન * આચાર્ય ભગવંત શ્રીદેવવાચકકૃત નંદિસૂત્ર પરની આ અવસૂરી કે જે વાસ્તવમાં નંદિસૂત્ર પરની મલયગિરિજી કૃત ટીકાનું લગભગ સંક્ષિપ્તીકરણ છે, તેને આજે સર્વપ્રથમ મુદ્રિત કરાવી શ્રીસંઘના કરકમલમાં મૂક્તાં અને આનંદ અનુભવીએ છીએ
નંદિસૂત્રની આ અવચૂરીની પ્રતને શકય તેટલી શુદ્ધ કર્યા પછી અમે છપાવી છે. છતાંય મૂળ હસ્તપ્રતની અશુદ્ધિઓના કારણે તેમાં અશુદ્ધિઓ રહી જવા પામી હશે. તે તે વિષયના તજજ્ઞ મહાપુરુષે સુધારીને વાંચે તેવી વિનંતી છે.
પ્રસ્તુત પ્રકાશનનું સંપાદન જનરત્ન વ્યાખ્યાનવાચસ્પતિ આચાર્યદેવ શ્રીમદવિજયલધિસૂરીશ્વરજીના વિદ્વાન શિષ્યરત્ન આચાર્ય શ્રી વિજયવિકમસૂરીશ્વરજી તથા પન્યાસ પ્રવર શ્રીભાસ્કરવિજયજીગણિએ સ્વીકારી અમને ઉપકૃત કર્યા છે તે બદલ અમે તેમના ત્રાણી છીએ.
રા
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श्रीनन्दि
આ ગ્રન્થના પરિચય અંગે ગ્રન્થની પ્રસ્તાવનામાં વિગતપૂર્ણ અને વિદ્વત્તાભર્યું વિવેચન કરવામાં આવેલ છે જે વાંચવા ખાસ આગ્રહ છે.
પ્રાને પ્રેસષ તથા મતિમંદતા આદિના ગે જે કંઈ જિનવચનવિરુદ્ધ છપાયું હોય તેને ત્રિવિધે મિચ્છામિ દુકડે આપું છું.
प्रकाशकाय निवेदन।
Iરૂ
The Borad of Trustees
લી મોતીચંદ મગનભાઈ ચોકસી
મેટ્રસ્ટી
સંસ્થાનું ટ્રસ્ટીમંડળ 1. Nemchand Gulabchand Devchand Javeri ૧, શ્રી નેમચંદ ગુલાબચંદ દેવચંદ ઝવેરી 2. Talakchand Motichand Javeri
૨. શ્રી તલકચંદ મેતીચંદ ઝવેરી 3. Ratanchand Sakarchand Javeri
૩. શ્રી રતનચંદ સાકરચંદ ઝવેરી 4. Amichand Zaverchand Javeri
૪. શ્રી અમીચંદ ઝવેરચંદ ઝવેરી 5. Keshrichand Hirachand Javeri
૫. શ્રી કેશરીચંદ હીરાચંદ ઝવેરી 6. Motichand Maganbhai Choksi
૬, શ્રી મતીચંદ મગનભાઈ ચોકસી Hon. Managing Trustee
માનદ મેનેજીગ ટ્રસ્ટી
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श्रीनन्दिसूत्रम् । ॥४॥
किंश्चिद् वक्तव्य।
'किंचिद् वक्तव्य' प्रस्तुत ग्रंथ ज्यारे पाठकोना हाथमा आवशे त्यारे पहेला फर्माना मुद्रणने लगभग १५ थी १६ वर्ष परिपूर्ण थइ चूक्यां हशे. आम सारो एवो काळ पसार करीने आ ग्रंथ बहार पडे छे. आ साथे 'दुर्गपदव्याख्या' पण छपाववानी हती अने तेनो प्रथम फर्मों तैयार पण थइ गयो छे जे आ साथे मुक्यो छे. पण नंदीनी पू. हरिभद्रसरि मनी पुनर्मु द्रित टीकामां ते व्याख्या छपाइ गइ होवाथी एक फर्मो जे तैयार हतो तेटलो ज आपीने आगळ काम साथे जोडवानो निर्णय कर्यों छे. वळी प्रति तेमज प्रेसना कारणे घणी अशुद्धिओ थवा पामी छे. पण नवमुद्रित चूर्णि तेमज टीकाने साथे राखीने तैयार करी शुद्धिपत्रक अंतमा आप्यु छे. आ ग्रंथनु शुद्धिपत्रक तैयार करवामां मुनि जिनभद्रविजयजीए सारो परिश्रम उठाव्यो छे. अंते आ ग्रंथ आटला वखते पण छपाइने बहार पडयो छे तेथी ज संतोष अनुभववो रहे छे. प्रस्तुत ग्रंथनी प्रस्तावना पण पांच वर्ष पहेला लखाइ चूकी हती. तेभां पण पुनः प्रेसकोपी करती वखते घणो सुधारो वधारो करवामां आव्यो छे, अने समयना अभावे ईतिहास विभागनी चर्चा तो अति संक्षिप्तमांज करी देवी पडी छे.
बेंगलोर संवत २०२५
आचार्य विक्रमसूरि महावीर जन्म वांचन दिन
॥४॥
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नन्दिसूत्रम्।
॥१॥
प्रस्तावना।
-: प्रस्तावना :
विभाग-१
[१] नंदी (ज्ञान) माहात्म्य जैनशासनमा ज्ञानने कर्मनाशर्नु उत्तम सोधन कहथुछे मुक्तिनी साधनामां ज्ञाननी परम आवश्यकता स्वीकारवामां आवी छे, ज्ञान वगरनी क्रिया पूरेपूर फळ आपवामां असमर्थ छे. ज्ञान ए आत्मगुण छे, ज्यारे क्रिया माटे तेम नथी. जो के क्रिया कर्मनाश करनार छ-पण ए क्रिया केवी रीते करवी तेनो बोध ज्ञान द्वारा थाय छे अने एवं ज्ञान वीतराग भगवंतो के जेओ सर्वज्ञ सर्वदर्शी छ-तेओना उपदेशरूप आगम-शास्त्रोथी थाय छे. तेवां आगमसूत्रो जैनशासनमा हालमा ४५नी संख्यामा छे. तेमज तेना आधारे रचायेला अनेक भहान सूत्रो पण छे. तेमा एकला ज्ञानर्नु निरूपक आगमशास्त्र 'नंदी' छे.
आ नंदीसूत्र परम मंगल छे. केमके आत्माने स्वच्छ करनार, स्वस्वरूपमा लावी आपनार अने अनादिना मोह अंधकारने हरनार छे. तत्वार्थसूत्रकारे 'सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः' आ सूत्रमा ज्ञानने वचमा मूक्यु' छे. जे 'देहलीदीपक 'न्याये बन्ने बाजु प्रकाश आपे छे. रत्नत्रयीमां तेणे हृदयनुं स्थान लीधुं छे. एटले सम्यक्त्व अने १ ज्ञानस्य फल विरतिः प्रशमरतिप्रकरण ।
॥१॥
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नन्दिसूत्रम् ।।
GI प्रस्तावना।
॥२॥
चारित्रनो प्राण ए ज्ञान छे. १अथवा ज्ञान ज सम्यक्त्व ज्ञान अने चारित्ररूप छे, आवा ज्ञान- निरूपण तेमां करेलु होवाथी नंदीसूत्र परम मंगल छे. ___आत्मा तेमज सकल पदार्थोने ओळखावनार जीवनो मुख्य गुण ए ज्ञान छे. ए ज्ञानना अवरोधक तत्वोनो समूल नाश-क्षय अथवा नाश साथे दबाण [क्षयोपशम]ज थई शके छे. पण एकलु दबाण [उपशम] थई शकतो नथी. आ आगमसूत्र ते परम आत्मगुणनी ज विवेचना करतुं होइ सर्व मंगलोमां अग्रगण्य स्थान भोगवे छे. जैनशासनमा अग्रपद धरावता आचार्यपदनुं आरोपण करवान होय ते समये आ 'नंदी'सूत्रनुं श्रवण ए आवश्यक मनायुं छे.
[२] जैन साहित्यमां नंदीनुं स्थान जैन आगमशास्त्रोमां पण आ सूत्रनुं घणु उच्चस्थान छे, केमके कोईपण शास्त्रनो अभ्यास करतां पहेला नंदीसूत्रनो अभ्यास करवो जोइए.
'२नंदीअणुयोगदार', विहिवदुवग्याइयं च नाऊणं । काऊण पंचमंगल-मारम्भो होइ सुत्तस्स' ॥१॥ अर्थात् नंदी अने अनुयोगद्वारनो विधिपूर्वक अभ्यास करीने पछी ज सूत्रमात्रनो अभ्यास करवो उचित छे.
नमस्कार महामंत्रने जे महाश्रुतस्कंध कहेवाय छे. तेना कारणमा तेनुं सर्वशास्त्रमा अभ्यन्तरपणु कारण होय तेवु सांभळवामां आवे छे. ते नमस्कारनी सर्वशास्त्राभ्यन्तरताने सिद्ध करवा माटे पू. जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणजी जे दलील १ आत्मानमात्मना वेत्ति, मोहत्यागाद्य आत्मनि, तदेव तस्य चारित्रं, तज्शानं तच्च दर्शनम् ॥१॥ उपाध्यायजी यशोविजयजी म. तत्वार्थटीका पृ. १६ । २ आ नि. गा. १०१३ ।
॥२॥
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नन्दिसूत्रम् ।
॥३॥
प्रस्तावना।
आपे छे ते विचारवा जेवी छे. तेओ जणावे छ के
"जं च पिहो ण पढिज्जइ नंदीए सो सुअक्खन्धो" गाथा १० ___ अर्थात् नंदीसूत्रमा बधां सूत्रोनां नाम आव्यां छे. तेमां पंच-अध्ययनात्मक नमस्कार श्रुतस्कंधने पृथक कह्यो न होवाथी ते सर्व श्रुताभ्यन्तरभूत छे.
पंचमाङ्गरूप श्रीभगवतीजी जेवा आगमग्रन्थमा पू. देवर्धिगणि क्षमाश्रमणजीए नंदीसूत्रनी भलामण करी छे. | आगमने पुस्तकारूढ कर्या ते वखते तेओश्रीए ज्यां ज्यां जरूर पडी त्यां त्यां नंदी आदि अनंगप्रविष्ट ग्रंथोनी भलामण करी छ. श्रीमल्लवादीसरिजीए पण नयचक्रमां नंदीनुं प्रमाण 'आर्षम्' कहीने आप्यु छे. चतुर्दशपूर्वधर श्रीभद्रबाहुस्वामीजीए आवश्यक-नियुक्तिमां नंदीना अध्ययननी आवश्यकता जणावी छे.
आ सूत्र माटे बीजा लेखको लखे छे के, छेवटे जैन सिद्धांतमा नंदीस्त्र अने अनुयोगद्वारसूत्रनो विचार करवानो रहे छे. बन्नेना विषयो समान होवा छतां पद्धतिमा बन्ने जुदा छे. तेओ छेवटे अंशे ज्ञानकोश समान छे अने पवित्र मूळ ग्रन्थोनु साचु ज्ञान मेळवबा साधनरूप छे.' आ प्रमाणे डॉ बेलरना अभिप्राय प्रमाणे तेना कर्ता पोताना वाचकोने आ सूत्रोमां प्रस्तावनारूपे सिद्धांत प्रतिपादन करे छे. ते विद्वान जणावे छे केः- 'आ बे ग्रन्थो तेना माटे सुंदर योजायेला छे के जे ग्रंथोना समूहने पूर्ण करीने तेनी टुंकी नोंध उतारीने पवित्र ज्ञानना झरणमांथी पान करवा | जिज्ञासु होय.' [ उत्तरहिन्दु. जैनधर्म. पृष्ठ २११]
॥३॥
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नन्दिसूत्रम् ।
प्रस्तावना।
॥४॥
[३] शैली अने काळनिर्णय आ सूत्रमा अतिहासिक पट्टावली-पाटपरंपरा आपवामां आवी छे. जेमा अनेक महान शासनप्रभावक आचार्योनी नामावली मूकवामां आवी छे अने ते महापुरुषोए शुशुं कार्य कयु तेनुं आई दिग्दर्शन कराव्यु छे. जो आनी साथे संवत मूकवामां आव्या होत तो आजे स्वतंत्र विचारको द्वारा जे गुचवणो उभी करवामां आवी छे ते थवा पामत नहीं. जो के ते दिशामा श्रद्धालु विद्वानो प्रयास करशे तो ते गुचवणोनो उकेल जरूर आवशे. जे काळमां अत्यारे अतिशयज्ञानीओनो अभाव छ, पूरा ग्रंथो मळी शकता नथी. छतां केवळ शैलीना अनुसारे कल्पनाओ द्वारा ईतिहास तैयार करवामां आवे छे ते वास्तविक कही शकाय नही. केम के शैली एक काळमां पण विविध देखाय छे. कालीदासना समयमां थयेला कविओनी शैली अने कालीदासनी शैली एक सरखी हती एम कोण कही शके ? .
शैलीनुं वैविध्य लेखकोनां ज्ञानगांभीर्यादि विविध कारणो पर आधार राखे छे. 'पउमचरियं' नामना ग्रंथमा ग्रंथकारे संवतनो उल्लेख कर्यों छे. छतां पण केटलाक विद्वानो ते मानवा तैयार नथी. जाणे पोते जे शैली जे | कालनी निश्चित करी छे ते पहेलानां काळमां ए शैली होय ज नहीं. आम अहंमानी विद्वानो बधी शताब्दीओनी
शैलीना ज्ञाता होय तेवो डोळ करे छे. मारूं तो मानवु छ के जेटली स्पष्ट सामग्री मळे तेटलो ज ईतिहास लखे ता खोटो प्रचार थवा पामे नहीं. नियुक्तिना रचनाकाळ विषे जेम भ्रम हतो अने हुयुनसंगना [चाईनीस-ह्युएन-संग] लखाण उपर विश्वास मूकीने भर्तृहरि माटे केटलो बधो भ्रम फेलाववामां आव्यो हतो ते आजे प्राचीन ग्रंथोनी
॥४॥
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नन्दिसूत्रम् । 11411
उपलब्धिथी दूर थयो छे. त्यारे शु भर्तृहरिनी शैली ते काळना लेखकोनी शैलीने मळतीज हती ? नहीं ज. म शैली आदि लइने कल्पनात्मक काळनिर्णय करवो ए बिलकुल व्याजबी नथी.
मात्र शब्दोनी के शैलीनी साम्यताथी अमुक ग्रंथ उपर अमुक ग्रंथकारनो प्रभाव पडथो छे. आ वार्ता इष्ट नथी. हा जरूर ग्रंथनो के ग्रंथकारनो नामनिर्देश करवामां आव्यो होय अथवा “उक्तं च' आदि शब्दोथी एमनो आशय टांकवामां आव्यो होय तो "आ ग्रंथकारनी पछी आ ग्रंथकार थया छे" एवं नक्की करवामां आवे तो ते हजुए ठीक छे.
(१) जो के शिलालेखना आधारे अथवा सिक्काओना आधारे पण अनुमान थइ शके. छतां पण राजाओनां एकना एक नामो पण घणां आवे छे. तेथी कया राजानो संबंध कोनी साथे छे ते बाबतमां ज्यां सुधी स्पष्ट प्रमाण न मळे त्यां सुधी केवळ कल्पनाना आधार उपर इतिहासनो निर्णय करवो ए अमने तो ब्याजबी लागतुं ज नथी. आटली विचारणा कर्या पछी हवे मूळ ग्रंथना विवेचन उपर जड़ए.
विभाग- २ विषय-निरूपण
आ समस्त ग्रंथ एक व्यवस्थित रचनाथी युक्त छे. जेना सामान्य रीते आ दस विभाग छे. ते प्रथम दर्शाविवामां आवे छे.
प्रस्तावना ।
॥५॥
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नन्दिसूत्रम्।
प्रस्तावना।
॥६॥
[१] प्रथम आसन्न उपकारी चरम तीर्थपतिने नमस्कार (श्लोक १-३) [२] सर्व तीर्थपतिने पण पूज्य एवा संघनी अनेक उपमाओथी स्तुति (४-१७) [३] वर्तमान चोवीशीना तीर्थपतिनी स्तुति (१८-२१) [४] वीर भगवंतना गणधरोनु नामोच्चारण (२२-२३) [५] पंचम गणधरथी पोताना गुरु सुधीनी परंपरानुवर्णन (२५-५०) [६] श्रोतागणना गुणदोषनु वर्णन । [७] ज्ञानना भेदो।
[अ] ज्ञानना पांच भेद [ब] तेना प्रत्यक्ष अने परोक्ष बे भेद [क] तेमांना प्रत्यक्षना इन्द्रियप्रत्यक्षना बे भेद
[ड] नोइन्द्रिय प्रत्यक्षना त्रण भेद [८] नोइन्द्रिय प्रत्यक्षना त्रण भेदनुं वर्णन
अ] अवधिज्ञान [व] मनःपर्यवज्ञान [क] केवलज्ञान [९] परोक्ष ज्ञानना प्रथम भेद आभिनिबोधिक ज्ञाननुं वर्णन
॥६॥
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नन्दिसूत्रम् ।।
॥७॥
प्रस्तावना।
[१०] परोक्ष ज्ञानना बीजा भेदतुं विस्तारथी वर्णन करीने श्रुतज्ञान, परोक्षज्ञान अने ज्ञानसामान्यनु वर्णन पूर्ण करे
छ. हवे प्रत्येक विभागनी विशेषता तपासी लइए. [१] अहीं प्रथम इलोकनुं अवतरण करतां चूर्णिकार जणावे छे के 'सव्वसुत्तत्था य जतो तित्थगरप्पभवा अतो वत्तीण पन्नवगसावगे पढगचिंतगा य पढमत्ताए नमोक्कार करेत्ता भणंति' अर्थात् श्रुतना सर्व अर्थों तीर्थ करथी नीकळेला (कहेवायेला) होय छे. तेथी प्ररूपक श्रोता जाणनार अने चिंतन करनारने प्रथम नमस्कार करीने शरूआत करे छे. आ हेतुथी श्रमणसंघमां व्याख्याननी शरूआत करतां पहेलां 'जयइ जगजीवजोणी' आदि श्लोक द्वारा अद्यापि पर्यंत मंगला चरण करवानी पद्धति चालती आवी होय तेम लागे छे. जेना द्वारा वीर प्रभुने नमस्कार थाय छे. वळी सर्व प्रथम गाथा जाणे ग्रंथना ज्ञान द्वारा कर्मशत्रुनो जय करवान ज सूचन करती होय तेम लागे छे-'जयई' एवा शब्दथी शरू थाय छे तेमज गाथाना प्रथम शब्दथी लइने छेल्लेथी पहेला शब्द सुधी दरेक शब्दनी आदिमा 'ज' आवतो होवाथी वर्णानुप्रास नामना अलंकारथी शोभी रहेल छे अने आ कवित्वशक्तिनो संघने आपेलां रूपकोमा तेमज स्थविरावलीना वर्णनमा सारो परिचय मळी रहे छे.
[२] अहीं संघने स्थ, चक्र, नगर, पद्म, चन्द्र, सूर्य, समुद्र अने मेरुपर्वतर्नु रूपक आपवामां आव्युं छे. पण [पू. || हरिभद्र सू. म. कृत टीकामां तेनो क्रम जुदो जोवामां आवे छे. ते आ प्रमाणे-[१] नगर [२] चक्र [३] स्थ [४] पद्म [६] सूर्य [७] समुद्र [८] मेरुपर्वत. तफावत मात्र एटलो ज छे के चूर्णिमां स्थना रूपकनो प्रथम अने नगस्ना
॥७॥
IM
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प्रस्तावना।
नन्दिसूत्रम् ।
॥८॥
रूपकनो बीजो नंबर छे. ज्यारे हारिभद्रीय टीकामां नगरनी उपमा प्रथम छे अने स्थनी उपमानो बीजो नबर छे. ते वर्धा रूपको अत्यंत सुन्दर अने गंभीर होवाथी तेनुं यत्किंचित् दर्शन अहीं कराववामां आवे छे. (१) स्थः- पंचमहाव्रत रूपी रथ खेंचनारा तप अने नियमरूपी अनेक प्रकारना अश्वो छ वळी स्वाध्यायना शब्द
रूपी नंदीघोषथी ते स्थ गुंजी रह्यो छे. प्रथम श्लोकमा ज पंचमहाव्रतने संघ कह्यो छे. ते पण घणुज
सूचक छे. वळी 'नंदी' एवु नाम पण सूचवायु होय तेम लागे छे. (२) चक्र:- अहीं संघने चक्रनु रूपक आप्यु छ जे चक्रमा (१) अहीं 'सावग' शब्दथी श्रोता ज अर्थ करवो जोइए
केमके प्रज्ञापक शब्दनी पछी 'च' मूकवामां आव्यो छे. जेथी अहीं जेनो अधिकार प्राप्त थयो होय ते ज ग्रहण शरु थइ शके पण श्रावक एटले श्रमणोपासक (गृहस्थ) नहीं. वळी अधिकारीनुं वर्णन कर्या बाद | चूर्णिकारे जे अवतरणिका करी छे. तेनाथी पण ते ज वस्तुनुं सारी रीते समर्थन थाय छे.
"दुस्सगणिसीसो देववाचको साहू जो जणहिएच्छाए इणमाह." (३) नगरः- सेंकडो गुण रूपी भवनोथी संकीर्ण दर्शनविशुद्धिरूप शेरीओथी युक्त, निरतिचार चारित्ररूप किल्लाथी |
युक्त एषु संघरूपी नगर छे. वळी ते नगर श्रुतरूप रत्नोथी भरेलु' (समृद्ध) छे. (४) पद्यः- अहीं संघने कमळनी उपमा आपी छे. कमळ जेम जळमाथी पेदा थाय छे. तेम संघरूपी कमळ पण
कर्मरजरूपी जलना समुदायमाथी पेदा थलु छे. (नीकळेलु छे.) ते कमळनुं लिंग श्रुतरूप रत्न छे. वळी तेमां पांच महाव्रतरूपी स्थिर कर्णिका छे..
॥८॥
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नन्दिसूत्रम्।
॥९॥
प्रस्तावना।
वळी ते संघरूपी कमळ गुणरूप केशराथी युक्त के. ते कमळ जिनेश्वर भगवंतनी धर्मदेशनारूप तेज (किरणो)थी खीलेलुछे. तेनी शोभाथी आकृष्ट थयेला श्रमणोपासकरूप भ्रमरोथी व्याप्त छे. वळी संघरूपी कमळमां
हजारो श्रमणसमुदायरूपी पत्रो छे. [५] चन्द्रः- निर्मळ सम्यकत्वरूप विशुद्ध चांदनीथी युक्त नास्तिकवादरूप राहुवडे मूळथी गळी न शकाय तेवो मध्यवर्ती
तप अने संयमरूप लंछनथी शोभतो संघरूपी चन्द्र छे. [६] सूर्य:- जेम सूर्यने प्रज्वलंत किरणो होय छे, तेम आ संघरूपी सूर्यने पण तप-तेजरूपी देदीप्यमान किरणो छे.
वळी ते संघरूपी सूर्य परतीर्थिक ग्रहोनी प्रभानो नाश करनार छे. ज्ञानरूपी उद्योतथी युक्त छे. आवो
उपशमप्रधान संघरूपी सूर्य छे. [७] समुद्रः- विशाल संघरूपी समुद्र, धृतिरूप वेलाथी विंटळायेलो छ. तेमा स्वाध्याय ने योगरूप मगरो छे. वळी ते |
समुद्र क्षोभ न पामे तेवो छे. [८] आठमी अने आखरो सुंदर मेरुपर्वतनी उपमा संघने आपवामां आवी छे.
___'संघरूपी मेरुपर्वत' [A] ते संघरूपो मेरुपर्वतनी सम्यग्दर्शनरूप (वज्रमय) पीठ छे. [B] ते संघरूप मेरुपर्वत मूलगुणरूप सुवर्णनो बनेलो छे. जेमां उत्तरगुणरूपी रत्नो शोभी रह्यां छे.
॥९॥
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इन्दिसूत्रम् ।
प्रस्तावना।
॥१०॥
[C] जेमां नियमरूपी सुवर्णना शिलातलोमां, प्रतिसमय कर्मनो नाश करतां होवाथी उज्ज्वल चित्त(मन)रूपी कूटो छे.
I [D] ते संघ पर्वतमां संतोषरूपी मनोहर नंदनवन छे. जे नंदनवन शीलरूपी सुगंधीथी महेकायमान थइ रहथु छे. [E] ते पर्वतमां सेंकडो हेतुरूप धातुओ रहेली छे. वळी ते पर्वतनी गुफामां अनेक आमशौषध्यादिरूप दिव्य
औषधो छे. तेमज श्रुतरूप चन्द्रकान्तादि रत्नो क्षायोपशमिकादि भावने वहावी रह्यां छे..... [F] ते पर्वतमा जीवदयारूपी सुन्दर रकंदराओ छे. ज्यां मुनिवररूपी दर्पित सिंहो विचरी रह्या छे. [G] वळी जे पर्वतमा संवररूप जलमांथी श्रुतज्ञानरूप झरणां निकळी रह्यां छे. अने ते झरणारूप मोतीना हारथी
ते पर्वत शोभी रह्यो छे.. [H] वळी ते पर्वतनी ३कुहरो श्रावकजनरूपी रणकार करता प्रवर मयूरोथी नाचती होय तेम लागे छे. [I] वळी ते संघरूपी पर्वतमा युगप्रधानरूप महापुरुषो विनयथी नमेला श्रेष्ठ मुनिरूप विद्युतना चमकाराथी ओळखाइ रह्या छे.
. [D] वळी ते संघरूप मेरुपर्वतमां (मुनिओना) गच्छरूप वनो छे. जे वनोमा रहेलां मुनिरूप वृक्षो उपर लब्धिरूपी
१ 'देवखातबिले गुहा' देवखातो अकृत्रिमो बिले बिलविषये (अमरकोशः) । २ 'दरी तु कन्दरा पर्वतस्य गृहाकार कृत्रिम विवरम्' (अमरकोश:) AII ३ 'कुहर शुषिरं विवरम् ' इत्यादि छिद्रमात्रस्य (अमरकोशः)।
॥१०॥
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नन्दिसूत्रम्। ॥११॥
प्रस्तावना।
पुष्पो छे. ते वृक्षो पर धर्मरूप फळो छे. [K] ते संघरूप पर्वतनी, विमल वैडूर्यरत्नोनी प्रभावडे श्रेष्ठ तेमज ज्ञानरूपी रत्नोथी दीपी रहेली मनोहर |
चूलिका छे. आम पवित्र एवा संघनी मनोहर उपमाओ द्वारा स्तुति अहीं समाप्त करे छे.
(३) अने (४)मां कई विशेष वक्तव्य नथी. [५] आ परंपरामा केटलाक महापुरुषोनुं नामोत्कीर्तन तेमना गोत्रनी साथे जोवामां आवे छे. केटलाकमां ते महापुरुषोना
श्रामण्यवंशनो उल्लेख प्राप्त थाय छे, तो केटलाकमां कवित्वशक्तिना सुन्दर नमूनारूप हृदयंगम विशेषणो छे. तेओश्री ३७मी गाथामा जणावे छ के " अत्यारे पण अर्धभरतमा जेओनो यश खूब प्रसरेलो छ तेवा स्कंदिलाचार्यने हुँ वंदन करु छु" अहीं आ गाथाना विवेचनमां चूर्णिकार तेमज टीकाकार जणावे छे के "१२ वर्षनो दुकाळ वीती गया पछी तेओए (स्कंदिलाचार्ये) मथुरामां वाचना आपी हती. वळी ते पट्टावलीमां पू. देववाचक गणिए हिमवदाचार्यनी २ श्लोकवडे (३८-३९) पछी नागार्जुनाचार्यनी ३ श्लोकवडे (४० थी ४२) पछी भूतदिनाचार्यनी ३ श्लोक वडे (४३-४४-४५) तेमज दुष्यगणिनी ३ श्लोक वडे (४७-४८-४९) स्तवना करेली छे. ज्यारे सर्व महापुरुषोनी स्तवना क्यांक श्लोकार्धथी तो क्यांक आखा श्लोकवडे करेली छे. ते विद्वानोए लक्ष्यमा लेवा । जेवी वात छे. पट्टावलिना अंतिम श्लोकमां तेओए नमस्कार द्वारा सर्व श्रुतधरोनो संग्रह कर्यों छे. “जे अन्ने भगवते कालिअसुयअणुओगिए धीरे " जे अन्य कालिक-श्रुत-आनुयोगिक धीर पुरुषो छे, तेओने मस्तकवडे प्रणाम करीने हुँ' प्ररूपणा करीश."
॥११॥
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ना प्रस्तावना।
नन्दिसूत्रम् ।
॥१२॥
वळी तेओए दुष्यगणिने आपेला विशेषणो अन्यने अपायेला विशेषणोथी घणां ज विलक्षण छ. जेमके:[१] 'पयईइ महुरवाणि' प्रकृतिथी मधुरवाणीवाला. [२] 'सुकुमालकोमलतले' सुकुमाल अने कोमल तलवाळा.
अहिं आ विशेषणोथी चूर्णिकारनु कथन हशे के 'गुरखोत्ति का बहुवयणं' अर्थात् दुष्यगणि (तेमना)
देववाचक गणिना गुरु छे. माटे बहुवचननो प्रयोग कर्यों छे. [६] अहीं जैन शासननी विशिष्ट परंपरा अनुसार अधिकारीओनो विचार १३-१४ दृष्टांत आपी स्पष्ट करेल छे.
अने ते बाद (१) समजु (२) अणसमजु अने (३) दुर्विदग्ध एम त्रण प्रकारे पर्षदाना पण भेद बताव्यो छे. ज्ञाननी प्ररूपणानी प्रतिज्ञानी पछी अने ज्ञानना निरूपण पहेला अधिकारीओनो विचार खूब मननीय छे. 'पणतं' ए मूळसूत्रमा रहेला शब्दना करेला घणा अर्थोमां एक अर्थ 'अहवा पण्णा -बुद्धी पहाणपण्णेण अवाप्तं, पण्णत्तं सम्मद्दिविणा लब्धमित्यर्थः' (पृ. २०पं. ५) तेना अनुसार अहीं सम्यगदृष्टिना ज्ञानविवेचन छे, तेम जणाय छे. अहीं क्रम सर्व शास्त्रना जेवो छे. ते क्रम शा माटे आवी रीते राखवामां आव्यो छे, तेनो चूर्णिकार तेमज टीकाकारे खुलासो आप्यो छे. [१] मति अने श्रुतज्ञानमां स्वामिकाल-कारण-विषय अने परोक्षत्वनुं साधर्म्य छे. [२] मति श्रुत अने अवधिज्ञानमां-काल-विपर्यय-स्वामि अने लाभर्नु साधर्म्य छे. [३] अवधि अने मनःपर्यवज्ञानमा छद्मस्थ-विषय-भाव-प्रत्यक्षत्व अने स्वामिरूप साधर्म्य छे. [४] मनापर्यव अने केवलज्ञानमां-अप्रमत्तस्वामित्व अने विपर्ययाभावरूप साधम्र्य छे.
॥१२॥
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नन्दिसूत्रम्।
॥१३॥
प्रस्तावना।
आथी जो कोई अहीं बधा ज ज्ञाननो अधिकार छे. तेम कहे तो पण अयोग्य छे. कारण के आ क्रम मात्र अहीं छे तेम नथी पण सर्वत्र छे. अने तेथी सर्वत्र आ क्रम माटे उपरोक कारण छे. वळी अहीं तो मुख्यपणे सम्यग्दृष्टिना ज्ञाननो अधिकार छ तेम कहे तो पण अयोग्य छे. कारण के आ क्रम मात्र अहीज छे. पण प्रसंगथी श्रुतादिना भेदथी अज्ञान- विवेचन छे. एटले ज अवधिज्ञानर्नु वर्णन छे. पण विभंगज्ञान- नथी. वळी जो एम कहेवामां आवे के विभंग अने अवधिमा मात्र स्वामिनोज भेद छे. बाकी कशो भेद नथी तो ते केवळ अज्ञानविलसित छे. कारण के अहीं जे भेद दर्शाववामां आव्यो छे,
तेमांना केटलाक भेद अवधिज्ञानीने ज होय, विभंगज्ञानीने कदी न होय माटे मुख्यत्वे तेनो अधिकार छे. [७] [A] अहीं ज्ञानना प्रत्यक्ष अने परोक्ष भेद करी ज्ञानना पांच प्रकारोने तेमांज समावी लेवामां आव्या छे. [B] प्रत्यक्षना बे प्रकार इन्द्रियप्रत्यक्ष अने नोइन्द्रियप्रत्यक्ष जणावी इन्द्रियप्रत्यक्षना पांच भेद बताववामां आव्या
छ, केटलाक समन्वयप्रेमीओ आ प्रकारनी रचना जोइने बोली काढे छ के "जैनेतर बधा दर्शनो इन्द्रियजन्यज्ञानने परोक्ष नहीं पण प्रत्यक्ष माने छे. आ लौकिक मतनो समन्वय करवो नंदीसूत्रकारने अभिप्रेत हतो" एमनो आ आशय कया आधारे हतो ते तो तेओए जणावQजोइए ने ? बळी आ प्रमाणे कहेनारने एक प्रश्ननो जवाब आपवो जरूरी छे के अन्य लोको मनथी थता ज्ञानने प्रत्यक्ष कहे छे तो शु अहीं ते भेद नंदीसूत्रकारे जणान्यो छे ?
॥१३॥
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न्दिसूत्रम्।
॥१४॥
|| प्रस्तावना
जो ए भेद दर्शाव्यो नथी तो समन्वय थयो केवी रीते ? पण अहीं धृष्ट हृदयवाळा एम कहेवानी पण हिंमत करे तेवा छे के ते समन्वय करवामां नंदीसूत्रकारनी खामी रहेली छे. तेवा अहंमानी 'धूर्त' पंडितोने जवाब अने युक्ति आपवानो कशोज हेतु नथी. छतां पण बुद्धिने ठेकाणे राखीने जोवु होय तो विचारे के ज्यां आ ज्ञानने प्रत्यक्ष कहथुछ त्यां कयी इन्द्रियनो संग्रह शरू थइ शके ? द्रव्येन्द्रियनो के भावेन्द्रियनो ? जो द्रव्येन्द्रियने प्रमाण मानवामां आवे छे तो तमे कया प्रमाणथी जाण्यु ? मूळकारनो तेवो अभिप्राय छे, ए जाणवा माटे कोई प्रामाणिक साधन तमारी पासे छे ज नहीं. एटलुज नहीं पण जैनशासननो कोइ पण न्यायग्रन्थ तमारी वातनुं समर्थन करतो नथी. अने जे प्रमाणथी (टीका चूर्णि तेमज परंपराद्वारा) मूळकारनो अभिप्राय प्राप्त छे. तेनाथी तो स्पष्ट ज छे के " सावरणाखओवसमातो लद्धी तं भावि दियं तस्स पच्चक्खं ति इंदियपच्चक्वं तं पंचविहं......" नंदीचूर्णिकार पोताना आवरणना क्षयोपशमथी जे लब्धि छे ते भावेन्द्रिय, तेनुं प्रत्यक्ष ते इन्द्रियप्रत्यक्ष, ते पांच प्रकारे छे" वळी आगळ जइने जणावे छ के भाविदियोवचारपच्चक्खओ अतं पच्चक्खं, परमत्थओ पुण चिंतमाणं एतं परोवखं" भावेन्द्रिय-उपचार-प्रत्यक्षत्वथी आ प्रत्यक्ष छे. परमार्थथी तो परोक्ष छे" वळी तत्त्वार्थमां सिद्धसेनगणि पण जणावे छ के (पृ. १६८) 'तस्माल्लब्ध्यादयः चत्वारः समुदिताः शब्दादिविषयपरिच्छेदमापादयन्त इन्द्रियताव्यपदेशम् अश्नुवते'
॥१४॥
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प्रस्तावना।
नन्दिसूत्रम् । ॥१५॥
अर्थात् निवृत्ति, उपकरण, लब्धि अने उपयोग, चारे मळीने शब्दादि विषयचें ज्ञान करती इन्द्रियना व्यपदेशने पामे छे. माटे अहीं भावेन्द्रियनुं ग्रहण करवाथी आत्मानुं ग्रहण थयु अने तेथी तो तमारे इष्ट एवो समन्वय थयो ज नहीं. कारण के समन्वय जेमने इष्ट छे तेमने तो द्रव्येन्द्रियने प्रमाणरूपे स्वीकारवी पडे तेम नथी तो कयी रीते तमारो समन्वय सधायो ते विचारो..
वळो वधारे धृष्टतापूर्वक पूछवामां आवे के इन्द्रियप्रत्यक्षने सांव्यवहारिकप्रत्यक्ष एवं शा माटे कहथु? तेनुं प्रयोजन मात्र समन्वय ज हतुं ? आम कहेनारने केवी रीते समजावयु के आ तो नयवादनी एक विशिष्ट प्ररूपणा छे अने ते विशिष्ट अपेक्षाथी बधांज ज्ञान प्रत्यक्ष छे कोइ ज्ञान परोक्ष नथी. पू. सिद्धसेन दिवाकर सू म. सर्व ज्ञानने प्रत्यक्ष कहे छे. 'एक प्रमाणम् अर्थक्यात्, ऐक्यम् एतल्लक्षणैक्यतः' अने पछी सिद्धसेनगणि पण ते श्लोकनी अवतरणिकामां 'विशुद्धशब्दनयाभिप्रायेण एकमेव प्रत्यक्ष प्रमाणम्' एम कहे छे. वळी इन्द्रियोने पारमार्थिक प्रत्यक्ष माननारना मते तो आंखथी पदार्थज्ञानमां अंधकारमा दीपक अथवा दिवसना आलोकने कारण मानवामां आवे छे. पण दीपक अने आलोकने प्रमाण नथी मानता. तेम ज्ञान करनार आत्माने इन्द्रियो साधनरूप छे तेथी तेने प्रमाण केवी रीते कहेवाय ? तत्त्वतः इन्द्रियो प्रमाण बनी शके नहीं. कोइ कहे, के इन्द्रियो साक्षात् उपलंभक छे तो ते वात टकी शकती नथी. कारण के इन्द्रियोनो नाश थया पछी पण पदार्थनुं स्मरण थाय छे. ते इन्द्रिय साक्षात् उपलंभक
॥१५॥
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नन्दिसूत्रम् ।
॥१६॥
होय तो बनी शके नहीं. साक्षात् ज्ञान करनार तो रह्यो नहीं तो पछी स्मरण केवी रीते थाय ?
घरनी बारीमांथी जोनार मनुष्य बारी लूटी गया पछी त्यां नूतन बारी मुक्या पछी पण ए बारी | IIGI प्रस्तावना। द्वारा अनुभूत पदार्थ- स्मरण सारी रीते करी शके छे. पण (मनुष्य विना) बारी पदार्थडे स्मरण करी शके ज नहीं. ज्ञान गुण ए आत्मानो गुण छे. अने इन्द्रियो बारीनी जेम साधन छे. पण प्रमाणरूप नथी. इन्द्रियज्ञाननो मति अने श्रुतमा अंतर्भाव करवामां आवेलो छे. एटले मति अने श्रुत ए परोक्ष छे. ज्यारे अवधि आदि प्रत्यक्ष छे. जे ज्ञानमा आत्माने इन्द्रिय आदि साधनोनी मदद लेवी पडे नहीं, ते ज्ञानने प्रत्यक्ष कहेवामां आवे छे. अर्थात् सीधो आत्मा ज ज्ञान करे तेवा ज्ञानने प्रत्यक्ष कहेवामां आवे छ अने जेमां इन्द्रिय आदिनी मदद लेवी पडे तेने परोक्ष कहेवामां आवे छे. अहीं अक्ष एटले आत्मा लेवानो छे. तेथी चक्षु आदि इन्द्रियो प्रमाण बनी शके नहीं, छेवटना सर्व दर्शनकारोने ज्ञान करनार आत्माज छे एम तो मानवुज पडे छे. आंख खेंच्या पछी पण चक्षु द्वारा मेळवेल ज्ञान- स्मरणं करनार आत्मा छे. माटे तेनो अनुभविता आत्मा ज छे. इन्द्रियोनो सनिकर्षादि आलोक आदिनी माफक साधन छे. आथी तेने प्रमाण कहेवाय नहीं. आज वस्तुनुं न्यायनी दृष्टिए विशद वर्णन विशेषावश्यकनी स्वोपज्ञ टीकामां तेमज पू. मलधारी हेमचन्द्र महाराजनी ते परनी टीकामां छे. ते वधु जाण
॥१६॥ वानी इच्छावाळाए त्यां जोइ लेवु.
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नन्दिसूत्रम् ।
॥१७॥
प्रस्तावना।
।
वळी एम पण दलील करवी सर्वथा अयोग्य छे के तेओए पण 'इन्दियमणोभव' जं तं संववहारं पच्चक्ख' (गाथा ९५ पृ. २४) इन्द्रिय अने मनथी थतो ज्ञानने संव्यवहार प्रत्यक्ष तो कधुं छे माटे तेमणे समन्वय करवा माटे ज आम कयु ते पण योग्य नथी. कारण के ते समन्वय करवा माटे नथी पण व्यवहारनयनी प्ररूपणा छे. तेथी ज पू. जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण तेमज नंदीचूर्णिकार जणावे छे के, "तेषामपि च 'त' संव्यवहारत एव तत् प्रत्यक्षम् न परमार्थतः' अने इन्द्रियोर्नु पण ते संव्यवहारथी (व्यवहारनयथी प्रत्यक्ष छे) परमार्थथी नथी' 'परमत्थओ पुण चिंतमाणं एतं परोक्ख' परमार्थथी विचारता ए परोक्ष ज छे. वळी आगळ वधीने एमज कहेवा जाय छे के व्यवहार अने निश्चयनयनी योजना पण समन्वय माटे ज छ तो कहेवु जरूरी छे के नयवादने ज केवल समन्वयवाद कहेनार अने समजनारना. ज्ञानने धन्यवाद घटे छे.
अहीं वाचकोने इन्द्रियने प्रत्यक्ष प्रमाण माननारानी मान्यता केवी छे, अने ते क्या सुधी योग्य छ तेनो ख्याल आपवा माटे थोडोक विचार करवामां आवे छे. तेओर्नु लक्षण छे के 'प्रमाकरणं प्रमाणम्' ते प्रमाना प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, अने शब्द तेवा चार भेद छे. नेमांथी इन्द्रिय अने। मनथी थता ज्ञानने तेओ प्रत्यक्ष प्रमा कहे छे, अने तेनुं कारण होवाथी इन्द्रियोने पण तेओ प्रत्यक्षप्रमाण कहे छे. आ व्यवस्था द्वारा 'जड'ने पण प्रमाण मानी लीधुं. जो के अनुमानादि प्रमामां ते ज्ञान ज प्रमाण छे.
॥१७॥
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नन्दिसूत्रम् । ॥१८॥
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त्यारे प्रत्यक्ष माटे ज्ञानथी पृथक् इन्द्रियोने तेमने कारण मानवी पडी. तेथी जैनदर्शनकारनी माफक तेमना मते सामान्यनुं कोई एक कारण रधुं नथी. ते खामीनुं द्योतक छे. वळी जेम इन्द्रियो कारण बने छे ते संनिकर्षादि पण कारण बनी ज जाये छे. कारण के संनिकर्षथी निंविकल्पज्ञान अने ते द्वारा: सविकल्पज्ञान थाय छे. तेथी ते संनिकर्षं पण कारण छे. अर्थात् ते पण प्रमाण बनी गयो आ मतमां इन्द्रिय प्रत्यक्ष मात्र प्रति पण कोइ अनुगत करण नथी पण व्यवस्थानी खामी छे. वळी परतः प्रामाण्यवादीना मते ज्ञान पण कारण बनी जशे त्यारे एक ज्ञानने ज प्रमाण मानवु ते इष्ट छे, अने ते ज जैनशास्त्रकारोए 'स्वपरव्यवसायि ज्ञानं प्रमाणम् कहीने स्वीकार्य छे. तेथी सर्वत्र ज्ञानने ज प्रमाणरूप मानवाथी आवी अव्यवस्थानो संभव थशे नहि आम स्पष्ट प्रतिवाद होवा छतां पण समन्वय समन्वयनी वातो करी मात्र एक ज बाजुने बहार पाडनार पंडितोनी शास्त्रावगाहिताने केवा स्वरूपमां बिरुदाववी ? [७] [C] अहीं 'नो' (शब्दनो) अर्थ सर्व प्रतिषेधमां छे. जेथी चारे प्रकारनी इन्द्रियो तेम ज बन्ने प्रकारना मननो निषेध थाय छे, टीकाकार जगावे छे के 'इन्द्रियप्रत्यक्षं न भवति इति नोइन्द्रियप्रत्यक्षम् ' 'नो' शब्द प्रतिषेधक छे. जो के अहीं इन्द्रिय प्रत्यक्षना पांच भेद गणवामां आव्या छे. तेमां मनने तो गणान्युं नथी. तेथी मनथी थता ज्ञाननो समावेश न थयो माटे अहीं पण ते नंदीसूत्रकारने समन्वय ज इष्ट हृतो तेम कहेनारने पू. जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणना मतनो पण तेनाथी केवी रीते समावेश थाय छे ते बतावे छे, अने
प्रस्तावना |
॥१८॥
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प्रस्तावना।
नन्दिसूत्रम् । ॥१९॥
(१) 'नो' अनिन्द्रियज्ञान के जे आत्माने प्रत्यक्ष छे. तेना त्रण विभाग (१) अवधिज्ञान (२) मनःपर्यवज्ञान (३) केवलज्ञान छे. टी. पृ. २५ । “आह - न सूत्रे विशिष्याभिहितं परोक्ष मनोऽभिमतम् इति । उच्यते तत् प्रत्यक्षमपि नैवोक्तम् , आह-ननूक्तम्- 'इन्दियक्यक्खच नोइन्दियपचक्ख'च [नंदी०] इति । नोइन्द्रियं च मन इति, उच्यते - न, सर्वनिषेधमात्रवचनत्वानोशब्दस्य । कथम् , अवध्यादिविशेषणात् । अवध्यादित्रयस्य च मनोनिमित्तत्वप्रसङ्गात् , ततः च मनःपर्याप्तिलब्धिशून्यस्यावधिज्ञानोपयोगाभावः स्यात्, अनिष्ट चैतत् , यस्मादुक्तम्- 'चुतेमित्ति जाणति' सिद्धस्य चाज्ञानित्वप्रसङ्गः, अमनस्कत्वात् ।" (विशेषावश्यकभाष्यस्वोपज्ञटीका)
___“ अवधिज्ञान" [८] प्रथम अवधिज्ञानना भवप्रत्यय अने क्षायोपशमिक तेवा बे भेद बताववामां आव्या छे. तेमांनुं प्रथम अवधिज्ञान ।
नारक तेमज देवोने होय छे, अने बोजो भेद मनुष्य तेमज तिर्यचने होय छे अहीं चूर्णिकारी तेमज टीकाकारो खुलासो आपे छ के बन्ने ज्ञानमा क्षयोपशम तो कारण छ ज, पण देव अने नरकने ते 'भव पामतां निश्चित अवधिज्ञान थाय छे माटे मूळकारे आवा बे भेद पाडया छे. त्यारवाद मूळमां ते ज्ञान तदावरणीय कर्म (अवधिज्ञान तेम अवधिदर्शनना) आवरणना क्षयोपशमथी थाय छे, ते जणावे छे. आगळ ते सूत्रमा “अहवा गुणपडिवण्णस्स अणगारस्स ओहिणाणं समुप्पज्जति' तेम जणावेल छ तेनो अर्थ शुं करवो? ते ते विषयना श्रद्धालु विद्वानोए विचार करवा योग्य छे. आगळ अधिज्ञानना प्रकारान्तरे छ भेद पाडे छे.
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॥१९॥
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नन्दिसूत्रम् ।
॥२०॥
[१] आनुगामिक [२] अनानुगामिक [३] वर्धमान [४] हीयमान [५] प्रतिपाति [६] अप्रतिपाति. आनुगामिकनो अर्थ पाछळ जनार छे. आ ज्ञान जे प्राणीने उत्पन्न थाय छे तेने सदैव तेनी साथे रहेनारु होय छे. तेथी
GL प्रस्तावना। आनुगामिक अवधिज्ञान कहेवाय छे. तेमां पू. हरिभद्र सू. म. लोचन- दृष्टांत आपे छे. पछी तेज अवधिज्ञानना वे भेद पाडया छे. [१] अंतगत अने [२] मध्यगत. तेमांना प्रथमनो परिचय आपतां जणावे छ के, [१] अहीं सकल जीवमा उपयोग होवा छतां पण साक्षात् आत्माना एक देशथी (छेडाथी) वस्तुनुं ग्रहण थतु होवाथी आत्मा आत्मप्रदेशान्तगन्त छे. [२] अथवा औदारिक शरीरनी अपेक्षाए एक देशथी छिडेथी] वस्तुनु ग्रहण थतु' होवाथी औदारिकशरीरान्तगत छे. [३] अथवा ते अवधिज्ञानी यथोक्त प्रकाशित क्षेत्रना अंतमा रहेल होवाथी क्षेत्रान्तगत अवधि छे. अर्थात् आत्मप्रदेशान्तगत, औदारिकशरीरान्तगत तेमज क्षेत्रान्तगत एम त्रण अर्थ अन्तगतथी समजवा. तेवी ज रीते मध्यगतना पण त्रण अर्थ समजवा. [१] आत्मप्रदेशमध्यगत [२] औदारिकशरीरमध्यगत [३] अने तेना प्रकाशित क्षेत्रना मध्यमां (ते व्यक्ति) रहेली होवाथी प्रकाशित-क्षेत्रमध्यगत. त्यारबाद आनुगामिक अंतगत अवधिज्ञानना त्रण भेद दृष्टांत सहित बताव्या छे. [१] पुरतः अंतगत [२] मार्गतः अंतगत [३] पार्श्वतः अंतगत [१] तेमांनु प्रथम दृष्टांत आपे छ के जेम चुडलिकादि प्रकाश आपती वस्तुने आगळ लइने चालतो मनुष्य ||
॥२०॥ आगळनो प्रदेश जोइ शके छे तेम. आ अवधिज्ञानवाळो मनुष्य आगळना प्रदेश (क्षेत्रने) जाणी शके छे.
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,
नन्दिसूत्रम् ।
॥२१॥
प्रस्तावना।
[२] तेवी ज रीते बीजो अवधिज्ञानी पाछळ चुडलिकादिने लइने चालता मनुष्य जेवो छे. [३]. अने त्रीजो अंतगत अवधिनो भेद बाजुमा चुडलिकादिने लइने चालता मनुष्य जेवो छ
ज्यारे मध्यगत (आनुगामिक) अवधिज्ञानवाळो प्रदीपादिनी सामग्रीने मस्तक उपर लइने चालता मनुष्य जेवो छे. जेथी तेओना ज्ञानना क्षेत्रमा पण तेवो ज फेर पडे छे. ते आगळना सूत्र द्वारा जणावे छे. पुरतः अंतगत, मार्गतः अंतगत, पार्श्वत: अंतगत अने मध्यगत अनुक्रमे आगळ रहेला, पाछळ रहेला, बाजुमा रहेला तेमज चारे बाजुना, संख्यात के असंख्यात योजनने जाणी शके छे. अहीं 'जाणइ पासई' प्रयोग नोधवा योग्य छे. आम आनुगामिक अवधिज्ञान- वर्णन पूर्ण करे छे. त्यारबाद बीजो भेद अनानुगामिक छे. तेनो परिचय आपे छे. जेम सांकळे बांधेलो दीवो ज्यां रहेतो होय त्यां ज प्रकाश आपे छे, तेम आ अवधिज्ञानीने जे क्षेत्रमा अवधिज्ञान उत्पन्न थलु होय, त्यां आवे त्यारे ज तेने तेटला क्षेत्रनुं (क्षेत्रमा रहेला पदार्थोंर्नु) ज्ञान थाय छे. ।।
अहि आपेल औदारिकशब्द पण एम सूचवतो मालुम पडे छे के आ भेद औदारिकशरीरवाळाने लागु पडे छे. अन्यत्र जाय तो ते अवधिज्ञानथी ज्ञान थाय नहीं. माटे ज तेने अनानुगामिक अर्थात् पाछळ नहीं जनारु कहेवामां आव्यु छे. तेमां हेतु आपता पू. हरिभद्रसूरीश्वरजी म. जणावे छे के 'तदावरणक्षयोपशमस्य तत्क्षेत्रसंबन्धसापेक्षत्वात् ' अर्थात् तेनो (अवधिज्ञान-अवधिदर्शनावरणनो) क्षयोपशम ते क्षेत्र साथे सापेक्ष होवाथी आम बने छे. [३] ते पछी वर्धमान अवधिज्ञान- वर्णन छे.
॥२१॥
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मन्दिसूत्रम्।
॥२२॥
I
प्रस्तावना।
तेना प्रथम सूत्रना विवेचनमा पू. हरिभद्र सू. म. जणावे छे के 'ते वर्धमान अवधि प्रशस्त अध्यवसायस्थानोमां IN वर्तता (अर्थात् अविरत सम्यग्दृष्टि) तेमज वर्धमान चारित्रवाळा (अर्थात् देशविरत सर्वविरत) जे विशुद्ध भावमा अने विशुद्ध चारित्रमा वर्तता होय छे, तेमने सर्व रीते चारे बाजुथी अवधि वधे छे. ज्यारे चूर्णिकार 'पसत्थअज्झवसाणातो य चरणादिविशुद्धितो य चरणपच्चयलद्धीए बड़ढी भवति' अर्थात् प्रशस्त अध्यवसायथी चरणात्मकविशुद्धि थाय छे. तेनाथी चरणप्रत्ययिक आत्मलब्धिनी वृद्धि थाय छे. आम तेओने चरणप्रत्ययिक लब्धिनी वृद्धि थाय छ तेम जणावे छे. आना समाधानमा एम जणाववानुं मन थाय छे के चूर्णिकारनु कथन लोकावधि तेमज परमावधि माटे होय. जेना अधिकारी श्रावक होइ शके नहीं. ज्यारे पू. हरिभद्रमरिमहाराजे आ बे साथे अन्य वर्धमान अवधिनो पण समावेश थाय ते माटे आम जणाव्यु हशे एम संभवे छे. तेथी एटलुज नकी थाय के पंचम गुणस्थानके लोकावधि तेमज परमावधि न होय. त्यारवाद नियुक्तिनी गाथाओ मूकवामां आवी छे. जेमां अवधिनुं जघन्य मध्यम अने उत्कृष्ट क्षेत्र बताव्युं छे. ते आ प्रमाणे समजवु.
ज्यारे १००० योजनना देहमानवाळो मत्स्य पोताना शरीरमांथी नीकळीने क्रमे करीने पोताना आत्मप्रदेशने संकोचतो पोताना ज शरीरनी बहारना एक देशमा सूक्ष्मपनक (निगोद)रूपे पेदा थाय छे. त्यारे तेमां उत्पन्न थवानी अपेक्षाए त्रीजा समयमां एनी जेटली अवगाहना होय तेटला प्रमाण- अवधिज्ञाननुं जघन्य क्षेत्र जाणवु'.
[१] अहीं पू. हरिभद्रसूरि महाराजे 'वर्तमान' एवो अर्थ करेल छे, अने तेओए 'वट्टमाण एवो पाठ स्वीकार्यों छे.
॥२२॥
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प्रस्तावना।
नन्दिसूत्रम् । ॥२३॥
त्यारबाद उत्कृष्ट क्षेत्र माटे जणावे छे के असंख्यात लोकाकाश जेटला खंडो अलोकमां पण जाणवानु तेर्नु सामर्थ्य छे. त्यारवाद अवधिना मध्यम क्षेत्रो बताक्तां काळ अने क्षेत्रनो केवो संबंध छे ते दर्शावेल छे. अर्थात् केटला क्षेत्रनु अवधि होय तेने केटला कालर्नु अवधि होय ते नीचे प्रमाणे छ:
क्षेत्र [१] १अंगुलनो असंख्यातमो भाग
[१] २आवलिकानो असंख्यातमो भाग [२] अंगुलनो संख्यातमो भाग
[२] आवलिकानो संख्यातमो भाग [३] एक अंगुल प्रमाण क्षेत्र
[३] कंइक न्यून एची आवलिका [४] ३अंगुलपृथक्त्व
[४] पूर्ण आवलिका [५] हस्तमात्र
[५] अंतर्मुहर्त [६] १ गव्यूत (गाउ)
[६] किंचित् न्यून दिवस [७] १ योजन
[७] दिवसपृथकत्व (२ थी ९ दिवस) [८] २५ योजन
[८] कांइक न्यून पक्ष (पखवाडीयु) अहीं जे क्षेत्रनु माप बताब्यु छे तेटला क्षेत्रमा रहेला पदाथों ने जाणे अने जुए एम समजवु. २ अहिं जें कालनु माप बताव्यु छे तेटला भूतकालमां थयेला पदार्थना पर्यायो अने भविष्यमा थनारा पर्यायो जाणे अने जुए एम समज'. ३. बेथी नव आंगळनी संख्या.
.॥२३॥
१
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प्रस्तावना।
नन्दिसूत्रम् ।
॥२४॥
[8] सकल भरतक्षेत्रप्रमाण
[९] अर्धमास पूर्ण [१०] जंबूद्वीपप्रमाण (१ लाख योजन)
[१०] साधिक मास [११] मनुष्यलोकप्रमाण
[११] १ वर्ष [१२] रुचकवरद्वीपप्रमाण
[१२] वर्षपृथक्त्व [१३] संख्यातद्वीपसमुद्रप्रमाण
[१३] संख्यात वर्ष (१००० वर्षथी वधु) [१४] असंख्यात द्वीपसमुद्र
[१४] असंख्यातकाल (पल्योपमादि) आखरे तेमनो नियम दर्शावतां जणावे छे के 'कालनी वृद्धि थतां द्रव्य, क्षेत्र, काल अने भाव चारे वधे. क्षेत्रनी वृद्धि थतां द्रव्य भाव तो अवश्य वधे पण कालनी भजना अर्थात् वधे पण खरो अने न पण वधे. आम थवानुं कारण जणावतां टीकाकार खुलासो आपे छ के क्षेत्र करतां द्रव्य सूक्ष्म छे, अने द्रव्य करतां पर्याय सूक्ष्म छे.
[४] हीयमान अवधिज्ञान:- जेम शुभ अध्यवसायोवडे अवधिज्ञान वधे छे. तेम अप्रशस्त अध्यवसायस्थानोमा वर्तता (अविरत सम्यग्दृष्टि) तेमज वर्तमानचारित्रवाळा, (देशविरति आदि) ते संक्लेशवाळा होय अथवा जे संक्लिष्ट चारित्रवाळा होय छे, तेमनु अवधिज्ञान चारे बाजुथी घटे छे.
[५] प्रतिपाति अवधिज्ञान:- प्राप्त थयेलं जे अवधिज्ञान एकाएक दीपकना घुझावानी जेम नाश पामे छे,
॥२४॥
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नन्दिसूत्रम् ।।
॥२५॥
प्रस्तावना।
ते प्रतिपाति अवधिज्ञान समजवु. समग्र लोकने पण जाणीने अवधिज्ञान चाल्युं जाय तेम पण बने. कारण के प्रतिपातिनो उत्कृष्ट विषय समग्र लोक छे.
[६] अप्रतिप्राति-अवधिज्ञानः- लोकावधि करतां जरा पण आगळ वधे अर्थात् अलोकाकाशना एक प्रदेशने जोवानुं सामर्थ्य जेमां होय ते अवधिज्ञान अप्रतिपाति समजवु. आम छ भेदनुं वर्णन समाप्त थयु. हवे द्रव्यादि। विषयना भेदथी अवधिज्ञाननो भेद जणावे छे. अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र, काळ तथा भावनो जघन्य अने उत्कृष्टथी केटलो विषय होय ते जणावे छे. जघन्य
उत्कृष्ट [१] द्रव्य:- अनन्त रूपी द्रव्य
[१] सर्व रूपी द्रव्य [२] क्षेत्र:- अंगुलनो असंख्यातमो भाग [२] अलोकमां पण लोकप्रमाण असंख्यात खंडो [३] कालः- आवलिकानो असंख्यातमो भाग [३] असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी [४] भाव:- अनन्त भाव
[४] अनन्त भाव (सर्व भावोनो अनन्तमो भाग) पण आ अनन्त भाव जघन्यथी जे अनन्त भाव छ तेना करतां अनन्तगुणा समजवा. ते पछी एक संग्रहगाथा छे. जेमां देव, नरक अने तीर्थकर भगवंतो अवश्य अवधिज्ञानवाळा होय छे. ज्यारे बीजाओ माटे तेवो नियम नथी ते जणावेल छे. ते गाथा चूर्णिकारे लीधेली नथी. आम विविध भेदपूर्वक अवधिज्ञान- निरूपण पूर्ण करे छे.
॥२५॥
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नन्दिसूत्रम् । ॥२६॥
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मनःपर्यवज्ञाननुं स्वरूप
प्रथम मनः पर्यवज्ञान मनुष्यगतिमांज उत्पन्न थाय छे. तेमां पण केटली केटली योग्यतावाळाओने उत्पन्न थाय छे, ते योग्यताओनुं वर्णन करेल छे. तेना वे भेद छे. ऋजुमति अने विपुलमति चिन्तनमां रहेला द्रव्यना पर्यायोमाथी केटला पर्यायने जाणनार ऋजुमतिज्ञान छे, चिन्तनमां रहेला द्रव्यना घणा पर्यायाने जाणनार विपुलमति ज्ञान छे. तेनो द्रव्य क्षेत्र, काळ अने भावनी अपेक्षाए चार प्रकारे विषय बतावे
छे.
ऋजुमतिनो विषय
द्रव्यथी:- अनंता अनंतप्रदेशी स्कन्धो
क्षेत्रथी:- जघन्यथी - अंगुलनो असंख्यातमो भाग उत्कृष्टथीः- अधोदिशामां - रत्नप्रभाना क्षुल्लक प्रतर सुधी
ऊर्ध्व दिशामां :- ज्योतिषीना उपरना तळीआ सुधी तिर्यग्दिशामां :- मनुष्य क्षेत्र सुधी कालथी :- जघन्यथी पल्योपमनो असंख्यातमो भाग
विपुलमतिनो विषय
ते ज स्कन्धो वधारे प्रमाणमां अने विशुद्ध रीते
दरेक दिशामां अढी अंगुल अधिक अने निर्मळपणे
ऋजुमति करता वधारे अने निर्मळ
प्रस्तावना |
॥२६॥
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|lal
प्रस्तावना।
नन्दिसूत्रम् । ॥२७॥
उत्कृष्टथीः- मोटो पल्योपमनो असंख्यातमो भाग
ऋजुमति करतां वधारे अने निर्मळ भावथी:- अनन्ता भाव
विशेष अनन्ता भाव
केवळज्ञान- स्वरूप जुदी जुदी अपेक्षाए केवळज्ञानना अनेक भेदोन वर्णन कर्यु छे. जेम के १. भवस्थ केवळज्ञान २. सिद्ध केवळज्ञान भवस्थ केवळज्ञानना बे भेद छे. १. सयोगिभवस्थ केवळज्ञान २. अयोगिभवस्थ केवळज्ञान. सयोगिभवस्थ केवळज्ञानना बे भेद छे. १. प्रथमसमय सयोगिभवस्थ केवळज्ञान २. अप्रथमसमय सयोगिभवस्थ केवळज्ञान अथवा १. चरमसमयसयोगिभवस्थ केवळज्ञान २. अचरमसमयसयोगिभवस्थ केवळज्ञान. एवीज रीते अयोगिभवस्थ केवळज्ञानना पण भेदो पाडया छे. सिद्ध केवळज्ञानना बे भेद छे. १. अनंतर सिद्धकेवळज्ञान २. परंपरसिद्धकेवळज्ञान. अनंतरसिद्ध केवळज्ञानना १. तीर्थसिद्ध २. अतीर्थसिद्ध विगेरे पंदर भेदो गणावेला छे.
परंपरसिद्ध केवलज्ञान अनेक प्रकारचें छे. अप्रथमसमय, संख्यातसमयसिद्ध, असंख्यातसमयसिद्ध यावत् , अनन्तसमयसिद्ध. आम केवलज्ञानना भेदोनु वर्णन करीने द्रव्यादि चार विषयोनी अपेक्षाए तेना भेदर्नु वर्णन करे छे.
१. द्रव्य-सर्व द्रव्य २. क्षेत्र-सर्व क्षेत्र ३. काल-सर्वकाल ४. भाव-सर्वभावने जाणे अने जुए.. आम केवलज्ञाननु वर्णन पूर्ण करतां ते ज्ञान अप्रतिपाति, शाश्वत अने एक प्रकारचें छे तेम जणाव्यु छे. [९] आमिनिवोधिकज्ञान (मतिज्ञान)-हवे आगळ निर्देश करेल परोक्षज्ञानना अहीं बे भेद पाडे छे. [१] आभिनिबोधिक
॥२७॥
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प्रस्तावना।
नन्दिसूत्रम् ।
॥२८॥
परोक्षज्ञान [२] श्रुत परोक्षज्ञान. त्यारबाद जणावे छे के ज्यां आभिनिबोधिकज्ञान छे त्यां श्रुतज्ञान छे अने ज्यां श्रुतज्ञान छे त्यां आभिनिवोधिक ज्ञान छे. आम अन्योन्यानुगत होवा छतां पण आचार्यों द्वारा प्ररूपायेल भेद व्युत्पत्ति द्वारा दर्शावे छे. त्याबाद भेदने वधु स्पष्ट करतां कहे छ के श्रुतज्ञान मतिपूर्वक छ पण श्रुतपूर्वक मति नथी. अहीं वधु स्पष्टता करता टीकाकारो विशेषावश्यक भाष्य अनुसार ते वातने वधु स्पष्ट करे छे. त्यारवाद सम्यग्दृष्टिनी मति ते मतिज्ञान छे अने मिथ्यादृष्टिनी मति ते मतिअज्ञान छे. तेवीज रीते सम्यग्दृष्टिनु श्रुत ते श्रुतज्ञान छे, अने मिथ्यादृष्टिनु श्रुत ते श्रुतअज्ञान छे तेम जणावे छे. आम ते बन्नेनु' कथन सामान्य आभिनिबोधिकपरोक्षज्ञानना बे भेद दर्शावे छे.
आभिनिवोधिक परोक्षज्ञान के प्रकारे छे:
१. श्रुतनिश्रित २. अश्रुतनिश्रित. तेमां द्वितीय भेदमां अल्प वक्तव्य होवाथी ते अश्रुतनिश्रितना भेद प्रथम बतावे छे. १. औत्पत्तिकी २. वैनियकी ३. कामिकी ४. पारिणामिकी. तेमां प्रथम औत्पातिकीमतिनु लक्षण बतावी घणा रमुजी एवा २३ दृष्टांत आप्या छे. पछी वैनयिकी बुद्धिनु लक्षण देखाडवापूर्वक १५ दृष्टान्त मूकवामां आव्या छे. ते पछी कार्मिकी बुद्धिनु लक्षण १२ दृष्टांतपूर्वक निरूपण करवामां आव्युं छे. ते ज प्रमाणे अनेक तिहासिक पुरुषोना दाखला सहित अने लक्षणपूर्वक पारिणामिकी बुद्धीनुं निरूपण करवामां आव्युं छे. जेमां अभयकुमार, चाणाक्य, स्थूलभद्र, वज्रस्वामी आदि २१ दृष्टांत छे. पछी श्रुतनिश्रितना अवग्रहादि भेदो स्पष्ट कर्या छे. ते पछी ते बधानो परिचय आपवा साथे भेद दर्शाच्या छे. साथे साथे अवग्रह आदिना एकार्थको (पर्याय शब्दो) गणाव्या छे.
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नन्दिसूत्रम् ।
॥२९॥
ते पछी अवग्रहादिनी काळमर्यादा बतावी छे अने मल्लक (कोडीयुं) आदि दृष्टांतथी तेनी समजण आपी विषय स्पष्ट कर्यो छे. ते पछी तेना द्रव्यादि चार विषयो बताव्या छे. जेमके शब्द स्पृष्ट ग्रहण कराय छे, रूप अस्पृष्ट ग्रहण कराय छे. आम प्राप्यकारी अने अप्राप्यकारीना भेद बताव्या छे पण प्राप्यकारी इन्द्रियोना विषयमां पण शब्द करतां गंध, रस अने स्पर्शमां विशेषता बताववामां आवी छे, जे विचार जैन दर्शन सिवाय अन्य दर्शनमां भाग्ये ज जोवा मळशे. आम मतिज्ञान परोक्ष छे, तेनुं निरूपण समाप्त करे छे.
अहीं उपर जणावेल भेदोनी सूचि तेमज पर्याय शब्दो नीचे मुजब जाणी लेवा.
श्रुतनिश्रित मतिज्ञान
व्यञ्जनावग्रह ४
अवग्रह
अर्थावग्रह
६
इद्दा
I
६
1
अवाय
I
६
धारणा
I
६
व्यञ्जनावग्रहना चक्षु अने मनने छोडीने चार इन्द्रियवडे ४ भेद अर्थावग्रहादि प्रत्येकना ५ इन्द्रिय अने मन एम छ वडे भेद गणवाथी २४ भेद. एम २८ भेद मतिज्ञानना थाय छे.
प्रस्तावना |
॥२९॥
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मन्दिसूत्रम् । 113011
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[A] अवग्रहना पर्याय:- १. अवग्रहणता २. उपधारणता ३. श्रवणता ४ अवल बनता ५. मेधा. [B] ईहाना पर्याय:- १. आभोगनता २. मार्गणता ३. गवेषणता ४. चिन्ता ५. विमर्श. [C] अवायना पर्याय:- १. आवर्तनता २ प्रत्यावर्तनता ३. अपाय ४. बुद्धि ५. विज्ञान. [D] धारणाना पर्याय:- १. धारणा २. साधारणा ३. स्थापना ४ प्रतिष्ठा ५. कोष्ठ
[E] आभिनिबोधिकना पर्याय ( मतिज्ञानना पर्याय:- १. ईहा २. अपाय ३. विमर्श ४. मार्गणा ५. गवेषण ६. संज्ञा ७ स्मृति ८. प्रज्ञा
[१०] श्रुतज्ञान:- त्यारबाद परोक्ष श्रुतज्ञानना १४ भेद बतावे छे. पछी ते १४मा भेदना पेटाभेदने पूर्ण करतां परोक्षज्ञान, श्रुतज्ञान अने ज्ञानमार्गनुं निरूपण पूर्ण करतां ग्रंथनी समाप्ति करे छे.
प्रत्येक भेद-प्रभेदो नीचे मुजब जाणी लेवा.
[१] अक्षरश्रुतः- संज्ञाक्षर - [1]संज्ञाक्षर एटले अक्षरना संस्थाननी आकृति [2] व्यंजनाक्षर अकारादि अक्षरों उच्चारण. [ 3 ] लब्धिअक्षर शब्द- अर्थनी विचारणाने अनुसरतो बोध. आगळना वे भेद द्रव्यश्रुत छे. ज्यारे त्रीजो भेद भावश्रुत छे. मन अने इन्द्रियना विज्ञानथी उत्पन्न थती घटादि पदार्थनी अक्षरलब्धि जे समजण ते लब्धिअक्षर समजवो. तेना ५ इन्द्रिय अने मनना कारणे छ भेद छे.
[२] अनक्षर श्रुतः- तेना उच्छवास, निच्छ्वास, निष्ठयुत (थुंकवु ) खांसी, छींक, निसिंघन, अनुस्वारादि अनेक प्रकारो छे.
प्रस्तावना |
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संज्ञिश्रुतः-
हेतुपदेशिक सा संजिश्रुत
प्रस्तावना।
नन्दिसूत्रम् । ॥३ ॥
[३] संज्ञिश्रुतः- [A] कालिकोपदेशिक संज्ञिश्रुतना २ भेद छे. (1) संज्ञिने होय छे (II) असंज्ञिने होय छे.
[B] हेतुपदेशिक संज्ञिश्रुतः- उपर मुजबना बे भेदवाळु छे. [c] दृष्टिवादोपदेशिक संज्ञिश्रुत तेना उपर प्रमाणे २ भेद छे.. [1] श्रुतनिश्रित-क्षयोपशमथी प्राप्त थयेल. [I] अश्रुतनिश्रित-क्षयोपशमथी प्राप्त थयेल.
(आ सम्यग्दृष्टिनेज होय तेथी सम्यग्श्रुत ज जाणवु.) [४] असंज्ञिश्रुतः- आनो भेद जुदो नथी बताव्यो. तेथी जे उपर असंज्ञिश्रुतनो भेद बताव्यो छे, ते ज समजी लेवो.
E- तेना १२ भेद छ
स्थानांग (४) समवायांग (५)
याकरण (११) विपा
(१) आचारांग (२) सूयगडांग (३) स्थानांग (४) समवायांग (५) व्याख्याप्रज्ञप्ति (६) ज्ञाताधर्मकथा (७) उपासकदशांग (८) अंतकृदशांग (९) अनुत्तरौपपातिक (१०) प्रश्नव्याकरण (११) विपाकसूत्र (१२) दृष्टिवाद. अहिं जणावे छे के जे संपूर्ण दशपूर्वी छे, तेने नियमथी (भाव) सम्यक् श्रुत छे. तेथी ओछा ज्ञानवाळामां भाव सम्यकश्रुतनी भजना समजवी.. मिथ्याश्रुतः- अहीं मिथ्यादृष्टिविरचित अनेक ग्रंथोना नाम जणाव्या. छे. जेनो परिचय आपे छे:आमां पण एक विशिष्टता बतावी छे के आ द्रव्य मिथ्याश्रुत पण सम्यक्श्रुत बने छे. पछी उपरोक्त विशिष्टतानुं कारण जणावतां फरमावे छे के, ते न मिथ्याश्रुत मिथ्यादृष्टि कोइक जीवने सम्यकत्व- पण कारण बने छे. तेथी तेनु मिथ्याश्रुत पण कदाचित् सम्यक्श्रुत बने छे.
[६]
॥३१॥
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नन्दिसूत्रम् ।
॥३२॥
प्रस्तावना।
(७) सादि (८) अनादि (९) सपर्यवसित (१०) अपर्यवसितश्रुत. आ चारेने संक्षेपमा बतावे छ- | आ द्वादशांगी पर्यायार्थिक नयनी अपेक्षाए सादिसपर्यवसित छे अने द्रव्यार्थिक नयनी अपेक्षाए अनादिअपर्यवसित छ.' अहीं ते नयने स्थाने अनुक्रमे व्यवच्छित्तिनय तेमज अव्यवच्छित्तिनय एवो प्रयोग कर्यों छे. ते पछी उपरोक्त विकल्पने द्रव्य, क्षेत्र, काळ अने भावथी विचारे छे. अने ते दर्शावी अंतमा जणावे छे के 'अक्षरनो-ज्ञाननो अनंतमो भाग जीवनो सदाय अनावृत रहे छे. जो एटलो भाग पण आवरण पामी जाय (ढकाइ जाय) तो जीव, जीव तरीके रही शके नहीं. त्यारबाद तेना समर्थनमा दृष्टांत आप्या छे.
[११] गमिकश्रुत [१२] अगमिकश्रुतःगमिकमा दृष्टिवाद, अगमिक-कालिकश्रुतमां एटले प्रायः जेमा गमा बहु ओछा छ, तेवा आचारांगादि ११ अंगनो समावेश थाय छे. त्यारवाद छेल्ला बे भेद दर्शावे छे.
[१३] अंगप्रविष्ट [१४] अंगबाहिर:ते अंगप्रविष्टना १२ भेद छे. ते १२ अंग जाणवा. सम्यक्श्रुतना अधिकारमा जे नाम बताव्या छे तेज जाणवा. अंगबाहिरमा छ आवश्यक [१] सामायिक [२] चतुर्विंशतिस्तव [३] वंदन [४] प्रतिक्रमण [५] कायोत्सर्ग अने [६] प्रत्याख्यान,
आवश्यकव्यतिरिक्तः- तेना बे भेद [१] कालिक [२] उत्कालिक.
॥३२॥
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नन्दिसूत्रम् । ||३३||
त्यारबाद उत्कालिकमा दशवैकालिकादि २९ सूत्रनी २९ भेद बताया छे. अन्य प्रकीणर्क (ग्रंथो) नी देव तीर्थंकर भगवंतना शासनमां ८४००० प्रकीर्णक
गणत्री करावी छे, अने कालिकमा उत्तराध्ययनादि संख्या बतावतां जणावे छे के, प्रथम तीर्थपति ऋषभहता अने प्रभु महावीरना शासनमां संख्यात सहस्र [ पोताना शिष्यनी संख्या जेटला ] प्रकीर्णको होय छे. अथवा तो जे तीर्थंकर प्रभुना जेटला शिष्यो चार बुद्धिथी युक्त होय तेटला प्रकीर्णक - सहस्रो तेमना शासनमां होय छे. त्यारबाद विस्तृत वक्तव्यवाळा छेल्ला भेदमां अंगप्रविष्टमां १२ अंगनी गणत्री कर्या बाद ११ अंगनो विस्तारथी परिचय आपे छे. १२ मा अंगनो परिचय आपतां दृष्टिवादना पांच भेद बतावे छे. [१] परिकर्म [२] सूत्र [३] पूर्वगत [४] अनुयोग [ ५ ] चूलिका. ते परिकर्मना ७ भेद बताव्या छे. त्यारबाद साते सातना अनुक्रमे १४, १४, ११, ११, ११, ११, ११ भेद बतावेला छे. आ साते परिकर्ममां आजीविकामतनो विचार छे. अने तेमां प्रथम छ परिकर्म चार नयथी युक्त छे अने गोशालके प्रवर्तावेला त्रिराशी [जीव, अजीव, जीवाजीव- नोजीव ] नुं निरूपण करनार छे. त्यावाद सूत्रना २२ भेद बतान्या छे, तेना माटे जणावे छे के, पूर्वगतना १४ भेद बतावे छे.
१ उत्पाद पूर्व
२ अग्रायणीय ६ सत्यप्रवाद
ज्ञानप्रवाद
३ वीर्यप्रवाद
७
आत्मप्रवाद
४ अस्तिनास्तिप्रवाद ८ कर्मप्रवाद
प्रस्तावना |
॥३३॥
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प्रस्तावना।
नन्दिसूत्रम्।
॥३४॥
९ प्रत्यक्षप्रवाद १० विद्यानुप्रवाद . ११ अवंध्य १२ प्राणायु
१३ क्रियाविशाल १४ लोकबिन्दुसार । त्यारबाद ते सर्वनो विषय जणावे छे. अनुयोग (दृष्टिवाद) (A) मूळ प्रथमानुयोग (B) गंडिकानुयोग. मूळ प्रथमानुयोगमां धर्मप्रणेता तीर्थकर भगवंतोना चरित्रनुं वर्णन कर्यु छे. ते पछी गडिकानुयोगमां गंडिकाना भेद जणाव्या छे. आवी बीजी पण गंडिकाओनो तेमा समावेश करी लेवो तेम जणावेल छे.
त्यारवाद चूलिका(दृष्टिवाद)मा प्रथम ४ पूर्वनी चूलिकाओ छे. अन्य पूर्वोनी नथी तेम जणावेल छे. एम दृष्टिवादना भेदतुं वर्णन पूर्ण करीने ते समस्त दृष्टिवादनो सामान्य परिचय आपे छे. ते पछी तेनी विराधनाथी अनंत जीवो अतीत अने अनागत कालमा संसारने पाम्या तेमज पामशे अने वर्तमान काळमां पण संख्याता जीवो विराधनाथी संसारने पामी रह्या छे तेवी ज रीते तेनी आराधनाथी अतीत अने अनागत काळमां अनंत जीवो संसारथी तरी गया तेमज तरी जशे, अने वर्तमानमा संख्यात जीवो तरी रह्या छे. आ प्रमाणे आराधना अने विराधनाचें फळ बताव्या पछी ते द्वादशांगी भूतकाळमां सदा हती वर्तमानमा छे अने भविष्यमां सदा रहेशे, तेम जणावी तेने ध्रुव, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित अने नित्य छे, तेवां विशेषणो आपेल छे. तेनो द्रव्य, क्षेत्र, काळ अने भावथी कहेलो विषय छे ते जणावी अंतमा संग्रह गाथा आपी अंगप्रविष्ट श्रुतज्ञान अने परोक्षज्ञान- वर्णन पूर्ण करतां नंदीसूत्र पूर्ण थाय छे.
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प्रस्तावना।
नन्दिसूत्रम् । ॥३५॥
विभाग-३
-: आगम अने तेना अधिकारीओः - नंदीमा आवता अधिकारना विचार विषे आगळ जणाव्यु छे. अहीं प्रसंग पामीने तेनो पण विचार करवो योग्य छे. माटे अहीं तेनो थोडो विस्तारपूर्वक विचार करवामां आवे छे.
जैन शासनमा जेने कोइ पण आगम भणवु होय तेनी योग्यता जोवा माटे शास्त्रकार भार मूके छे. योग्यता जोया सिवाय आगम भणावनारा आचार्योने जैनशासनमा गुनेगार गणवामां आव्या छे. माटे ज आगमो हाल जेना तेना हाथमां मुकवामां आवे छे ते एक विचारणीय प्रश्न शरु थइ रह्यो छे. आजे आगमोनुं मुद्रण थतां जरूर तेनो प्रचार वधवा पाम्यो छे. पण एथी गुरु द्वारा थता ज्ञाननी परिणतिनो नाश जोवामां आवे छे. ए आगमाभ्यास मुक्ति माटेनो सुप्रयत्न बनवाने बदले केवळ विद्वान गणावानी अपेक्षाए ज मुख्यत्वे थइ रह्यो छे.
आगमोना भाषान्तर करवानी प्रवृत्ति तो अनिच्छनीय ज छे. केटलाक सुधारको आगमने इतर विद्वानो वांचशे तेथी जैनधर्मना ज्ञानवाला बनशे एवी उडाऊ दलील करे छे. पण जैन आगमोनु ज्ञान मुख्यतया मोक्ष तरफनी कूचमा वेग लाववा माटे छे. तेने बदले तेनी उपर परंपरागमरूप अर्थाने लखनारा नियुक्तिकारो, भाष्यकारी अने टीकाकारोने बाजुमां मूकीने स्वतंत्रपणे असंबद्ध अर्थ करनोरा थया छे, अने तेनो प्रचार करीने जैन आगमोना अहर्निश अभ्यासी आचार्योनी टीका करवामां आवे छे. आम सारासारनो तेमजयोग्यायोग्य पात्रोनो विचार करवानी दरकार कर्या सिवाय
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नन्दिसूत्रम् ।
GI प्रस्तावना।
॥३६॥
सार्वत्रिक आगमर्नु मुद्रण थइ रघु छे. अमारो आशय ए नथी के आगमोने कबाटमां राखी मूकवां. पण आत्मानी योग्यता जोइने ज गुरुमहाराज आगमोनुं ज्ञान आपे छे अयोग्य आत्माने आपवाथी तो जैनशासननी हीलना थाय छे. केमके अयोग्य आत्मा तेनो दुरुपयोग करतां पण अचकातो नथी. अत्यारना कहेवाता केटलाक पंडितो तेना प्रत्यक्ष पूरावारूप छे. वळी तेवाओनी कहेवातो पंडिताइ पण धणां स्थलोए सुधरेली मूर्खाइथी जुदी पडी शकती नथी. आम आ रीते विचारता संपूर्णपणे मुद्रण अने तेनो प्रचार पसंद पडे नहीं. मुद्रण थाय तो पण तेनो प्रचार तेनी योग्यता धरावनाराओ सारी रीते लाभ उठावी शके तेटला पूरतो मर्यादित होवो जोइए. ____ आजे छेदसूत्रो के जे अत्यंत गुप्त राखवा जेवां छे. साधुओने पण तेनी योग्यता जोइने ज तेनो पाठ आपवामां आवे छे. साधुओनी परीक्षा माटे अपरिणामी, अतिपरिणामी अने परिणामी एम व्रण प्रकारो पाडवामां आवे छे. तेमां अपरिणामी अने अतिपरिणामीओ माटे छेदसूत्र भणवानो अधिकार नथी. आथी समकितदृष्टि मुनिओने जेना तेना हाथमा छेदसूत्रो जाय ते पसंद नथी. ते हकीकत तेओनी शास्त्रानुसारिता बतावी रही छे. पण तेनी सामे
"इस संबंधमे तो यह बात है कि प्रायः प्रत्येक शास्त्र ही गोपनीय है। अधिकारका ध्यान सर्वत्र ही रखना चाहिए । क्या अन्य सूत्र अनधिकारीको प्रवृत्त किये जा सकते है ? नहीं। प्राचीनकालमें जैसे लेखन था वैसे ही आज के युग में मुद्रण है। गुरुमुख से चली आने वाली श्रुतपरम्परा जिस दिन कलम और दवात का सहारा लेकर पुस्तकारूढ हुइ, उसी दिन उसकी गोप्यता का प्रश्न समाप्त हो गया। जब श्रुत पुस्तकारूढ है तो वह
॥३६॥
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प्रस्तावना।
नन्दिसूत्रम्।
॥३७॥
| कभी भी, कहीं भी, किसी भी, व्यक्ति के हाथों में आ सकता है। और कोई भी उसे पढ सकता है। मेरे विचार | में तत्कालीन लेखन और अद्यतन मुद्रण की स्थिति में कोई विशेष अन्तर नहीं है।" [पृ. ४ निशीथसूत्र पीठिका] ____आम उपाध्याय अने मुनिजीए ने लख्यु ते क्यां सुधी शास्त्रानुसार छे ते विचारीए. एमणे जे निशीथसूत्रनी पीठिका छपावी छे. ते पीठिकानी रचना लेखनकाल शरु थया पछीनी छे. छतां एमां अधिकारनी वात करी छे. अन्य सूत्रो अने छेदसूत्रो आ बेमां एटलो बधो फरक छे के एक औत्सर्गिक छे ज्यारे छेदसूत्रो आपवादिक छे. महाव्रतोमा अपवादनु विधान करनार छेदसूत्रो छे. आनो अभ्यास जे ते करी न शके. आवी सघळीए वातो ग्रन्थकारे करी छे. अन्य सूत्रोमां अधिकारी होवा छतां ते साधु छेदसूत्रोनो अधिकारी बनी शकतो नथी. अन्यसूत्रो तो योगोद्वहन | विनाना साधुओ श्रवण करता होवा छतां पण निशीथमत्र तो अन्य साधुओ श्रवण न करे तेनी तकेदारी ज्ञानदाताए राखवी तेवी आज्ञा तेमां ज फरमावी छे.
चोदगाह - जइ कम्मकखवणसामत्थाओ इमं णिसीह एवं सव्वज्झयणाणं णिसीहत्तं भवतु ?
गुरू भणति - आमं, कि पुण “ अविसेसे वि ति सव्वज्झयण-कम्मक्खवणस सामत्थाविसेसा इह अज्झयणे विसेसो। विसेसो णाम भेओ। को पुण विसेसो ? इमो सुति पिजणेति अण्णेसि । सुति सवणं सोइंदिउवलद्धी जम्हा कारणा, ण इति पडिसेहे, एति आगच्छति प्राप्नोतीत्यर्थः, अण्णेसिति अगीतअइपरिणामापरिणामगाणं ति वक्कसेसं । कि पुण कारणं नेसिमं सुई णागच्छति ? सुण-इदमज्झयणं अववायबहुल', ते य अगीयत्यादि-IN
॥३७॥
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प्रस्तावना।
दोसजुत्तत्ता विणस्सेज्ज तेण णागच्छति । “ अवि" पदत्थसंभावणे । कि संभावयति ? जति अगीयाण-अण्णसाहुनन्दिसूत्रम् । परायवत्तयंताण वि सवणं पिण भवति, कओ-उद्देसवायणत्य-सवणाणि, एवं सम्भावयति ।" [निशीथचूणि पृ. ३५] | ॥३८॥
भावार्थ:- कर्मक्षय माटे सर्व अध्ययनो सामर्थ्य धरावे छे. तो आमां-निशीथमा शु विशेष छ ? आना जवाबमां | आचार्य भगवान कहे छ के, 'अगीतार्थ, अतिपरिणामी अने अपरिणामीना कानमां निशीथना अक्षरो पण पडता नथी. शिष्य पूछे छे के 'कया कारणथी एवाओना कानमां पण निशीथना अक्षरो आवता नथी. सूरि महाराज कहे छे के, 'आ सूत्र अपवादथी भरेलु छे, तेथी जो अगीतार्थ वगेरेने आपवामां आवे तो विनाश करी नाखे, तेथी एमनी | कर्णेन्द्रियनो विषय थतु नथी. आ सूत्रनी परावृत्ति पण अगीतार्थ आदि मुनिओना सांभळवामां न आवे तेम कराय छे. तो उद्देश वाचना अने श्रवण करवानी तो वात जशी करवी?
अर्थात् अगीतार्थ आदि आ सूत्रना अधिकारी छ ज नहीं, तेमज गृहस्थो, अन्यतीथिको, स्वपक्षीय अगीतार्थ तेमज पाखंडोओ पण श्रवण न करी जाय तेम आ सूत्रनुं अध्ययन करवु जोइए. आ गीतार्थोनी आज्ञा छे. माटे 'श्रुत पुस्तकारूढ थयु त्यारथी ए कोर पण व्यक्तिना हाथमां जइ शके छे' एम कहेवु बराबर नथी. पुस्तकारूढनो मतलब आ तो न ज काढी शकाय के कलम अने खडियानी सहाय लीधा एटले सहु आने वांची शके के भणी शके. आजे
एवी घणीये वातो लखाय छे के ए जेना हाथमा आपवी होय तेना ज हाथमा अपाय पण सहु कोइना हाथमा ते IN आवी शकती नथी. जैन संघना कबजामा रहेला आगमो बीजाना हाथमां जाय केवी रीते ? मानो के जाय, तेथी
॥३८॥
।
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नन्दिसूत्रम् ।
॥३९॥
प्रस्तावना।
आपणे आपणा हाथे ज सहुना हाथमा मूकवां ए शु बुद्धिमत्ता छे ? धन छे. एनी चोरी करनार होय ज. माटे शु चोरोना हाथमा आपणे ज अमूल्य धन पहोंचतु' करवु के ऐनुं संरक्षण कर?
जैन आगमो मुक्तिनी साधना माटे छे. ए आगमोनो आ ध्येय माटे उपयोग ते सदुपयोग छे, अने ते सिवाय तेनो उपयोग ए दुरुपयोगज छे. माटे ज नंदीमा जणाव्यु छे के " आगमने पामीने अनंता तर्या अने अनंता दृव्या" आवां अमूल्य सूत्रो अयोग्य आत्माओना हाथमा जाय नहीं ए माटे आपणे तकेदारी राखवी जोइए. आवी तकेदारी अथवा आवा प्रयत्नोने ज्ञानीओ श्रुतभक्ति कहे छे. ते प्रमाणे वर्तनाराओने श्रुतना प्रचारक अने श्रुतना रक्षक कहे छे अयोग्य आत्माओना हाथमां पहोंचता करनारा तो एना नाशक छे. लेखन अने मुद्रणमां तो घणो मोटो तफावत छे. लेखन तो खुद साधुओ पण करी शके छे. वळी लेखनमां तो अमुक लीमीटमा ज कोपीओ नीकळे छे. ज्यारे मुद्रणमां तो जोइए तेटली नीकळी शके. तेनी अमुक नकलो तो सरकारने तथा प्रेसवाळाने आपवीज पडे, ज्यारे लेखनमां एवं कशुज नथी. लेखन ए खरेखर ज लेखन छे. लेखन ए घणा समय सुधी टकी रहेनारी कळानो नमुनो ज छे. ज्यारे मुद्रण थोडा वर्षोमा ज नाश पामनारी यांत्रिक क्रिया छे. लेखन ए अतिशयज्ञानीओए शरु करेली श्रुतपरपराने जीवाडनारी एक अमृतक्रिया छे. ज्यारे मुद्रणमां अनेक दोषो छे. माटे 'आ लेखन अने मुद्रणमां कोई विशेष
अंतर नथी' एम कहेवु ए वधारे पडतुज छे. निशीथ नाम एटले ज अप्रकाशधर्म छे. माटे निशीथनुं ज्ञान परिणतने | | ज अपाय पण अपरिणत के अतिपरिणतने तो नज अपाय. आ तो लोकोत्तरशास्त्र छे. पण लौकिक, रहस्ययुक्त विद्या,
॥३९॥
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नन्दिसूत्रम् ।
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मंत्र अने योग अपरिणतोनी आगळ प्रकाशित कराय ज नहीं. [आ वात नि. चू. पी. पृ. ३६ मां जणावी छे.] केवलं लोकसिद्धमपगासं मिसीहं, ज' अप्पगासधम्मं अन्न पि तं णिसीहूं । उदाहरणं- जहा लोइया रहस्सजुत्ता विज्जा मन्ता जोगा य अपरिणयाणं ण पगासिज्जंति " पृ. ३४
अर्थात् प्रकाश करवा योग्य ज न होय ते ' निशीथ ' कहेवाय छे. जेम रहस्ययुक्त एवी विद्या, मंत्र अने योग अपरिणतो माटे अप्रकाश्य होय छे, तेम निशीथसूत्र पण अपरिणत माटे अप्रकाश्य छे. आम खूद ग्रन्थकारो पण सुनिधर्मनुं पालन करनारा महातपस्वीओ पण जो परिणत न होय, गीतार्थ न होय तो एमने पण निशीथनुं प्रदान करवामां निषेध करे छे. जेओ जगतनो उपकार करवामां सदा उद्यमी हता, शासननी प्रभावना करवानी सुन्दर आवडतवाळा हता, जगतमां जैनधर्मनी सुवास फेलाववानी इच्छावाळा हता, भविष्यना लाभने विचारी शके तेवा बुद्धिवैभवने धारण करनारा हता. एमना करतां आपणे तो बधी वातोमां पछात छीए. भविष्यमां लाभ कइ रीते थशे ? तेनो पूरेपूरो विचार करवानी बुद्धि-शक्तिथी हीन छीए. माटे शास्त्रकारोनी आज्ञाने अनुसरवामां एकांत लाभ ज छे. आज्ञाबहारनो आपणी हुंकी दृष्टिनो महान् उद्यम गमे तेटलो होय छतां संसार वधारनारो छे.
विभाग-४
प्रस्तुत नंदीसूत्र तेमज तेना पर उपलब्ध थता साहित्यनो इतिहास खूब चर्चास्पद छे, अने तेनी साथे अनेक इतिहासनो संबंध छे. तेथी समयना अभावे अन्य स्थळे ज ते विषयनी चर्चा करवानी भावना छे. अहीं मात्र तेने लगता अमारा वर्तमान निर्णयो ज जणाववामां आवशे.
प्रस्तावना |
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नन्दिसूत्रम् । ॥४१॥
आ नंदीसूत्र घणु ज प्राचीन छे, अने तेना कर्ता देववाचकगणि पू. दृष्यगणिना शिष्य छ, अने जेओ देवधि
प्रस्तावना। गणि क्षमाश्रमण करतां जुदा छे. ते माटे नयचक्रनी प्रस्तावनामां अमे विचार करेल छे. तेना कर्ता देववाचकगणि पूर्वधर हता. तेमज देवर्धिगणि श्रमाश्रमण करतां पूर्ववर्ती हता. वर्तमान 'नंदी' करतां पण प्राचीन कोई 'नंदी'सूत्र अवश्य होवु जोइए. तेवा अनुमानने अवकाश छे एम अमे मानीए छीए. जो के आना पर भाष्यनी कल्पना अमे नयचक्रनी प्रस्तावनामां करेल छे. पण ते वात एकली कल्पनामात्रथी योग्य लागती नथी. अर्थात् वधु प्रमाण न मळे त्यां सुधो 'नंदीभाष्यनी' कल्पना करवी योग्य लागती नथी. 'नंदी'चूर्णि ना कर्ता जिनदासगणिमहत्तर होय तेम लागत नथी. कारण के शब्दशः मलगिरि मनीज टीका छे. तेना विस्तारवाळा भागने छोडी देवायो छे. तेथी अभ्यासनी अनुकूळता माटे कोइए आवी संक्षिप्त नोंध करी हशे. जे अवचूरिमां गणाइ गइ छे. पण वास्तविकताए ए पू. मलयगिरि मनी नंदीनी टीकार्नु संक्षिप्त रूप छे कारण के अवचूरिमां जे मात्र पू. मलयगिरि म ने ज लागु पडे छे, तेवो उल्लेख एमनो एम ज मळी आवे छे, माटे प्रस्तुत ग्रन्थ संक्षिप्तीकरण छे पण स्वतंत्र रचना नथी. दाखला तरीके पृ, २३ 'यथा वस्तुनो नित्यता तथा धर्मसंग्रहणीटीकायां सविस्तरम् अभिहितमिति न इह भूयोऽभिधीयते मा भूद् ग्रन्थगौरवमिति कृत्वा' पृ. ४७...' उच्यते इह कर्मणां प्रत्येकमनन्तानन्तानि रसस्पर्धकानि || ॥४१॥ भवन्ति, रसस्पर्धकस्वरूपं च कर्मप्रकृतिटीकायां सप्रपंचमुपदर्शितमिति न भूयो दर्श्यते । __आ सिवाय प्रथम शरु थती अनेक गाथाओ जे पू. मलवगिरि म.नी टीकामां छे. तेमांनी नीचे प्रमाणेनी सात ||
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प्रस्तावना ।
नन्दिसूत्रम् ।
॥४२॥
गाथाओ तेमां नथी. अवचूरिना अनुक्रमे १८, १९, ३१, ३२, ४४,४५, ४८ तेमांनी ३१ अने ३२ ने छोडीने जेम | पू. मलयगिरि मनी टीकामां व्याख्या करवामां आवी नथी तेम अहीं पण ते बाकीनी ६ गोथानी व्याख्या कर- वामां आवी नथी. आ २ गाथाओ मुद्रितचूर्णिमां पण पाठान्तर तरीके छे. तेमज पू. हरिभद्र सू. म.नी टीकामां पण लेवामां आवी नथी. जे बिलकुल सामान्य अवचूरि आ बे गाथाओ पर जोवामां आवे छे. ते कदाच कोइके पाछळथी हाथे लखी लीधी होय तेभ जणाय छे. एम लागे छे के मुद्रित नंदीनी पू. मलयगिरि मनी टीकानो तेमज आ संक्षिप्तीकरणनो आदर्श जुदो जुदो होवो जोइए. आम प्रत्येक शब्दे शब्दे तो पू . मलयगिरि मनी टीका साथे मेळवेल नथी. पण जेटलो भाग मेळव्यो छे तेमां एक पण शब्दनो फरक जणातो नथी. माटे आनुं नाम अमे संक्षिप्त मलयगिरि टीका आपेल छे. जेने वधु विस्तार पसंद नथी तेने आ ग्रन्थ अचूक लाभदायक निवडशे.
जैन ग्रंथावली पृ. ४२ना टीप्पणमा लखेल छ के चंचलबाना भंडारमा रहेली आ अवचूरिना कर्ता देव्यावसूरि छे तेम ते आदर्शना टीप्पणमा जणाव्युं छे. पण उपर जणाव्या मुजब तेओ संक्षिप्तीकरणना कर्ता छे अने देव्यावसूरि एवं नाम कोइ लहीयानी अशुद्धिना कारणे लखाइ गयु होय तेम जणाय छे. कदाच तेमनुं नाम देवसूरि हशे. आ ग्रन्थनी श्लोक संख्या १६०५ छे. अंतमा प्रस्तावनाना आलेखनमा तेमज ग्रन्थना संपादनकार्यमा अने टीप्पणी आलेखनमा आभोग के अनाभोगथी जिनाज्ञा विरुद्ध जो कंइ पण थवा पाम्युं होय तो ते बाबतमा 'मिच्छामि दुक्कडम् ' अपार्थिवज्योतिर्धर व्याख्यानवाचस्पति स्व. परमपूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजयलब्धिसूरीश्वरजी महाराजनो
चरणकिंकर आचार्य विक्रमसूरि
॥४२॥
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+
RECE
न्दिरमा
4+
अवचूरीसमलकृतम्
जयतु भीजियवरेन्द्रप्रवचनम् । श्रेष्ठिदेवचन्द्र लालमाई-जैनपुस्तकोद्धार-प्रन्थाले श्रीदृष्यगणिशिष्य-श्रीदेववाचकगणिविरचितम्
नन्दिसूत्रम् ।
4+4+4+4+4+
अवचीसमलकृतम् ।
अथ नन्दिरितिक शब्दार्थः उच्यते, 'दुनदु समृद्धौ' इत्यस्य धातोः 'उदितो नुम्' इति नुमि विहिते नन्दन-मन्दिः, प्रमोदो हर्ष इत्यर्थः। नन्दिहेतुत्वात् ज्ञानपञ्चकामिधायकमध्ययनमपि मन्दिः, नन्दन्ति प्राणिनः अनेन-अस्मिन्
१मत्र 'उदितः स्वरानोऽन्तः' (हैम.४।४।९८) इति सूत्र रश्यते।
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नन्दिसूत्रम्। ॥ २ ॥
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इति वा नन्दिः,—इदमेव प्रस्तुतमध्ययनम्, आविष्टलिङ्गत्वाच्चआध्ययनेऽपि प्रवर्त्तमानस्य नन्दिशब्दस्य पुंस्त्वं, ' इन् सर्वधातुभ्यः' (कौमुदी० उणादौ ) इत्यौणादिक इन् प्रत्ययः, अपरे तु नन्दीति पठन्ति, ते च 'इकू कृष्यादिभ्य' (महाभाष्ये ० ३ अ० ३ पा० १० आ०) इति सूत्रादिप्रत्ययं समानीय स्त्रीत्वेऽपि वर्त्तयन्ति, ततथ ' इतोऽक्त्यर्था ' दिति [ सि. २-४-३२] ङीप्रत्ययः । ' जयति ' इन्द्रिय विषय कषायघातिकर्म्मपरीषहोपसर्गादिशत्रुगणपराजयात् सर्वानप्यतिशेते, इत्थं सर्वातिशायी च भगवान् प्रेक्षावतामवश्यं प्रणामार्हस्ततो जयतीति, किमुक्तं भवति ? तं प्रति प्रणतोऽस्मोति, किं विशिष्टो जयतीत्याह
जय जगजीवजोणी- वियाणओ जगगुरू जगाणंदो । जगनाहो जगबंधू- जयइ जगप्पियामहो भयवं ॥ १ ॥
' जगज्जीवयोनिविज्ञायक: ' जगत्-धर्माधर्माकाशपुद्गलास्तिकायरूपं 'जगत्त्रयं चराचरं' इति वचनात्, जगच्च जीवाश्व योनयश्च जगजीत्रयोनयः तासां विविधं - अनेकप्रकारमुत्पाताद्यनंतधर्मात्मकतया जानाति इति विज्ञायको जगज्जीवयोनिविज्ञायकः, अनेन केवलज्ञानप्रतिपादनात् स्वार्थसंपदमाह, तथा जगत् गृणाति यथा व्यवस्थितं प्रतिपादयति शिष्येभ्य इति जगद्गुरुः । यथावस्थितसकलपदार्थप्रतिपादक इत्यर्थः । तथा 'जगदानंद:' इह जगच्छन्देन संज्ञिपंचेंद्रियपरिग्रहः, तेषामेव भगवद्दर्शनदेशनादित आनंदसंभवात्, ततश्च जगतां - सशिपंचेन्द्रियाणाममृतस्यन्दिमूर्तिदर्शनमात्रतो निःश्रेयसाभ्युदयसाधम्र्योपदेशद्वारेण चानन्दहेतुत्वादैहिकामुष्मिकप्रमोदकारणत्वात् जगदानंदः, तथा 'जगन्नाथः ' इह जगच्छब्देन सकलचराचरपरिग्रहः, १- आविपुं - गृहीतं प्रतिनियतं लिङ्गा यैस्ते आविष्टलिङ्गाः, लिङ्गान्तरशब्द संबंवेऽपि न स्वलिङ्गा जहति इत्यर्थः ॥
अवचूरीसमलङ्कृतम् ।
॥२॥
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नन्दिसूत्रम्।
अवचूरोस मलकृतम्।
॥
३
॥
नाति, शुभे च नि स्थाने, तस्माद्धमान जगत्पिताम
PRESIDH40655555555
नाथशन्देन च योगक्षेमकुदभिधीयते, 'योगक्षेमकृत् नाथ' इति, तथा' जगद्वन्धुः' इह जगच्छन्देन सकलप्राणि| गणपरिग्रहः, प्राणिन एवाधिकृत्य बन्धुत्वोपपत्तेः, ततश्च जगतः-सकलप्राणिसमुदायरूपस्याव्यापादनोपदेशप्रणयनेन सुख- स्थापकत्वात्-बन्धुरिव बन्धुः जगबन्धुः, तथा 'जयति जगत्पितामहः' इति, इह जगच्छन्देन सकलसत्वपरिग्रहः, ततश्च जगतां सकलसत्त्वानां नरकादिकुगतिविनिपातापावरक्षणात् पितेव पिता-सम्यग्दर्शनमूलोत्तरगुणसंहतिस्वरूपो धर्मः। स हि दुर्गती प्रपततो जंतून रक्षति, शुभे च निःश्रेयसादौ स्थाने स्थापयति । तथा चोक्तम्-निरुक्तशास्त्रवेदिभिः-" दुर्गतिप्रसृतान् जन्तून् , यस्माद्धारयते ततः । धत्ते चैतान् शुभे स्थाने, तस्माद्धर्म इति स्मृतः ॥१॥" ततः सकलस्यापि प्राणिगणस्य पितृतुल्यः, तस्यापि च पिता भगवान , अर्थतस्तेन प्रणीतत्वात् , ततो भगवान् जगत्पितामहः, जयतीति पुनः क्रियाभिधानं तथाधिकाराददुष्टम् ॥ उक्तं च-" सज्झायज्झाणतओसहे ऊवएसु थुइपयाणेसु । संतगुणकित्तणासु य न होंति पुणरुत्तदोसाओ ॥१॥ अनेनापि परार्थसंपदमाह-'भगवान् इति' भगः-समग्रैश्वर्यादिलक्षणः, आह च-ऐश्वर्यस्य समग्रस्य रूपस्य यशसः श्रियः। धर्मस्यार्थप्रयत्नस्य षण्णां भग इतीरितः ॥१॥” भगोऽस्यास्तीति भगवान् ॥१॥
जयइ सुयाणं पभवो तित्थयराणं अपच्छिमो जयइ। जयइ गुरूलोगाणं जयइ महप्पा महावीरो ॥२॥
जयतीति पूर्ववत , श्रुताना-खदर्शनपरदर्शनानुगतसकलशास्त्राणां प्रभवन्ति सर्वाणि शास्त्राण्यस्मादिति प्रभवः-प्रथमं उत्पत्तिकारणम्, तीर्थकराणामपश्चिमो जयति, जन्मजरामरणसलिलसुभृतं मिथ्यादर्शनाविरतिगम्भीरं महाभीमकपायपातालं. दुःखग्राह
CCCC CA
॥
३॥
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मन्दिसूत्रम्।
अवचूरीस
॥४
॥
मलछतम्।
ARKARI
महामोहावभीषणं रागद्वेषपवनविक्षोभित विविधानिष्टेष्टसंयोगवियोगवीचिनिचयसंकुलमुच्चस्तरमनोरथसहस्रवेलाकलित संसारसागरं तरंति येन ततीर्थम् । तच्च सकलजीवादिपदार्थसार्थरूपकमत्यन्तानवद्यं शेषतीर्थान्तरीयाविज्ञातचरणकरणक्रियाधारं सकलत्रैलोक्यान्तर्गतविबुधर्मसंपत्समन्वितं महापुरुषाश्रयमविसंवादिप्रवचनम् तत्करणशीलास्तीर्थकराः तेषां तीर्थकराणां,अस्मिन् भारते वर्षे,अधिकृतायामवसपिण्यांन विद्यते पश्चिमोऽस्मादित्यपश्चिमः-सर्वान्तिमः, पश्चिम इति । 'जयति गुरुर्लोकानां' इति लोकानां-सत्त्वानां गृणाति प्रवचनार्थमिति गुरुः, प्रवचनार्थप्रतिपादकतया पूज्य इत्यर्थः । तथा 'जयति महात्मा महावीरो' महान्-अतितरशक्त्युपेत आत्मास्वभावो यस्य स महात्मा, 'सूर वीर विक्रांती' वीरयति स्म इति वीरो-विक्रांतः, महान्-कषायोपसर्गपरीपहेन्द्रियादिशत्रुगणजयादतिशायी विक्रांत: महावीरः, अथवा 'ईर गतिप्रेरणयोः' विशेषेण ईरयति-मयति स्फेटयति कर्म, प्रापयति वा शिवमिति वीरः, जयतीति पूर्ववत् ॥ २॥
भई सव्वजगुजोयगस्स भई जिणस्स वीरस्स। भई सुरासुरनमंसियस्स भई धुयरयस्स ॥३॥ ___'भद्र' कल्याणं भवतु, 'सर्वस्य जगदुद्योतकस्य' सर्व-समस्तं जगत्-लोकालोकात्मकम् , उद्योतयति-प्रकाशयति केवलज्ञानदर्शनाम्यामिति सर्वजगदुद्योतकः । तस्य 'भद्रायुष्यक्षेमसुखहितार्थहितराशिवि' इति विकल्पेन चतुर्थीविधानेऽपि षष्ठयपि भवति । यथा आयुष्यं देवदत्ताय, आयुष्यं देवदत्तस्य, तथा 'भद्रं जिनस्य वीरथ' महावीरस, जयति रागादिशत्रुगणमिति जिनः, औणादिको नक्
हितसुखाभ्याम् (हैम० २।२।६५) तद्भद्रायुष्योमार्थानाशिषि (२।२ । ६६) इतिसूत्रद्वयोक्तार्थसमहेणात्रैवमुक्तम् ।
४॥
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प्रत्ययस्तस्य भद्रं भवतु । तथा 'भद्र'कल्याणं भवतु, सुरैः-शक्रादिमिरसुरैश्चमरादिभिश्च नमस्कृतस्य, तथा 'भद्रं' कल्याणं भवतु, मन्दिसूत्रम्। 'धूतरजसः' धूतं कम्पितं स्फोटितं रजो-बध्यमानं कर्म येन स धूतरजास्तस्य ॥३॥
अवचूरीस
मलंकृतम्। सम्प्रति तीर्थकरानन्तरं सङ्घः पूज्य इति परिभावयन सङ्घस्य नगररूपकेण स्तवमाहगुणभवणगहण! सुयरयणभरिय! दंसणविशुद्धरत्थागा!। संघनगर! भई ते अखंडचरित्तपागारा!॥४॥
गुणभवण इत्यादि, गुणा-इह उत्तरगुणा गृह्यन्ते, मूलगुणानामग्रे चारित्रशब्देन गृह्यमाणत्वात् , ते च उत्तरगुणाः पिण्ड विशुद्धया६ दयः, त एव भवनानि, तैः गहनं-गुम्पिलं प्रचुरत्वादुत्तरगुणानां गुणभवनगहनम् , सङ्घनगरमभिसम्बध्यते, तस्य आमन्त्रणं, हे गुण-14
भवनगहन !, तथा श्रुतरत्नभृत-श्रुतानि एव आचारादीनि निरुपमसुखहेतुत्वाद्रत्नानि श्रुतरत्नानि, ते तं-पूरितं तस्य आमन्त्रणं, हे श्रुतरत्नभृत !, तथा 'दर्शनविशुद्धरथ्याक' इह दर्शन-प्रशमसंवेगनिर्वेदानुकम्पास्तिक्यलिङ्गगम्यमात्मपरिणामरूपं सम्यग्दर्शनममिगृह्यते । ताच क्षायिकादिमेदात् त्रिधा, तद्यथा-क्षायिकं, क्षायोपशमिकं औपशमिकं च । दर्शनमेव असारमिथ्यात्वादिकचवररहिता विशुद्धा रथ्या यस्य तत् तथा, तस्य आमंत्रणं, हे दर्शनविशुद्धरथ्याक !, सङ्घश्चातुर्वर्ण्यः श्रमणादिसङ्घातः,स नगरं इव संघनगरं, तस्य आमन्त्रणं, हे सङ्घनगर !, 'भद्रं' कल्याणं 'ते' तव भवतु । अखण्डचारित्रप्राकारं चारित्रं-मूलगुणाः अखण्डं-अविराधितं चारित्रं एव प्राकारो यस्य तत् तथा 'मांसादिषु च' इति प्राकृतलक्षणात् चारित्रशब्दस्य आदौ ह्रस्वः तस्य आमन्त्रणं, हे अखण्डचारित्रप्राकार , दीर्घत्वं प्रागिव ॥४॥
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बन्दिसूत्रम्।
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अवचूरीलमलंकृतम्।
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Antstond
भूयोऽपि सङ्घस्य एव संसारोच्छेदकारित्वाच्चक्ररूपकेण स्तवमाह
संजमतवतुंबरयस्स नमो सम्मत्तपारियालस्स। अप्पडिचकस्स जयो होउ सया संघचक्कस्स ॥५॥ ___ संजम इत्यादि, संयमः-सप्तदशप्रकारः। यत उक्तं-"पञ्चाश्रवात् विरमणं, पञ्चेन्द्रियनिग्रहः कषायजयः । दण्डत्रयविरतिश्चेति संयमः सप्तदशभेदः ॥१॥" तपो द्विधा-बाह्य आभ्यन्तरं च, तत्र बाह्यं पनिषं, आभ्यन्तरमपि पोढा । संयमश्च तपांसि च संयमतपांसि, तुंबं च अराश्च-अरकाः तुम्बाराः संयमतपस्येव यथासंख्यं तुम्बारा यस्य तत् तथा, तस्मै संयमतपःतुम्बाराय नमः।
क्षे च षष्ठी प्राकृतलक्षणात् । चतुर्थी अर्थे वेदितव्या, उक्तं च-"छडि विभचीए भण्णा उत्थी।" सथा सम्यस्यमेव पारि-यल-बायपृष्ठस पाया मिर्यस्य तत् तथा, तस्मै नमः। गाथार्द्ध व्याख्यातं । तथा न विद्यते प्रति-अनुरूपं समानं चक्रं यस्य तत् अप्रतिचक्र, चरकादिचकैः असमानं इत्यर्थः, तस्य जयो भवतु, सदा-सर्वकालं, सङ्कः चक्रं इन संघचळू तस्य ॥५॥ सम्प्रति संघस्य एव मार्गगामितया रयरूपकेण स्तवममिधित्सुराह
भई सीलपडागूसियस तवनियमतुरयजुत्तस्स । संघरहस्स सज्झायसुनंदिघोसस्स ॥६॥ भई सील इत्यादि, 'भद्रं कल्याणं संघरथस्य भगवतो भवतु इति योगः, किं विशिष्टस्य सतः इत्याह-' शीलोच्छूि तपताकस्य', शीलमेव-अष्टादशशीलाङ्गसहस्ररूपं उच्छ्रिता पताका यस्य स, तथा 'तपोनियमतुरगयुक्तस्य' तपःसंयमाश्वयुक्तस्य ।
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६
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मन्दिसूत्रम्
अवचूरीस
४मलंकृतम्।
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तथा स्वाध्यायः-पञ्चविधः, तच्च यथा-वाचना पृच्छना प्रवर्तना अनुप्रेक्षा धर्मकथा च, स्वाध्याय एव सन्-शोभनो नन्दिघोषोद्वादशविधतूर्यनिनादो यस्य स तथा तस्य । 'सज्झायसुनेमियोसम्म' इति क्वचित् पाठः, तत्र स्वाध्याय एवं शोभनो नेमिघोषो यस्य इति द्रष्टव्यम् ॥६॥
[अथ संघस्यैव प्रयुद्धतया पद्मरूपकेण गाथाद्वयेन स्तवमाह-] कम्मरयजलोहविणिग्गयस्स सुयरयणदीहनालस्स । पञ्चमहन्वयथिरकन्नियस्स गुणकेसरालस्स ॥ ७॥
कम्मरय इत्यादि, कर्म-ज्ञानावरणादि अष्टप्रकारं तदेव जीवस्य गुण्ठनेन मालिन्यापादनात् रजो भण्यते । कर्मरज एव जन्मकारणत्वात् जलौघस्तस्मात विनिर्गतः[इव]-कर्मरजोजलौघविनिर्गतः तस्य । इह पचं जलौघाद्विनिर्गत सुप्रतीतं, जलघिस्योपरि तस्य व्यवस्थितत्वात् , संघस्तु कर्मरजोजलीघाद्विनिर्गतोऽल्पसंसारित्वादवसेयः, तथा चाविरतसम्यग्दृष्टेरपि अपार्दपद्लपरावर्तमान एव संसारः, अत एव विनिर्गत इस इति व्याख्यातं, न तु साक्षाद्विनिर्गतोऽद्यापि संसारित्वात् तथा श्रुतरत्नमेव दीर्घो नालो यस्य स तस्य, दीर्घनालतया च श्रुतरत्नस्य रूपणं कर्मरजोजलौषतः तबलात् विनिर्गतः। तथा पञ्चमहाव्रतानि एव प्राणातिपादिविरमणलक्षणानि स्थिरा-ढा कर्णिका-मध्यगण्डिका पस्य तत्तथा तस्य, तथा गुणा-उचरगुणाः, त एव पञ्चमहाव्रतरूपकर्णिकापरिकरभूतत्वात् केसरा इव गुणकेसराः ते विद्यन्ते यस्य तनया तस्य ॥ ७॥
तथासावगजणमहुअरिपरिवुडस्स जिणसूरतेयबुद्धस्स। संथपउमस्स भई समणगणसहस्सपत्तस्स ॥ ८॥
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नन्दिसूत्रम्।
REASONSORRO
ये अभ्युपेतसम्यक्त्वाः प्रतिपन्नाणुव्रता अपि प्रतिदिवसं यतिभ्यः साधूनां अगारिणां च उत्तरोत्तरविशिष्टगुणप्रतिपत्तिहेतोः
IP अवचूरीससामाचारी शृण्वन्ति ते श्रावकाः, श्रावकाश्च ते जनाश्च श्रावकजनाः, त एव मधुकर्यः, ताभिः परिवृतस्य, तथा 'जिनसूर्यतेजोबुद्धस्य'
मलंकृतम्। जिन एव सकलजगत्प्रकाश[क]तया सूर्य इव-भास्कर इव जिनसूर्यः, तस्य तेजो विशिष्टसंवेदनप्रभवा धर्मदेशना, तेन बुद्धस्य । तथा श्राम्यन्ति इति श्रमणा 'नन्यादिभ्योऽन' [सि. हे. ५--१५२] इति कर्तर्यनप्रत्ययः। श्राम्यन्ति तपस्यन्ति, किमुक्तं भवतिप्रव्रज्यारम्भदिवसादारभ्य सकलसावद्ययोगविरता गुरूपदेशेन प्राणोपरमात् यथाशक्ति अनशनादितपः चरन्ति । उक्तं च “ यः समः सर्वभूतेषु त्रसेषु स्थावरेषु च । तपश्चरति शुद्धात्मा, श्रमणोऽसौ प्रकीर्तितः ॥१॥ श्रमणानां गणः श्रमणगणः, स एवं सहस्रं पत्राणां यस्य तत् श्रमणगणसहस्रपत्रं तस्य ॥८॥
भूयोऽपि संघस्य एव सौम्यतया चन्द्ररूपकेणस्तवमाहतबसंजममयलंछण! अकीरियराहुमुहदुद्धरिस! निच्चं! जय संघचन्दनिम्मल! सम्मत्तविशुद्धजोण्हागा!॥९॥
तपःसंजम इत्यादि, तपश्च संयमश्च तपःसंयम, समाहारो द्वंद्वः, तपासंयम एव मृगलाञ्छनं-मृगरूपं चिह्नं यस्य तस्य आमन्त्रणं, हे तपःसंयममृगलाञ्छन !, तथा न विद्यन्तेऽनभ्युपगमात् परलोकविषयाः क्रिया येषां ते अक्रियाः-नास्तिकाः, त एव जिनप्रवचनशशाकासनपरायणत्वात् राहुमुखं इवाक्रियाराहुमुखं तेन दुःप्रधृष्यो-अनमिभवनीयः,तस्यामन्त्रणं, हे अक्रियाराहुमुखदुःप्रधृष्य!, सङ्घः
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नन्दिसूत्रम्
अवचूरीसमलकृतम्।
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चन्द्र इव सचन्द्रः तस्थामन्त्रणं, हे सञ्चचन्द्र तथा निर्मल-मिथ्यात्वमलरहितं यत्सम्यक्त्वं तदेव विशुद्धा ज्योत्स्ना यस्य स तथा 'शेषाद्वेति का प्रत्ययः(७-३-१७५), तस्य आमन्त्रणं, हे निर्मलसम्यक्वविशुद्धज्योत्साक ! दीर्घत्वं प्रागिव प्राकृतलक्षणात् अवसेयं, 'नित्यं सर्वकालं 'जय' सकलपरदर्शनतारकेभ्योऽतिशयवान् भव, यद्यपि भगवान् संघचन्द्रः सदैव जयन् प्रवर्तते, तथापि इत्थं स्तोतुः अमिधानं कुशलमनोवाक्कायप्रवर्तिकारणं इति अदुष्टम् ॥ ९॥
पुनरपि संघस्य एव प्रकाशकतया सूर्यरूपकेण स्तवमाहपरतित्थियगहपहनासगस्स तवतेयदित्तलेसस्स । नाणुज्जोयस्स जए भई दमसंघसूरस्स ॥१०॥
परतीर्थिकाः-कपिलकणभक्षाक्षपादसुगतादिमतावलंबिनः त एव ग्रहाः, तेषां या प्रभा-एकैकदुर्नयाभ्युपगमपरिस्फुर्तिलक्षणा, तां अनंतनयसंकुलप्रवचनसमुत्थविशिष्टज्ञानभास्वरप्रभावितानेन नाशयति-अपनयति इति परतीर्थिकप्रहप्रभानाशकः तस्य [परतीर्थिकग्रहप्रभानाशकस्य तथा तपः तेज एव दीप्ता उज्वला लेश्या-भास्वरता यस्य स तथा तस्य तपःतेजोदीप्तलेश्यस्य । तथा ज्ञान एव उद्योतो-वस्तुविषयप्रकाशो यस्य स तथा तस्य ज्ञानउद्योतस्य, 'जगति' लोके 'भद्रं' कल्याण भवतु इति शेषः । दम-उपशमः तत् प्रधानसंघः सूर्य इव संघसूर्यस्तस्य दमसंघसूर्यस्य ॥१०॥
संप्रति संघस्य एव अक्षोभ्यतया समुद्ररूपकेण स्तवं चिकीर्षुराहभई धिइवेलापरिगयस्स समायजोगमगरस्स । अक्खोहस्स भगवओ संघसमुदस्स रुहस्स ॥ ११॥
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दिसूत्रम् । ॥ १० ॥
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भधिवेला इत्यादि, संघः समुद्र इव संघसमुद्रः तस्य, भद्रं भवतु इति क्रियाशेषः, किंविशिष्टस्य सत इत्याह 'धृतिवेलापरिगतस्य' धृतिः मूलोत्तरगुणविषयः, प्रतिदिवसं उत्सहमान - आत्मपरिणामविशेषः, स एव वेला - जलवृद्धिलक्षणा तथा परिगतस्य, तथा स्वाध्याययोग एव कर्मविदारणक्षमशक्तिसमन्विततया मकर इव मकरो यस्मिन् स तथा तस्य, तथा 'अक्षोभ्यस्य' परीषहउपसर्गसंभवेऽपि निःप्रकंपस्य 'भगवतः समग्रैश्वर्यरूपयशोधर्मप्रयत्नश्रीसंभारसमन्वितस्य 'रुद्रस्य' विस्तीर्णस्य ॥ ११ ॥
भूयोऽपि संघस्य एव सदा स्थायितया मेरूरूपकेण स्तवमाह
सम्मदंसणवरबहरदृढरूढगाढवगाढपेढस्स । धम्मवररयणमंडिअचामीयरमेहलागस्स ॥ १२ ॥
सम्मदंसण इत्यादि गाथाषट् केन संबंधः, सम्यक् - अविपरीतं दर्शनं-तत्त्वश्रद्धानं सम्यग्दर्शनं तदेव प्रथमं मोक्षाङ्गतया सारत्वात् बरवज्रं इव सम्यग्दर्शनवरवज्रं, तदेव दृढं निःप्रकंपं, रूढं- चिरप्ररूढं, गाढं - निविडं, अवगाढं - निमग्नं, पीठं प्रथमभूमिका यस्य स तथा । इह मंदरगिरिपक्षे वज्रमयं पीठं, संघमन्दरगिरिपक्षे तु सम्यग्दर्शनवरवज्रमयं पीठं शङ्कादिसुषिररहिततया परतीर्थिक वासना जलेनांत:प्रवेशाभावतः चालयितुमशक्यं, रूढं प्रतिसमयं विशुद्धयमानतया प्रशस्ताध्यवसायेषु चिरकालं वर्त्तनात्, गाढं तीव्रतत्त्वविषयरुच्यात्मक
अवगाढं जीवादिषु पदार्थेषु सम्यगवबोधरूपतया प्रविष्टं तं वन्दे । तथा दुर्गतौ प्रपततं आत्मानं धारयति इति धर्म्मः स एव वररत्नमण्डिता चामीकरमेखला यस्य स धर्म्मवररत्नमण्डितचामीकरमेखलाकः 'शेषाद्वे 'ति कः प्रत्ययः (७-३-१७५) तस्य । धर्मो द्विधा मूलगुणरूप उत्तरगुणरूपश्च तत्र उत्तरगुणरूपो रत्नानि मूलगुणरूपस्तु मेखला, न खलु मूलगुणरूपधर्मात्म चामीकरमेखला विशिष्ट
अवचूरीसमलङ्कृतम् ।
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नन्दिसूत्रम्।
॥ ११ ॥
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उत्तरगुणरूपरत्न विभूषण विकला शोभते ॥ १२ ॥
नियमुच्छियकणयसिलायलुज्जलजलंतचित्तकूडस्स । नंदणवणमणहरसुरभिसीलगंधुद्धमायस्स ॥ १३ ॥
नियम इत्यादि, इह उच्छ्रितशब्दस्य व्यवहितप्रयोगः, ततश्चायं अर्थः- नियमा एव इन्द्रियदमरूपाः कनकशिलातलानि तेषु उच्छ्रितानि उज्जवलानि ज्वलन्ति चित्तानि एव कूटानि यस्मिन् स तथा तस्य, इह मंदरगिरौ कूटानां उच्छ्रितत्वं उज्वलत्वं भासुरत्वं च सुप्रतीतं, संघमन्दरगिरिपक्षे तु चित्तरूपाणि कूटानि उच्छ्रितानि अशुभाध्यवसायपरित्यागात्, उज्वलानि प्रतिसमयं कर्ममलविगमात् ज्वलंति उत्तरोत्तरसूत्रार्थस्मरणेन भासुरत्वात् । तथा नन्दन्ति सुरासुर विद्याधरादयो यत्र तत् नन्दनं वनं - अशोकसहकारादिपादपवृन्दं, नन्दनं च तत् वनं च नन्दनवनं, लतावितानगतविविधफलपुष्पप्रवालसंकुलतया मनो हरति इति मनोहरं, 'लिहा दिभ्यः' इत्यच् प्रत्ययः (५-१-५० )। नन्दवनं च तत् मनोहरं च नन्दनवनमनोहरं तस्य, सुरभिस्वभावो यो गंधस्तेन 'उद्धमायः' आपूर्णः उडुमायशब्द आपूर्ण पर्यायः तस्य, सङ्घमन्दरगिरिपक्षे तु नन्दनं - संतोषः, तथाहि तत्र स्थिताः साधवो नन्दन्ति, तत्त्वविविधामयादिलब्धिसंकुलतया मनोहरं तस्य, सुरभिः शीलं एव गंधस्तेन व्याप्तस्य, अथवा मनोहरत्वं सुरभिशीलगन्धविशेषणं द्रष्टव्यम् ।। १३ ।।
जीवदया सुन्दर कंदरुद्धरियमुनिवर मदइन्नस्स । हेउसयधातुपगलंतरयणदित्तोसहिगुहस्स ॥ १४ ॥ जीवदया इत्यादि, जीवदया एव सुन्दराणि स्वपर निवृत्तिहेतुत्वात् कंदराणि तपस्विनामावासभूतत्वात् तथा च लोकेऽपि
अवचूरीसमलङ्कृतम् ।
॥ ११ ॥
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नन्दिसूत्रम्।
॥१२॥
अवचूरीसप्रतीतं 'अहिंसाव्यवस्थितस्तपस्वी' ति जोवदयासुंदर कंदराणि, तेषु ये उत् प्रावल्येन कर्मशत्रुजयं प्रति दर्पिता उद्दर्पिता मुनिवरा एव |
&ामलकृतम्। शाक्यादिमृगपराजयात् मृगेन्द्रा इव मुनिवरमृगेन्द्रास्तैः आकीर्णः-व्याप्तस्तस्य । तथा मन्दरगिरिगुहासु निष्पंदवति चन्द्रकांतादीनि रत्नानि भवन्ति कनकादि धातवो दीप्ताश्च औषधयः, सङ्घमंदरगिरिपक्षे तु अन्वयव्यतिरेकलक्षणा ये हेतवः तेषां शतानि एव धातवः कुयुक्तिव्युदासेन तेषां स्वरूपेण भासुरत्वा., तथा प्रगलंति-निस्पंदमानानि क्षायोपशमिकभावस्पंदित्वात् रत्नानि दीप्ता जाज्वल्यमाना औषधय-आमोषध्यादयो गुहासु व्याख्यानशालारूपासु यस्य स तथा तस्य ॥ १४ ॥
संवरवरजलपगलियउज्जरपविरायमाणहारस्स । सावगजणपउररवंतमोरनचंतकुहरस्स ॥१५॥
संवर इत्यादि, संवरः-प्राणातिपातादिरूपपश्चाश्रवप्रत्याख्यानं तदेव कर्ममलप्रक्षालनात् सांसारिकडपनोदकारित्वा परि-14 णामसुंदरत्वाच वरजलमिव संवरवरजलं तस्य प्रगलितः-सातत्येन व्यूढ उज्झरः-प्रवाहः स एव विराजमानो हारो यस्य स तथा, श्रावकजना एव स्तुतिस्तोत्रस्वाध्यायविधानमुखरतया प्रचुरा खंतो मयूरास्तैः नृत्यंति इब कुहराणि-जिनमण्डपादिरूपाणि यस्य स तथा तस्य ।। १५॥ विणयनयपवरमुणिवरफुरंतविज्जुजलंतसिहरस्स। विविहगुणकप्परुक्खगफलभरकुसुमाउलवणस्स ॥१६॥
विणय इत्यादि, विनयेन नता ये प्रवरमुनिवरास्त एव स्फुरत्यो विद्युतो विनयनतप्रवरमुनिवरस्फुरत्विद्युतस्ताभिः ज्वलंति| भासमानानि शिखराणि यस्य स तथा तस्य, इह शिखरस्थानीयाः प्रावचनिका विशिष्टा आचार्यादयो द्रष्टव्याः, विनयनतानां
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॥१२॥
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इन्दिसूत्रम्मा
च प्रवरमुनिवराणां विद्युता रूपेण विनयादिरूपेण तपसा तेषां भासुरत्वान् । तथा विविधा गुणा येषां ते विविधगुणा विशेषणान्यथा | ऽनुपपत्त्या साधवो गृह्यते, त एव विशिष्टकुलोत्पन्नत्वात् परमानन्दरूपमुखहेतुधर्मफलदानात् , कल्पवृक्षा इव विविधगुणकल्पवृक्षकाः। अवचूरीसप्राकृतत्वात्स्वार्थे कप्रत्ययस्तेषां यः फलभरो यानि च कुसुमानि तैः आकुलानि वनानि यस्य स तथा, इह फलभरस्थानीयो मूलोत्तर- मलकृतम्। गुणरूपो धर्मः, कुसुमानि नानाप्रकारा ऋद्धयः, वनानि तु गच्छाः ॥१६॥
नाणवररयणदिप्पंतकंतवेरुलियविमलचूलस्स । वंदामि विणयपणओ संघमहामंदरगिरिस्स ॥ १७॥
नाणवर इत्यादि, ज्ञानमेव परमनिर्वृतिहेतुत्वाद्वरं रत्नं ज्ञानवररत्न, तदेव दीप्यमाना-कान्ता-विमला वैडूर्य्यमयी चूडा यस्य स तथा, तत्र मन्दरपक्षे वैडूर्यमयीचूडा-कान्ता विमला च सुप्रतीता, सङ्घमंदरगक्षे तु कान्ता भव्यजनमनो-|| हारित्वान्, विमला यथावस्थितजीवादिपदार्थखरूपोपलम्भात्मकत्वात् । तस्य इत्यंभूतस्य सङ्घमहामन्दरगिरेः यन्माहात्म्यं तत् विनयप्रणतो वन्दे ॥ १७ ॥
गुणरयणुज्वलकडअंसीलसुगंधितवमंडिउद्देसं। सुयवरसंगसिहरं महामंदरं वंदे ॥१८॥ नगर-रह-चक-पउमे-चंदे-सूरे-समुह मेरुमि । जो उवमिजह सततं तं संघगुणायरं बंदे ॥ १९॥ बंदे उसभं अजिय संभवमभिनंदणं सुमइसुप्पभ सुपास।ससि पुप्फंदंत सीयल सिलंसं वासुपुजं च ॥२०॥
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नन्दिसूत्रम्।
॥ १४ ॥
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विमलमगतं च धम्मं सन्तिं कुथुं अरं च मल्लि च । मुनिसुव्वय नमि नेमिं पासं तह वद्धमाणं च ॥ २१॥ तदेवं संघस्य अनेकधा स्तव अमिहितः, संप्रति आवलिकाः प्रतिपादनीयाः, ताच तिस्रः, तद्यथा - तीर्थकरावलिका गणधरावलिका स्थविरावलिका च तत्र प्रथमतस्तीर्थकरावलिकामहं वंदे इत्यादिगाथाद्वयं निगदसिद्धं ॥ १८॥ १९॥२०॥२१॥
पढमित्थ इंदभूइ बीए पुण होइ अग्गिभूइत्ति । तईए य बाउ भूइ तओ वियत्ते सुहम्मे य ॥ २२ ॥ मंडिअ मोरिय पुत्ते अकंपिए चेव अयल भायाय । मे अजेय पहासेय गणहरा हुंति बीरस्स ॥ २३ ॥ गणधरावलिका तु या यस्य तीर्थकृतः सा तस्य प्रथमानुयोगात् द्रष्टव्या, भगवद्वर्द्धमानस्वामिन आह - 'पढमित्थ' इत्यादि गाथा द्वयं एतदपि निगदसिद्धं || २२|| २३ ||
frogsपहसासणयं जयइ सया सवभावदेसणयं । कुसमयमयनासणयं जिनिंदवर वीरसासणयं ॥ २४ ॥
निम्बु इत्यादि, निर्वृते:- मोक्षस्य पंथा- सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि, निर्वृत्तिपथस्य शासनं -शिष्यतेऽनेन इति शासन-प्रतिपादकं, निवृत्तिपथशासनं, ततः ['स्वार्थे] कश्च [वा' ] इति (८-२-१६४) प्राकृतलक्षणात् स्वार्थे कः प्रत्ययः, निष्षृत्तिपथः शासनकं, एवमन्यत्रापि यथायोगं कप्रत्यय भावना कार्या, सदा-सर्व्वकालं जयति, सर्वाणि अपि प्रवचनानि प्रभावातिशयेन अतिक्रम्य अतिशायि वर्त्तते कथंभूतं सद् इत्याह- सर्वभावदेशनकं, तत एव कुसमयमदनाशनकं - कुत्सिताः समयाः परतीर्थिकप्रवचनानि तेषां मदः - अवलेषः
अवचूरीसा मकृतम्
॥ १४ ॥
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नन्दिसूत्रम्
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अवचूरीसमलकृतम्।
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तस्य नाशनं, ततः स्वार्थिकः कप्रत्ययः, कुसमयमदनाशनकं, कुसमयमदनाशनं च कुसमयानां कथाक्तसर्वभावदेशकत्वायोगात् । इत्थंभूतं जिनेंद्रवरवीरशासनकं जयति ॥ २४ ॥
संप्रति यैः इदं अविच्छेदेन स्थविरैः क्रमेण इदं युगीनजन्तूनां उपकारार्थ आनीतं, तेषां आवलिकां अभिधित्सुराह
सुहम्म अग्गिवेसाण जम्बुनामं च कासवं पभैव । कचायणं बंदे वच्छं सिजंभवं तहा ॥ २५॥
सुहम्मं इत्यादि, इह स्थविरावलिका सुधर्मस्वामिनः प्रवृत्ता, शेषगणधराणां संतानप्रवृत्तेरभावात् , ततः तमेव आदौ कृत्वा : तां अभिधत्ते । सुधर्म-सुधर्मस्वामिनं पञ्चमगणधरं, अग्निवेसागं इति, अग्निवेशस्यापत्यं वृद्धौ आग्निवेश्यः, 'गर्गादेः या (६-१-४२) इति यञ्प्रत्ययः, तस्यापि अपत्यं आग्निवेश्यायनः, तं आग्निवेश्यायनं वन्दे इति क्रियाभिसम्बन्धः॥१॥, तथा त च्छष्यं जम्बूनामानं, च समुच्चये, कश्यपस्यापत्यं काश्यपः,बिदादेवृद्ध (६-१-४१) इत्यञ् प्रत्ययः, तं काश्यपगोत्रं वंदे ॥२॥, तस्यापि जम्बूस्वामिनः शिष्यं प्रभवनामानं कात्यायनं, कतस्य अपत्यं कात्यः, गर्गादेर्या (६-१-४२) इति यजप्रत्ययः तस्यापि अपत्यं कात्यायनस्तं कात्यायनं-कात्यायनगोत्रं वंदे ॥ ३ ॥, तच्छिष्यं शय्यंभवं वात्स्यं, तस्यापत्यं वात्स्यः, गर्गादेः यज् (६-१-४२) इति यञ्प्रत्ययः । तं वन्दे ॥ ४ ॥, तथा इति समुच्चये ॥ २५ ॥
जसमें तुंगियं वन्दे संभूतं चेव माढरं । भद्दयाहुं च पाइन्नं थूलभदं च गोयमं ॥२६॥ जस इत्यादि, शय्यंभवशिष्यं यशोभद्रं तुंगिकगणं व्याघमपत्यगोत्रं वंदे । तस्य द्वौ प्रधानशिष्यौ अभूतां, तद्यथा
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॥१५॥
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नन्दिसूत्रम्।
अवचूरीसा मामलरकृतम्
संभूतविजयो माढरगोत्रः, भद्रबाहुश्च प्राचीनगोत्रः, तो द्वौ अपि नमस्कुरुते । 'संभूतं चेव माढरं, भद्दबाहुं च पाइन' इति, तत्र संभूतविजयस्य विनेयः स्थूलभद्रो गौतम आसीत् , तं आह-स्थूलभद्रं, चः सम्मुच्चये, गौतम गोतमस्यापत्यं | गौतमः 'ऋषिवृष्ण्यंधककुरुभ्य' (६-१-६१) इति अणप्रत्ययः, तं वंदे इति क्रियायोगः ॥ २६ ॥
स्थूलभद्रस्यापि च द्वौ प्रधानशिष्या बभूवतुः। तद्यथा-एलापत्यं गोत्रो महागिरिर्वशिष्ठगोत्रः सुहस्ती [च तो द्वौ अपि प्रणिनंसुराह
एलावच्चसगोत्तं वदामि महाँगिरिं सुहत्थिं च । तत्तो कोसिअगोत्तं बहुलस्स सरिब्वयं वन्दे ॥२७॥
एलाबच्चेत्यादि, एलापत्येन सह वर्त्तते यः स एलापत्य [स] गोत्रस्तं वंदे महागिरिं, सुहस्तिनं च प्रागुक्तगोत्रं, तत्र मुहस्तिन आरभ्य सुस्थितसुप्रतिबद्धादिक्रमेण आवलिका विनिर्गता, सा यथा दशाश्रुतस्कंधे तथैव द्रष्टव्या, न तया इहाधिकारः। तस्यामावलिकायां प्रस्तुताध्ययनकारकस्य देववाचकस्य अभावात् , तत इह महागिर्यावलिकाधिकारः, तत्र महागिरेः द्वौ प्रधानशिष्यावभूतां । तद्यथा-बहुलो बलिस्सहश्च, तौ च द्वौ अपि यमलभ्रातरौ कौशिकगोत्रौ च, तयोरपि मध्ये बलिस्सहः प्रवचनप्रधान आसीत् , ततस्तं एव निनंसुराह-'ततो' महागिरेः अनन्तरं कौशिकगोत्रं बहुलस्य 'सदृशवयसं' समानवयसं, द्वयोः अपि यमलभ्रातृत्वात् , 'वंदे' नमस्करोमि ॥ २७ ॥
हारियगुतं साइं च वंदामि हारियं च सामजं । बन्दे कोसिआगोतं संडिल्ल अजजीयधरं ॥२८॥
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नन्दिसूत्रम् ।
॥ १७ ॥
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हारिय इत्यादि, बलिस्सहस्यापि शिष्यं हारीत [स]गोत्रं स्वातिं स्वातिनामानं चः समुच्चये, वन्दे, तथा स्वातिशिष्यं 'हारीतं ' हारीतगोत्रं, चः समुच्चये, स च मिन्नक्रमः श्यामार्यशब्दानन्तरं द्रष्टव्यः, श्यामाचार्य च वन्दे । तथा श्यामाचार्यशिष्यं कौशिक [स] गोत्रं, ' शांडिल्यं ' शांडिल्यनामानं वन्दे । किंभूतमित्याह - ' आर्यजीतधरं ' आरात् सर्वहेयधर्मेभ्योऽर्वाक् यातं आर्य ' जीतं ' इति सूत्रमुच्यते । जीतं स्थितिः कल्पो मर्यादा व्यवस्थेति हि पर्यार्याः, मर्यादाकारणं च सूत्रं उच्यते । तथा 'धृन् धारणे' य धारयति इति धरः, 'लिहादिभ्य ' इत्यच् प्रत्ययः । आर्यजीतस्य धर आर्यजीतधरः तं, अन्ये तु व्याचक्षते - शांडिल्यस्यापि शिष्य आर्यगोत्रो जीतधरनामा सूरिः आसीत् तं वंदे इति ॥ २८ ॥
तिसमुद्दखाकिन्ति दीवसमुद्देसु गहियपेयालं । वन्दे अज्जसमुहं अक्खुभियसमुद्दगंभिरं ॥ २९ ॥
तिसमुद्द इत्यादि, शांडिल्यशिष्यं - आर्यसमुद्रनामानं वंदे, कथंभूतं इत्याह - ' त्रिसमुद्रख्यातकीर्ति ' पूर्वदक्षिणापरदिग्विभागव्यवस्थितत्वात् पूर्वापरदक्षिणास्त्रयः समुद्रास्त्रिसमुद्रं, उत्तरतस्तु हिमवान् वैताढ्यो वा, त्रिसमुद्रे ख्याता कीतिर्यस्य असौ त्रिसमुद्रख्यातकीर्तिस्तं तथा 'द्वीपसमुद्रेषु' द्वीषेषु समुद्रेषु च गृहीतं पेयालं प्रमाणं येन स गृहीतपेयालस्तं, अतिशयेन द्वीपसागरप्रज्ञप्ति विज्ञायकं इति भावः, तथा अक्षुभितसमुद्रवद्गम्भीरम् ॥ २९ ॥
tri iri भावगं नाणदंसणगुणाणं । वंदामि अज्ज मंगुं सुयसागरपारगं धीरं ॥ ३० ॥ भणगमित्यादि, आर्यसमुद्रस्यापि शिष्यं आर्यमंगुं वंदे, किंभूतमित्याह - ' भणकं ' कालिकादिसूत्रार्थमनवरतं भणति-प्रति
अवचूरिसमलंकृतम्
॥ १७॥
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नन्दिसूत्रम्।
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पादयति इति भण एव भणकः [स्वार्थे] [वा कश्च' इति प्राकृतलक्षणसूत्रात् स्वार्थे कः प्रत्ययस्तं तथा 'कारकं कालिकादिसूत्रोक्तमेव उपधेः प्रत्युपेक्षणादिरूपं क्रियाकलापं करोति कारयति वा कारकस्तं । तथा धर्मध्यानं ध्यायति इति ध्याता तं ध्यातारं, प्रभावकं अवचूरि
समलंकृतम् ज्ञानदर्शनगुणानां 'एकग्रहणे तज्जातीयग्रहणं इति' न्यायात् चरणगुणानां अपि परिग्रहः, तथा धिया राजते इति धीरस्तं, तथा श्रुतसागरपारगम् ॥ ३०॥ वंदामि अजधम्मं तत्तो वन्दे य भद्दगुत्तं च। तत्तोय अजवहरं तवनियमगुणेहिं वइरसमं ॥ ३१ ॥
वन्दामीति, आर्यधर्मवाचकं ततो भद्रगुप्तं तत आर्य वज्रं च वंदो तपोनियमगुणैर्ववतुल्यमभेद्यत्वात् ॥ ३१ ॥ | वंदामि अजरक्खियं खमणे रक्खियचारित्ते सव्वस्स। रयणकरडंगभूआ अणुओग रक्खिओ जेहिं ॥ ३२॥ |
वन्दामीति ॥ इत्यादिसुगमम् ॥ ३२ ॥ नाणमि दसणमिअ तवविणए निच्चकालमुज्जुत्तं । अजं नन्दिलखमणं सिरसा बंदे पसन्नमणं ॥ ३३॥
नाणमित्यादि, आर्यमंगोः अपि शिष्यं आर्यनंदिलखमणं प्रसन्नमनसमरक्तदुष्टान्तःकरणं शिरसा बंदे कथंभूतमित्याह-'ज्ञाने' श्रुतज्ञाने 'दर्शने' सम्यक्त्वे, च शब्दाचारित्रे तमसि-यथायोग अनशनादिरूपे विनये-ज्ञानविनयादिरूपे 'नित्यकालं' सर्वकालं
ता ॥१८॥ 8 'उद्युक्तं' अप्रमादिनम् ॥ ३३॥
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नन्दिसूत्रम् ।
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ages वायगवंसो जसवंसो अज्जनागहत्थीणं । वागरणकरण भंगियकम्भपयडीपहाणाणं ॥ ३४ ॥
व इत्यादि, पूर्वगतं सूत्रं अन्यच्च विनेयान् वाचयंति इति वाचकाः तेषां वंशः - क्रमभाविपुरुषपर्व प्रवाहः 'स' ' वर्द्धतां ' वृद्धिं उपयातु, 'मा' कदाचिदपि तस्य वृद्धिं उपगच्छतो विच्छेदो भूयात् इति । 'यशोवंशो' मूर्तो यशसो वंश इव - पर्वप्रवाह इव यशोवंशः, आर्यनागहस्तिनां आर्यनंदिलक्षपणशिष्याणां कथंभूतानामिति आह - 'व्याकरणकरण भङ्गी कर्म्मप्रकृतिप्रधानानां ' तत्र व्याकरणं संस्कृतशब्दव्याकरणं प्राकृतशब्दव्याकरणं च, प्रश्न व्याकरणं, करणं- पिंडविशुद्धयादि, उक्तं च " पिंडविसोही समिई भावणपडि माई इंदियनिरोहो । पडिलेहणमुत्तीओ अभिग्गहा चैव करणं तु ॥ १ ॥ " भङ्गी-भङ्गबहुलं श्रुतं, कर्म्मप्रकृतिः - प्रतीता, एतेषु प्ररूपणां अधिकृत्य प्रधानानाम् ॥ ३४ ॥
जच्चजणधाउसमप्पहाणं मुद्दियकुवलयनिहाणं । वड्ढउ वायगवंसो रेवनक्खत्तनामाणं ॥ ३५ ॥
जञ्चजण इत्यादि, आर्यनागहस्तिनामपि शिष्याणां रेवतिनक्षत्रनाम्नां वाचकानां वाचकवंशो वर्द्धतां कथंभूतानामित्याह' जात्यांजनधातुसमप्रभाणां ' जात्यश्वासौ अञ्जनधातुश्च तेन समा-सदृशा प्रभा देहकांतिः येषां ते तथा, 'मुद्रिकाकुवलयनिभानां परिपाकागतरसद्राक्षया नीलोत्पलेन च समप्रभाणां, अपरे पुनः आहुः - कुवलयं इति मणिविशेषस्तत्रापि अविरोधः ॥ ३५ ॥ अयलपुराणिक्खते कालियसुयआणुओगिए धीरे । बंभद्दीविअ सीहे वायगपयमुत्तमं पत्ते ॥ ३६ ॥ अयलेत्यादि, रेवतिनक्षत्रनामकवाचकानां शिष्यान् 'ब्रह्मद्वीपिकशाखोपलक्षितान् सिंहनामकान् आचार्यान् ' अचलपुरात्
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नन्दिसूत्रम्।
अवचूरिसमलंकृतम्
॥२०॥
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निष्क्रान्तानचलपुरे गृहीतदीक्षान्' 'कालिकश्रुतानुयोगिकान्' कालिकश्रुतस्यानुयोगे-व्याख्याने नियुक्ताः कालिकश्रुतानुयोगिकास्तान , अथवा कालिकश्रुतानुयोग एषां विद्यते इति कालिकश्रुतानुयोगिनस्ततः स्वार्थिककप्रत्ययविधानात् कालिकश्रुतानुयोगिकाः तान् , धिया राजते इति धीरास्तान् , तत्कालापेक्षया उत्तम-प्रधानं वाचकपदं प्राप्तान् ॥ ३६॥ जेसिं इमो अणुओगो पयरइ अन्जवि अड्वभरहम्मि। बहुणयरनिग्गयजसे तं वंदे खदिलायरिए ॥ ३७॥
जेसिं इत्यादि, येषां अयं-श्रवणप्रत्यक्षत उपलम्यमानोऽनुयोगोऽद्यापि अर्धभरते वैताढ्यादी 'प्रचरति' व्याप्रियते । तान् स्कंदिलाचार्यान् सिंहवाचकमरिशिष्यान् बहुषु नगरेषु निर्गतं-प्रसृतं यशो येषां ते बहुनगरनिर्यातयशसस्तान् वंदे ॥३७॥
तत्तो हिमवंतमहंतविक्रमे विइपरकममणंते। सज्झायमणतधरे हिमवंते बंदिमो सिरसा ॥ ३८॥ . ततो इत्यादि, 'ततः' स्कंदिलाचार्यानंतरं तत्शिष्यान् हिमवतो-हिमवत्नामकान् , 'हिमवत्महाविक्रमान्' हिमवदिव महान् विक्रमो-विहारक्रमेण प्रभतक्षेत्रव्याप्तिरूपो येषां ते तथा तान् । 'धिइपरकममणते' इति अनंतधृतिपराक्रमान् , प्राकृतशैल्या च अनंतशब्दस्यान्यथा उपन्यासः सूत्रे, अनंतो-अपरिमितो धृतिप्रधानः पराक्रमः कर्मशत्रून् प्रति येषां ते तथाविधास्तान् । तथा'सज्झायमणतधरति अत्रापि प्राकृतशैल्यानंतशब्दस्य परनिपातो मकारस्तु अलाक्षणिकः, तदेवं तात्त्विको निर्देशः 'अनन्तस्वा| घ्यायधरान्' तत्रानन्तगमपर्यायात्मकत्वात् अनन्तं सूत्रं तस्य स्वाध्यायं धरंति इति धराः अनंतस्वाध्यायधरास्तान् ॥ ३८॥
कालियसुयअणुओगस्स धारए धारए य पुवाणं । हिमवंतखमासमणे वन्दे नागज्जुणायरिए ॥ ३९ ॥
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नन्दिसूत्रम् ॥२१॥
अवचूरिसमलंकृतम्
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भूयोऽपि हिमवदाचार्याणां स्तुतिं आह-कालिय इत्यादि, कालिकश्रुतानुयोगस्य धारकान् 'धारकांश्च पूर्वाणां' उत्पादादिनां हिमवतः क्षमाश्रमणान् वंदे ततस्तच्छिष्यान् वंदे नागार्जुनाचार्यान् ॥ ३९ ॥
कथम्भूतानित्याहमिउमदव संपन्ने अणुपुन्वि वायगत्तणं पत्ते। ओहसुयसमायरे नागज्जुणवायए वन्दे ॥ ४०॥ गोवं दाणं पि नमो अणुयोगो विउल धारिणिंदाणं। दाणं निचं खंति दुयाणं परवणे दुल्लभि दाणं ॥४१॥ तत्तोय भूयदिन्नं निचं तवसंजमे अनिविणं । पंडियजणसामण वंदामि संजमं विहण्णु ॥४२॥
[मिउमद्दव] इत्यादि, मृदुमाईवसम्पन्नान् , मृदु-कोमलं मनोजं सकलभव्यजनमनःसन्तोषहेतुत्वात् यन् माहवं तेन सम्पमान्मार्दवं च उपलक्षणं तेन शांतिमार्दवार्जवसन्तोषसम्पमानिति द्रष्टव्यम् । तथा 'आनुपूर्व्या' वयापर्यायपरिपाट्या वाचकत्वं प्राप्तानिदं च विशेषणं ऐदंयुगीनसूरीणां सामाचारीप्रदर्शनपरं अबसेयम् । तथा-'ओघश्रुतसमाचारकान्' ओघश्रुतं उत्सर्ग [श्रुतं] | उच्यते, तत्समाचरंति ये ते ओघश्रुतसमाचारकाः तान् नागार्जुनवाचकान्वंदे ॥४०॥४१॥ ४२ ॥ वरकणगतवियचंपगविमउलवरकमलगम्भसरिवन्ने । भविअजणहिययदइए दयागुणविसारए धीरे ॥ ४३ ॥
वरकणग इत्यादि, गाथात्रयं, वरं-प्रधानं सार्द्धषोडशवर्णिकारूपं तापितं यत्कनक-यत् सुवर्ण यत् च वरं चम्पर्क-सुवर्ण
॥२१॥
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नन्दिसूत्रम् ॥ २२॥
8 समलंकृतम्
REARRAHARG
चम्पकपुष्पं तथा यत् च विमुकुलं-विकसितं वरं-प्रधानं कमलं-अंभोजं तस्य यो गर्भः तत्सदृशवर्णान् तत्समानदेहकांतीन् । तथा 'भव्यजनहृदयदयितान्' भव्यजनहृदयवल्लभान् , तथा 'दयागुणविशारदान्' सकलजगज्जंतुदयाविधिविधापनयोः अतीव कुशलान् , तथा धिया राजते-शोभंते इति धीराः तान् ॥ ४३॥
अड्डभरहप्पहाणे बहुविहसज्झायसुमुणियपहाणे । अणुओगियवरवसभे नाइलकुलवंसनंदिकरे ॥ ४४ ॥ ____ तथा ' अर्द्धभरतप्रधानान् ' तत्कालापेक्षया सकलार्द्धभरतमध्ये युगप्रधानान् तथा 'सुविज्ञातबहुविधस्वाध्यायप्रधानान्' सुविज्ञातो बहुविधः स्वाध्यायो यैः ते तथोक्ताः तेषां मध्ये प्रधानानुत्तमान , तथाऽनुयोजिता:-प्रवर्तिता यथोचिते वैयावृत्त्यादौवरवृषभाः-सुसाधवो यैः ते तथोक्तास्तान् । तथा नागेंद्रकुलवंशस्य नन्दिकरान् , प्रमोदकरानित्यर्थः । तथा ॥ ४४ ॥
भूयहिअप्पगम्भे बंदेऽहं भूयदिनमायरिए । भवभयवुच्छेयकरे सीसे नागज्जुणरिसीण ॥४५॥
भूतहितप्रगल्भाननेकधा सकलसत्त्वहितोपदेशदानसमर्थान् भवभयव्यवच्छेदकरान् ' सदुपदेशादिना संसारभयव्यवच्छेदकरान्' सदुपदेशादिना संसारभयव्यवच्छेदकरणशीलान् , 'नागार्जुनऋषीणां' नागार्जुनमहर्षिसूरीणां शिष्यान् , 'भूतदिनाचार्यान्' भूतदिननामकान् आचार्यानहं वंदे , सूत्रे च भृतदिनशब्दात् मकारः अलाक्षणिकः ।। ४५ ।।
सुमुणियनिच्चानिचं सुमुणियसुत्तत्यधारयं वन्दे । सम्भावुन्भावणातत्यं लोहिचणामाणं ॥ ४६॥
SHKOISESSADOS
॥२२॥
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नन्दिसूत्रम्
॥२३॥
अवधिसमलंकृतम्
सुमुणिय इत्यादि, सुष्टु-यथावस्थिततया मुणितं-ज्ञातं । "ज्ञोजाणमुनौ" [८-४-७] इति प्राकृतलक्षणात् जानातेः मुणआदेशः, नित्यानित्यं सामर्थ्यात् वस्तु इति गम्यते । येन सुज्ञातं नित्यानित्यं स सुज्ञाज्ञातनित्यानित्यस्तं, यथा वस्तुनो नित्यता तथा धर्मसंग्रहिणीटीकायां सविस्तरं अमिहितं इति न इह भूयः अभिधीयते, माभूत ग्रंथगौरवं इति कृत्वा, एतेन न्यायवेदिता तस्यावेदिता, || तथा सुष्टु-अतिशयेन ज्ञातं यत् सूत्र अर्थश्च तस्य धारकं, अनेन सदा एव अभ्यस्तसूत्रार्थता तस्य आवेद्यते, तथा संतोऽवस्थिता विद्यमानाभावा:-सद्भावास्तेषां उद्भावना-प्रकाशनं सद्भावोद्भावना तस्यां तथ्यमविसंवादिनं सद्भावोद्भावनातय्य, एतेन तस्य सम्यक् प्ररूपकत्वमुक्तं, इत्थंभूतं भूतदिनाचार्य शिष्यं 'लौहित्य' लोहित्यनामानमहं वंदे ॥ ४६॥ अत्थमहत्थखाणिं सुसमणवखाणकहणनिव्वाणि । पयईइ महुरवाणिं पयओ पणमामि दूसगणिं ॥४७॥
अत्थ महत्थ इत्यादि, तत्र भाषाभिधेया अर्था, विभाषावार्ता(वार्तिका)मिधेया महार्थास्तेषां अर्थमहार्थानां खानि-इव अर्थमहार्थखानिस्तं, एतेन भाषाविभाषावार्तिकरूपानुयोगविधौ अतिपटीयस्त्वमावेदयति । तथा सुश्रमणानां-विशिष्टमूलोत्तरगुणकलितसंयतानां अपूर्वशास्त्रव्याख्याने पृष्टार्थकथने च निवृतिः-समाधिर्यस्य स तथा तं, तथा प्रकृत्या-स्वभावेन मधुरवाचं-मधुरगिरं तत् शिष्यगतमनाझमादादिरूपकोपहेतुसंपत्तौ अपि कोपोदयवशतोऽनिष्ठुरभाषणं, तं दृष्यगणिनं 'प्रयतः' प्रयत्नपरः प्रणमामि ॥ ४७ ॥ तवनियमसच्चसंजम विणयजवखंतिमद्दवरयणं । सील गुणगद्दियाणं अणुओगे जुगवहाणाणं ॥४८॥ १ तत्थकुद्धाण वि आगताण तस्स वाणी जेव्वाणि जणेति, किमंग पुण धम्मसवणमागताणं इति चूर्णों दृश्यते ।
॥२३॥
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नन्दिसूत्रम् ॥२४॥
अवचूरिसमलंकृतम्
RAPHRA SEX
सुकुमालकोमलतले तेसिं पणमामि लक्खणपसत्थे । पाए पावयणीण पडिच्छयसएहि पणिवइए ॥४९॥
सुकुमाल इत्यादि, तेषां दृष्यगणिनां 'प्रावचनिकानां' प्रवचने-प्रवचनार्थकथने नियुक्ताः प्रावचनिकाः तेषां, तत्कालापेक्षया युगप्रधानानां इत्यर्थः, पादान् लक्षणैः-शंखचक्रादिभिः प्रशस्तान्-श्रेष्ठान्, तथा सुकुमारमकर्कश कोमलं-मनोझं तलं येषांतान्
पुनः किंभूतानित्याह-प्रति इच्छिकशतैः प्रणिपतितान् , इह ये गच्छांतरवासिनः स्वाचार्य पृष्ट्वा गच्छांतरेऽनुयोगश्रवणाय समा* गच्छंति अनुयोगाचार्येण च प्रतीच्छयतेऽनुमन्यते ते प्रतिइच्छका उच्यन्ते । स्वाचार्यानुज्ञापुरस्सरं अनुयोगाचार्य प्रतिइच्छया का चरंति इति प्रातिइच्छकाः इति व्युत्पत्तेः, तेषां शतैः प्रणिपतितानमस्कृतान् 'प्रणिपतामि' नमस्करोमि ॥ ४८ ॥४९॥
तदेवं आवलिकाक्रमेण महापुरुषाणां स्तवं अभिधाय संप्रति सामान्येन श्रुतधरनमस्कारं आहजे अन्ने भगवंते कालियसुयअणुओगिए धीरे । ते पणमिऊण सिरसा नाणस्स परूवणं वोच्छ ॥५०॥
जे अन्ने इत्यादि, येऽन्येऽतीता भाविनश्च भगवंतः-श्रुतरत्ननिकरपूरितत्वात् समग्रैश्वर्यादिमंतः कालिकश्रुतानुयोगिनो धीरा-विशिष्ट धिया राजमानास्तान 'शिरसा उत्तमांगेन प्रणम्य 'ज्ञानस्य' आभिनिबोधिकादेः 'प्ररूपणं' प्ररूपणाकारकं अध्ययन वक्ष्ये, क एवं आह?,-उच्यते-दृप्यगणिशिष्यो देववाचकः ॥ ५० ॥
॥ थेरावलिया सम्मत्ता॥
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नन्दिसूत्रम्
अवचूरिसमलंकृतम्
XRRRRREA
इह ज्ञानस्य प्ररूपणां वक्ष्ये इत्युक्तं, सा च प्ररूपणा शिष्यानधिकृत्य कर्तव्या, शिष्याश्च द्विधा योग्या अयोग्याश्च, तत्र योहूँ ग्यानधिकृत्य कर्तव्या । नाअयोग्यानिति प्रथमतो योग्यायोग्यविभागोउपदर्शनार्थ तावदिदमाह
सेलघंण कुडंग चालणि परिपूर्णग हंस महिस मेसेय मसँग जलुगे विराली जाहंग गो" भेरी" आभेरी ॥
'सेलघण' इत्यादि, तत्राधिकृतगाथायां । 'आमे घडे निहित्तं जहा जलं तं घडं विणासेइ । इय सिद्धन्तरहस्सं अप्पहार विणासेइ ॥१॥ प्रथममयोग्यशिष्यविषये मुद्गशैलघनदृष्टान्त उपात्तः, स च काल्पनिकः, मुद्गशैलघनयोर्वक्ष्यमाणप्रकारोऽहंकारादिः न संभवति, तयोरचेतनत्वात् , केवलं शिष्यमतिवितानाय तौ तथा कल्पयित्वा दृष्टान्तत्वेनोपात्तौ, न चैतदनुपपन्नम्, ततो नानुपपन्नः शैलघनदृष्टान्तः, तद्भावना चेयं-इह क्वचिद्गोष्पदायामरण्यान्यां मुद्गप्रमाणः क्षितिधरो मुद्गशैलाभिधानो वर्तते, इतश्च जंबूद्वीपप्रमाणः पुष्करावाभिधानो महामेघः, तत्र महर्षिनारदस्थानीयः कोऽपि कलहाभिनंदी तयोः कलहमाधातुं प्रथमतो मुद्गशैलस्योपकंठमगमत् , गत्वा च तमेवमभाषिष्ट, भो मुद्गशैल! क्वचिदवसरे महापुरुषसदसि जलेन | मेत्तुमअशक्यो मुद्गशैल इति मया त्वगुणवर्णनायां क्रियमाणायां नामापि तव पुष्करावर्तों न सहते स्म, यथाऽलमनेनालीकप्रशंसावचनेन, ये हि शिखरसहस्राग्रभागोल्लिखितनभोमंडलतलाः कुलाचलादयः शिखरिणस्तेऽपि मदासारो
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नन्दिसूत्रम्
अवचूरिसमलंकृतम्
36*AHORES SEX EXC***
| पनिपातेन भिद्यमानाः शतशो मेदमुपयांति, किं पुनः स वराको यो मदेकधारोपनिपातमात्रमपि न सहते ?, तदेवमुत्पासितो मुद्गशैलः समुज्ज्वलितकोपानलोऽहंकारपुरस्सरं तमेवमवादीत् , भो नारद ! महर्षे ! किमत्र तं प्रति परोक्षे बहुजल्पितेन ?, शृणु मे भाषितमेकं, यदि तेन दुरात्मना सप्ताहोरात्रवर्षिणा मे तिलतुषसहस्रांशमात्रमपि मिद्यते, ततोऽहं मुद्गशैल इति नामापि नोदहामि । ततः स पुरुषोऽमृनि मुद्गशैलवचांसि चेतस्थवधार्य कलहोत्थानाय पुष्करावर्तमेघसमीपमुपागमत् । मुद्गशैलवचनानि च सर्वाण्यपि सोत्कर्ष तस्य पुरतोऽन्ववादीत् , स च श्रुत्वा तानि च वचनानि कोपमतीवाशिश्रियत् । स च परुषाणि च वचनानि वक्तुं प्रावर्तिष्ट । यथा-हा दुष्टः स वराकोनात्मज्ञो मामप्येवमधिक्षिपतीति, ततः सर्वादरेण सप्ताहोरात्रान् यावत् निरंतरं मुशलप्रमापधारोपनिपातेन वर्षितुमयतिष्ट। सप्ताहोरात्रं निरंतरवृष्टया च सकलमपि विश्वंभरामंडलं जलप्लावितमासीत् । तत एवैकार्णवकल्पं विश्वमालोक्य चिंतितवान् हतः समूलघातं स बराक इति, ततः प्रतिनिवृत्तो वर्षात , क्रमेण चापसृते जलसंघाते सहर्ष पुष्करावतॊ नारदमेवमवादीत् । भो नारद ! स वराकः संप्रति कामवस्थामुपगतो वर्तते इति सहैव निरीक्ष्यतां, ततः तौ सहभूय मुद्गशैलस्य पार्श्वमगमतां, स च मुद्गशैलः पूर्व धूलीधूसरशरीरत्वात् मंदमंदमकाशिष्ट, संप्रति तु तस्या अपि धूलेरपनयनादधिकतरमवभासमानो वर्तते । ततः स चाकचिक्यमादधानो हसचिव नारदपुष्करावौँ समागच्छंतावेवमभाषिष्ट । समागच्छथः खागतं युष्माकं १, अहो कृतकल्याणा वयं यदतर्कितोपनीतकाञ्चनवृष्टिरिव युष्मदर्शनमकांड एव मन्मनो मोददायि संवृत्तं
-CRORSCIRCCCC
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नन्दिसूत्रम्
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RECARRRRRRRRR
इति । तत एवमुक्त भ्रष्टप्रतिज्ञमात्मानमवबुध्य लज्जावनतकंधराशिरोनयनः पुष्करावर्ती यत्किंचिदाभाष्य स्वस्थानं गतः, एवं दृष्टांतः, उपनयस्तु अयं-कोऽपि शिष्यो मुद्गशैलसमानधर्मा निरंतरं यत्नतः पाठ्यमानोऽपि पदमप्येकं भावतो नावगाहते, ततोऽयोग्यो ऽयमिति कृत्वा आचार्यैरुपेक्षितः, तमवबुध्य कोऽप्यन्य आचार्योऽभिनवतरुणिमावेगवशोजूंभितमहाबलपराक्रमोऽत एवागणितव्याख्याविधिपरिश्रमो यौवनिकामदवशतोऽपरिभावितगुणागुणविवेको वक्तु मेवं प्रवृत्तो यथा एनमहं पाठयिष्यामि। पठति च || लोकानां पुरतः सुभाषितं, " आचार्यस्यैव तज्जाड्यं, यत् शिष्यानावबुध्यते । गावो गोपालकेनैव, कुतीर्थेनावतारिताः॥१॥" ततस्तं सर्वादरेण पाठयितुं लना, स च मुद्गशैल इव दृढप्रतिज्ञो न भावतः पदमप्येकं स्वचेतसि परिणमयति । ततः खिमशक्तिः आचार्यो भ्रष्टप्रतिज्ञमात्मानं जानानो लज्जितो यत्किमप्युत्तरं कृत्वा तत्स्थानादपसृत्य गतः, तत एवं विधाय नेदमध्ययनं दातव्यं यतो न खलु बंध्या गौः शिरःशृंगवदनपृष्टपुच्छोदरादौ सस्नेहं स्पृष्टापि सती दुग्धप्रदायिनी भवति । तथास्वाभाव्यादेव एषोऽपि सम्यक् पाठ्यभानोऽपि पदमप्येकं नावगाहते, ततो न तस्य तावदुपकारः, आस्तां तस्योपकाराभावः प्रत्युत आचार्ये सूत्रे चापकीतिरुपजायते, यथा न सम्यक् कौशलमाचार्यस्य व्याख्यायां, इदं चाध्ययनं न समीचीनं, कथमयमन्यथा नावबुध्यते ?, इत्यपि च-तथाविधकुशिष्यपाठने तस्थावबोधाभावात उत्तरोत्तरसूत्रार्थानवगाहने सूरेः सकलावपि शास्त्रांतरगतौ सूत्रार्थों भ्रंशमाविशतोऽन्येषामपि च पटुश्रोतणामुत्तरोत्तरसूत्रार्थावगाहनहानिप्रसंगः, उक्तं च भाष्यकारेण-"आयरिए सुत्तमिय
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परिचाओ सुत्तअत्थपलिमंथो । अन्नेसिं पिय हाणी पुट्ठावि न दुद्धया वंज्जा ॥ १ ॥” मुद्गशैलप्रतिपक्षभूतो योग्यशिष्यविषयो दृष्टान्तः कृष्णभूमिप्रदेशः । तत्र हि प्रभूतमपि जलं निपतितं तत्र एवांतःपरिणमति, न पुनः किंचिदपि ततो बहिरपगच्छति, एवं यो विनेयः सकलसूत्रार्थग्रहणधारणसमर्थः स कृष्णभूमिप्रदेशतुल्यः, स च योग्यस्ततः तस्मै दातव्यमिदमध्ययनमिति, आह च भाष्यकृत् "डेवि दोणमेहे न कण्हभोमाओ लोट्टए उदयं । गहणधरणासमत्थे इय देयमिच्छित्ति कारिति ॥ १ ॥ "
संप्रति कुटजदृष्टांत भावना क्रियते । कुटा-घटाः ते द्विधाः- नवीना जीर्णाश्च तत्र नवीना नाम ये संप्रत्येदापाकतः समानीताः, जीर्णाः द्विविधा- भाविताः अभाविताश्र, भाविता द्विधाः - प्रशस्तद्रव्य भाविता अप्रशस्तद्रव्यभाविताश्च तत्र ये कर्पूरागुरुचंदनादिभिः प्रशस्तैर्द्रव्यैर्भाविताः ते प्रशस्तद्रव्य भाविताः, ये पुनः पलांडुलशन सुरातैलादिभिर्भावितास्ते अप्रशस्तद्रव्यभाविताः, प्रशस्तद्रव्य भाविता afe faar - वाम्या अवाम्याश्थ, अभाविता नाम ये केनापि द्रव्येण न वासिताः, एवं शिष्या अपि प्रथमतो द्विधाः- नवीना जीर्णाश्च, तत्र ये बालभाव एवाद्यापि वर्ततेऽज्ञानिनः संप्रत्यवबोधयितुमारब्वास्ते नवीनाः, जीर्णा द्विधाः- भाविता अभाविताश्च । तत्रा| भाविता ये केनापि दर्शनेन न वासिताः । भाविता द्विधा - कुप्रावचनि कपार्श्वस्थादिभिः संविग्नैश्च कुप्रावचनिकपार्श्वस्थादिभिरपि भाविता द्विधा वाया अवाम्याश्च, संविग्नैरपि भाविधाः द्विधाः -वाम्या अवाम्याश्च तत्र ये नवीना ये जीर्णा अभाविता ये च कुप्राव
अवचूरिसमलंकृतम्
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नन्दिसूचम
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अवचूरिसमलंकृतम्
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चनिकादिमाविता अपि वाम्याः, ये च संक्प्रिभाविता अवाम्यास्ते सर्वेऽपि योग्या, शेषा अयोग्याः, अथवाऽन्यथा कुटदृष्टान्तभावना इह चत्वारः कुटाः, तत् यथा छिद्रकुटः, कण्ठहीनकुटा,खण्डकुटा, [सम्पूर्णकुटच, [तत्र यस्याधोबुध्ने छिद्रं स च्छिद्रकुटः], यस्य पुनः
ओष्ठपरिमण्डलामावः स कंठहीनकुटः, यस्य पुनः एकपाचे खण्डे हीनः स खण्डकुटः, यः पुनः सम्पूर्णावयवः स सम्पूर्णकुटः, एवं शिष्या अपि चत्वारो वेदितव्याः। तत्र यो व्याख्यानमण्डल्या उपविष्टः सर्वमवबुध्यते व्याख्यानादुत्थितश्च न किमपि स्मरति स 8 छिद्रकुटसमानो, यथा हि च्छिद्रकुटो यावत्तदवस्थ एव गाढमवनिसंलग्नोऽवतिष्टते [न] तावत्किमपि जलं ततः स्रवति, स्तोकं वा किश्चिदिति । एवमेषोऽपि यावदाचार्यः पूर्वापरानुसंधानेन सूत्रार्थमुपदिशति तावत् अवबुध्यते, उत्थितश्चेत् व्याख्यामण्डल्याः तर्हि स्वयं पूर्वापरानुसंधानशक्तिविकलत्वात् न किमपि अनुस्मरतीति,यस्तु व्याख्यानमण्डल्यां अपि उपविष्टोऽर्द्धमात्रं त्रिभागं चतुर्भागं वा | हीनं वा सूत्रार्थ अवधारयति यथावधारितं च स्मरति स खण्डकुटसमानः, यस्तु किश्चिनं स्त्रार्थ अवधारयति पश्चादअपि तथैव च | स्मरति स कण्ठहीनः कुटसमानः, यस्तु सकलमपि सूत्रार्थ आचार्योक्तं यथावदवधारयति पश्चादपि तथैव स्मृतिपथं अवतारयति स संपूर्णकुटसमानः, अत्र छिद्रकुटसमानः एकांतेनायोग्यः, शेषास्तु योग्याः, यथोत्तरं च प्रधानाः प्रधानतरा इति ॥३॥
संप्रति चालनीदृष्टान्तभावना । चालिनी लोकप्रसिद्धा, यया कणिकादि चाल्यते । यथा चालिन्यामुदकं प्रक्षिप्यमाणं तत्क्ष8 णादेव अधोगच्छति न पुनः कियन्तं अपि कालं अवतिष्ठते । तथा यस्य सूत्रार्थःप्रदीयमानो यदाएव कर्णे प्रविशति तदा एव विस्मृ
तिपथमुपैति स चालिनीसमानः ॥४॥
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न्दिसत्रम्
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तथा च मुद्गशैलच्छिद्रकुटचालिनीसमानशिष्यभेदप्रदर्शनार्थ उक्त भाष्यकृता । “सेलेय च्छिद्द चालिणी, मिहो कहा सोउमुट्ठियाणं तु । छिद्दाह तत्थविठ्ठो सुमरिंसु रामिसनेयाणि ॥१" "एगेण बीसइ वीएण नीइ कण्णेण चालणी आह धन्नोत्थ आह सेलो जं पविसइ नीसरइ वा तुझं ॥२॥" तत एषोऽपि चालनीसमानो न योग्यः चालनीप्रतिपक्षभृतं च वंशदलनिर्मापितं तापसभाजनं, ततो हि बिंदुमात्रं अपि जलं न स्रवति । उक्तं च-"तावसखउरकठिणयं चालणिपडिवक्ख न सवइ दवं पि" [परिपूणगम्मिय गुणा गलंति | दोसाय चिठंति ॥ ३ ॥] ततस्तत्समानो योग्यः इति ॥ ५॥
संप्रति परिपूणकदृष्टांतो भाव्यते । परिपूणको नाम घृतक्षीरगालकं सुगृहामिधचटिकाकुलायो वा, तेन हि आमीर्यों घृतं गाल| यति । ततो यथा सपरिपूणकः कचवरं धारयति घृतं उज्झति, तथा शिष्योऽपि यो व्याख्यावाचनादौ दोपान् अभिगृह्णाति गुणांस्तु मुंचति स परिपूणकसमानः, स च अयोग्यः । आह च आवश्यकचूर्णिकृत्-"वक्खाणाईसु दोसा हिययंमि ठवइ शयइ गुणजालं । सो सीसो उ अजोगो भणिओ परिपूणगसमाणो ॥१॥" आह च-सर्वज्ञमतेऽपि दोषा संभवंति इति अश्रद्धेयं । एतत्सत्यमुक्तं अत्र भाष्यकृता-सव्वण्णुपामण्णा दोसा हुन संति जिणमए के वि । जे अणुवउत्तकहणं अपत्तमासज्जम व हवेज्ज ॥१॥६॥"
संप्रति हसदृष्टान्तभावना-यथा हंसः क्षीरमुदकमिश्रितं अपि उदकं अपहाय क्षीरं आपिबति तथा शिष्योऽपि यो गुरोः अनुपयोगसम्भवान् दोषान् अवधूय गुणानेव केवलान् आदत्ते स हंससमानः, स च एकान्तेन योग्यः। ननु हंसः क्षीरं उदकमिश्रितं अपि कथं विभक्तीकरोति ?, येन क्षीरं एव केवलं आपिबति न तु उदकं इत्युच्यते । वत् जिह्वाया आम्लत्वेन क्षीरस्य. कूर्चिकीभूय
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नन्दिसूत्रम्
अवचूरिसमलंकृतम्
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पृथग्भवनात् । उक्तं च-"अंवत्तणेण जीहाए कूचिया होइ खीरमुदगंमि । हंसो मोत्तूण जलं आवियइ पयं तह सुसीसो ॥१॥" "मोत्तूण दंडदोसे गुरुणोणुवउत्तभासियाणंपि। गिण्हइ गुणे उ जो सो जोन्गो समयत्थसारस्स ॥१॥७॥ इदानीं महिषदृष्टान्तभावना
यथा महिषो निपानस्थानं अवाप्तः सन् उदकमध्ये प्रविश्य तत् उदकं मुहुर्मुहुः शृङ्गाभ्यां ताडयन् अवगाहमानश्च सकलं | अपि कलुषीकरोति । ततो न स्वयं पातुं शक्रोति नापि यूथं, तद्वत् शिष्योऽपि यो व्याख्यानप्रबन्धावसरेऽकाण्ड एव क्षुद्रपृच्छामिः कलहविकथादिमिः वाऽऽत्मनः परेषां चानुयोगश्रवणविषातं आधत्ते स महिषसमानः स च एकान्तेन अयोग्यः, उक्तं च-सयमविन पियइ महिसो न ज जूहं पियइ लोडियं उदगं । विग्गहविकहाहिं तहा अथक्कपुच्छाहि य कुसीसो ॥१॥६॥
मेषोदाहरणभावना-यथा मेषो वदनस्य तनुत्वात् स्वयं च निभृतात्मा गोष्पदमात्रस्थितमपि जलं अकलुषीकुर्वन् पिबति द्र तथा शिष्योऽपि यः पदमात्रमपि विनयपुरस्सरं आचार्यचित्तं प्रसादयन् पृच्छति स मेषसमानः, स च एकान्तेन योग्यः ॥ ७॥
मसकदृष्टान्तभावना-यः शिष्यो मसक इव जात्यादिकं उद्घट्टयन् गुरोः मनसि व्यथां उत्पादयति स मसकसमानः स च योग्यः।८
जलौकादृष्टांतभावना यथा जलौकाः शरीरं अदुन्वती रुधिरं आकर्षति, तथा शिष्योऽपि यो गुरुं अदुन्वन् श्रुतज्ञानं आपिबति स जलौकासमानः । उक्तं-जलूगा व अमितो पियइ सुसीसो वि सुयनाणं ॥९॥
बिडालीदृष्टान्तभावना-यथा बिडाली भाजनसंस्थं क्षीरं भूमौ छर्दयित्वा] पिबति,तथा दुष्टवभावत्वात् ,एवं शिष्योऽपि यो विनयकरणादिहीनतयान साक्षात् गुरुप्तमीपे गत्वा शृणोति,किंतु व्याख्यानादुत्थितेभ्यः केभ्यश्चित् , स विडालीसमानः,सच अयोग्यः।१०।
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नन्दिसत्रम्
॥३२॥
अवचरिसमलंकृतय
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तथा जाहका-तिर्यक् विशेषः, तत् दृष्टांतभावना-यथा जाहकः स्तोकं स्तोकं क्षीरं पीत्वा पार्थाणि लेढि, तथा शिष्योऽपि यः PI पूर्व गृहीतं सूत्रं अर्थ वा अतिपरिचितं कृत्वा अन्यत् पृच्छति, स जाहकसमानः, स च योग्यः ॥ ११ ॥
संप्रति गोदृष्टान्तभावना क्रियते-यथा केनापि कौटुम्बिकेन कस्मिंश्चित् पर्वणि चतुर्थ्यश्चतुर्वेदपारगामिभ्यो विप्रेभ्यो गौर्दत्ता, ततस्ते परस्परं एवं चिन्तयामासुः । यथा इयं एका गौः चतुणी अस्माकं कथं कर्तव्या ?, तत्र एकेन उक्तं-परिपाट्या दुखतां इति, तच्च समीचीनं प्रतिभातं इति सर्वैः प्रतिपन्नं, ततो यस्य प्रथमदिवसे गौः आगता तेन चिंतितं-यथाहमयेव धोक्ष्यामि, कल्ये पुनः अन्यो धोक्ष्यति । ततः किं निरर्थिकां अस्याः चारि वहामि, ततो न किश्चिदपि तस्यै तेन दत्तं । एवं शेषैरपि, ततः सा श्वपाककुलनिपतितेव तृणसलिलादिविरहिता गतासुरभूत्ततः समुत्थितःतेषां धिग्जातीयानां अवर्णवादो लोके शेषगोदानादिलाभव्यवच्छेदश्च, एवं शिष्या अपि ये चिंतयंति न खलु केवलानां अस्माकं आचार्यों व्याख्यानयति, किंतु प्रतीच्छिकानां अपि, ततस्त एव विनयादिकं करिष्यन्ति, किं अस्माकमिति ? प्रतीच्छिका अपि चिंतयन्ति निजशिष्याः सर्व करिष्यन्ति । किं अस्माकं कियत्कालावस्थायिनामिति ? ततस्तेषां एवं चिन्तयतां अपान्तराल एव आचार्योऽवसीदति, लोके च तेषां अवर्णवादो जायते, अन्यत्रापि च गच्छान्तरे दुर्लभौ तेषां सूत्रार्थों, ततः ते गोप्रतिग्राहकचतुर्द्विजातय इव अयोग्या द्रष्टव्याः । उक्तं च-" अन्नो दोज्जिइ
६ कल्ले निरत्ययं से वहामि किं चारिं? चउचरणगवी उ मया अवण्णहाग्री व बडआणं ॥१॥ सीसा पडिगच्छगाणं भरोत्ति ते विहु | सीसगभरो ति । न करिति सुत्तहाणी अनत्थ वि दुल्लहं तेसि ॥२॥" एष एव गोदृष्टान्तः प्रतिपक्षेऽपि योजनीयः, यथा कश्चित
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नदिसूत्रम् ॥ ३३ ॥
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अश्वरत्नं सकललोकसमक्षं अपहृतवान्, भावितथ मार्गतः सर्वोऽपि उद्गीर्णखमुकुन्तादिः अङ्गरक्षकादिपदातिवर्गः, समुच्छलितश्च महान् कोलाइलो ज्ञातथ अयं व्यतिकरः केशवेन, प्रधाविताच सकोपं विशोदिशं सर्वेऽपि कुमाराः, मुंचन्ति च यथाशक्ति प्रहारान्, परं सुरो दिव्यशक्त्या तान् सर्वानपि लीलया विजित्य मंदं २ गन्तुं प्रवृत्तः, ततः प्राप्तः केवचः पृष्टश्च तेन अश्वापहारी-भोः किं मदीयं अश्वरत्नं अपहरसि १ । तेन उक्तं शक्नोमि अपहर्नु, यदि पुनः अस्ति ते काऽपि शक्तिस्तर्हि मां युद्धे विनिर्जित्य प्रतिगृहाण, ततः केशवः तत्पौरुषरंजितमनस्कः सहर्षं एवमवादीत्-भो महापुरुष ! येन युद्धेन ब्रूषे तेन युध्येऽहं ततः सर्वाणि अपि युद्धानि केशव नामग्राहं वक्तुं प्रवृत्तः प्रतिषेधति च सर्वाणि अपि सुरसग्रजन्मा, ततो भूयः केशवो वदति - कथय तर्हि केन युद्धेन युध्येऽहं इति, ततः स प्राह-पूतयुखेन, ततः कर्णौ पिधाय शल्यहृदय इव हाशब्दव्याहारपुरस्सरं तं प्रत्येवमवादीत्-गच्छ गच्छ अश्वरत्नं अपि गृहीत्वा, न अहं नीच, जेन युध्ये इति, तदेतत् श्रुत्वा हर्षवशोभितपुलकमालोपशोभितं वपुः आदधानः सविस्मयं सुरसंद्मजन्मा खचेतसि चिंतयामास - अहो महोत्तमता केशवानामत एवं शतसहस्रसंख्यन मदमर किरीटको टिसङ्घर्षमसृणीकृत पादपीठानां मघवतां अपि एते प्रशंसाहस्तत एवं चिन्तयित्वा सानन्दमवेक्ष्यमाणो वक्तुं प्रवृत्तो भोः केशव ! न अहं अश्वापहारी, किन्तु स्वगुणपरीक्षानिमित्तं एवं कृतवान्, ततः सकलं अपि शक्रप्रशंसादिकं पूर्ववृत्तांतं अभ्वकथत् । ततः स्वगुणप्रशंसाश्रवणलज्जितोऽवनतमनाकंधरः कुम्मलितकरसंपुटो जनार्दनस्तमुदंतपर्यंते मुत्कलयामास स्वस्थाने, सुरोऽपि च सकलविश्वासाधारणकेशवगुणदर्शनतो हृष्टमनाः तं प्रत्येनं अवादीत्-महापुरुष ! देवदर्शनं अमोघं मनुजजन्मनां इति प्रवादो जगति प्रसिबो मा विफलतामापत् इति वद किंचिदभीष्टं येन करोमि, इति ततः केशवोऽब्रवीत् - वर्त्तते संप्रति द्वारवत्यां अशिवं, ततः तत्प्रतिविधानं आतिष्ठ, येन भूयोऽपि न भवति । ततो
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॥ ३३ ॥
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नन्दिसत्रम्
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गोशीर्षचन्दनमयीं अशिवोपशमनी देवो भेरीमदात् , कल्पं च अस्याः कथयामास-यथा षण्मासषण्मासपयते निजास्थानमंडपे वाद्या एषा मेरी, शब्दश्च अस्याः सर्वतो द्वादशयोजनव्यापी जलभृतमेघध्वनिः इव गम्भीरो विभिष्यते । यश्च शब्दं श्रोष्यति तस्य प्राक्तनो व्याधिः नियमतः अपयास्यति, भावी च भूयः षण्मासादाक् न भविष्यति । तत एवं उक्त्वा देवः स्वस्थानं अगमत् । वासुदेवोऽपि तां मेरों सदैव भेरीताडननियुक्तान समर्पितवान् , शिक्षा चास्मै ददौ। यथा षण्मास २ पर्यंते मम आस्थानमण्डपे. वाद्या एषा त्वया भेरी, यत्नतश्चावनीया, ततः सकलस्वलोकसामन्तादिबलसमन्वितो निजप्रासादमायासीत् । मुत्कलितश्च प्रतीहारेण सर्वोऽपि लोकः, ततो द्वितीयदिवसे मुकुटोपशोभितानेकपार्थिवसहस्रपर्युपास्यमानो निजास्थानमण्डपे विशिष्टसिंहासनोपविष्टः शक्र इव देवैः परिवृतो विराजमानः तां मेरी अताडयत् । भेरीशब्दश्रवणसमनंतरं एव च दिनपतिकरनिकरताडितं अंधकार इव द्वारवतीपुरि सकलं अपि रोगजालं विध्वंसं उपागमत् । ततः प्रमुदितः सर्वोऽपि पौरलोकः आशास्ते सदैव अधिपतित्वेन जनाईनं, तदेवं व्याधिविकले गच्छति काले कोऽपि दूरदेशान्तरवर्ती धनाढ्यो महारोगाभिभूतो भेरीशब्दमाहात्म्यं आकर्ण्य द्वारवती आगमत् , स च दैवविनियोगाद् मेरीताडनदिवसातिक्रमे प्राप्तः। ततोऽचिन्तयत्-कथं इदानीं अहं भविष्यामि ?, यतो भूयो भेरीताडने पण्मासातिक्रमे, पभिश्च मासैः एष प्रवर्द्धमानो व्याधिः असूनपि नियमात्कवलयिष्यति । ततः किं करोमि इति ?, तत इत्थं कतिपयदिनानि चिन्ताशोकसागरनिमनः कथं अपि शेमुषीपोतमासाद्योन्मक्तं लग्नो-यथा यदि तस्याः शब्दतोऽपि रोगोऽपयाति ततस्तदेकदेशस्य घपित्वा पाने सुतरां अपयास्यति, प्रभृतं मे स्वं, ततः प्रलोभयामि धनेन ढाकिक, येन तच्छकलं एकं मे समर्पयति । ततः प्रलोभितो धनेन ढाकिकः, नीचसत्वा हि दुष्टदारा इव निरन्तरं धनादिभिः सन्मान्यमाना अपि व्यभिचरन्ति निजपतेः,
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कौटुम्बिको धर्मश्रद्धया चतुर्म्यश्चतुर्वेदपारगामिभ्योगां दत्तवान् , तेऽपि च पूर्ववत् परिपाट्यादोग्धुमारब्धास्तत्र यस्य यस्य प्रथमदिवसे सा गौरागता स स चिंतितवान् , यदि अहं अस्याः चारिं न दास्यामि ततः क्षुधा धातुक्षयादेषा प्राणानपहास्यति । ततो लोकेंषु मे गोहत्याऽवर्णवादो भविष्यति । पुनरपि चास्मभ्यं न कोऽपि गवादिकं दास्यति, अपि च-यदि मदीयचारिचरणेन पुष्टा सती शेषः अपि ब्राह्मणै?क्ष्यति ततो मे महाननुग्रहो भविष्यति, अहमपि च परिपाट्या पुनः अपि एनां धोक्ष्यामि, ततोऽवश्यमस्यै दातव्या चारिः इति ददौ चारिं, एवं शेषा अपि ददुः । ततः सर्वेऽपि चिरकालं दुग्धाभ्यवहारभाजिनो जाताः, लोके च समुच्छलितः साधुवादो लभन्ते च प्रभूतं अन्यदपि गवादिकं, एवं येऽपि विनेयाः चिन्तयन्ति-यदि वयं आचार्यस्य न किमपि विननयादिकं विधातारः तत एषोऽवसीदन् अवश्यं अपगतासुभविष्यति । लोके च कुशिष्या एते इति अवर्णवादो विजृमिष्यते, ततो गच्छान्तरेऽपि न वयमवकाशं लप्स्यामहे । अपि च-अस्माकं एष प्रव्रज्याशिक्षावतारोपणादिविधानतो महानुपकारी, सम्प्रति च जगति दुर्लभं श्रुतरत्नं उपयच्छन् वर्तते । ततोऽवश्यमेतस्य विनयादिकं अस्माभिः कर्तव्यं, अन्यच्च-यदि अस्मदीयविनयादिसहायकबलेन प्रातीच्छिकानां अपि आचार्यत उपकारः किं अस्माभिन लब्धम् ?, द्विगुणतरपुण्यलाभश्च अस्माकं भवेत् । प्रातीच्छिका अपि ये चिन्तयन्ति-अनुपकृतोपकारी भगवान् आचार्योऽस्माकं, को नामाज्यो महान्तमेवं व्याख्याप्रयासमस्मन्निमित्तं विदधाति । किं एतेषां वयं प्रत्युपकर्तुं शक्काः । तथापि यत् कुर्मः सः अस्माकं महान् लाभ इति पनिरपेक्षं विनयादिकं आदधते, तेषां नावसीदति आचार्योऽव्यवच्छिन्ना च सूत्रार्थप्रवृत्तिः, समुच्छलति च सर्वत्र साधुवादा, गच्छान्तरे च तेषां सुलभं श्रुतज्ञानं परलोके च सुगत्यादिलाम इति ॥१२॥
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अवचरिसमल तम्
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सम्प्रति मेरीदृष्टान्तभावना-ह शक्रादेशेन वैश्रवणयक्षनिर्मापितायां काञ्चनमयप्राकारादिपरिकरितायां पुरि द्वारवत्यां नन्दिसत्रम् त्रिखण्ड मरताधिपत्वं अनुभवति केवावे कदाचित् अशिवं उपतस्थौ । इतश्च द्वात्रिंशद्विमानशतसहस्रसंकुले सौधर्मकल्पे सुधर्मा
मिधसभोपविष्टः सर्वतो दिवौकापर्युपास्यमानः शक्राभिधानोमपना पुरुषगुणविचारणाधिकारे केशवं इलाधःस्थितमवधिना समधिगम्य सामान्यतः तत्प्रशंसामकाति-अहो महानुभावा विष्णवो यत् दोपबहुलेऽपि वस्तुनि स्वभावतो गुणं एव गृहन्ति, न दोपलेशं
अपि, नप नीचयुद्धेन युद्धयन्ते इति, इत्थं च मघवता केशवस्तुति अधीषमानां असहमानः कोऽपि दिवौकाः परीक्षार्थ इहाव3 तीर्य येन भगवदरिष्टनेमिनमस्करणाय केशवो यास्यति सस्मिन् पधि अपान्तराले क्वचित्प्रदेशे समुत्त्रासितसकलजनमहादुरभिगन्धला संकुलं अतीव दीप्यमानमहाकालमकलितं विवृतमुखं उत्पादिव्येन्तरक्तिं गाणं इव शुनोरूपं विधाय प्रातरवतस्थे । केशवोऽपि Fचोळपन्तगिरिसमवस्तभगवदरिष्टनेमिनमस्कृतये तेन पक गन्तुं प्रववृते, पुरोयायी च पत्यादिवर्गः समस्तोऽपि तद्गन्धसमुत्ता
सितो बस्वाञ्चलपिहितनासिकस्त्वरितं इतस्ततो गन्तुमारिम, ततः पृष्टं केशवेन-किमिति पुरोयायिनः सर्वे पिहितनासिकाः समुत्तार आदधते ? । ततः कोऽपि विदितवेद्यो विज्ञपयामास-देव ! पुरो महामतिगन्धिःश्वा मृतो वर्तते, ततः तद्गन्धं असहमानः सर्वोऽपि त्रास अगमत् । केशवश्च महोत्तमतया तद्गन्धात् अनुत्रखन् तेन पथा गन्तुं प्रवृत्तोऽवैक्षिष्ट च तं मृतं श्वानं, परिभाषयामास च सकलं अपि तस्य रूपं, ततो गुणप्रशंसामकर्तुमशक्नुवन् प्रशसितुं आरको स्म-अहो जालमरकतमयभाजनविनिशितमुक्तामणिश्रेणिः इव शोभतेऽस्य वपुषि कालिमकलिते श्वेतदन्तपतिः इति, तां च प्रशंसां श्रुत्वा सविस्मयं सुरसमजन्मा चिन्तयामास-अहो यथोक्तं मघवता तथैव इति । ततो दूरं गते केशवे तसवं उपसंहृत्व कियत्कालं स्थित्वा गृहमागते केशवे युद्धपरीक्षानिमितं मंदुरागतं एवं
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नन्दिसूत्रम्
अवचूरिसमलंकृतम्
ततस्तेन तच्छशकलमेकं तस्मै व्यतीरिष्ट ततः स्थाने च तस्यामन्यशकलं योजितं । एवमन्यान्यदेशांतरायातरोगिजनेभ्यो धनलुब्धतया खण्डखण्डप्रदाने सकलापि भेरी कंथेव खण्डसंघातात्मिका कृता, ततोऽपगतो दिव्यप्रभावः, ततस्तदवस्थमेव अशिवं प्रावर्तिष्ट, समुत्थितश्चारावोऽशिवप्रादुर्भावविषयः पौरजनानां, विज्ञप्तश्च महत्तरजनार्दन; भूयोऽपि विजृम्भते वर्षासु कृष्णशमन्धकार इस पुरि द्वारवत्यां महदशिवं । ततः प्रातरास्थानमण्डपे सिंहासने समुपविश्याकारितो भेरीताडननियुक्तः पुमान् , दत्तश्चादेशोऽस्मै मेरीताडने, ततः ताडिता तेन भेरी, साऽपगतदिव्यप्रभावा न भांकारशब्देनास्थानमण्डपमात्रमपि पूरयति । ततो विस्मितो जनाईनो-यथा कि एषा नास्थानमण्डपमपि भांकारशब्देन पूरयितुं शक्नुवती ?, ततः स्वयं निभालमास तां भेरी, दृष्ट्वा च सा महा दरिद्रकंथेव लघुतरशकलसहस्रसङ्घातात्मिका, ततश्चकोप तस्मै जनार्दनो-रे दुष्टाधम ! किमिदं अकार्षीः ?, ततः स प्राणभयात्सकलमपि यथावस्थितमचीकथत् । ततो महानर्थकारित्वात्स तत्कालं एव निरोपितो विनाशाय, ततो भूयोपि जनार्दनो जनानुकम्पया पौषधशालां उपगम्य अष्टमभक्तविधानतः तं देवं आराधयामास, ततः प्रत्यक्षो बभूव स देवः, कथितवांश्च जनार्दनः प्रयोजनं, ततो भूयोऽपि दत्तवान् अशिवोपशमिनी भेरी, तां चाप्तत्वेन सुनिश्चिताय कृष्णः समर्पयामास एष दृष्टान्तः, अयमर्थोपनयः-यथा मेरी तथा प्रवचनावगतो, सूत्रार्थों, यथा च भेरीशब्दश्रवणतो रोगापगमः तथा सिद्धांतस्य प्रभावतः श्रवणतो वा जन्नां कर्मविनाशस्ततो यः सूत्रार्थों अपान्तराले विस्मृत्य विस्मृत्य अन्यतः सूत्रं अर्थ वा संयोज्य कंथासमानौ करोति स भेरीताडननियुक्तप्रथमपुरुषसमानः,स च एकांतेन अयोग्यः, यस्तु आचार्यप्रणीतौ सूत्रार्थी यथावदवधारयति साभेरीताडननियुक्तपाश्चात्यपुरुष इव कल्याणसंपदे योग्यः ॥१३॥
सम्प्रति आभीरीदृष्टान्तभावना-कश्चिदाभीरो निजभार्ययासह विक्रयाय घृतं गंध्या गृहीत्वा पत्तनं अवतीर्णश्चतुःपथे समा
॥३७॥
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नन्दिसत्रम्
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गत्य वणिगापणेषु पणायितुं प्रवृत्तो, घटितश्च पणाय संदूंकः, ततः समारब्ध घृतमापे गंत्र्या अधस्तादवस्थिता आभीरी, घृतं भावारकेण समर्प्यमाणं प्रतीच्छति । ततः कथं अपि अर्पणे ग्रहणे वानुपयोगक्त अपांतराले बारकापरपर्यायो लघुघृतघटो भूमौ निपत्य खंडशो अवचूरिभग्नः, ततो घृतहानिदुर्मनाः पतिः उल्लपितं खरपरुषवाक्यानि प्रावर्तत । यथा हा पापीयसि ? दुःशीले कामविडंक्तिमानसे? नरतरुणि
समलकृतम् माभिरमणीयं पुरुषान्तरं अबलोकसे न सम्यग्घृतघट अभिगृह्णासि । ततः सा खरपरुषवाक्यश्रवणतः समुत्थितकोपावेशवशोच्छलितकंपितपीनपयोधरा स्फुरदधरबिंबोष्ठी दरोत्पाटितभूः एपा धनुःअवष्टंभतो नाराचश्रेणिमिव कृष्णकटाक्षसंतति अविरतं प्रतिक्षिपत् प्रत्युवाच-हा ग्रामेयकाधम ! घृतघटं अपि अवगणय्यविदग्धमत्तकामिनीनां मुखारविंदानि अवलोकसे, न च एतावतावतिष्ठसे, ततः खर-15 परुषवाक्यैः मामपि अधिक्षिपसि । ततः स एवं प्रत्युक्तोऽतीवज्वलितकोपानलो यत्किचिदसिद्ध भाषितुं लग्नस्ततः साप्येवं, समभूत्तयोः केशाकेशी, ततो विसंस्थुलपादादिन्यासतः सकलं अपि प्रायो गंत्रीघृतं भूमौ निपतितं । तत्किचित्स्तोकं अपगतमवशेष चावलीढं श्वभिः, गंत्रीघृतं अपि शेषीभूतमपहृतं पश्यतो हरैः, सार्थिका अपि स्वं स्वं घृतं विक्रिय स्वग्रामगमनं प्रपन्ना स्ततः प्रभूतदिवसभागातिक्रमेण अपमृते युद्धे स्वास्थ्ये च लब्धे यत् किंचित्प्रथमतो विक्रयामासतुघृतं तत् द्रव्यमादाय तयोः स्वग्रामं गच्छतो अपांतराले अस्तंगते सहस्रभानौ सर्वतः प्रसरं अभिगृह्णति तमोविताने परास्कंदिनः समागत्य वासांसि द्रव्यं बलीवौ च अपहृतवंतस्तत एवं तौ महतो दुःखस्य भाजनं अजायेतां । एष दृष्टान्तोऽयमुपनयः-यो विनेयोऽन्यथा प्ररूपयन् अधीयानो वा कथं अपि खर| परुषवाक्यैः आचार्येण शिक्षितोऽधिक्षेपपुरस्सरं प्रतिवदति-यथा त्वया एव इत्थमहं शिक्षितः, किं इदानीं निड्नु ? इत्यादि, स
५३८॥ न केवलं आत्मानं संसारे पातयति, किन्तु आचार्य अपि खरपरुषप्रत्युच्चारणादिना तीव्रतीव्रतरकोपानलज्वालनाद्भवन्ति च कुविनेया
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नन्दिसूत्रम् ॥ ३९ ॥
अवचूरिसमलंकृतम्
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मृदोरपि गुरोः खरपरुषप्रत्युच्चारणादिना कोपप्रकोपकाः, यत उक्तं उत्तराध्ययनेषु-"अणासवा थूलवया कुसीला, मिउंपि चंडं पकरंति सीसा" इति । अपि च-गुणगुरवो गुरवस्ततः ते यदि कथं अपि दुष्टशैक्षशिक्षापणे न कोपं उपागमन् तथापि तेषां भगवदाज्ञाविलोपतो गुर्वी आशातना ततश्चोपचिताशुभगुरुकर्माणोनियमतो दीर्घतरसंसारभागिनः, किञ्च-एवं स वर्तमानो मतिमान् अपि श्रुतरत्नादहिर्भवति । अन्यत्रापि तस्य दुर्लभश्रुतत्वात् कोहि नाम सचेतनो दीर्घतरजीविताभिलाषी सर्पमुखे स्वहस्तेन पयोबिन्दन प्रक्षिपति इति, स एकान्तेन अयोग्यः ? प्रतिपक्षभावनायां अपि इदमेव कथानकं परिभावनीयं, केवलं इह घृतघटे भन्ने सति द्वौ अपि तो दम्पती त्वरितं त्वरितं कप्परे यथाशक्ति घृतं गृहीतवन्ती, स्तोकं एव विननाश, निन्दति च आत्मानं आभीरो यथा-हा न मया घृतघटः ते सम्यक् समर्पितः, आभीर्यपि वदति-समप्पिंतस्त्वया सम्यक्, परं न मया सम्यक् गृहीतः, तत एव तयोः न कोपावेशदुःखं नापि घृतहानि नापि सकाल एव अन्यसार्थिकैः सह स्वग्रामं अभिसर्पतां अपान्तराले तस्करावस्कन्दः, ततस्तौ सुखभाजनं जाती, एवमिहापि कथंचित् अनुपयोगादिनाऽन्यथारूपे व्याख्याने कृते सति पश्चादनुस्मृतयथावस्थितव्याख्यानेन मरिणा शैक्ष पूर्वमुक्तं व्याख्यानं चिन्तयन्तं प्रत्येवं वक्तव्यं-वत्स! मैवं व्याख्यः, मया तदानीं अनुपयुक्तेन व्याख्यातं, तत एवं व्याख्याहि ।। तत एवं उक्ते सति यो विनेयः कुलीनो विनीतात्मा स एवं प्रतिवदति-यथा भगवंतः? किं अन्यथा प्ररूपयंति', केवलं अहं मतिदौर्बल्यादन्यथावगतवान् इति, स एकान्तेन योग्यः ?, एवं विधाश्च विनेयाः प्रहादितगुरुमनसः श्रुतार्णवपारगामिनो जायन्ते, चारित्रसंपदश्च भागिनः ॥ १४ ॥
तदेवं एकैकं शैक्षं अधिकृत्य योग्यायोग्यत्वविभागोपदर्शनं कृतं । संप्रति सामान्यतः पर्षदो योग्यायोग्यरूपतया निरूपयति ।
॥ ३९॥
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नन्दिसत्रम्
॥४०॥
अपचूरिसमलंकृतम्
SHRSHASRARॐॐ
सा समासओ तिविहा पन्नत्ता तं जहा जाणिया, अजाणिया, दुन्विअड्ढा, जाणिआ जहा खीरमिव, जहा हंसा जे घुट्टन्ति इह गुरुगुणसमिद्धा दोसे अ विवजंति तं जाणसु जाणिया परिसा। अजाणिया जहाजा होइ पगइमहुरा मियछावयसीहकुक्कुडयभुआ। रयणमिव असंठविआ, अजाणिआ सा भवे परिसा ॥१॥
दुब्बिअढा जहा-नय कत्थइ निम्माओ नय पुच्छइ परिभवस्स दोसेणं। वत्थिव्व वायपुण्णो फुइ का गामिल्लय विअड्ढो ॥२॥ का सा समासओ तिविहा इत्यादि, सा पर्षत्समासतः संक्षेपेण त्रिधा त्रिप्रकारा प्रज्ञप्ता, तीर्थकरगणधरैः इति गम्यते, पर्षत
इति कथं लभ्यते इति चेदुच्यते, इह प्रागुक्तं-प्रारम्भणीयः प्रवचनानुयोग इति, अनुयोगश्च शिष्यमधिकृत्य प्रवर्त्तते । निरालम्बनस्य तस्याभावात्ततः सामर्थ्यात्सा इति उक्ते पपदिति लभ्यते । तद्यथा इति उदाहरणोपदर्शनार्थः, 'जाणिय'त्ति 'ज्ञा अवबोधने' जानातीति ज्ञा, झिका नाम परिज्ञातवती, किमुक्तं भवति ? कुपथप्रवृत्तपाखंडमतेनादिग्धांतःकरणा गुणदोषविशेषपरिज्ञानकुशलाः सतां अपि दोषाणां अपरिग्राहिका केवलगुणयत्नवती इति । उक्तंच-गुणदोसविसेसण्णू अणभिग्गहिया कुस्सुइमएसु । एसा जाणगपरिसा गुणतत्तिल्ला अगुणवजा ॥१॥ अत्र गुणतत्तिल्लेति गुणेषु यत्नवती गुणग्रहणपरायणेत्यर्थः, अगुणवज्जेत्ति अगुणान्-दोषान् वर्जयति, सतोऽपि न गृह्णाति इति अगुणवर्जा । तथा अज्ञिका-शिकाविलक्षणा, सम्यक् परिज्ञानरहिता, किमुक्तं भवति ? । या ताम्रचूडकंठीर
वकुरंगपोतवत प्रकृत्या मुग्धस्वभावा असंस्थापितजात्यरत्नमिवांतर्वि शिष्टगुणसमृद्धा सुखप्रज्ञापनीया पर्षत् सा अनिका । उक्तंच-"पगई है। मुद्ध अयाणिय मिगच्छावगसीहकुडगभूया । रयणमिव असंठविया सुहसणप्पा गुणसमिद्धा ॥१॥" इह 'मिगसावगसीहकुकुडगभूय
॥४०॥
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इन्दिसत्रम् ॥४१॥
अवभि ५ समलंकवर
तिसावगशदोओ सम्बद्धयते, ततो मृगसिंहकुर्कुटशावभूता इत्यर्थः, 'असंठविय'ति असंस्थापिता, असंस्कृता इत्यर्थः। 'सुखसंज्ञाप्या' सुखेन प्रज्ञापनीयाः। तथा दुखियड्ढ 'त्ति' दुर्विदग्धा मिथ्याहङ्कारविडम्बिता, किमुक्तं भवति?, या तत्तद्गुगज्ञपाचोपगमनेन कतिपयपदानि उपजीव्य पांडित्यामिमानिनी किंचित्र मात्र अर्थदं सारं पल्लंघमात्र वा श्रुत्वा तत ऊ निजपांडित्यख्यापनायामिमानतोऽवज्ञया पश्यति । अर्थ कथ्यमानं चात्मनो बहुव्रतासूचनाय अग्रे त्वरितं पठति सा पर्वद् दुर्विदग्धा इत्युच्यते ॥ उक्तं च-किंचिम्मत्तम्गाही पल्लवमाहीय तुरियगाहीय। दुवियड्डिया उ एसा भणिया तिविहा भवे परिसा ॥१॥" अमूपा च तिसगां पदांमध्ये आधे द्वे पर्षदौ अनुयोगयोग्ये, वतीया तु अयोग्या। तत आये द्वे एव अधिकृत्य अनुयोगः प्रारम्भणीयो, न तु दुर्विदग्धां, माभूत् आचार्यस्य निःफलः परिश्रमः, तस्याश्च दुरंतसंसारोपनिपातः, सा हि तथास्वाभाव्यात् यत्किमपि अर्थदं श्रृणोति, तदपि अवजया, श्रुत्वा च सारपदं अन्यत्र सर्वजनातिशायिनिजपांडित्यामिमानतो महतो महीयसोऽवमन्यते । तदवज्ञया च दुरंतसंसाराभिचंग इति स्थितं, तदेवमभीष्टदेवतास्तवादिसंपादितसकलसौहित्यो भगवान् व्यगणिपादोरसेवी पूर्वांतर्गतस्त्रार्थवारको देववाचको योग्यविवेयपरीक्षां कृत्वा संप्रति अधिकृताध्ययनसियस ज्ञानस्य प्ररूपणां विदधाति
नाणं पञ्चविहं पन्नतं तंजहा-आमिणिमोहिअनाणं सुअनाणं, ओहिनाणं, मगपज्जवनाणं केवलनाणं॥
शातिर्मानं, 'पंच' इति संख्यावाचकः विधान विधा 'उपसर्गादात [सि. है. ५-३-११०] इत्यत्ययः, पंचविधा:प्रकारा यस्य तत्पंचविधं पंचाकार 'प्रज्ञप्तं तीर्थकरगणधरैः इति सामर्थ्यादवसीयते । अन्यस्य स्वयं [अ] प्ररूपकत्वेन प्ररूपणासंभवादुक्तं च 'अत्थं भासह अरहां मुहं गुंभंति गणहरा निउणं । सासणस्त हिपट्ठाए तओ सुसं पवत्तह ॥१॥ एतेन स्वमनीषिकाव्युदासं आह । अथवा
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मन्दिसूत्रम्
पयापस
प्रज्ञा बुद्धिस्तया आप्तं, तीर्थकरगणधरैः इति गम्यते, तद्यथा इसि-उदाहरणोपदर्शनार्थः, आभिनिबोधिकज्ञानं श्रुतज्ञानं मन:-ला
पर्यायज्ञानं केवलज्ञानं तत्रार्थाभिमुखो नियतप्रतिनियतस्वरूपो बोधो बोधविशेषोऽभिनिबोधः, अभिनिबोध एव आभिनिबोधित अपरि1RI
8 अभिनिबोधशदस्य विनयादिपाठाभ्युपगमाद् 'विनयादिभ्य' [सि. है. ७-२-१३०] इति अनेन स्वार्थे इकल् प्रत्ययः, 'अतिवर्तन्ते सम
स्वार्थिके प्रत्ययकाः प्रकृति तोलिंगवचनानि' इति वचनात् अत्रै नपुंसकता। यथा विनय एव वैनयिकं इत्यत्र, अथवा : अभिनिबुध्यतेऽनेन अस्मादस्मिन् वा इति अभिनिबोधः तदावरगकर्मक्षयोपशमस्तेन निवृत्तं आभिनिवोधिकं आभिनिवोधिकं च तत् ज्ञानं च आभिनिबोधिकज्ञानं इन्द्रियमनोनिमित्तो योग्यदेशावस्थितवस्तुविषयः स्फुटप्रतिभासो बोधविशेष इत्यर्थः । तथा श्रवणं श्रुतं वाच्यवाचकभावपुरस्सरीकारेण शद्वसंस्पृष्टार्थग्रहणहेतूरूपलब्धिविशेषः, एवमाकारवस्तु जलधारणादिअर्थक्रियासमर्थ घटशद्भवाच्यं इत्यादिरूपतया प्रधानीकृतत्रिकालसाधारणसमानपरिणामः शदार्थपर्यालोचनानुसारी इन्द्रियमनोनिमित्तोऽवगमधिशेष इत्यर्थः, श्रुतं च तत् [चज्ञानं श्रुतज्ञानं तथाऽवशद्रोऽधःशद्वार्थः अव-अधोधो विस्तृत वस्तु धीयते परिच्छिद्यतेऽनेन इत्यवधिः अथवा अवधिःमर्यादा रूपिषु एव द्रव्येषु परिच्छेदकतया प्रवृत्तिरूपा तदुपलक्षितं ज्ञानं अपि अवधिः, यद्वा अवधानं आत्मनोऽर्थसाक्षात्करणव्यापारोवधिः, अवधिश्च 3 तद्वानं च अवधिज्ञानं । मैनसि मनसो वा पर्यवः मनःपर्यवः सर्वतो मनोद्रव्यपरिच्छेद इत्यर्थः । अथवा मनःपर्यय इति पाठः तत्र पर्ययणं पर्ययः, भावे अल्प्रत्ययः, मनसि मनसो वा पर्ययो मनःपर्ययः, सर्वतस्तत्परिच्छेद इत्यर्थः । स च तद्ज्ञानं च मनःपर्ययज्ञानं,
॥४२॥ १ आभिनिबोधके इत्यत्र । २ अत्र विषयस्य बहुत्वमङ्गीकृत्यैवं व्युत्पतिः, अन्यथा तिरार्ध वा विश्य परिच्छिन्दानस्थावधिव्यादेशो टून स्यात् । ३ अत्र मनःशब्देन भावमनो ग्राह्यः, तस्वार्थटीकायां तथोक्तत्वात् । (पृ.७०)
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FORE
अवचूरि
समलछतम्
मन्दिसूत्रम् ॥४३॥
तथा केवलं एकं असहाय मत्यादिज्ञाननिरपेक्षत्वात्केवलज्ञानप्रादुर्भावे मत्यादीनां असंभवो यतो मतिज्ञानादीनि स्वस्खावरणक्षयोपशमे प्रादुःषति, ततो निर्मूलस्वस्त्रावरणविलये तानि सुतरां भविष्यन्ति, चारित्रपरिणामवत् । उक्तंच “आवरणदेसविगो जाई विनंति मइसुयाईणि । आवरणसमविगमे कह ताई न होंति जीवस्स ॥१॥
' तं समासओ दुविहं पन्नतं तंजहा पञ्चक्खं च परोक्खं च ॥ तत्पंचप्रकारं अपि ज्ञानं 'समासतः' संक्षेपेण 'द्विविधं द्विप्रकारं प्रज्ञप्तं, 'तद्यया' इति उदाहरणोपन्यासार्थः । प्रत्यक्ष च परोक्षं च, तत्र 'अशूङ व्याप्तौं' अश्नुते ज्ञानात्मना सर्वानान् व्याप्नोति इति अक्षः। अश्या 'अशू भोजने' अश्नाति सर्वानान् यथायोग्यं भुङ्क्ते पालयति वेत्यक्षो जीवः । उभयत्रापि औगादिकः सरत्ययः, तं अशं-जी साक्षात् वर्तते यत् ज्ञानं तत्प्रत्यक्ष-इन्द्रियमनोनिरपेक्ष आत्मनः साक्षात्प्रवृत्तिमत् अवध्यादिकं त्रिप्रकारं । उक्तं च-जीवो अक्खो अत्यवावगभोयगगुगन्निभोजेगंतं पद वट्टई नाणं जं पञ्चखं तयं तिविहं॥१॥ च शद्वः स्वगतानेकावध्यादिभेदसूचका, तथा अक्षस्थ-पात्मनो द्रव्येन्द्रियाणि द्रव्यमनश्च पुगलनयत्वात् । पराणि वर्ततेपृथग वर्त्तते इत्यर्थः, तेभ्यो यत् अक्षस्य ज्ञानं उदयते तत्परोक्षं, 'पृशोदरादय' [सि,है. ३-२-१५५] इति रुपसिद्धिः, अथवा परैरिंद्रियादिभिः सह अक्षसंबंधो विषयविषयिभावलक्षणो यस्मिन् ज्ञाने, न तु साक्षात् , आत्मनो धूमात् अग्निज्ञानं इव तत् परोक्षं, उभयत्रापि इन्द्रियमनोनिमिचं ज्ञानमभिधेयमाह-इन्द्रियमनोनिमित्ताधीनं कथं परोक्ष?, उच्यते, पराश्रयत्वात्, तथाहि-पुद्गलमयत्वात् द्रव्येन्द्रि
यमनांसि आत्मनः पृथग्भूतानि, ततः तत् आश्रयेण उपजायमानं ज्ञानं आत्मनो न साक्षात् , किंतु परंपरयेति इंद्रियमनोनिमितं BI ज्ञातं धूमादग्निज्ञानं इव परोक्ष। उक्तं च-अक्खस्स पोग्गलमया जं दबिंदियमणोपरा होति । तेहिं तो जनाणं परोक्खमिहतमणुमाणं
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माइस्चम .
अवचरि
समलैकृतम्
सेव॥१॥ तदेवं प्रत्यक्ष परोक्षं 'से किं तं पञ्चक्वं' ति, च इति मेदद्वयोपन्यासे कृते सति शिष्योजाबुद्धयमानः प्रश्नं विधते
से किं तं पञ्चां । पचवां दुविहं पन्नतं तंजहा इंदियपचक्क नो इंदियपञ्चां च । से शब्दो मागधदेशीयप्रसिद्धो निरातोऽथशब्दार्थे वर्चते। एवं शिष्येग प्रश्ने कृते सति न्यायमार्गोपदर्शनार्थ आचार्यः शिष्यपृष्टपदानुवादपुरस्सरीकारेण प्रतिवचनमभिवातुकाम आह-पच्चक्खं दुविहं पण्ण, इत्यादि, एवमन्यत्रापि यथायोगं प्रश्ननिर्वचनसूत्राणां पातनिका भावनीया । प्रत्यक्ष द्विविवं प्रज्ञाप्तं, तबया-इन्द्रियप्रत्यक्ष नोइन्द्रियप्रत्यक्षंच, तत्र 'इदु परमैश्वर्षे 'उदितो नुमिति नुम् , इन्द्रः-आत्मा सर्वद्रव्योपलब्धिरूपपरमश्वर्ययोगात्तस्य लिङ्ग-चिहं अविनामावि 'इंदियं, 'इन्द्रियं इति निपातनसूत्रात् रूपनिष्पत्तिः, तत् द्विधा-द्रव्येन्द्रियं भावेन्द्रियं च, तत्र द्रव्येन्द्रियं द्विवा-निवृतिः उपकरणं च, निवृत्तिनाम प्रतिविशिष्टाः संस्थानविशेषाः, सारि विधा-बाह्या अभ्यंतरा च, तत्र बाधा कर्णपर्पटकादिरूपा, सापि विचित्रा-नप्रतिनियतरूपतयोपदेष्टुं शक्यते। तथाहि-मनुष्यस्य श्रोत्रे-भ्रसने नेत्रयोः उभयपार्श्वतः संस्थिते वाजिनोः मस्तके नेत्रयोः उपरिटात् भाविनी तीक्ष्णे चाग्रभागे इत्यादि जाति मेदात् नानाविवाः अनंतरातु निचिः सर्वेषामपि
जन्तूनां समाना,इहस्सशनेन्द्रियनिवृत्तेः प्रायोनबाह्याभ्यंतरभेदः। तचार्थमूलटीकायां तथामिवानात् , उपकरण खगथानीयाबाधा, नितिः है-या खड्गधारासमाना स्वच्छतरपुदलसमूहात्मिका अभ्यन्तरानिवृचित्तस्याः शक्तिविशेषः, इदं च उपकरणरूपं द्रव्येन्द्रियमान्तरनितिः
कथंचिदर्थांतरं, शक्तिशक्तिमतोः कथंचिढ़ेदश्च सत्यां अपि कदंबपुष्पादि आकृतिरूपायां अंतरनिवृत्तौ अतिकठोरतरघनगर्जितादिना' | शक्ति उपघाते सति न परिच्छेतुमीशते जंतवः शन्दादिकं इति, भावेन्द्रियमपि द्विधा-लब्धिउपयोगच, तब लब्धिः श्रोत्रेन्द्रियादिविषयः
१'नानाकारं कायेन्द्रियमसङ्ख्य मेहत्वादस्य चान्तर्बहिमेदो निवृसन कश्चित् प्रायः' इति । (पृ. १६५)
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नन्दिसूत्रम् ॥४५॥
अवचूरि४ समलंकृतम्
CHURCHORRORHORROR
इंद्रियप्रत्यक्षं पंचविधं प्राप्तं, तद्यथा-श्रोत्रंद्रियप्रत्यक्षं इत्यादि, तत्र श्रोत्रंद्रियस्य प्रत्यक्षं श्रोत्रंद्रियप्रत्यक्षं । श्रोत्रंद्रियं निमिचीकृत्य यदुत्पनं ज्ञानं तत् श्रोत्रंद्रियप्रत्यक्षमिति भावः । एवं शेषेषु अपि भावनीयं । एतच्च व्यवहारत उच्यते, न परमार्थत इति अनंतरं एव प्रागुक्तं । आह-स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्राणि इंद्रियाणि इति क्रमः, अयमेव च समीचीन:, पूर्वपूर्वलाम एव उत्तरोत्तरलाभसंभवात्ततः किमर्थ उत्क्रमोपन्यासः कृतः१, उच्यते, अस्ति पूर्वानुपूर्वी, अस्ति पश्चानुपूर्वीति न्यायप्रदर्शनार्थ, अपि च-शेषंद्रियापेक्षया श्रोत्रंद्रियं पटु, ततः श्रोत्रंद्रियस्य प्रत्यक्षं तत् शेषंद्रियप्रत्यक्षापेक्षया स्पष्टसंवेदनं, स्पष्टसंवेदनं च उपवर्ण्यमानं विनेयः सुखेन अवबुध्यते, ततः सुखप्रतिपत्तये श्रोत्रंद्रियादिक्रमः उक्तः॥
से किं तं नोइंदिअपञ्चक्खं ? नोइंदिअपञ्चक्खं तिविहं पन्नतं, तं जहा-ओहिनाणं नोइंदिअपञ्चक्खं । मणपज्जवनाणं नोइंदिअपच्चक्ख । केवलनाणं नोइंदिअपच्चक्खं । से किं तं ओहिनाणनोइंदिअपञ्चक्ख ? ओहिनाणनोइंदिअपचक्ख दुविहं पन्नत्तं,तं जहा-भवपच्चइअंच खओवसमिअंच । से किं तं भवपच्चइयं? भवपच्चयं दोण्हं पन्नत्तं, तं जहा देवाण य नेरइआण य। से किं तं वओवसमि खओवसमिअं दुविहं पन्नत्तं, तं जहा-मणूसाण य पंचिंदिअतिरिक्खजोणिआण य । को हेऊ खओवसमिअं? खओवसमिअं । १-प्रत्यक्षशब्दस्य केचित् अक्षं अक्षं प्रति वर्तते इत्यव्ययीभावं विदधति तच्च न युज्यते-अनुयोगद्वारटीकायां-निषिद्धत्वात् किन्तु प्रतिगतम्-आश्रितमक्षं प्रत्यक्षमिति तत्पुरुष एवं प्रायः अव्ययीभावे त्रिलिजताभावात्-प्रत्यक्षो बुद्धिः प्रत्यक्षो बोधः प्रत्यक्षं ज्ञानमिति त्रिलिङ्गवा न स्यादिति भावः ।
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॥४५॥
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नन्दिसूत्रम्
| अवधिसमळंकृतम्
तयावरणिज्जाणं कम्माणं उदिण्णाण खएणं अणुदिण्णाणं उवसमेणं ओहिनाणं समुपज्जइ ।
अथ किं तन् नोइंद्रियप्रत्यक्षं १, नोइंद्रियप्रत्यक्षं त्रिविध प्रज्ञप्तं, तद्यथा-अवधिज्ञानप्रत्यक्षं इत्यादि । अथ किं तत् | अवधिज्ञानप्रत्यक्ष अवधिज्ञानप्रत्यक्षं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-मवप्रत्ययं च क्षायोपशमिकं च, तत्र भवंति कर्मवशवर्तिनः प्राणिनः अस्मिन्निति भवो-नारकादि जन्म 'नाम्नी'ति अधिकरणे घप्रत्ययः, भव एव प्रत्यय:-कारणं यस्य तद् भवप्रत्ययं, प्रत्ययशब्दश्च इह कारणपर्यायः, वर्त्तते च प्रत्ययशब्दः कारणत्वे, यत उक्तं-'प्रत्ययः शपथे ज्ञाने, हेतुविश्वासनिश्चये', चशब्दः स्वगतदेवनारकाश्रितमेदद्वयसूचका, तौ च द्वौ मेदौ अनंतरं एव वक्ष्यति । तथा क्षयश्च उपशमश्च क्षयोपशमौ ताम्यां निवृत्तं वायोपशमिकं, चशब्दः स्वगतानेकमेदसूचका, तत्र यत् एषां भवति तत् तेषां उपदर्शयति-दोण्हमित्यादि, द्वयोः जीवसमूहयोः भवप्रत्ययं, तद्यथा-देवानां नारकाणां च । तत्र दीव्यंति-निरुपमक्रीडा अनुभवंति इति देवास्तेषां, तथा नरान् कायति-शब्दयंति योग्यताया अनतिक्रमेणाकारयति जंतून स्वस्थाने इति नरकास्तेषु भवा नारकास्तेषां, चशब्द उभयत्रापि स्वगतानेकभेदसूचका, ते च संस्थानचिंतायां अग्रे दर्शयिष्यते । अत्र आह पर:-ननु अवधिज्ञानं वायोपशमिके भावे वर्तते नारकादिभवश्च औदयिके तत्कथं देवादीनां अवधिज्ञानं भवप्रत्ययं इति व्यपदिश्यते १, न एष दोषः, यतस्तदपि परमार्थतः क्षायोपशमिकं एव, केवलं सक्षयोपशमो देवनारकमवेषु अवश्य मावी पक्षिणां गगनगमनलन्धिः इव, ततो भवप्रत्ययं इति व्यपदिश्यते, तथा द्वयोः क्षायोपशमिकं तत् , यथा मनुष्याणां च पंचेंद्रियतिर्यग्योनिजानां च,
१-पुं नाम्निघः' इति सि. है.५-३-१३०. सूत्रमुपलभ्यते ।
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मन्दिसूत्रम्
अवनि
समलंकृतम्
CHECAUCAREGA
अत्रापि चशन्दौ प्रत्येकं स्वगतानेकमेदसूचकौ, पंचेंद्रियतिर्यग्मनुष्याणां चावधिज्ञानं नावश्यं मावि, ततः समानेऽपि क्षायोपशमिकत्वे भवप्रत्ययादिदं भिद्यते । परमार्थतः पुनः सकलमपि अवधिज्ञानं वायोपशामिकं ॥'को हेतु किं निमित्वं यत् वशात् अवधिज्ञानं बायोपशमिकं इत्युच्यते', क्षायोपशमिकं येन कारणेन तदावरणीयानां अवधिज्ञानावरणीयानां कर्मणां उदीर्णानां क्षयेण अनुदीर्णानां-उदयावलिको अप्राप्तानां उपशमेन-विपाकोदयविष्कंभलक्षणेन अवधिज्ञानं उत्पद्यतेऽनेन कारणेन वायोपशमिकं इति उच्यते । क्षयोपशमश्च देशषातिरससर्द्धकानां उदये सति भवति न सर्वघातिरसस्पर्द्धकानां, अथ किं इदं देशघातीनि सर्वघातीनि वा रसस्पर्धकानि इति ? उच्यते, इह कर्मणां प्रत्येकं अनंतानंतानि रसस्पर्द्धकानि भवंति, रसस्पर्द्धकस्वरूपं च कर्मप्रकृतिटीकायां सप्रपंचं उपदर्शितं इति न भूयो दयते ।
अह वा गुणपडिवनस्स अणगारस्स ओहिनाणं समुपज्जा तं समासओ छबिहं पन्नत्तं तं जहाआणुगामिअं, अणाणुगामि, वड्डमणियं, हीयमाणयं, पडिवाइय, अप्पडिवाइयं । सू० ॥९॥
'अथवा' इति प्रकारांतरोपदर्शने, प्रकारांतरता च गुणप्रतिपत्तिमंतरेणेत्यपेक्ष्य द्रष्टव्या, गुणा:-मूलोत्तररूपास्तान् प्रतिपन्नो गुणप्रतिपन्नः, अथवा गुणैः प्रतिपन्नः पात्रं इति कृत्वा गुणैः आश्रितो गुणप्रतिपन्ना, अगारं-गृहं न विद्यते यस्यासौ अनगारः, परित्यक्तद्रव्यमावगृह इत्यर्थः। तस्य-प्रशस्तेषु अध्यवसायेषु वर्चमानस्य सर्वघातिरसस्पर्द्धकेषु देशघातिरसस्पर्द्धकतया जातेषु पूर्वोक्तक्रमेण क्षयोपशमभावतोऽवधिज्ञानमुपजायते । तद् ' अवधिज्ञानं 'समासतः' संक्षेपेण 'पविध' षट्प्रकारं प्रबतं, तद्यथा-'आनुगामिकमि 'त्यादि, तत्र गच्छंतं पुरुष-आसमंतादनुगच्छति इत्येवं शीलं आनुगामि आनुगाम्येच
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अवचूरिक
मन्दिसूत्रम् ॥४८॥
समलंकृतम्
ALASANCHAR
आनुगामिकं, स्वार्थे का प्रत्ययः, अथवा अनुगमः प्रयोजनं यस्य तदानुगमिकं, यत् लोचनवत् गच्छंत अनुगच्छति तदवधिज्ञानं आनुगामिकमिति । तथा न आनुगामिकं अनानुगामिकं श्रृंखलाप्रतिबद्धप्रदीप इव यत् न गच्छंतं अनुगच्छति तदवधिज्ञानं अनानुगामिकं । उक्तं च-" अणुगामिओऽणुगच्छह गच्छंतं लोयणं जहा पुरिसं । इयरो उ नाणुगच्छह ठियप्पईवोध गच्छंतं ॥१॥" तथा वर्द्धत इति वर्द्धमान, ततः संज्ञायां कन्प्रत्ययः, बहुबहुतरेंधनप्रक्षेपादभिर्वर्द्धमानदहनज्वालाकलाप इव पूर्वावस्थातो यथायोग प्रशस्तप्रशस्ततराध्यवसायभावतो अभिवर्धमानं अवधिज्ञानं वर्द्धमानकं, तच्चासद्विशिष्टगुणविधुद्धिसापेक्षत्वात् । तथा हीयते-तथाविधसामग्र्यमावतो हानि उपगच्छति [तत् ] हीयमानं, कर्मकर्ट विवक्षायामानश्प्रत्ययः, हीयमानमेव हीयमानकं, 'कुत्सिताल्पाबाते' [सि. है.७-३-३३.] इति कप्प्रत्ययः, पूर्वावस्थातो यत् अधोऽधो डासं उपगच्छति अवधिज्ञानं तत् हीयमानकं इति भावः। उक्तं च-"हीयमाणं पुवावत्थाओ अहोऽहो हस्समाणं" इति । तथा प्रतिपतनशीलं प्रतिपाति, यदुत्पन्नं सत् क्षयोपशमानुरूपं कियत्कालं स्थित्वा प्रदीप इव सामस्त्येन विध्वंसं उपयाति तत् प्रतिपाति इत्यर्थः। हीयमानकप्रतिपातिनो का प्रतिविशेषः इति चेदुच्यते, हीयमानकं पूर्वावस्थातोऽधोऽधो डासं उपगच्छदभिधीयते । यत्पुनः प्रदीप इव निर्मूलं एककालं अपगच्छति तत् प्रतिपाति तथा न प्रतिपाति-यत् न केवलज्ञानात् अकि भ्रंशं उपयाति तत् अप्रतिपाति इत्यर्थः।
१-आनुगामिकानानुगामिकरूपभेदद्वये एव शेषभेदाः अन्तर्भावयितुं शक्यन्ते तथापि आनुगामिकानानुगमिकं चेत्युक्ते न वर्द्धमानकादयो विशेषा अवगन्तुं शक्यन्ते अतः विशेषभेदोपन्यासकरणमिति ज्ञेयम् ।
RECACASEAॐ
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मन्दिसूत्रम्
अवद्धि
.४९॥
समलंकृतम्
SALALASABSCASSA
से किं तं आणुगामि ओहिनाणं? आणुगामिओहिनाणं दुविहं पन्नत्तं, तं जहा-अंतगयं च मज्झगयं च । से किं तं अंतगयं । अंतगयं तिविहं पन्नत्तं, तं जहा-पुरओ अंतगयं । मग्गओ अंतगयं । पासओ अंतगयं । से किं तं पुरओ अंतगयं? पुरओ अंतगयं से जहानामए के पुरिसे उक्कं वा चड्डुलियं वा अलायं वा मणिं वा पईवं वा जोइं वा पुरओ काउं पणुल्लेमाणे २ गच्छेज्जा से तं पुरओ अंतगयं । से किं तं मग्गओ अंतगयं? मग्गओ अंतगयं से जहानामए के पुरिसे उक्कं वा चडुलिअं वा अलायं वा मणिं वा पईवं वा जोई वा मग्गओ काउं अणुकडेमाणे २गच्छिज्जा से तं मग्गओ अंतगयं । से किं तं पासओ अंतगयं ? पासओ अंतगयं से जहानामए के पुरिसे उक्कं वा चडलिअंवा अलायं वा मणिं वा पईवं वा जाई वा पासओ काउं परिकडेमाणे २ गच्छिज्जा से तं पासओ अंतगयं से तं अंतगयं । से किं तं मज्झगयं? मज्झगयं से जहानामए के पुरिसे उक्कं वा चडलिअंवा अलायं वा मणिं वा पईवं वा. जोई वा मत्थए काउं समुब्वहमाणे २ गच्छिज्जा से तं मज्झगयं । सू० ॥१०॥
अथ किं तत् आनुगामिकं अवधिनानं, आनुगामिकं अवधिज्ञानं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-अंतगतं[चमध्यगतं च, इह अंतशब्दः पर्यतवाची, यथा वनांते इत्यत्र, ततश्च अंते-पर्यते गतं-व्यवस्थितं अंतगतं । इहार्थत्रयव्याख्या अंते गतं-आत्मप्रदेशानां पर्यते स्थितं अंतगतं, इयमत्र भावना-इह अवधिरुत्पद्यमानः कोऽपि स्पर्द्धकरूपतया उत्पद्यते, स्पर्द्धकं च नानावधिज्ञानप्रमाया गवाक्षजालादिद्वारविनिर्गतप्रदीपप्रभाया इव प्रतिनियतो विच्छेदविशेषः, तथा च आह-जिनभद्रगणिक्षमा
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नन्दिसूत्रम् ॥५०॥
अक्यूरि समलंकृतम्
ACCOLANASANSAR
श्रमणः स्वोपज्ञमाष्यटीकायां-' स्पर्द्धकं अवधिविच्छेदविशेषः इति ।' तानि च एकजीवस्य संख्येया संख्येयानि वा भवंति ।। यत उक्तं-मूलावश्यके प्रथमपीठिकायां-" फड्डा य असंखेजा संखेजयावि एकजीवस्स" इति, तानि च चित्ररूपाणि । तथाहि-कानिचित् पर्यतवर्तिषु आत्मप्रदेशेषु उत्पद्यते । तत्रापि कानिचित्पुरतः कानिचित्पृष्टतः । कानिचिदधोमागे कानिचिदुपरितनमागे कानिचित्मध्यवर्तिषु आत्मप्रदेशेषु, [तत्र यदा अन्तर्वतिष्वात्मप्रदेशेषु ] अवधिज्ञानं उपजायते तत्(दा) आत्मना-पर्यते स्थितं इति कृत्वा अंतगतं इत्युच्यते । तैरेव पर्यन्तवर्तिभिः आत्मप्रदेशः साक्षादवधिरूपेण ज्ञानेन ज्ञानात् नशेषैरिति । अथवा औदारिकशरीरस्य अंते गतं-स्थितं अंतगतं, कयाचित् एकदिशोपलंभात् , इदमपि स्पर्द्धकरूपं अवधिज्ञानं, अथवा सर्वेषां अपि आत्मप्रदेशानां क्षयोपशमभावेऽपि औदारिकशरीरांतेन एकया दिशा यशादुपलभ्यते तत् अपि अंतगतं, आह-यदि सर्वात्मप्रदेशानां क्षयोपशमस्ततः सर्वतः किं न पश्यति', उच्यते, एकदिशा एव क्षयोपशमसंभवात् विचित्रो हि क्षयोपशमस्ततः सर्वेषां अपि आत्मप्रदेशानां इत्थंभूत एव स्वसामग्रीवशात् क्षयोपशमः संवृत्तो यत् औदारिकशरीरं
अपेक्ष्य कयाचित् विवक्षितया एकया दिशा पश्यति इति, तृतीयो अर्थ एकदिग्भाविना तेन अवधिज्ञानेन यत् उद्योतितं PI क्षेत्रं तस्य अंते वर्तते तदवधिज्ञानं, अवधिज्ञानवतः तदंते वर्चमानत्वात् , ततोऽते-एकदिग्रूपस्यावधिज्ञानविषयस्य पर्यन्ते | व्यवस्थितमंतगतं, चशब्दो देशकालादिअपेक्षया स्वगतानेकमेदसूचकः, तथा 'मध्यगतं च' इति इह मध्यं-प्रसिद्ध दंडादिमध्यवत् , ततो मध्येगतं मध्यगतं, इदमपि त्रिधा व्याख्येयं आत्मप्रदेशानां मध्ये-मध्यवर्तिषु आत्मप्रदेशेषु गतंस्थितं । इदं च स्पर्द्धकरूपं अवधिज्ञानं सर्वदिग्उपलंभकारणं मध्यवर्तिनां आत्मप्रदेशानां अवसेयं । अथवा सर्वेषां अपि
ACADACHALCHAR
॥५०॥
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मन्दिसूत्रम्
अवहिन ४ समलंकृतम्
| अवधिज्ञानिना
या एकतरपार्श्वतो वा अंतगत अपि पदेषु एकारातत्वमा तीर्थकता देशनाप्रवृत्तेः
GSECRECASEAS
आत्मप्रदेशानां क्षयोपशममावेऽपि औदारिकशरीरमध्यभागेन उपलब्धिः तन्मध्ये गतं मध्यगतं । अथवा तेन अवधिज्ञानेन यद्योतित क्षेत्रं सर्वासु दिक्षु तस्य मध्ये-मध्यभागे गतं-स्थितं मध्यगतं, अवधिज्ञानिनः तद्योतितक्षेत्रमध्यवर्णित्वात् । चशब्दः स्वगतानेकमेदसूचकः । अथ किं तत् अंतगतं', अंतगतं 'त्रिविधं' त्रिप्रकारं प्रजातं, तद्यथा-तत्र 'पुरतः' अवधिज्ञानिनः स्वव्यपेक्षया अग्रभागे अंतगतं पुरतः अंतगतं । तथा मार्गत:-पृष्ठतः अंतगतं मार्गतः अंतगतं, तथा पार्श्वतोद्वयोः पार्श्वयोः एकतरपार्श्वतो वा अंतगतं पाश्वतोऽतगतं । अथ किं तत्पुरतः अंतगतं ?,' से जहा' इत्यादि 'स' विवक्षितो यथानामकः कश्चित्पुरुषः अत्र सर्वेषु अपि पदेषु एकारांतत्वमेवत्वं 'अतः सौ पुंसि' इति मागधिकभाषालवणात । सर्व अपि हि प्रवचनं अर्द्धमागधिकभाषात्मकमर्धमागधिकमाषया तीर्थकतां देशनाप्रवृत्तेः, ततः प्राय: सर्वत्रापि मागधिकभाषालक्षणं अनुसरणीयं । ' उकं वा इति ' उल्का-दीपिका, वाशब्दः सर्वोऽपि विकल्पार्थः, 'चटुली वा' चटली-पर्यन्तज्वलितवणपूलिका 'अलातं वा ' अलातं-उल्मुकं अग्रभागे ज्वलत्काष्टं इत्यर्थः । 'मणि वा' मणिं प्रतीतः, 'ज्योतिर्वा 'ज्योतिः शरावादिआधारो वलदग्निः, 'प्रदीपं वा' प्रदीपः-प्रतीतः 'पुरतः' अग्रतः हस्ते दंडादौ वा कृत्वा । प्रणुदनरहस्तस्थितं दंडाग्रादिस्थितं वा क्रमेण स्वगतिअनुसारतः प्रेरयन् प्रेरयन् 'गच्छेत्' यायात् , एष दृष्टांता, उपनयस्तु | स्वयमेव भावनीयः, तत उपसंहरति-' से तं पुरओ अंतगतं' से शब्दः प्रतिवचनउपसंहारदर्शने, तदेतत्पुरतः अंतगतं, इयमत्र भावना-यथा स पुरुष उल्कादिभिः पुरत एव पश्यति, नान्यत्र, एवं येन अवधिज्ञानेन तथाविधक्षयोपशमभावतः पुरत एव पश्यति, नान्यत्र, तदवधिज्ञानं पुरस: अंतगर्ने अभिधीयते । एवं मार्गतोऽतगत[स्त्र]पार्श्वतोऽतगतसत्राच]
ASSAGAR
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मन्दिसूत्रम् ॥ ५२॥
ACA
अवचूरिसमलंकृतम्
KAHAARAA
भावनीयं, नवरं ' अणुकड्वेमाणे ' ति हस्तगतं दंडाप्रादिस्थितं वा अनु-पश्चात् कर्षन् अनुकर्षन् पृष्ठतः पश्चात् कृत्वा समाकर्षन् समाकर्षनित्यर्थः। तथा पार्श्वतः दक्षिणपार्श्वतः अथवा वामपार्श्वतो यदा द्वयोरपि पार्श्वयोः उल्कादिकं हस्तस्थितं दंडाग्रादिस्थितं वा परिकर्षन्-पार्श्वभागे कृत्वा समाकर्षन् समाकर्षनित्यर्थः । से किं तं मझगतं इत्यादि निगदसिद्धं नवरं 'मस्तके 'शिरसि कृत्वा गच्छेत्तदेतत् मध्यगतं, इयं अत्र भावना-यथा तेन मस्तकस्थेन सर्वासु दिक्षु पश्यति, एवं येन अवधिज्ञानेन सर्वासु दिक्षु पश्यति तन्मध्यगतमिति ।
इत्थंभूतां च व्याख्यां सम्यग् नावबुध्यमानः शिष्यः प्रश्नं करोति । ___ अंतगयस्स मज्झगयस्स य को पइविसेसो ? पुरओ अंतगएणं ओहिनाणेणं पुरओ चेव संखिजाणि वा असंखेजणि वा जोअणाई जाणइ पासइ । मग्गओ अंतगएणं ओहिनाणेणं मग्गओ चेव संखिजाणि वा असंखिजाणि वा जोअणाइं जाण पासइ । पासओ अंतगएणं ओहिनाणेणं पासओ चेव संखिजाणि वा | असंखेज्जाणि वा जोअणाई जाणइ पासइ । मज्झगएणं ओहिनाणेणं सवओ समंता संखिजाणि वा असंखेन्जाणि वा जोअणाई जाणइ पासह से तं आणुगामि ओहिनाणं ।
अंतगतस्य मध्यगतस्य च परस्परं का प्रतिविशेषः १ प्रतिनियतो विशेषः ? मूरिराह-पुरता अंतगतेन अवधिज्ञानेन पुरत
१ देवनारकतीर्थकृता अवश्यं इदमेव भवति, देवनारकाणां आभववर्ति तीर्थकृतां तु आकेवलज्ञानमिति, तिरश्चामन्तगतं | भवति, मनुष्याणां तु यथा क्षयोपशमं भवतीति विज्ञेयम् ।
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ASHOG
मन्दिसूत्रम्
अवचूरिसमलंकृतम्
एव-अग्रत एव संख्येयानि एकादीनि-शीर्षप्रहेलिकापर्यतानि, [वा] असंख्येयानि योजनानि, [वा] एतावत्सु योजनेषु अवगाद द्रव्यमित्यर्थः। जानाति पश्यति, ज्ञानं विशेषग्रहणात्मकं दर्शन सामान्यग्रहणात्मकं, तदेवं पुरतः अंतगतस्य शेषावधिज्ञानेभ्यो भेदः, एवं शेषाणां अपि परस्परं भावनीयः, नवरं सर्वतः-सर्वासु दिग विदिक्षु समंतात-सर्वैः एव आत्मप्रदेशः सर्वेः वा विशुद्ध [स्पर्द्ध] कैः तदेवमुक्तं आनुगामिकं अवधिज्ञानं ।
संप्रति अनानुगामिक शिष्यः पृच्छन्नाह ।
से कितं अणाणुगामि ओहिनाणं अणाणुगामि ओहिनाणं से जहानामए केइ पुरिसे एगं महंतं जोइहाणं काउं तस्सेव जोइहाणस्स परिपेरंतेहिं २ परिघोलेमाणे २ तमेव जोइटाणं [जाणइ ] पासह | अन्नत्थगए न जाणइ न पासेइ एवमेव अणाणुगामि ओहिनाणं जत्थेव-समुपज्जेइ तत्थेव संखिजाणि वा असंखिज्जाणि वा संबद्धाणि वा असंबद्धाणि वा जोअणाइं जाणइ पासइ अन्नत्थगए न जाणइ न पासह से तं अणाणुगामि ओहिनाणं । ॥ सू०॥११॥
अथ किं तत् अनानुगामिकं अवधिज्ञानं, सरिराह-अनानुगामिकं अवधिज्ञानं स-विवक्षितो यथानामकः कश्चित् पुरुषः पूर्णः सुखदुःखानां इति पुरुषः पुरि शयनात् वा पुरुषः, एकं महत् ज्योतिःस्थानं-अग्निस्थानं कुर्यात् । कस्मिन्चित् स्थाने अनेकज्वालाशतसंकुलं अग्नि प्रदीपं वा स्थूलवर्तिज्वालारूपं उत्पादयेदित्यर्थः । ततस्तत् कृत्वा तस्य एव ज्योतिःस्थानस्य 'परिपर्यतेषु २' परितः सर्वासु दिक्षु पर्यतेषु 'परिघूर्णन परिघूर्णन् ' [परिभ्रमन् ] परिभ्रमन्नित्यर्थः । तदेव 'ज्योति:
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५३.
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मन्दिसूत्रम्
अवारि
४ समलंकृतम्
स्थान' ज्योतिःस्थानप्रकाशितं क्षेत्रं [जानाति] पश्यति, अन्यत्र गतो न पश्यति [न जानाति] एष दृष्टान्तः। उपनयं आह'एवमेव ' अनेनैव प्रकारेण अनानुगामिकं अवधिज्ञानं यत्र एवं क्षेत्रे व्यवस्थितस्य सतः समुत्पद्यते तत्र एवं व्यवस्थितः सन् संख्येयानि असंख्येयानि वा योजनानि स्वावगाढक्षेत्रेण सह संबद्धानि असंबद्धानि वा, अवधिः कोऽपि जायमानः स्वावगाढदेशात आरभ्य निरंतरं प्रकाशयति कोऽपि पुनः अपांतराले अंतरं कृत्वा परतः प्रकाशयति, ततः उच्यते-संबद्धानि असंबद्धानि वा इति. 'जानाति' विशेषाकारेण परिछिनत्ति 'पश्यति' सामान्याकारेण अवबुध्यते 'अन्यत्र च' देशांतरे गतो नैव पश्यति । अवधिज्ञानावरणक्षयोपशमस्य तत् क्षेत्रसापेक्षत्वात् । तदेवं उक्तं अनानुगामिकं ।
संप्रति वर्द्धमानकं अनवबुध्यमानः शिष्यः प्रश्नं करोति
से कि तं वडमाणयं ओहिनाणं वड्डमाणयं ओहिनाणं पसत्थेसु अज्झवसाणहाणेसु वट्टमाणस्स बड़. माणचरित्तम्स । विसुज्झमाणस्स विसुज्झमाणचरित्तस्स । सव्वओ समंता ओहिनाणं वडा ॥ सू० ॥१२॥
अथ किं तत् वर्द्धमानकं अवधिज्ञानं ?, सूरिराह-वर्द्धमानकं अवधिज्ञान प्रशस्तेषु अध्यवसायस्थानेषु वर्तमानस्य, इह सामान्यतो द्रव्यलेश्योपरंजितं चित्तं अध्यवसायस्थानं उच्यते, तच्चानवस्थितं, तल्लेश्याद्रव्यसाचिव्ये विशेषसंभवाद, ततो बहुवचनं उक्तं, प्रशस्तेषु इति, अनेन च अप्रशस्तकृष्णादिद्रव्यलेश्योपरंजितव्यवच्छेदं आह-प्रशस्तेषु अध्यवसायस्थानेषु वर्तमानस्य इति, किमुक्तं भवति ? प्रशस्ताध्यवसायस्थानकलितस्य, 'सर्वतः' समंतात् अवधिः परिवर्द्धते इति संबंधा, अनेन अविरतसम्यग्दृष्टेः अपि परिवर्द्धमानकोऽवधिर्भवतीत्याख्यायते ।, तथा 'वड्डमाणचरित्तस्स' प्रशस्तेषु अध्यवसाय
43955ACCUAS
॥५४॥
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नन्दिसूत्रम् ॥ ५५ ॥
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स्थानेषु वर्धमानचारित्रस्य, एतेन देशविश्तसर्वविरतयोर्वर्द्धमान कमवधिमभिधत्ते वर्द्धमानकथावधिरुत्तरोचरं विशुद्धिमासादयतो भवति नान्यथा तत आह ' विशुद्धमानस्य' तदावरणकलंकविगमत उत्तरोत्तरविशुद्धिमासादयतः, अनेनाऽविरतसम्यग्दृष्टेर्वर्द्धमानकाऽवधेः शुद्धिजन्यत्वमाह, तथा 'विशुद्धमानचारित्रस्य ', इदं च विशेषणं देशविरत सर्वविरतयोवैदितव्यं । ' सर्वतः सर्वासु दिक्षु समंतादवधिः परिवर्द्धते ।
स कस्यापि सर्वजघन्यादारभ्य प्रवर्द्धते, ततः प्रथमतः सर्वजघन्यं अवधिं प्रतिपादयति ।
"
,
जावइआ तिसमयाहारगस्स सुहुमस्स पणगजीवस्स । ओगाहणा जहन्ना ओहीखित्तं जहन्नं तु ॥ १ ॥ ' जावइया ' इत्यादि, 'त्रि' - ' समयाहारकस्य ' आहारयति आहारं गृह्णाति इति आहारकः, त्रयः समयाः समाहृताः त्रिसमयं त्रिसमयं आहारकः त्रिसमयाहारकः, ' नाम नाम्ना एकार्थे समासो बहुलं ' [ सि. है. ३-१-१८] इतिसमासः तस्य ' त्रिसमयाहारकस्य ' सूक्ष्मस्य सूक्ष्मनामकर्मोदयवर्त्तिनः 'पनकजीवस्य पनकथासौ जीवच पनकजीवो, वनस्पतिविशेषः, तस्य 'यावती' यावत् परिमाणा, अवमाहंते क्षेत्रं यस्यां स्थिता जंतवः साऽवगाहना - तनु इत्यर्थः, ' जघन्या' त्रिसमयाहारकशेष सूक्ष्मपन कजीवापेक्षया सर्वस्तोका, एतावत्परिमाणं अवधेः जघन्यं क्षेत्रं, तुशब्द एवकारार्थः, स च अवधारणे, तस्य च एवंप्रयोगः - जघन्यं अवधिक्षेत्रं एतावद् एव इति । किं वा त्रिसमयाहारकत्वं परिगृह्यते १ १- आह- किमिति योजनसहलायामो मत्स्यः ? किं वा तस्य तृतीयसमये स्वदेहदेशे सूक्ष्मपनकत्वेनोत्पादः १ इत्यधिकं स्यादिति संभाव्यते मलयगिरिटीकायां दृश्यमानत्वादिति ।
अवचूरिसमलंकृतम्
॥ ५५॥
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नन्दिसूत्रम् ॥ ५६ ॥
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उच्यते, इह योजनससहस्रायामो मत्स्यः १ स किल त्रिभिः समयैः आत्मानं संक्षिपति महतः प्रयत्नविशेषात् । महाप्रयत्नविशेषाधिरूढश्च उत्पातदेशेऽवगाहनामारभमाणोऽतीव सूक्ष्मामारमते ततो महामत्स्यस्य ग्रहणं, सूक्ष्मपनकश्चाऽन्यजीवापेक्षा सूक्ष्मतम अवगाहनो भवति । ततः सूक्ष्मपनकग्रहणं, तथा उत्पत्तिसमये द्वितीयसमये चातिसूक्ष्मो भवति चतुर्थादिषु च समयेषु अतिस्थूलः त्रिसमयाहारकस्तु योग्यस्ततः त्रिसमयाहारकग्रहणं, उक्तं च-मच्छो महल्लकाओ संखितो जो उ तेहिं समएहिं । स किर पयत्तविसेसेण सण्हमोगाहणं कुणइ ॥ १ ॥ सण्हयरा सण्हयरो सुहुमो पणओ जहण्णदेहो य । स बहुविसेसविसिट्ठो सण्हयरो सवदेहेसु || २ || पढमबीए तिसण्हो जायइ धूलो चउत्थयाईसु । तईयसमयमि जोग्गो गहिओ तो तिसमयाहारो || ३ || " अन्ये तु व्याचक्षते ' त्रिसमयाहारकस्य ' इति आयामप्रतरसंहरणे समयद्वयं तृतीयश्च समयः सूचीसंहरण उत्पत्तिदेशागमविषयः, एवं त्रयः समया विग्रहगतिअभावादेतेषु त्रिष्वपि समयेष्वाहारकः, तत उत्पादसमय एवं त्रिसमयाहारकः सूक्ष्मपनक जीवो जघन्यावगाहनश्च ततः तत् शरीरमानं जघन्यं अवधेः क्षेत्रं, तत् च अयुक्तं, यतस्त्रिसमयाहारकस्य इति विशेषणं पनकस्य, न च मत्स्यायामप्रतरसंहरणसमयौ पनकभवस्य संबंधिनौ, किंतु मत्स्यभवस्य तत उत्पादसमयादारभ्यं त्रिसमयाहारकस्य इति द्रष्टव्यं नान्यथा । एतावत्प्रमाणजघन्यक्षेत्रस्य अवधिः, तैजसभाषायाः प्रायोग्यवर्गणापांतरालवर्त्तिद्रव्यमालंबते । ' तेयाभासादवाणमंतरा एत्थ लहइ पट्टवओ' इति वचनात् तदपि चालंन्यमानं द्रव्यं द्विधा - गुरुलघु-अगुरुलघु च, तत्र तैजसप्रत्यासन्नं गुरुलघु भाषाप्रत्यासन्नं च अगुरुलघु, तद् गतांश्च पर्यायान् चतुः संख्यानेव वर्णगंधरसस्पर्शलक्षणान् पश्यति न शेषान्, यत आह- दवाई अंगुलासंखेजातीत
अवचूरिसमलंकृतम्
॥ ५६ ॥
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नन्दिसूत्रम् ॥५७॥
अवधिसमलंकृतम्
SECREASON-CORECASIGRECIAL
भागविसयाई। पेच्छइ चउग्गुणाई जहनओ मुत्तिमंताई ॥१॥ अत्र 'जघन्यत' इति जघन्यावधिज्ञानी।
तदेवं जघन्य अवधेः क्षेत्रं अभिधाय सांप्रतं उत्कृष्ट अभिधातुकाम आह। सवबहु अगणिजीवा निरंतरं जत्तियं भरिजंसु । खित्तं सव्व दिसागं परमोही खेत्तनिद्दिष्डो ॥२॥
'सबबहु' ति यत ऊवं अन्य एकोऽपि जीवो न कदाचनापि प्राप्यते [ ते सर्वबहवः] सर्वबहवश्च ते अग्निजीवाश्च सूक्ष्मवादररूपाः सर्वबहुअग्निजीवाः, कदा सर्वबहुअग्निजीवा इति चेद् , उच्यते, यदा सर्वासु कर्मभूमिषु निर्व्याघातं अग्निकाय. समारंभकाः सर्वबहवो मनुष्याः, ते च प्रायोजितस्वामितीर्थकरकाले प्राप्यते । यदा च उत्कृष्टपदवर्तिनः सूक्ष्मानलजीवाः तदा सर्वबहुअग्निजीवाः, 'निरंतरं इति ' क्रियाविशेषणं, यावत्परिमाणं क्षेत्रं भृतवंतः, एतत् उक्तं भवति-नरंतर्येण विशिष्ट सूचीरचनया यावत् भृतवंत इति च भूतकालनिर्देश:-अजितस्वामिकाल एव प्रायः सर्वबहवोऽनलजीवा अस्यां अवसार्पण्यां संभवंति स्म इति ख्यापनार्थः। इदं च अनंतरोदितं क्षेत्र एकदिकं अपि भवति तत आह-सर्वदिकं, अनेन सूचीभ्रमण. प्रमितत्वं क्षेत्रस्य सूचयति । परमश्चासौ अवधिश्च परमावधिः, एतावदनंतरोदितं सर्वबहुअनलजीवसूचीपरिक्षेपप्रमितं क्षेत्रमंगीकृत्य निर्दिष्टः' प्रतिपादितो गणधरादिभिः क्षेत्रनिर्दिष्टः, एतावत् क्षेत्रं परमावधेर्भवति इत्यर्थः, किमुक्तं भवति । सर्वबहुअग्निजीवा निरंतरं यावत् क्षेत्रं सूचीभ्रमणेन सर्वदिक्कं भृतवंत एतावति क्षेत्रे यानि अवस्थितानि द्रव्याणि तत् परिच्छेदसामर्थ्ययुक्ता परमावधिः क्षेत्रं अधिकृत्य निर्दिष्टो गणधरादिभिः, अयमिह संप्रदाय:-सर्वबहुअग्निजीवाः प्रायोऽजितस्वामितीर्थकरकाले प्राप्यते । तदारंभकमनुष्यबाहुल्यसंभवात् , सूक्ष्माश्च उत्कृष्टपदवनिः तत्र एव विवक्ष्यते । ततश्च
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DESA
मन्दिसूत्रम्
अवनिसमलंकृतम्
-OCTOGANAGARIKCAROGRA
सर्वबहवोऽनलजीवा भवंति। तेषां स्वबुद्ध्या पोढाऽवस्थानं परिकल्प्यते-एकैकक्षेत्रप्रदेशे एकैकजीवावगाहनया सर्वतः चतुरस्रोधन इति प्रथम, [स]एव घनो जीवैः स्वावगाहनाभिः इति द्वितीयं । एवं प्रतरोऽपि द्विमेदः, श्रेणिः अपि द्विधा, तत्र आद्याः पंचप्रकारा अनादेशाः, तेषु क्षेत्रस्य अल्पीयस्तया प्राप्यमाणत्वात् , षष्ठस्तु प्रकारः सूत्रादेशः, उक्तं च-" एकेक्कागासपएसजीवरयणाए सावगाहे य | चउरंसं घण पयरं सेढी छट्टो सुयादेसो"-ततश्च असौ श्रेणिः स्वावगाहनासंस्थापितसकलानलजीवावलीरूपा अवधिज्ञानिनः सर्वासु दिक्षु शरीरपर्यतेन भ्राम्यते, सा च भ्राम्यमाणा असंख्येयान् लोकमात्रान् क्षेत्रविभागान् अलोके व्याप्नोति । एतावत् क्षेत्रं अवधेः उत्कृष्टं इति, इदं च सामर्थ्य मात्रं उपवर्ण्यते । एतावति क्षेत्रे यदि द्रष्टव्यं भवति तर्हि पश्यति, यावता तत् न विद्यते, अलोके रूपिद्रव्याणां असंभवात् , रूपिद्रव्यविषयश्च अवधिः, केवलमयं विशेषो-बावदद्यापि परिपूर्ण अपि लोकं पश्यति तावदिह स्कंधान एवं पश्यति । यदा पुन: अलोके प्रसरमवधिः अधिरोहति तदा यथा यथा अभिवृद्धिं आसादयति तथा तथा लोके सूक्ष्मान् सूक्ष्मतरान् स्कंधान पश्यति, यावदंते परमाणु अपि । उक्तं च"सामस्थमेत्तमुत्तं दट्ठवं जइ हवेज पेच्छेजा । न उ तं तत्थरिथ जओ सो रूविनिबंधणो मणिओ ॥१॥ वढ्ढतो पुण बाहिं लोगत्थं चेव पासइ दवं । सुहुमयरं सुहुमयरं परमोही जाव परमाणू ॥२॥" परमावधिकलितश्च नियमात् अंतर्मुहूर्तमात्रेण केवलालोकलक्ष्मीमालिङ्गति, उक्तं च, 'परमोहिनाणठिओ केवलमंतोमुहुत्तमेत्तेणं' एवं तावत् जघन्यं उत्कृष्टं च अवधिक्षेत्रं उक्तम् ,
संप्रति मध्यमं प्रतिपिपादयिषुः एतावत् क्षेत्रोपलंमे एतावत् कालोपलंभः एतावत्कालोपलंमे च एतावत् क्षेत्रोपलंभ इत्यस्यार्थस्य प्रकटनार्थ गाथाचतुष्टयं आह
॥५८
॥
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मन्दिसूत्रम्
अवन्त्रि
संखिनुल इत्यादि, अंग्थ्य समयात्मिका, जत्रितः अंगुलासंख्येगमपश्यन् क्षेत्रतो, अंग साक्षात्, न खच यानि द्रव्याणि
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अंगुलमावलियाणं भागमसंखिज्ज दोसु संखिजा। अंगुलमावलिअंतो आवलिआ अंगुलपुहत्तं ॥३॥ हत्थंमि मुहत्तंतो, दिवसंतो गाउअम्मि बोद्धव्वो । जोयणदिवसपुहुत्तं, पक्खंतो पन्नवीसाओ॥४॥ भरहमि अद्धमासो, जम्बूद्दीवंमि साहिओ मासो । वासं च मणुअलोए, वासपुहुत्तं च रुअगंमि ॥५॥ समलंकृतम् संखिजमि उ काले, दीवसमुद्दाऽवि हुँति संखिज्जा । कालंमि अ संखेजा-दीवसमुद्दा उ भइअव्वा ॥६॥
अंगुलं इत्यादि, अंगुलं इह क्षेत्राधिकारात् प्रमाणांगुलं अभिगृह्यते । अन्ये तु आहुः-अवधिअधिकाराद् उत्सेधांगुल-11 मिति, आवलिका-असंख्येयसमयात्मिका, अंगुलं चावलिका च अंगुलावलिके तयोः अंगुलावलिकयोः भागमसंख्येयमसंख्येयं पश्यति अवधिज्ञानी, इदमुक्तं भवति-क्षेत्रतः अंगुलासंख्येयभागमात्रं पश्यन् कालतः आवलिकाया असंख्येयं एव भागं अतीतमनागतं च पश्यति । आवलिकायाश्च असंख्येयं भागं पश्यन् क्षेत्रतो अंगुलासंख्येयभागं पश्यति । एवं सर्व त्रापि क्षेत्रकालयोः परस्परं योजना कर्तव्या, क्षेत्रकालदर्शनं च उपचारेण द्रष्टव्यं, न साक्षात् , न खलु क्षेत्रं कालं वा साक्षादवधिज्ञानी पश्यति । तयोः अमूर्तत्वात् , रूपिद्रव्यविषयश्च अवधिः, तदेतदुक्तं भवति-क्षेत्रे काले च यानि द्रव्याणि तेषां च द्रव्याणां ये पर्यायाः तान् पश्यति । उक्तं च-" तत्थेव य जे दवा तेसिं चिय जे हवंति पजाया । इय खेत्ते कालंमि य जोएजा दवपन्जाए ॥१॥" एवं सर्वत्रापि भावनीयं, क्रिया च गाथाचतुष्टये स्वयं एव योजनीया । तथा द्वयोः अंगुलावलिकयोः संख्येयौ भागौ पश्यति । अंगुलस्य संख्येयमागं पश्यन् आवलिकाया अपि संख्येयं एव भागं पश्यति इत्यर्थः । तथा 'अंगुलं' अंगुलमानं क्षेत्रं पश्यन् ' आवलिकांता' किंचिदना आवलिकां पश्यति आवलिको चेत्कालत:
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॥ ५९.
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मन्दिसूत्रम्
1359
६०॥
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पश्यति तर्हि क्षेत्रतो अंगुलपृथक्त्वपरिमाणं क्षेत्रं पश्यति । उक्तं च “संखेज्जंगुलभागे आवलियाए वि मुणइ तइभागं । | अंगुलमिह पेच्छतो आवलियंतो मुणइ कालं ॥१॥'आवलियं मुणमाणो संपुग्नं खेत्तमंगुलपुहुत्तमिति, पृथक्त्वं द्विप्रभृति | अवधि
आ नवभ्य इति । तथा ' हस्ते' हस्तमात्रे क्षेत्रे ज्ञायमाने कालतो ' मुहूतांतः पश्यति' इत्यर्थः । तथा कालतो 'दिवसांतःसमलंकृतम् किंचित् ऊणं दिवसं पश्यन् , क्षेत्रतो 'गब्यूते 'गव्यूतविषयो द्रष्टव्यः, तथा 'योजनं' योजनमात्रं क्षेत्रं पश्यन् कालतो दिवसपृयकत्वं पश्यति, दिवसपृथक्त्वमानं कालं पश्यति इत्यर्थः, तथा 'पक्षांतः' किंचिद्नं पक्षं पश्यन् क्षेत्रतः पंचविंशतियोजनानि पश्यति ॥'मरहमि' इत्यादि 'भरते' सकलभरतप्रमाणे क्षेत्राऽवधौ कालतो अर्द्धमास उक्तः, भरतप्रमाण क्षेत्रं पश्यन् कालतोऽतीतं अनागतं च अर्द्धमासं पश्यति इत्यर्थः। एवं जंबूद्वीपविषयेऽवधौ साधिको मासःकालतो बोद्धव्या, तथा 'मनुष्यलोके मनुष्यलोकप्रमाणक्षेत्रविषयेऽवधौ ‘वर्ष' संवत्सरमतीतं अनागतं च पश्यति । तथा रुचकाख्ये रुचकाख्यबाह्यद्वीपप्रमाणक्षेत्रविषयो अवधिः वर्षपृथक्त्वं पश्यति । 'संखेजे 'त्यादि, संख्यायत इति संख्येयः, स च वर्षमात्रोऽपि भवति ततः तु शब्दो विशेषणार्थः । किं विशिनष्टि ? संख्येयकालो वर्षसहस्रात् परो वेदितव्यः, तस्मिन् संख्येये काले अवधिगोचरे सति क्षेत्रतस्तस्य एव अवधिः गोचरतया द्वीपाश्च समुद्राश्च द्वीपसमुद्राः ते अपि संख्यया भवंति, अपि शब्दात्महाने कोऽपि महत एकदेशोऽपि, किमुक्तं भवति ? । संख्येये काले अवधिना परिच्छिद्यमाने क्षेत्रं अपि अत्रत्यप्रज्ञापकापेक्षया, संख्येयद्वीप समुद्रपरिमाणं परिच्छेद्यं भवति । ततो यदि नामात्र त्यस्य अवधिः उत्पद्यते तर्हि जंबूद्वीपात् आरभ्य संख्येया द्वीपसमुद्राः || तस्य परिच्छेद्याः, अथवा बाह्ये द्वीपे समुद्रे वा संख्येययोजनविस्तृते कस्यापि तिरश्चः संख्येयकालविषयोऽवधिः उत्पद्यते
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मन्दिसूत्रम्
GURUCHEREGA
तदा स यथोक्तक्षेत्रपरिमाणं तं एव एकं द्वीपं समुद्रं वा पश्यति, यदि पुनः असंख्येययोजनविस्तृते स्वयंभूरमणादिके द्वीपे । समुद्रे वा संख्येयकालविषयोऽवधिः कस्यापि उत्पद्यते तदानीं स प्राग् उक्तपरिमाणं तस्य द्वीपसमुद्रस्य वा एकदेशं पश्यति
| अवचूरिइहत्यमनुष्यवाह्यावधिरिव कश्चित् , तथा काले असंख्येये पल्योपमादिलक्षणे अवधेविषये सति तस्य एव असंख्येयकाल
समलंकृतम् परिच्छेदकस्य अवधेः क्षेत्रतया परिच्छेद्या द्वीपसमुद्रा' भाज्या' विकल्पनीया भवंति, कस्यचित् असंख्येयाः कस्यचित् संख्येयाः कस्यचिदेकदेश इत्यर्थः । यदा इह[त्य] मनुष्यस्य असंख्येयकालविषयोऽवधिः उत्पद्यते तदानीं असंख्येया द्वीपसमु. द्रास्तस्य विषयः, यदा पुनः बहिर्वीपे समुद्रे वा वर्तमानस्य कस्यचित्तिरश्चोऽसंख्येयकालविषयोऽवधिः उत्पद्यते तर्हि तस्य संख्येया द्वीपसमुद्राः, अथवा यस्य मनुष्यस्यासंख्येयकालविषयो बाह्यद्वीपसमुद्रालंबनो बाह्योऽवधिः उत्पद्यते तस्य संख्येया द्वीपसमुद्राः, यदा पुनः स्वयंभूरमणे द्वीपे समुद्रे वा कस्यचित्तिरश्वोऽवधिः असंख्येयकालविषयो जायते तदानीं तस्य स्वयंभूरमणस्य द्वीपस्य समुद्रस्य वा एकदेशो विषयः । स्वयंभूरमणविषयमनुष्यबाह्यावधेर्वा तत् एकदेशो विषयः, क्षेत्रप्रमाण पुनः योजनापेक्षया सर्वत्रापि जंबूद्वीपादारम्य असंख्येयद्वीपसमुद्रप्रमाणमवसेयं । तदेवं यथा क्षेत्रवृद्धौ कालवृद्धिः कालवृद्धौ च यथा क्षेत्रवृद्धि तथा प्रतिपादितं ॥६॥ . संप्रति द्रव्यक्षेत्रकालभावानां मध्ये यत् वृद्धौ यस्य वृद्धिः उपजायते । यस्य च न तत् अभिधित्सुराहकाले चउण्हवुड्डी, कालो भइअव्व खित्तवुड्डीए । वुड्डीए दव्वपजव, भइअव्व खित्त काला उ ॥७॥ 'काले' इत्यादि, 'काले' अवधिगोचरे वर्धमाने ' चतुर्णा द्रव्यक्षेत्र कालभावानां वृद्धिः भवति । तथा क्षेत्रस्य वृद्धिः
॥३१॥
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नन्दिसूत्रम्
॥ ६९ ॥
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क्षेत्र वृद्धिः तस्यां सत्यां कालो भजनीयो विकल्पनीयः कदाचिद्वर्द्धते कदाचित् न, क्षेत्रं हि अत्यंतसूक्ष्मं, कालस्तु तदपेक्षया परिस्थूलः, ततो यदि प्रभूता क्षेत्रवृद्धिस्ततो वर्द्धते शेषकालं न इति, द्रव्यपर्यायौ तु नियमतो वर्द्धेते । तथा द्रव्यं च पर्यायश्च द्रव्यपर्याय तयोः वृद्धौ सत्यां, सूत्रे विभक्तिलोपः प्राकृतशैल्या, भजनीयावेव क्षेत्रकालौ, तुशब्द एवकारार्थः, स च भिन्नक्रमः । तथैव च योजितः, विकल्पञ्चायं कदाचित्तयोः वृद्धिः भवति कदाचित् न, यतो द्रव्यं क्षेत्रात् अपि सूक्ष्म, एकस्मिन्नपि नभःप्रदेशे अनंतस्कंधावगाहनात्, द्रव्यादपि सूक्ष्मः पर्यायः, एकस्मिन्नपि द्रव्येऽनंतपर्यायसंभवात् । ततो द्रव्यपर्यायवृद्ध क्षेत्रकाला भजनीयावेव भवतः, द्रव्ये च वर्द्धमाने पर्याया नियमतो वर्द्धते, प्रतिद्रव्यं संख्येयानामसंख्येयानां चावधिना परिच्छेदसंभवात् । पर्याये तु वर्द्धमाने द्रव्यं भाज्यं, एकस्मिन्नपि द्रव्ये पर्यायविषयावधिवृद्धिसंभवात् । अत्र आह- ननु जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदभिन्नयोः अवधिज्ञानसंबंधिनोः क्षेत्रकालयोः अंगुलावलिका संख्येय भागादिरूपयोः परस्परं समय प्रदेशसंख्ययोः किं तुल्यत्वं उत हीनाधिकत्वं १ उच्यते, हीनाधिकत्वमावलिकाया असंख्येयमागे जघन्यावधिविषये यावंतः समयास्तदपेक्षया अंगुलस्य असंख्येयभागे जघन्यावधिविषये एव ये नमः प्रदेशाः ते असंख्येयगुणाः, एवं सर्वत्रापि अवधिविषयात् कालादसंख्येयगुणत्वं अवधिविषयस्य क्षेत्रस्य अवगंतव्यम् ॥ ७ ॥
अथ क्षेत्रस्य इत्थं कालादसंख्येयगुणता कथं अवसीयते १, उच्यते, सूत्रप्रामाण्यात्, तदेव सूत्रमुपदर्शयतिसुमो अ होइ कालो, तत्तो सुहुमयर हवइ वित्तं । अंगुलसेढिमित्ते, ओसप्पिणिओ असंखिज्जा ॥ ८ ॥ सेत्तं वमाणयं ओहिनाणं ।
अवचूरिसमंलकृतम्
॥ ६२ ॥
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मन्दिसूत्रम्
SOCIECRECORRECARECORRECORGAMASANG
'सुहुमो अ' इत्यादि, सूक्ष्मः सूक्ष्मो भवति कालः, चशब्दो वाक्यभेदक्रमोपदर्शनार्थों यथा सूक्ष्मस्तावत्कालो भवति | यस्मादुत्पलपत्रशतभेदे प्रतिपत्रं असंख्येयाः समयाः प्रतिपद्यते ततः सूक्ष्मकालः, तस्मादपि कालात् सूक्ष्मतरं क्षेत्रं भवति ।
अवत्रियस्मादंगुलमात्रे क्षेत्रे-प्रमाणांगुलैकमात्रे श्रेणिरूपे नमःखंडे प्रतिप्रदेशं समयगणनया असंख्येया अबसप्पिण्यः तीर्थकृद्भिराख्याताः, इदमुक्तं भवति-प्रमाणांगुलैकमात्रे एकैकप्रदेशश्चेणिरूपे नमःखंडे यावंतोऽसंख्येयासु अवसर्पिणीषु समया-16 स्तावत् प्रमाणाः प्रदेशाः वर्तते । ततः सर्वत्रापि कालादसंख्येयगुणं क्षेत्रं, क्षेत्रादपि च अनंतगुणं द्रव्य, द्रव्यादपि च अवधिविषयाः पर्यायाः संख्येयगुणा असंख्येयगुणा वा ॥८॥ तदेतत् वर्द्धमान अवधिज्ञान ।
अथ किं तत् हीयमानकं अवधिज्ञानं,
से किं तं हीयमाणयं ओहिनाणं हीयमाणयं ओहिनाणं अप्पसत्थेहिं अज्झवसाणहाणेहिं वहमाणस्स वहमाणचरित्तस्स संकिलिस्समाणस्स संकिलिस्समाणचरित्तस्स सव्वओ समंता ओहि परिहायइ से त्तं हीयमाणयं ओहिनाणं ।
मूरिराह-हीयमान अवधिज्ञानं कथंचिदवाप्तं सत् अप्रशस्तेषु अध्यवसायस्थानेषु वर्तमानस्य अविरतसम्यग्दृष्टवर्तमानचारित्रस्य-देशविरतादेः 'संक्लिश्यमानस्य ' उत्तरोत्तरं संक्लेशमासादयता, इदं च विशेषणं अविरतसम्यग्दृष्टेः अवसेयं । | तथा संक्लिश्यमानचारित्रस्य देशविरतादेः सर्वतः समंतात् अवधिः 'परिहीयते ' पूर्वावस्थातो हानि गच्छति, तदेतत् हीयमानकं अवधिज्ञानं ।
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मन्दिसूत्रम्
अवचूरिसमलंकृतम्
GREENSHERASHASANSA
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अथ किं तत् प्रतिपातिअवधिज्ञानं १, से कि तं पडिवाइ ओहिनाणं! पडिवाइ ओहिनाणं जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजयभागं वा । संखिजभागं वा । बालग्गं वा । बालग्गपुहुत्तं वा लिक्खं वा लिख्खपुहुत्तं वा जूअं वा जूअपुहुत्तं वा जवं वा जवपुहुत्तं वा । अंगुलं वा अंगुलपुहुत्तं वा । पायं वा पायपुहुत्तं वा । विहत्थि वा विहत्थिपुहुत्तं वा । रयणि वा रयणिपुहुत्तं वा । कुञ्छि वा कुच्छिपुहुत्तं वा। धणुं वा धणुपुहुत्तं वा । गाउंवा गाउपुहुत्तं वा । जोअणं वाजोअणपुहुत्तं वा । जोअणसयं वा जोअणसयपुहुत्तं वा, जोअणसहस्सं वा जोअणसहस्सपुहुत्तं वा । जोअणलक्खं वा जोअणलख्खपुहुत्तं वा। जोअणकोडिं वा जोअणकोडिपुहुत्तं वा । जोअणकोडाकोडिं वा जोअणकोडाकोडिपुहुत्तं वा । जोअणसंखिज्ज़ वा जोअणसंखिजपुहुत्तं वा । जोअणअसंखेनं वा जोअण. असंखजपुहत्तं वा । उक्कोसेणं लोगं वा पासित्ताणं पडिवइज्जा । सेत्तं पडिवाइओहिनाणं ।
रिराह-प्रतिपाति अवधिज्ञानं यदवधिज्ञानं जघन्यतः सर्वस्तोकतया अंगुलस्यासंख्येयभागमात्र[वा] संख्येयभागमात्रं वा बालाग्रं वा वालाग्रपृथक्त्वं वा लिक्षां वा-वालाग्रअष्टप्रमाणां लिक्षापृथक्त्वं वा । यूकां वा-लिक्षाष्टकमानां यूकापृथक्त्वं वा, यवं वा-यूकाष्टकमानं यवपृथक्त्वं वा । एवं यावत् उत्कर्षेण सर्वप्रचुरतया लोकं दृष्ट्वा' उपलभ्य 'प्रतिपतेत् ' प्रदीप इव नाशं उपयायात् । तस्य तथाविधक्षयोपशमजन्यत्वात् । तदेतत् प्रतिपातिअवधिज्ञानं, शेषं सुगम, नवरं 'कुक्षिः" द्विहस्तप्रमाणा धनुश्चतुर्हस्तप्रमाणं, पृथक्त्वं सर्वत्रापि द्विप्रभृति आ नवम्य इति सैद्धांतिक्या परिभाषया द्रष्टव्यं ।
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मन्दिसूत्रम्
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अथ किं तत् अप्रतिपातिअवधिज्ञानं १,
से किं तं अपडिवाइ ओहिनाणं अपडिवाई ओहिनाणं जे णं अलोगस्स एगमवि आगासपएसं जाणइ पासह तेण परं अपडिवाइ ओहिनाणं से त्तं अपडियाह ओहिनाणं ।
सूरिराह- अप्रतिपाति अवधिज्ञानं येन अवधिज्ञानेन अलोकस्य संबंधिनं एकं अपि आकाशप्रदेश, आस्तां बहून् आकाशप्रदेशान् इत्यपिशब्दार्थः पश्येत्, एतच्च सामर्थ्य मात्रं उपवर्ण्यते, न तु अलोके किंचित् अपि अवधिज्ञानस्य द्रष्टव्यं अस्ति, एतच्च प्रागेव उक्तं । ततः आरभ्य अप्रतिपाति आ केवलप्राप्तेः अवधिज्ञानं, अयमत्र भावार्थ:- एतावति क्षयोपशमे संप्राप्ते सत्यात्मा विनिहतप्रधान प्रतिपक्षयोधसंघातनरपतिः इव न भूयः कर्म्मशत्रुणा परिभूयते । किंतु समासादितैतावत् आलोकजयोऽप्रतिनिवृत्तः शेषं अपि कर्म्मशत्रुसंघातं विनिर्जित्य प्राप्नोति केवलराज्यश्रियमिति । तदेतदप्रतिपाति अवधि - ज्ञानं । तदेवं षट् अपि अवधिज्ञानस्य भेदाः,
संप्रति द्रव्याद्यपेक्षया अवधिज्ञानस्य मेदान् चिंतयति -
तं समासओ चउव्विहं पन्नत्तं तं जहा दव्वओ । खित्तओ । कालओ । भावओ । तत्थ दव्वओ णं ओहिनाणी जहन्ने णं अनंताई रूविदव्वाई-जाणइ पासइ उक्कोसे णं सव्वाई रूविदव्वाई जाणइ पासइ वित्तओ णं ओहिनाणी जहन्ने णं अंगुलस्स असंखिज्जइ भागं जाणइ पासह उक्कोसे णं असंखिजाई अलोगे लोग पमाणमित्ताई खंडाई जाणइ पासह। कालओ णं ओहिनाणी जहन्ने णं आवलिआए असंखिज्जइ भागं
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न्दिसूत्रम्
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अवरिसमलंकृतम्
CREACHUSAGAR
कालं जाणइ पासइ उक्कोसे णं असंखिजाओ उस्सप्पिणीओ अवसप्पिणीओ अईयमणागयं च कालं जाणइ पासइ । भावओ णं ओहिनाणी जहन्ने णं अणते भावे जाणइ पासइ । उक्कोसे णं वि अणंते भावे जाणइ पासइ सव्वभावाणमणतभागं भावे जाणइ पासह।
तदवधिज्ञानं ' समासतः' संक्षेपेण चतुर्विधं-चतुःप्रकारं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भाषतच, तत्र द्रव्यतः 'ण' मिति वाक्यालंकारे, अवधिज्ञानी जघन्येनापि-भावप्रधानोऽयं निर्देशः सर्वजघन्यतयापि अनंतानि रूपिद्रव्याणि जानाति, तानि च तैजसभाषाप्रायोग्यवर्गणापांतरालवर्तीनि द्रष्टव्यानि, उत्कर्षतः पुनः सर्वाणि रूपिद्रव्याणि बादरसूक्ष्मानि जानाति पश्यति । तत्र ज्ञानं विशेषग्रहणात्मक, दर्शनं सामान्यपरिच्छेदात्मकं, आह-आदौ दर्शनं ततो ज्ञानं इति च क्रमः, तत एनं क्रम परित्यज्य किमर्थं प्रथमं जानाति इत्युक्तं ? उच्यते । इह सर्वा लब्धयः साकारोपयोगोपयुक्तस्य उत्पद्यते, अवधिः अपि लन्धिः उपवर्ण्यते, ततः स प्रथमं उत्पद्यमानो ज्ञानरूप एव उत्पद्यते न दर्शनरूपः, ततः क्रमेणोपयोगप्रवृत्तेः ज्ञानोपयोगानंतरं दर्शनरूपोऽपि इति प्रथमतो ज्ञानं उक्तं पश्चात् दर्शनं, अथवा इह अध्ययने सम्यग्ज्ञानं प्ररूपयितुं उपक्रति, यतोऽनुयोगप्रारंभेऽवश्यं मंगलाय ज्ञानपंचकरूपो भावनंदिः वक्तव्य इति तत्प्ररूपणार्थ इदं अध्ययनं आरब्धं, ततः सम्यग्ज्ञानं इह प्रधानं, न मिथ्याज्ञानं, तस्य मांगल्यहेतुत्वायोगात् , दर्शनं तु अवधिज्ञानविमंगसाधारणं इति तत् अप्रधान, प्रधानानुयायी च लौकिक: लोकोत्तरश्च मार्गस्ततः प्रधानत्वात् प्रथमं ज्ञानमुक्तं पश्चाद्दर्शन मिति । तथा क्षेत्रतः अवधिज्ञानी जघन्येन अंगुलासंख्येयभाग उत्कर्षतः असंख्येयानि अलोके लोकप्रमाणानि चतुर्दशरज्वात्मकानि खंडानि जानाति पश्यति ।
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मन्दिसूत्रम् ॥ ६७ ॥
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कालतो अवधिज्ञानी जघन्येन आवलिकाया असंख्येयभागमुत्कर्षतो असंख्येया उत्सर्पिण्यऽवसर्पिणीः- असंख्येयउत्सर्पिण्यसर्पिणीप्रमाणं अतीतमनागतं च कालं जानाति पश्यति । भावतः अवधिज्ञानी जघन्येन अनंतान् भावान् पर्यायानाधारद्रव्य अनंतत्वात् न तु प्रतिद्रव्यं, प्रतिद्रव्यं संख्येयानां असंख्येयानां वा पर्यायाणां दर्शनात् । उक्तं च- एगं दव्वं पेच्छं धमं वा स पञ्जवे तस्स । उक्को समसंखेज्जे संखेओ पेच्छई कोइ ॥ १ ॥ ' उत्कर्षतः अपि अनंतान् भावान् जानाति पश्यति । केवलं जघन्यपदात् उत्कृष्टपदं अनंतगुणं, 'सर्वभावानां ' सर्व पर्यायाणां अनंतभागं अनंतभागकल्पान् जानाति पश्यति । तत एवं अवधिज्ञानं द्रव्यादिभेदतः अपि अभिधाय सांप्रतं संग्रहगाथां आह
ओहि भवपञ्चईओ गुणपचईओ य वण्णिओ एसो तस्स य बहु विगप्पा दव्वे खित्ते य काले य ॥ १ ॥ नेरइयदेवतित्थंकराय ओहिस्स बाहिरा हुंति । पासंति सव्वओ खलु सेसा देसेण पासंति ॥ २ ॥ से तं ओहिनाणं ।
१ ' ननु ओहिस्स बाहिरा हुंति' इत्यनेनैव ' पासंति सव्वओ' इत्यस्यार्थस्य ज्ञानात् ' पश्यन्ति सर्वत: ' इत्यस्यानर्थकत्वं प्राप्तमिति चेत्, अवधिज्ञानस्याबाह्या भवन्ति इत्येतावन्मात्रोको 'सर्वतः पश्यन्ति ' इत्यस्यार्थस्याप्रतीयमानत्वात् सर्वाभ्यन्तरावधिकाः सर्वतः पश्यन्त्येवेति नियमाभावात् । अथवा इदं सूत्रं नियताऽनियतावधिविषयकं ज्ञेयं तेन नारकदेवतीर्थपा एव अवधेरबाह्य भवन्ति अर्थात् नियमेन एषामवधिर्भवतीत्यर्थः तथा च संशयः स्यात् किं ते देशेन पश्यन्ति आहोस्वित् सर्वतः ? ततः आह' पासंति सव्वओ' इति न कोऽपि शंकावकाशः । न च तेषां नियतावधेः पूर्वगाथया प्रतिपादितत्वात् 'ओहिस्स बाहिरा ' इत्यस्या
अवचूरिसमलंकृतम्
॥ ६७ ॥
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मन्दिसूत्रम् ॥ ६८ ॥
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अवधिर्भवप्रत्ययतः गुणप्रत्ययतश्च ' वर्णितो ' व्याख्यातः, ' पाठांतरं वण्णिओ दुविहो' चि वर्णितो द्विप्रकारः, तस्य च भवगुणप्रत्ययतो द्विविधस्य अपि बहवो विकल्पा- भेदाः, तद्यथा-द्रव्ये द्रव्यविषयाः कस्यापि कियत् द्रव्यं विषय इति द्रव्यमेदाद्भेद:, तथा क्षेत्रे - क्षेत्रविषया अंगुल असंख्येय भागादिक्षेत्र मेदात् [भेदः] | काले कालविषया आवलिका संख्येयभागादि कालभेदात् [मेदः] च शब्दात् भावविषयाश्च कस्यापि कियंतः पर्याया विषय इति भावमेदाद्भेदः । तत्र जघन्यपदे प्रतिद्रव्यं चत्वारो वर्णगंधरसस्पर्श लक्षणाः पर्यायाः । ' दो पञ्जवे दुगुणिए सव्वजहत्रेण पेच्छए तेउ । चन्नाईया चउरो ' इति वचनप्रामाण्यात् । मध्यमतः अनेकसंख्य मेदभिन्ना । उत्कर्षतः प्रतिद्रव्यं असंख्येयान् न तु कदाचनापि अनंतान् ॥ १ ॥ नैरयिकदेवतीर्थंकरा' अवधेः ' अवधिज्ञानस्याबाह्या एव भवंति । बाह्या न कदाचनापि भवंति इति भावः सर्वतोऽवभासक-अवधि उपलब्ध क्षेत्र मध्यवर्त्तिनः सदैव भवतीत्यर्थः । तथा पश्यन्ति ' सर्वत: ' सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च खलु शब्दोsaधारणार्थः, सर्वासु एव दिविदिक्षु इति शेषाः तिर्यग्नरा देशेन एकदेशेन पश्यंति ॥ २ ॥ तदेतदवधिज्ञानम् ॥
अथ किं तन्मनःपर्यायज्ञानं १,
से किं तं मणपज्जवनाणं ? मणपज्जवनाणं भंते किं मणुस्साणं उप्पज्जइ अमणुस्साणं उप्पज्जइ ? नर्थक्यमेवेति वाच्यम्, तथापि सर्वकालं तेषां नियतोऽवधिरित्यस्यार्थस्यालाभात् ततः सर्वकालं नियतावधिकत्व प्रख्यापनाय ' अवधेबाह्या भवन्ति ' इत्येतत्पदस्यावश्यकत्वात् न च तीर्थकृतामवधेः सर्वकालावस्थायित्वं विरुध्यत इति वाच्यम्, छद्मस्थकालावच्छेदेनैव विवक्षितत्वादिति ज्ञेयमिति भावः ।
अवचूरिसमलंकृतम्
॥ ६८ ॥
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नन्दिसूत्रम्
॥६९॥
न. सू. ६
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गोमा ! मस्साणं उपज्जइ नो अमणुस्साणं जइ मणुस्साणं किं संमुच्छिममणुस्साणं गन्भवतियमणु
स्साणं ?
मनःपर्यायज्ञानं प्रानिरूपितशब्दार्थः, णं इति वाक्यालंकारे, भदंत इति गुर्वामंत्रणे, किं इति परप्रश्ने, मनुष्याणां उत्पद्यते इति प्रकटार्थ, अमनुष्याणां उत्पद्यते इति, अमनुष्या- देवादयस्तेषां उत्पद्यते, एवं भगवतो गौतमेन प्रश्ने कृते सति परमाईत्वमहिम्ना विराजमानः त्रिलोकीपतिः भगवान् वर्धमानखामी निर्वचनमभिधत्ते
हे गौतम! सूत्रे दीर्घत्वं 'सेर्लोपः संबोधने ह्रस्वो वेति प्राकृतलक्षणसूत्रे वाशब्दस्य लक्ष्यानुसारेण दीर्घत्वसूचनादवसेयं यथाभो वस्सा ! इत्यादौ, मनुष्याणां उत्पद्यते नामनुष्याणां तेषां विशिष्टचारित्रप्रतिपन्यभावात्, अत्राह ननु गौतमोऽपि चतुर्दशपूर्वधरः सर्वाक्षरसन्निपाती संभिन्नश्रोताः सकलप्रज्ञापनीयभावपरिज्ञानकुशलः प्रवचनस्य प्रणेता सर्वज्ञदेशीय एव ततः किमर्थं पृच्छति, उच्यते, शिष्यसंप्रत्ययार्थं तथा हि तमर्थ स्वशिष्येभ्यः प्ररूप्य तेषां संप्रत्ययार्थं तत् समक्षं भूयोऽपि भगवंतं पृच्छति, अथवा इत्थं एव सूत्ररचनाकल्पस्ततो न कश्चित् दोष इति ।
पुनरपि गौतम आह, यदि मनुष्याणां उत्पद्यते तर्हि किं संमूर्छिममनुष्याणां उत्पद्यते, किंवा गर्भन्युक्रांतिकमनुष्याणां उत्पद्यते ? तत्र 'मूर्छा मोहसमुच्छ्रययोः,' संमूर्च्छनं संमूर्छा भावे घञ् प्रत्ययः, तेन निर्वृत्ताः संमूर्छिमास्ते च वान्तादिसमुद्भवाः, तथा गर्भे
१- प्रज्ञापना सूत्रे तु उच्चारेष्विति पदमादि कृत्वा चर्तुदशस्थानानि प्रदर्शितानि, तथाच्च 'उच्चारादिसमुद्भवाः' इत्येवं क्रमं त्यक्त्वात्र पंचमस्थानस्थ' वान्तेष्विति पदमादि कृत्वा 'वान्तादिसमुद्भवा' इत्युत्क्रमेण कथमुक्तमिति चेत्, सत्यं, शास्त्रे पूर्वानुपूर्वीक्रमो यथा प्रदर्शितः तथा अनानुपूर्वीक्रमोऽप्युक्तः तज्ज्ञापनाय तथोक्तिरिति ध्येयम् ।
अवचूरिसमलंकृतम्
॥ ६९ ॥
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नन्दम्
॥ ७० ॥
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व्युत्क्रांतिः उत्पत्तिर्येषां ते गर्भव्युत्क्रांतिकाः, अथवा गर्भात् व्युत्क्रांतिः व्युत्क्रमणं निष्क्रमणं येषां ते गर्भव्युत्क्रांतिकाः, उभयत्राऽपि गर्भजा इत्यर्थः, भगवानाह -
गोमा ! नो संमुच्छिममणुस्साणं उप्पज्जइ गन्भवक्कंतियमणुस्साणं, जह गन्भवकंतियमणुस्साणं किं कम्मभूमियगन्भवकंतियमणुस्साणं अकम्मभूमियगन्भवक्कं तियमणुस्साणं अंतरदीवगगन्भवतियमणुस्साणं ? गोयमा ! कम्मभूमियगन्भवक्कंतियमणुस्साणं नो अकम्मभूमियगन्भवक्कंतियमणुस्साणं नो अंतरदीवगगन्भवक्कतियमणुस्साणं, जइकम्मभूमियगन्भवक्कंतियमणुस्साणं किं संखिज्जवासाउयकम्मभूमियगन्भवक्कतियमणुस्साणं असंखिज्जवासाउयकम्मभूमियगन्भवकंतियमणुस्साणं ?
नो संमूर्च्छिममनुष्याणां उत्पद्यते, तेषां विशिष्टंचारित्रप्रतिपत्यसंभवात्, किंतु गर्भव्युत्क्रांतिकमनुष्याणां, एवं सर्वेषामपि प्रश्ननिर्वचनसूत्राणां भावार्थः भावनीयः, नवरं कृषिवाणिज्यतपः संयमानुष्ठानादिकर्मप्रधाना भूमयः कर्मभूमयः, भरतपंच कैरवत पंचकमहाविदेहपंचकलक्षणः पंचदश, तासु जाताः कर्मभूमिजाः कृष्यादिकर्मरहिताः कल्पपादपफलोपभोग प्रधाना भूमयो हैमवतपंचकहरिवर्षपंचकदेवकुरुपंचकोत्तरकुरुपंचकरम्यकपंचकैरण्यवतपश्ञ्चकरूपास्त्रिंशदकर्मभूमयः, तासु जाता अकर्मभूमिजाः, तथाऽन्तरे लवणसमुद्रस्य मध्ये द्वीपा अन्तरद्वीपा : - एकोरुकादयः षट्पञ्चाशत्, तेषु जाता अन्तरद्वीपजाः, एतेषु च वर्तमाना मनुष्या अप्येवं नामानो भवति, भवति च निवासयोगतस्तथाव्यपदेशो यथा पंचालजनपद निवासिनः पुरुषाः पंचाला इति,
१- अत्र चारित्रप्रतिपत्त्यसंभवादित्येतन्मात्रेणैव संमूच्छिममनुष्याणां व्यवच्छेदसंभवे विशिष्टेति पदाऽऽदाने किमस्ति प्रयोजनम् ? गृहाण लाघवमेव प्रयोजनमिति, सर्वत्र हि अनेनैवैकेन हेतुनर्द्धिप्राप्ताप्रमत्तसंयतभिन्नानां व्यावृत्तिः ।
अवचूरिसमलंकृतम्
।। ७० ।।
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नन्दिसूत्रम् ॥७१॥
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गोयमा ! संखिज्जवासाउयकम्मभूमियगन्भवकंतियमणुस्साणं नो असंखिज्जवासाउयकम्मभूमियगन्भवक्कंतियमणुस्साणं, जइ संखिज्जवासाउयकम्म भूमियगन्भवकंतियमणुस्साणं किं पज्जत्तगसंखिज्जवासाउयकम्मभूमियगन्भवकंतियमणुस्साणं अपज्जत्तगसंखिज्जवासाउयकम्मभूमियगन्भवकंतियमणुस्साणं ?
तथा संख्येयवर्षायुषः पूर्वकोट्यादिजी विनोऽसंख्येय वर्षायुषः- पल्योपमादिजीविनः, तथा पर्याप्तिः आहारादिपुद्गलग्रहणपरिणमनहेतुरात्मनः शक्तिविशेषः सा पर्याप्तिः, सा च षोढा, तद्यथा - आहारपर्याप्तिः, शरीरपर्याप्तिः, इन्द्रियपर्याप्तिः, आनपानपर्याप्तिः, भाषापर्याप्तिः, मनःपर्याप्तिश्चेति, आहारपर्याप्तिव प्रथमसमय एव निष्पद्यते, शेषास्तु प्रत्येकमन्तर्मुहूर्तेन कालेन पर्याप्तयः सिद्ध्यन्ते, पर्याप्तयो विद्यन्ते एषामिति पर्याप्ताः, स्वयोग्यपर्याप्तिपरिसमाप्तिविकलास्तेऽपर्याप्ताः ते च द्विधा, लब्ध्या, करणैश्च तत्र ये पर्याप्तका एव सन्तो म्रियते न पुनः स्वयोग्य पर्याप्तीः सर्वा अपि समर्थयन्ते ते लब्ध्यपर्याप्तकाः, तेsपि नियमात् आहारशरीरेन्द्रियपर्याप्तिपरिसमाप्तावेव म्रियन्ते नार्वाक्, यस्मात् आगामिभवार्युर्वद्धा म्रियन्ते सर्व एव देहिनः, तच्च आहारशरीरेन्द्रियपर्याप्तिपयाप्तानामेव वध्यत इति,
गोयमा ! पज्जत्तगसंखिज्जवासाउयकम्मभूमियगन्भवकंतियमणुस्साणं, नो अपज्जत्तगसंखिज्जवासाउयकम्मभूमियगन्भवकंतियमणुस्साणं, जइ पज्जत्तगसंखिज्जवासाउयकम्मभूमियगन्भवकंतियमणुस्साणं किं सम्म
१- तत्र पर्याप्तिः-क्रियापरिसमाप्तिः, आत्मनः शरीरेन्द्रियप्राणापानवाङ्मनोयोग्यदलिकद्रव्याहरणक्रिया परिसमाप्तिराहारपर्याप्तिः, गृहीतस्य शरीरतया संस्थापनक्रियापरिसमाप्तिः शरीरपर्याप्तिः, संस्थानरचनावटनमित्यर्थः इत्यादिविशेषो हारिभद्वीयनंदीवृत्ताविति ।
२-ननु आहारशरीरेन्द्रियपर्याप्तैरेवायुर्बध्यते तत्र चैकैका पर्याप्तिरन्तर्मुहूर्त कालेन समाप्यते, तथा च त्रीण्यन्तर्मुहूर्तानि संभवन्तीति कथं जघन्यायुः अन्तर्मुहूर्तमानमुच्यते ? मैवम्, आयुस्संबंधि अन्तर्मुहूर्तं महत्, पर्याप्तीनामन्तर्मुहूर्त लध्विति ज्ञेयं तथा च नासंगतिरिति ।
अवचूरिसमलंकृतम्
॥ ७१ ॥
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नन्दिसत्रम् | ॥७२॥
अवचूरिसमलंकृतम्
ROCCASA
दिहिपज्जत्तगसंखिजवासाउयगम्भवकंतियमणुस्साणं मिच्छादिहिपजत्तगसंखिजवासाउयकम्मभूमियगम्भवकंतियमणुस्साणं सम्मामिच्छदिहिपजत्तगसंखिज्जवासाउयकम्मभूमियगन्भवतियमणुस्साणं?
गोयमा ! सम्मदिद्विपज्जत्तगसंखिजवासाउयकम्मभूमियगन्भवतियमणुस्साणं नो मिच्छादिद्विपज्जत्तगसंखिज्जवासाउयकम्मभूमियगम्भवकंतियमणुस्साणं नो सम्मामिच्छदिहिपजत्तगसंखिजवासाउयकम्मभूमियगम्भवतियमणुस्साणं, जइ सम्मदिद्विपज्जत्तगसंखिज्जवासाउयकम्मभूमियगम्भवतियमणुस्साणं किं संजयसम्मदिदिपज्जत्तगसंखिजवासाउयकम्मभूमियगन्भवतियमणुस्साणं असंजयसम्मदिद्विपजत्तगसंखिज्जवासाउयकम्मभूमियगम्भवतियमणुस्साणं संजयासंजयसम्मदिहिपज्जत्तगसंखिजवासाउयकम्मभूमियगन्भवक्रतियमणुस्साणं?
गोयमा! सम्मदिहिपज्जत्तगसंखिजवासाउयकम्मभूमियगम्भवतियमणुस्साणं, नो असंजयसम्मदिहिपज्जत्तगसंखेजवासाउयकम्मभूमियगम्भवकंतियमणुस्साणं। नो संजयासंजयसम्मदिहिपजत्तगसंखेन्जवासाउय कम्मभूमियगन्भवतियमणुस्साणं, जइ संजयसम्मदिहिपजत्तगसंखेजवासाउयकम्मभूमियगन्भवतियमणुस्साणं किं पमत्तसंजयसम्मदिहिपज्जत्तगसंखेजवासाउयकम्मभूमियगन्भवतियमणुस्साणं, अपमत्तसंजयसम्मदिद्विपज्जत्तगसंखेन्जवासाउयकम्मभूमियगन्भवतियमणुस्साणं?
गोयमा! अपमत्तसंजयसम्मदिहिपज्जत्तगसंखेजवासाउयकम्मभूमियगन्भवतियमणुस्साणं, नो पमत्त
॥७२॥
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नन्दिसूत्रम् ॥७३॥
अवचूरिसमलंकृतम्
SAKAL
संजयसम्मदिहिपज्जत्तगसंखेजवासाउयकम्मभूमियगम्भवतियमणुस्साणं, जइ अपमत्तसंजयसम्मदिहिपजत्तगसंखेजवासाउयकम्मभूमियगन्भवतियमणुस्साणं, किं इड्डीपत्तअपमत्तसंजयसम्मदिहिपज्जत्तगसंखेजवासाउयकम्मभूमियगम्भवक्कंतियमणुस्साणं अणिढिपत्तअपमत्तसंजयसम्मदिद्विपजत्तगसंखेजवासाउयकम्मभूमियगन्भवतियमणुस्साणं ?
गोयमा! इड्डीपत्तअपमत्तसंजयसम्मदिद्विपज्जत्तगसंखेजवासाउयकम्मभूमियगन्भमणुस्साणं, नो अणिहीपत्तअपमत्तसंजयसम्मदिट्ठिपज्जत्तगसंज्जवासाउयकम्मभूमियमणुस्साणं मणपज्जवनाणं समुपज्जई। तं च दुविहं उप्पज्जा तंजहा । उज्जुमई य विउलमई य।। । ये पुनः करणानि शरीरेन्द्रियादीनि न तावनिर्वयन्ति, अथवाऽवश्यं निवर्तयिष्यन्ति ते करणापर्याप्तकाः, इहोभयेषामपि अपर्याप्तानां प्रतिषेधः, उभयेषामपि विशिष्टचारित्रप्रतिपत्त्यसम्भवात् , तथा सम्यक् अविपरीता दृष्टिर्जिनप्रणीनवस्तुप्रतिपत्तिर्येषां ते सम्यग्दृष्टयः, मिथ्या-विपरीता दृष्टिर्येषां ते मिथ्यादृष्टयः, सम्यक् (च) मिथ्या च दृष्टिर्येषां ते सम्यनिध्यादृष्टयः, येषामेकस्मिन्नपि (च) वस्तुनि तत्पर्याये वा मतिदौर्बल्यादिनैकान्तेन सम्यक्षरिज्ञानमिथ्याज्ञानाभावतो न सम्यक् श्रद्धानं नाप्येकान्ततो विप्रतिपत्तिः | ते सम्यगमिथ्यादृष्टयः, उक्तं च शतकबृहत् चूर्णौ 'जहा णालिकेरदीववासिस्स खुहाइयस्सवि एत्थ समागयस्स ओयणाइए अणेगविहे ढोइए । तस्स आहारस्स उवरिं न रुई न य निंदा, जओ तेण सो ओयणाइओ आहारो न कयाइ दिट्ठो ना वि सुओ, एवं सम्मामिच्छ
१-महया ओहिनाणिणो मणपजवनाणं उप्पजति ति अण्णे नियम भगति' इति नंदिचूर्णी
॥७३॥
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नन्दसूत्रम् ॥ ७४ ॥
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दिट्ठिस्सावि जीवाइपयत्थाणं उवरिं न य रुई नो वि निंदत्ति' तथा संयताः सकलचारित्रिणः, असंयताः अविरतसम्यग्दृष्टयः, संयतासंयता देशविरतिमन्तः, तथाऽपि प्रमाद्यंति स्म मोहनीयादिकर्मोदयप्रभावतः संज्वलनकषायनिद्राद्यन्यतमप्रमादयोगतः संयमयोगेषु सीदन्ति स्म इति प्रमत्ताः, ते च प्रायो गच्छ्वासिनः तेषां क्वचिदनुपयोगसंभवात्, तद्विपरीताः अप्रमत्ताः, ते च प्रायो जिनकल्पिकपरिहारविशुद्धिकाः यथालन्दकल्पिक प्रतिमाप्रतिपन्नाः, तेषां सततोपयोगसंभवात्, [ इह ] तु ये गच्छवासिनः तन्निर्गता वा प्रमादरहितस्ते अप्रमत्ता द्रष्टव्याः, अथवा ऋद्धिः आमर्षैषध्यादिलक्षणा [तां] प्राप्ताः ऋद्धिप्राप्ताः तद्विपरीताः अऋ (नृ १ ) द्धिप्राप्ताः, तत्र मनःपर्यायज्ञानं ऋद्धिप्राप्तानां अप्रमत्तसंयतानां उत्पद्यमानं द्विधा उत्पद्यते, तद्यथा ऋजुमतिश्च विपुलमतिश्च तत्र मननं मतिः संवेदनमित्यर्थः, ऋज्वी सामान्यग्राहिणी मतिः ऋर्जुमतिः घटोऽनेन चिन्तित इति सामान्याकाराध्यवसायनिबन्धनभूता कतिपयपर्यायविशिष्टमनोद्रव्यपरिच्छित्तिरित्यर्थः चशब्दः स्वगतानेकद्रव्यक्षेत्रादिभेदसूचकः, तथा विपुला विशेषग्राहिणी मतिः विपुलमतिः घटोऽनेन चिन्तितः स च सौवर्णः पाटलिपुत्रकः अद्यतनो महान् अपवरकस्थितः फलपिहित इत्याद्यध्यवसायहेतुभूता प्रभूतविशेषविशिष्टमनोद्रव्य परिच्छित्तिरित्यर्थः, चशब्दः पूर्ववत् ।
१- प्राप्तप्रमत्तसंयतानामुत्पद्यत इत्युक्ते तद्भिन्नानां संमूहिमादिविशिष्टानां व्यावृत्तिसंभवे अधिकसूत्रसूत्रणं व्यर्थमिति चेत्, इह च सर्वत्रैव मनुष्यादिषु विधाने सत्यर्थतो गम्यमानस्याऽपि विपक्षनिषेधस्याभिधानमन्युत्पन्न विनेयजनानुग्रहार्थमदुष्टैवेति तथा हि- सर्वपार्षदं हीदं शास्त्रं त्रिविधाश्च विनेया भवन्ति, तद्यथाउद्घाटितज्ञानाः, मध्यमबुद्धयः, प्रपंचधियश्चेत्यलं विस्तरेणेति हरिभद्रसूरयः ।
२ - ऋजुत्वं विपुलत्वं च मूर्तधमों, अमूर्ते ज्ञाने तदयोगात्, अत आह- सामान्यग्राहिणीत्यादि, अन सामान्यशब्दः स्तोकाभिधायी, मनःपर्यायदर्शनानुक्तत्वात्, तथा च विशेषमेकं द्वौ त्रीन् वा गृह्णन्ती ऋजुमतिः प्रवर्तते, ज्ञानात्मकतयैव तदुत्पत्तेरिति ।
अवचूरिसमलंकृतम्
॥ ७४ ॥
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नन्दिसूत्रम्
॥७५॥
तं समासओ चउविहं पन्नतं, तं जहा-दवओ, खित्तओ, कालवो, भावओ। तत्थ दवओ णं उज्जुमई अवचूरिअणंते अणंतपएसिए खंधे जाणइ पासइ, तं चेव विउलमई अब्भहियतराए विउलतराए विसुद्धतराए वितिमिर- दसमलंकृतम् तराए जाणइ पासइ । खित्तओ णं उज्जुमईजहन्नेणं अंगुलस्स असंखेन्जयभागं उक्कोसेणं अहे जाव इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उवरिमहेडिल्ले खुड्डगपयरे उडे जाव जोइसस्स उवरिमतले, तिरियं जाव अन्तो मणुस्सखित्ते अड्डाइजेसु दीवसमुद्देसु पन्नरस्ससु कम्मभूमिसु तीसाए अकम्मभूमिसु छपन्नए अन्तरदीवगेसु सन्निपंचिदियाणं पजत्तयाणं मणोगए भावे जाणइ पासइ।
तं चेव विउलमई अड्डाईजेहिं अंगुलेहिं अन्भहियतरं विउलतरं विसुद्धतरं वितिमिरतरागं खेत्तं जाणइ पासइ कालओ णं उज्जुमई जहन्नेणं पलिओवमस्स असंखिज्जाभार्ग उक्कोसेणवि पलिओवमस्स अतीयमणागयं बा कालं जाणइ पासइ तं चेव विउलमई अब्भहियतरागं विसुद्धतरागं जाणइ पासइ । भावओ णं उजुमई | अणंते वावे जाणइ पासइ । सबभावाणं अणंतभागं जाणइ पासइ तं चेव विउलमई अब्भहियतरागं विउलतरागं विसुद्धतरागं वितिमिरतरागं जाणइ पासइ, मणवजवनाणं पुण जणमणविचिंतियत्थपागडणं माणुसखित्तनिबद्धं गुणपञ्चइणं चरित्तवओ सेत्तं मणवजवनाणं ।
तन्मनःपर्यायज्ञानं द्विविधमपि 'समासतः' संक्षेपेण चतुर्विधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतो, भावतश्च, तत्र द्रव्यतः,
-मनोमानसाक्षात्कारिज्ञानं मनःपर्यवज्ञानमिति म्युत्पत्या लक्षणमायाति तथाऽपि भावमनःपर्यायमात्रसाक्षात्कारि मनःपर्यायज्ञानमिति लक्षणं ज्ञेयं तेनाकाशस्थमनोवर्गणामादाय न काचित् क्षतिः ।
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नन्दिसूत्रम्
| अवचूरिसमलंकृतम्
॥७६॥
णमिति वाक्यालंकारे, ऋजुमतिः अनन्तान्तप्रदेशिकान् अनन्तपरमाण्वात्मकान् स्कंधान् विशिष्टैकपरिणामपरिणतान् अर्धतृतीयद्वीपसमुद्रान्तर्वर्तिपर्याप्तसंज्ञिपश्चेन्द्रियैः मनस्त्वेन परिणामितान् पुद्गलसमूहानित्यर्थः । जानाति साक्षात्कारेणावगच्छति, पासइत्ति इह मनस्त्वपरिणतैः स्कन्धैः आलोचितं बाह्यमर्थ घटादिलक्षणं साक्षात् अध्यक्षतो मनःपर्यायज्ञानी न जानाति किन्तु मनोद्रव्याणामेव | तथारूपपरिणामान्यथानुपपत्तितो अनुमानतः, इत्थं चैतत् अङ्गीकर्तव्यं यतो मूर्तद्रव्यालंबनमेव इदं मनःपर्यायज्ञानमिष्यते, | मंतारस्तु अमूर्तमपि धर्मास्तिकायादिकं मन्यन्ते, ततः अनुमानत एव चिन्तितमर्थमवबुध्यन्ते, नान्यथा इति प्रत्तिपत्तव्यं, ततः | तमधिकृत्य पश्यति इत्युच्यते, तत्र मनोनिमित्तस्य अचक्षुर्दर्शनस्य संभवात् , अथवा सामान्यतः एकरूपेऽपि ज्ञाने क्षयोपशमस्य तत् तत् द्रव्याद्यपेक्षया वैचित्र्यसंभवात् अनेकविधः उपयोगः संभवति, यथात्रैव ऋजुमतिविपुलमतिरूपः, ततो विशिष्टतरमनोद्रव्याकारपरिच्छेदापेक्षया जानाति इत्युच्यते, सामान्यरूपं मनोद्रव्याकारपरिच्छेदापेक्षया तु पश्यतीति, सामान्यतः एकरूपेऽपि क्षयोपशमलंभे
अपान्तराले द्रव्याद्यपेक्षया क्षयोपशमस्य विशेषसंभवात् द्विविधोपयोगो भवतीति, तदेवं विशिष्टतरमनोद्रव्याकारपरिच्छेदापेक्षया द्र सामान्यरूपमनोद्रव्याकारपरिच्छेदो व्यवहारतः दर्शनरूप उक्तः, परमार्थतः पुनः सोऽपि ज्ञानमेव, यतः सामान्यरूपमपि मनोद्रव्या| कारं प्रतिनियतमेव पश्यति, प्रतिनियतविशेषग्रहणात्मकं च ज्ञानं न दर्शनं, अत एव सूत्रेऽपि दर्शनं चतुर्विधमेवोक्तं, न पंचविधमपि,
मनःपर्यायदर्शनस्य परमार्थतोऽसंभवादिति, तथा तानेव मनस्त्वेन परिणामितान् स्कंधान् विपुलमतिः, अति अधिकतरानर्धतृतीयाङ्गुलप्रमा. 8 णभूमिक्षेत्रवर्तिभिः स्कन्धैरधिकतरान् विपुलतरकान् प्रभूततरकान् तथा विशुद्धतरान् निर्मलतरान् ऋजुमत्यपेक्षयातीव स्फुटतरप्रकाशाहै नित्यर्थः, वितिमिरतरकान्-विगतं तिमिरं तिमिरसंपाद्यो भ्रमो येषु ते वितिमिराः ततो 'द्वयोः प्रकृष्टे तरप्' इति तरप्प्रत्ययस्ततःप्राकृतलक्ष
॥७६॥
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नन्दित्रम्
अवचूरिसमलंकृतम्
॥७
॥
णात खार्थे कप्रत्यय एवं पूर्वेष्वपि पदेषु यथायोगं व्युत्पत्तिद्रष्टव्या, वितिमिरतरकान्-सर्वथा भ्रमरहितान् , अथवा अति-अधिकतरकान् विपुलनरकानिति द्वावपि शब्दावेकार्थों, विशुद्धतरकान् वितिमिरवरकानेतौ द्वावप्येकार्थों, नानादेशजा हि विनेया भवन्ति ततः कोऽपि कस्यापि प्रसिद्धो भवतीति तेषामनुग्रहार्थमेकार्थिकपदोपन्यासः, तथा क्षेत्रतः, णमिति वाक्यालंकारे,ऋजुमतिरधडो यावत् अस्याः रत्नप्रभायाः पृथिव्या उपरितनाधस्तनान् क्षुल्लकप्रतरान् , अथ किमिदं क्षुल्लकातर इति ? उच्यते, इह लोकाकाशप्रदेशा उपरितनाधस्तनप्रदेशरहिततया
विवक्षिता मण्डकाकारतया व्यवस्थिताः प्रतरैमित्युच्यते, तत्र तिर्यग्लोकस्योधिोपेक्षयाष्टादशयोजनशतप्रमाणस्य मध्यभागे द्वौ सर्वलघू PIक्षुल्लकातरौ, तयोर्मध्यभागे जम्बूद्वीपे रत्नप्रभाया बहुसमे भूमिभागे मेरुमध्येऽष्टप्रादेशिको रुचकस्तत्र गोस्तनाकाराश्चत्वार उपरितनाः
प्रदेशाश्चत्वारश्चाधस्तनाः, एष एव च रुचकः सर्वासां दिशां विदिशांवा प्रवर्तकः, एतदेव च सकलतिर्यगलोकमध्यं, तौ च द्वौ सर्वलघ | प्रतरी अडलासमवेयभागबाहल्यावलोकसंवचिती रज्जुप्रमाणौ, तत एतयोरुपर्यन्येऽन्ये प्रतराः तिर्यगङ्गलासंख्येयभागवृद्ध्या वर्धमानास्तावद्रष्टव्याः, यावर्द्धलोकमध्यं, तत्र पंचरज्जुप्रमाणः प्रतरः, तत उपर्यन्ये प्रतराः, तिर्यगंगुलासंख्येयभागहान्या हीयमानास्तावदवसेया यावल्लोकान्ते रज्जुप्रमाणः प्रतरः, इह ऊर्द्धलोकमध्यवर्तिनं सर्वोत्कृष्टं पंचरज्जुप्रमाणं प्रतरमवधीकृत्यान्ये उपरितना अधस्तनाश्च क्रमेण हीयमानाः सर्वेऽपि प्रतराः क्षुल्लकप्रतरा इति व्यवह्रियन्ते यावल्लोकान्ते तिर्यग्लोके च रज्जुप्रमाणः प्रतर इति, तथा तिर्यग्लोकमध्यवर्तिसर्वलघुक्षुल्लकातरस्याधस्तिर्यगंगुलासंख्येयभागवृद्ध्या वर्धमाना वर्धमानाः प्रतराः तावद्वक्तव्याः यावदधोलोकान्ते सर्वोत्कृष्टसप्तरज्जु
सप्तरज्जु १-मण्डका(ला!)कार तया-गोलाकारतयेत्यर्थः । २-प्रतरशब्दो हि पुनपुंलिङ्गवर्तीति ज्ञायते हारिभद्रीयनंदीवृत्ती उभयलिङ्गप्रयोगदर्शनात् ।
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७७॥
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नन्दिसूत्रम्
॥७८॥
प्रमाणः प्रतरः, तं च सप्तरज्जुप्रमाणं प्रतरं अपेक्ष्यान्ये उपरितनयः सर्वेऽपि क्रमेण हीय मानाः क्षुल्लकातरा अभिधीयन्ते यावत्तिर्यग-1 अवचूरि| लोकमध्यवर्ती सर्वलघुक्षुल्लकातर एषा क्षुल्लकप्रतरप्ररूपणा । तत्र तिर्यग्लोकमध्यवर्तिनः सर्वलघुरज्जुप्रमाणात् क्षुल्लकातरात् आरभ्य || समलंकृतम् | यावदधो नवयोजनशतानि तावत् अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां ये प्रतराः ते उपरितनक्षुल्लकातरा भण्यन्ते, तेषामपि चाधस्तात् ये प्रतरा ! यावदधोलौकिकग्रामेषु सर्वान्तिमः प्रतरस्तेऽधस्तनक्षुल्लकातराः तान् यावदधः क्षेत्रत ऋजुमतिः पश्यति, अथवाऽधोलोकस्योपरितनभागवर्तिन क्षुल्लकप्रतरा उपरितना उच्यन्ते, ते चाधोलौकिकग्रामवर्तिप्रतरादारभ्य तावदवसेया यावर्त्तिर्यग्लोकस्यान्तिमः अधस्तनप्रतरः, तथा तिर्यग्लोकस्य मध्यभागादारभ्याधोभागवर्तिनः क्षुल्लकातरा अधस्तना उच्यन्ते, तत उपरितनाश्चाधस्तनाश्च उपरितनाधस्तनाः तान् | यावदृजुमतिः पश्यति, ऊर्ध्वं यावत् ज्योतिश्चक्रस्योपरितलः तिर्यग् यावदन्तो मनुष्यक्षेत्रे मनुष्यलोकपर्यन्त इत्यर्थः, अर्धतृतीयेषु द्वीपसमुद्रेषु पंचदशसु कर्मभूमिसु त्रिंशति चाकर्मभूमिषु षट्पंचाशतसंख्येषु च अंतरद्वीपेसु संज्ञिनां, ते चापांतरालगतावपि तदायुष्कसंवेदनात् अभिधीयन्ते न च तैरिहाधिकारः, ततो विशेषणमाह-पंचेन्द्रियाश्च उपपात क्षेत्रमागताः, इन्द्रियपर्याप्तिपरिसमाप्तौ मनःपर्याप्त्या अपर्याप्ता अपि भवन्ति न च तैः प्रयोजनं अतो विशेषणान्तरमाह-पर्याप्तानाम् , अथवा संज्ञिनो हेतुवादोपदेशेन विकलेन्द्रिया अपि भण्यन्ते, ततः तद् व्यवच्छेदार्थ पंचेन्द्रियग्रहणं, ते च अपर्याप्तका अपि भवन्ति, अतःत द् व्यवच्छेदार्थ पर्याप्तग्रहणम् , तेषां मनोगतान् भावान् जानाति पश्यति तदेव मनोलब्धिसमन्वितजीवाधारक्षेत्रं विपुलमतिः, अर्द्ध तृतीयं येषु तानि अर्धतृतीयानि अंगुलानि, तानि
C ||७८॥ च ज्ञानाधिकारात् उच्छ्यअंगुलानि द्रष्टव्यानि, तैरर्धतृतीयैः अंगुलैः अति-अधिकतरं, तच्च एकदेशमपि भवति तत आह-विपुलतरं
१-विपुलमतिमनःपर्यायज्ञानिनः सार्धव्यंगुलाधिक क्षेत्रं पश्यन्तीति तत्र प्रमाणांगुलं ग्राह्यमथवोत्सेधांगुलमिति प्रश्नोत्तरे 'आयंगुलेणेत्यादिकारिकया
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अवचूरि
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नन्दिसूत्रम् ॥७९॥
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SAESAKASIRECRUSALARIOR
विस्तीर्णतरं, अथवा आयामविष्कंभाभ्यां अति-अधिकतरं बाहल्यं आश्रित्य विपुलतरं, तथा विशुद्धतरं वितिमिरतरं इति च प्राग्वत् , जानाति पश्यति 'तात्स्थ्यात् तव्यपदेश' इति तावत् क्षेत्रगतानि मनोद्रव्याणि जानाति पश्यति इत्यर्थः । मनःपर्यायज्ञानं पुनः संयतस्य ४ समलंकृतम् अप्रमत्तस्य आमौषध्याद्यन्यतमऋद्धिप्राप्तस्य, द्रव्यतः संज्ञिमनोद्रव्यविषय, क्षेत्रतः मनुष्यक्षेत्रगोचरं, कालतः अतीतअनागतपल्योपमअसंख्येयभागविषयं, भावतः मनोद्रव्यगतानंतपर्यायालंबनं, ततः अवधिज्ञानात् भिन्न,-'एतदेव लेशतः सूत्रकृदाह-जनमनःपरिचिन्तितार्थप्रकटनं, जायंते इति जनाः, तेषां मनांसि जनमनांसि तैः परिचिन्तितश्चासौ अर्थश्व जनमनःपरिचिन्तितार्थस्तं प्रकटयति जनमन:परिचिन्तितार्थप्रकटनं, तथा मानुषक्षेत्रनिबद्धं न तत् बहिःव्यवस्थितप्राणिद्रव्यमनोविषयं इत्यर्थः। तथा गुणाः क्षात्यादयःते प्रत्ययः कारणं यस्य तत् गुणप्रत्ययं चारित्रवतः अप्रमत्तसंयतस्य तदेतत् मनःपर्यायज्ञानं ॥
से किंतं केवलनाणं? केवलनाणं दुविहं पनत्तं, तं जहा भवत्थकेवलनाणं च सिद्धकेवलनाणं च, से किं तं भवत्थकेवलनाणं भवत्थकेवलनाणं? दुविहं पन्नत्तं तं जहा-सजोगिभवत्थकेवलनाणं च अयोगिभवत्थकेवलनाणंच।
अथ किं तत् केवलज्ञानं ? मूरिराह-केवलज्ञानं द्विविधं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा भवस्थकेवलज्ञानं सिद्धकेवलज्ञानं च, कर्मवशवर्ति| प्राणिनः [भवन्ति ] अस्मिन्निति भवो नारकादिजन्म, तत्र इह भवो मनुष्यभव एव ग्राह्यः, अन्यत्र केवलोत्पादाभावात् , भवे प्रमाणांगुलं ग्राह्यमित्युक्त्वा नंदिसूत्रे (टीकायां) तूत्सेधांगुलमानमुक्तं तत् ज्ञानी वेत्तीति प्रश्नचिंतामणिग्रन्थोक्तं न समीचीनं भाति नंदीसूत्रचूर्णावपि 'अड्डातियंगुलग्गहण उस्सेहंगुलमाणतो कहं गजति'' इति प्रश्नपूर्वक 'उस्सेहपमाणतो मिणसु देह' ति वयणातो अंगुलादिया य जे पमाणा ते सम्वे देहनिष्फण्णा इति णाण
18॥७९॥ विसयत्तणतो य ण दोसो' इत्युक्तत्वात् ।
1-'ज्ञानान्तरासहचारित' 'सर्वविषयं वा केवलज्ञानमिति वाचकवर्ययशोविजयीयतत्त्वार्थटीकायामिति ।
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नन्दिसूत्रम्
॥ ८० ॥
तिष्टतीति भवस्थः तस्य केवलज्ञानं भवस्थकेवलज्ञानं, चशब्दः स्वगतानेकभेदसूचकः, तथा पिधू संराद्धौ सिध्यति स्म सिद्धः, यो येन गुणेन परिनिष्ठितो न पुनः साधनीयः स सिद्धः उच्यते, यथा सिद्ध ओदनः, स च 'कम्मे सिप्पे ० इत्यादि कर्मसिद्धादिभेदात् अनेकविधः, अत्र कर्मक्षयसिद्धेन अधिकारो अन्यस्य केवलज्ञानासंभवात्, अथवा सितं बद्धं धमातं भस्मीकृतं अष्टप्रकारं कर्म येन स सिद्धः, पृषोदरादय इति रूपसिद्धिः, सकलकर्मविनिर्मुक्तः, मुक्तावस्थां उपागत इत्यर्थः । तस्य केवलज्ञानं [ सिद्ध केवलज्ञानं ] अत्रापि शब्दः स्वगतानेकभेदसूचकः, अथ किं तत् भवस्थ केवलज्ञानं ? भवस्थ केवलज्ञानं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा सयोगि भवस्थकेवलज्ञानं च अयोगिभवस्थ केवलज्ञानं च तत्र योजनं योगो व्यापारः, उक्तं च 'कायवाङ्मनःकर्म योगः' ततः सह योगेन वर्तते ये ते सयोगाः मनोवाक्कायास्ते यथासंभवं अस्य विद्यते इति सयोगी, सयोगी चासौ भवस्थच सयोगिभवस्थः तस्य केवलज्ञानं सयोगिभवस्थ केवलज्ञानं, स योगः अस्य विद्यते इति योगी न योगी अयोगी, अयोगी चासौ भवस्थश्च अयोगिभवस्थः, शैलेश्यवस्थां उपागत इत्यर्थः, तस्य केवलज्ञानं - अयोगिभवस्थकेवलज्ञानं ॥
से किं तं सजोगि भवत्थकेवलनाणं ?, सयोगिभवत्थकेवलनाणं दुविहं पण्णत्तं तं जहा- पढमसमयसयोगिभवत्थकेवलनाणं च अपढमसमयसजोगि भवत्थ केवलनाणं च अहवा चरमसमयस योगिभवत्थके वलनाणं च अचरमसमय सजोगि भवत्थकेवलनाणं च, से तं सजोगि भवत्थकेवलनाणं । से किं तं अयोगिभवत्थकेवलनाणं ? अयोगिभवत्थकेवलनाणं-दुविहं पण्णत्तं तं जहा- पढमसमयअयोगि भवत्थकेवलनाणं च अपढमसमयअजोगिभवत्थकेवलनाणं च, अहवा चरमसमयअजोगि भवत्थकेवलनाणं च अचरमसमयअजोगि भवत्थकेवलनाणं च, सेतं अजोगि भवत्थ केवलनाणं ।
अवचूरिसमलंकृतम्
11 20 11
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नन्दित्रम्
अवचरिसमलंकृतम्
अथ किं तत्सयोगिभवस्थकेवलज्ञानं १ सयोगिभवस्थकेवलज्ञानं द्विविघं प्रज्ञप्त, तद्यथा-प्रथमसमयसयोगिभवस्थकेवलज्ञानं चाप्रथमसमयसयोगिभवस्थकेवलज्ञानं च। तत्र इह प्रथमसमयः केवलज्ञानोत्पत्तिसमयः, अप्रथमसमयः केवलोत्पत्तिसमयार्द्ध द्वितीयादिकः सर्वोऽपि समयो यावत् सयोगित्वचरमसमयः, अथवा इति प्रकारांतरे, एष एव अर्थः समयविकल्पनेनान्यथा प्रतिपाद्यते इत्यर्थः । चरमसमय इत्यादि तत्र चरमसमयः सयोग्यवस्थांतिमसमयः, न चरमसमयः अचरमसमयः सयोग्यवस्थाचरमसमयादाक्तनः | सर्वोऽप्याकेवलप्राप्तेः । से तं इत्यादिनिगमनं सुगमं । अथ किं तदयोगिभवस्थकेवलज्ञानं ? अयोगिभवस्थकेवलज्ञानं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-प्रथमसमयायोगिभवस्थकेवलज्ञानं च अप्रथमसमयायोगिभवस्थकेवलज्ञानं च, अत्र प्रथमसमयः अयोगित्वोत्पत्तिसमयो वेदितव्यः शैलेश्यवस्थाप्रतिपत्तिप्रथमसमय इत्यर्थः। प्रथमसमयादन्यः सर्वोऽप्यप्रथमसमयो यावत् शैलेश्यवस्थाचरमसमयः, [अथ वेति प्रकारान्तरे 'चरमसमये त्यादि, इह चरमसमयः शैलेश्यवस्थान्तिमसमयः, चरमसमयादन्यः सर्वोऽप्यचरमसमयो यावच्छैलेश्य-5 वस्थाप्रथमसमयः 'से वे अयोगिभवत्थकेवलनाणं' ] तदेतदयोगिभवस्थकेवलज्ञानम् ॥
से किं तं सिद्धकेवलनाणं । सिद्धकेवलनाणं दुविहं पन्नत्तं तं जहा अणंतरसिद्धकेवलनाणं च परंपर सिद्धकेवलनाणं च । से किं तं अणंतरसिद्ध केवलनाणं । अणंतरसिद्धकेवलनाणं पन्नरस्सविहं पन्नत्तं तं जहातित्थसिद्धा, अतित्थसिद्धा, तित्थयरसिद्धा, अतित्थयरसिौं , सयंबुद्धसिद्धा, पत्तेयबुद्धसि , बुद्धबोहियसिद्धा, इथिलिंगसिर्द्धा, पुरिसलिंगसिद्धा, नपुंसगलिंगसिद्धा, सलिंगसिद्धा, अन्नलिंगसिद्धी, गिहिलिंगसिद्धी, | एगसिद्धी अणेगसिद्धी से तं अणंतरसिद्धकेवलनाणं ।
SECRECRUSSENGER
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१
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म.
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नन्दिसूत्रम्
| अवचूरिसमलंकृतम्
॥८२॥
BORHOORHORROR
अथ किं तत्सिद्धकेवलज्ञानं सिद्धकेवलज्ञानं द्विविधं प्रज्ञप्तं तद्यथा-अनंतरसिद्धकेवलज्ञानं च परंपरसिद्धकेवलज्ञानं च, तत्र न विद्यते अंतरं-समयेन व्यवधानं यस्य सोऽनंतरः, स चासौ सिद्धश्चानंतरसिद्धः, सिद्धत्वप्रथमसमये वर्तमान इत्यर्थः, तस्य केवलज्ञानमनंतरसिद्धकेवलज्ञानं, चशब्दः स्वगतानेकभेदसूचकः, तथा विवक्षिते प्रथमसमये यः सिद्धः तस्य यो द्वितीयसमयसिद्धः स परस्तस्यापि यः] तृतीयसमयसिद्धः स परः, एवमन्येऽपि वाच्याः, परे च परे च इति वीप्सायां पृषोदरादय इति परंपरशब्दनिष्पत्तिः परंपरे च ते सिद्धाश्च परंपरसिद्धाः, विवक्षितसिद्धत्वप्रथमसमयात् प्राक् द्वितीयादिषु समयेषु अनंतातीताद्धां यावत् वर्चमाना इत्यर्थः, तेषां केवलज्ञानं परंपरसिद्धकेवलज्ञानं, अत्रापि चशब्दः स्वगताऽनेकभेदसूचकः ।
अथ किं तत् अनंतरसिद्धकेवलज्ञानं १, सूरिराह-अनंतरसिद्धकेवलज्ञानं पंचदशविधं प्रज्ञप्तं, 'तद्यथा', इति उपदर्शने 'तित्थसिद्धा' इत्यादि, तीर्यते संसारसागरोऽनेति तीथ-यथावस्थितसकलजीवाजीवादिपदार्थसार्थप्ररूपकं परमगुरुप्रणीतं प्रवचनं, तच्च | निराधारं न भवतीति कृत्वा संघः प्रथमगणधरो वा वेदितव्यम् , तस्मिन्नुत्पन्ने ये सिद्धाः, ते तीर्थसिद्धाः, १, तथा तीर्थस्याभावोऽतीर्थ | तीर्थस्याभावश्च अनुत्पादोऽपांतराले व्यवच्छेदो वा, तस्मिन् ये सिद्धास्ते अतीर्थसिद्धाः । तत्र तीर्थस्यानुत्पादे सिद्धा मरुदेवीप्रभृतयः, नहि मरुदेव्यादिसिद्धिगमनकाले तीर्थ उत्पन्नमासीत् । तथा तीर्थस्य व्यवच्छेदश्चंद्रप्रभस्वामिसुविधिखाम्यपांतराले, तत्र ये जातिसरणादिनाऽपवर्गमवाप्य सिद्धास्ते तीर्थव्यवच्छेदसिद्धाः, २, तथा तीर्थकराः सन्तो ये सिद्धास्ते तीर्थकरसिद्धाः ३, अतीर्थकर
१ शैलेश्यवस्थापर्यन्तवर्तिसमयसमासादितसिद्धत्वस्य तस्मिन्नव समये यत् केवलज्ञानं तदनन्तरसिद्धकेवलज्ञानमिति हारिभद्रवृत्तौ । MI२ तीर्थकरनामकर्मोदयभावे स्थिताः तीर्थकरभावतो वा सिद्धाः तीर्थकरसिद्धाः ।
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नन्दिसूत्रम् ॥ ८३ ॥
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सिद्धा अन्ये सामान्यकेवलिनः ४, तथा स्वयंबुद्धाः सन्तो ये सिद्धास्ते स्वयंबुद्धसिद्धाः ५, प्रत्येकबुद्धाः सन्तो ये सिद्धाः ते प्रत्येकबुद्धसिद्धाः ६, अथ स्वयं बुद्धप्रत्येकबुद्धानां कः प्रतिविशेषः ? उच्यते, बोध्युपधिश्रुतलिंगकृतो विशेषः, तथा हि- खयंबुद्धा बाह्यप्रत्ययमंतरेण एव बुध्यंते, स्वयं एव बाह्यप्रत्ययमंतरेण एव निजजातिस्मरणादिना बुद्धाः स्वयंबुद्धा इति व्युत्पत्तेस्ते च द्विधा तीर्थकराः तीर्थकरव्यतिरिक्ताश्च, इह तीर्थकरव्यतिरिक्तैरधिकारः, प्रत्येकबुद्धास्तु बाह्यप्रत्ययं अपेक्ष्य बुद्ध्यते, प्रत्येकं - बाह्यं वृषभादिकं कारणं अभिसमीक्ष्य बुद्धा इति व्युत्पत्तेः तथा च श्रूयते वाह्मवृषभादिप्रत्ययसापेक्षा करकंद्वादीनां बोधिः, बहि:प्रत्ययं अपेक्ष्य च बुद्धाः संतो नियमतः प्रत्येकं एव विहारन्ति, न गच्छ्वासिन इव संहताः, तथा स्वयंबुद्धानामुपधिः द्वादशविध एव पात्रादिकः, प्रत्येकबुद्धानां तु द्विधा जघन्यतः उत्कर्षतश्च । तत्र जघन्यतो द्विविधः उत्कर्षतो नवविधः प्रावरणवर्जः, तथा खयंबुद्धानां पूर्वाधीतं श्रुतं भवति वा न वा, यदि भवति ततो लिंगं देवता वा प्रयच्छति गुरुसंनिधौ वा गत्वा प्रतिपद्यते । यदि चकाकी विहरणसमर्थः, इच्छा च तस्य तथारूपा जायते तत एकाकी विहरति, अन्यथा गच्छवासेऽवतिष्ठते । अथ पूर्वाधीतं श्रुतं न भवति तर्हि नियमात् गुरुसंनिधौ गत्वा लिङ्ग प्रतिपद्यते, गच्छं चावश्यं न मुंचति । प्रत्येकबुद्धानां तु पूर्वाधीतं श्रुतं नियमतो भवति । तच्च जघन्यतः एकादशांगानि, उत्कर्षतः किंचित् न्यूनानि दश पूर्वाणि, तथा लिंगं तस्मै देवता प्रयच्छति, लिंगरहितो वा कदाचिद्भवति । तथा बुद्धा: - आचार्याः तैर्बोधिताः सन्तो ये सिद्धाः ते बुद्धबोधितसिद्धाः ७, एते च सर्वेऽपि केचित् स्त्रीलिंगसिद्धाः, स्त्रिया लिंगं स्त्रीलिंगं, स्त्रीत्वस्य उपलक्षणमित्यर्थः । तच्च त्रिधा, तद्यथा-वेदः शरीरनिर्वृत्तिः नेपथ्यं च तत्र इह शरीरनिर्वृच्या प्रयोजनं, न वेदनेपथ्याभ्यां वेदे सति सिद्धत्वाभावात्, नेपथ्यस्य चाsप्रमाणत्वात्, तस्मिन् स्त्रीलिंगे वर्त्तमानाः सन्तो ये सिद्धाः ते स्त्रीलिंग -
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अवचूरिसमलंकृतम्
॥ ८३ ॥
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अवचूरिसमलंकृतम्
नन्दिसत्रम्
सिद्धाः ८, तथा पुंल्लिंगे शरीरनिवृत्तिरूपे व्यवस्थिताः सन्तो ये सिद्धास्ते पुल्लिंगसिद्धाः ९, एवं नपुंसिकलिंगसिद्धाः १०, तथा खलिंगे
रजोहरणादिरूपे व्यवस्थिताः सन्तो ये सिद्धाः ते स्खलिंगसिद्धाः ११, तथा अन्यलिंगे-परिव्राजकादिसबंधिनि वल्कलकषायादिवस्त्रादि॥८४॥
रूपे द्रव्यलिंगे व्यवस्थिताः सन्तो ये सिद्धास्ते अन्यलिंगसिद्धाः १२, गृहिलिंगे सिद्धाः मरुदेवीप्रभृतयः १३, तथा एकसिद्धा इति एकस्मिन्नेकस्मिन् समये एककाः सन्तो ये सिद्धाः ते एकसिद्धाः १४, 'अणेगसिद्धा इत्येकस्मिन्समये अनेके ये] सिद्धास्ते अनेकसिद्धाः अनेक एव एकस्मिन् समये सिध्यंत उत्कर्षतो अष्टोत्तरशतसंख्या वेदितव्याः १५ सेत्तमित्यादि ।। २१ ॥
से किं तं परंपरसिद्धकेवलनाणं? परंपरसिद्धकेवलनाणं अणेगविहं पन्नत्तं तं जहा अपढमसमयसिद्धा दुसमयसिद्धा तिसमयसिद्धा चउसमयसिद्धा जाव दस समयसिद्धा संखिजसमयसिद्धा असंखिजसमयसिद्धा अणंतसमयसिद्धा। सेत्तं परंपरसिद्धकेवलनाणं । से तं सिद्धकेवलंनाणं । तं समासओ चउन्विहं पन्नत्तं तं जहा-दब्वओ, खित्तओ, कालओ, भावओ, तत्थ दवओणं केवलनाणी सव्वदव्वाई जाणइ पासइ। खित्तओ णं केवलनाणी सबखित्तं जाणइ पासइ । कालओ णं केवलनाणी सबकालं जाणइ पासइ । भावओ णं केवलनाणी सब्वभावं जाणइ पासइ
१ प्रत्येकबुद्धास्तु पुंलिङ्गा एव सिध्यन्तीति हारिभद्रवृत्तौ। २ अत्र विभाजकतावच्छेदको धर्मो यदि तद् व्यक्तित्वं तर्झनन्ताभेदाः प्रसज्येरन्, यदि तु अवस्था गृह्यते तर्हि तीर्थत्वाऽतीर्थत्वाभ्यां द्वैविध्यमेवोचितम् , अतीर्थत्वावच्छिन्न एव तीर्थेतरेषां समावेशात् इति तु सत्यम् ,
शिष्यबुद्धिवेशद्यार्थ तथाभिधानं, अज्ञातज्ञापनार्थं च तथाभिधानम् । भेदद्वयाभिधानेऽपि विशिष्य तीर्थकरातीर्थकरस्वयंबुद्धादीनां ज्ञानं मान संभवतीति ।
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नन्दिसूत्रम्
SHIKARA
अवचूरिसमलंकृतम्
॥८५॥
अह सव्वदव्बपरिणामभावविन्नत्तिकारणमणतं सासयमप्पडिवाई एगविहं केवलनाणं ॥१॥ केवलनाणेणऽत्थे नाउं जे तत्थ पन्नवणजोगे ते भासइ तित्थयरो वडजोगसुअं हवइ सेसं ॥२॥ सेत्तं केवलनाणं सेत्तं | पचक्खं नाणं ॥
से किं तं परंपर' इत्यादि न प्रथमसमयसिद्धाः, [अप्रथमाः समयसिद्धाः] परंपरसिद्धविशेषणं, अप्रथमसमयवर्तिनः सिद्धत्व31 समयात् द्वितीयसमयवर्तिन इत्यर्थः । व्यादिषु तु द्वितीयसमयसिद्धादय उच्यते । यद्वा सामान्यतः अप्रथमसमयसिद्धा इत्युक्तं ।।8 | तदेतदेव विशेषेण व्याचष्टे-द्विसमयसिद्धाः त्रिसमयसिद्धा इत्यादि । 'सेत्तमित्यादि निगमनं । तदिदं सामान्येन केवलज्ञानं अभिगृह्यते । | 'समासतः संक्षेपेण चतुर्विधं प्रज्ञप्तं तद्यथा-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च, तत्र द्रव्यतो 'णमिति' वाक्यालंकारे, केवलज्ञानी सर्वद्रव्याणि-धर्मास्तिकायादीनि साक्षाजानाति पश्यति । क्षेत्रतः केवलज्ञानी सर्व क्षेत्रं-लोकालोकभेदभिन्न जानाति पश्यति, इह यद्य सर्वद्रव्यग्रहणेन आकाशास्तिकायोऽपि गृह्यते । तथापि तस्य क्षेत्रत्वेन रूढत्वाद्भेदेन उपन्यासः, कालतः केवलज्ञानी सर्व कालं-अतीतानागतवर्तमानभेदभिन्नं जानाति पश्यति । भावतः केवलज्ञानी सर्वान् जीवाजीवगतान् भावान्-गतिकपायागुरुलघुप्रभृतीन् जानाति पश्यति ॥ अथशब्दः इह उपन्यासार्थः, पूर्व उद्देशसूत्रे मनःपर्यवज्ञानानंतरं केवलज्ञानं उक्तं । तत्संप्रति तात्पर्य निर्देशार्थ उपन्यस्यते | | इत्यर्थः । सर्वाणि च तानि द्रव्याणि च सर्वव्याणि-जीवादिलक्षणानि, तेषां परिणामाः प्रयोगविस्रसोभयजन्या उत्पादादयः पर्यायाः सर्वद्रव्यपरिणामास्तेषां भावः-सत्ता खलक्षणं खं खं असाधारणरूपं तस्य विशेषेण ज्ञापनं विज्ञप्तिः विज्ञानं वा विज्ञप्तिः, परिच्छेद इत्यर्थः,
१ कालस्य पर्यायकारणत्वेन प्राधान्यविवक्षया तद्भेदपरिज्ञानौचित्याद्रव्याद् भेदेनोपन्यास इति तार्किकैर्मीमांसनीयम् ।
सर्वद्रव्याणि-जीवानटपर्यवज्ञानानंतर केवलज्ञान भावान -गतिकपायागुरुलापुर
॥८५॥
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नन्दिसूत्रम्
| अवचूरि
समलंकृतम्
RRCASSENGALISA
तस्याः कारणं-हेतुः सर्वद्रव्यपरिणामविज्ञप्तिकारणं केवलज्ञानमिति संबध्यते । उक्तं च-"सव्वदव्याण पओगवीससामीसया जहाजोगं । परिणामा पजाया जम्मविणासादयो नेओ ॥१॥ तेसिं भावो सत्ता सलक्खणं वा विसेसओ तस्स | नाणं विन्नत्तीए कारणं केवलं नाणं ॥२॥" तच्च ज्ञेयानंतत्वात् अनंत, तथा शश्वत् भवं शाश्वतं, सदा उपयोगवदिति भावार्थः । तथा प्रतिपतनशीलं प्रतिपाति न प्रतिपाति अप्रतिपाति, सदावस्थायि इत्यर्थः । ननु यत् शाश्वतं तदप्रतिपाति एव ततः किं अनेन विशेषणेन', तदयुक्तं, सम्यक्शब्दार्थापरिज्ञानात् , शाश्वतं हि नाम अनवरतं भवदुच्यते । तच्च कियत्कालमपि भवति, यावद् भवति तावद् निरंतरं भवनात् , ततः सकलकालभावप्रतिपत्त्यर्थ अप्रतिपातिविशेषणोपादानं, ततोऽयं तात्पर्यार्थः-अनवरतं-सकलकालं भवतीति, तथा एकविधमेकप्रकार, तदावरणक्षयस्य एकरूपत्वात्केवलं च तत् ज्ञानं च केवलज्ञानं १॥२२ सू० ॥
केवल इत्यादि । इह तीर्थकरः केवलज्ञानेन 'सर्व वाक्यं सावधारणमिति न्यायात् केवलज्ञानेन एव, न श्रुतज्ञानेन, तस्य क्षायोपशमिकत्वात् , केवलिनश्च क्षायोपशमिकभावातिक्रमात् , सर्वक्षये देशक्षयाभावादिति भावः, अर्थान् धर्मास्तिकायादीन् अभिलाप्यानभिलाप्यान् 'ज्ञात्वा' विनिश्चित्य ये 'तत्र' तेषां अर्थानां अभिलाप्यानभिलाप्यानां मध्ये प्रज्ञापनायोग्याः, अभिलाप्या इत्यर्थः, तान् भाषते, नेतरान् , तान् अपि प्रज्ञापनायोग्यान् भाषते, न सर्वान् , तेषां अनंतत्वेन सर्वेषां भाषितुं अशक्यत्वात् , आयुषस्तु परिमितत्वात् , किंतु-कतिपयान् एव अनंतभागमात्रान् , तत्र केवलज्ञानोपलब्धार्थाभिधायकः शब्दराशिःप्रोच्यमानः तस्य भगवतो | वाग्योग एव भवति, न श्रुतं, तस्य भाषापर्याप्यादिनामकर्मोदयनिबन्धनत्वात् , श्रुतस्य च क्षायोपशमिकत्वात् , स च वाग्योगो भवति | न श्रुतं 'शेष अप्रधानं द्रव्यश्रुतं इत्यर्थः, श्रोतॄणां भावश्रुतकारणतया द्रव्यश्रुतं व्यवह्रियते इति भावः, अन्ये त्वेवं पठंति-'वइजोग
॥८६॥
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नन्दिसूत्रम् ॥८७॥
अवचूरि| समलंकृतम्
सुयं हवइ तेर्सि' अत्रायमर्थः तेषां श्रोतॄणां भावश्रुतकारणत्वात् स वाग्योगः श्रुतं भवति, श्रुतं इति व्यवह्रियते इत्यर्थः। सेत्तमित्यादिनिगमनं, तदेतत्केवलज्ञानं, तदेतत्प्रत्यक्षं [ ज्ञानम् ] ।
एवं प्रत्यक्षे प्रतिपादिते सति परोक्षस्य स्वरूपं अनवगच्छन् आह शिष्यः ।
से किं तं परुक्खनाणं । परुक्खनाणं दुविहं पन्नत्तं तं जहा-आभिणिबोहिअनाणपरुक्खं च सुअनाणपरुक्खं च जत्थ आभिणियोहियनाणं तत्थ सुअनाणं। जत्थ सुअनाणं तत्थाभिणिबोहियनाणं । दोऽवि एयाई अन्नमन्नमणुगयाइं तहवि पुण इत्थ आयरिया नाणत्तं पन्नवयंति-आभिनिबुज्झइ त्ति आभिणिवोहियनाणं । सुणेइ त्ति सुअं मइपुव्वं जेण सुअंन मइ सुअपुब्विआ।
अविसेसिआ मइ-मइनाणं च मइअन्नाणं च विसेसिआ सम्मदिहिस्स मइ-मइनाणं । मिच्छदिहिस्स मइ-मइ अन्नाणं । अविसेसिअं सुअंसुअनाणं च सुअ अन्नाणं च, विसेसिअंसुअं-सम्मदिहिस्स सुअं-सुअनाणं मिच्छदिहिस्स सुअं-सुअ अन्नाणं । | अथ किं तत् परोक्षं ? सूरिराह–परोक्षं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-आभिनिबोधिकज्ञानपरोक्षं च 'श्रुतज्ञानपरोक्षं च, चशब्दौ खगताज्नेकभेदसूचकौ परस्परसहभावसूचकौ च । परस्परसहभावं एव अनयोः दर्शयति-'यत्र' पुरुषे आभिनिबोधिकज्ञानं तत्र एव श्रुतज्ञानमपि, तथा यत्र श्रुतज्ञानमपि, तथा यत्र श्रुतज्ञानं तत्र एव आभिनिबोधिज्ञानं, आह-यत्र आभिनिवोधिकज्ञानं तत्र श्रुतज्ञानमित्युक्ते यत्र श्रुतज्ञानं तत्र आभिनिवोधिकज्ञानं इति गम्यत एव ततः किं अनेन उक्तेन इति ? उच्यते, नियमतो न गम्यते । ततो
SHOESSORIES SESEOSESAUSIS
॥
७॥
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नन्दिसूत्रम् 11 66 11
नियमावधारणाथ एतदुच्यते इत्यदोषः, नियमावधारणं एव स्पष्टयति- द्वे अपि एते-आभिनिबोधिकश्रुते अन्योन्य- अनुगते - परस्पर प्रतिबद्धे, स्यात् एतदनयोः यदि परस्परं अनुगमस्तर्हि अमेद एव प्राप्नोति कथं भेदेन व्यवहारः १ तत आह- 'तथापि' परस्परंअनुगमेऽपि पुनः अत्र - आभिनिवोधिक श्रुतयोः आचार्याः- पूर्वसूरयो नानात्वं भेदं प्ररूपयंति, कथं इति चेदुच्यते-लक्षणमेदात्, परस्परं अनुगतयोः अपि लक्षणभेदात् भेदो यथा एकाकाशस्थयोः धर्मास्तिकायाऽधर्मास्तिकाययोः, तथाहि धर्माधर्मास्तिकाय परस्परं लोलीभावेन एकस्मिन् आकाशप्रदेशे व्यवस्थितौ, तथापि यो गतिपरिणामपरिणतयोः जीवपुद्गलयोः गत्युपष्टंभहेतुः जलमिव मत्स्यस्य | स खलु धर्मास्तिकायो यः पुनः स्थितिपरिणामपरिणतयोः जीवपुद्गलयोः एव स्थित्युपष्टंभहेतुः क्षितिः इव झषस्य स खलु अधर्मास्तिकाय इति लक्षणभेदाद्भेदो भवति, एवं आभिनिवोधिकश्रुतयोः अपि लक्षणभेदात् भेदो वेदितव्यः, लक्षणभेदं एव दर्शयति-अभिमुखंयोग्यदेशावस्थितं नियतं अथ इंद्रियमनोद्वारेण बुध्यते - परिच्छिनत्ति आत्मा येन परिणामविशेषेण स परिणाम विशेषो ज्ञानापरपर्याय आभिनिबोधिकं, तथा शृणोति वाच्यवाचकभावपुरस्सरं श्रवणविषयेन शब्देन सह संस्पृष्टमर्थं परिच्छिनत्यात्मा येन परिणामविशेषेण स परिणामविशेषः श्रुतं, मतिः पूर्वं यस्य तत् मतिपूर्वं श्रुतं श्रुतज्ञानं, तथा हि-मत्या पूर्यते प्राप्यते श्रुतं, न खलु मतिपाटवविभवमंतरेण श्रुतविभवं उत्तरोत्तरमासादयति जंतुः, तथादर्शनात् । यच्च यदुत्कर्षापकर्षवशात् उत्कर्षापकर्षभाक् तत् तस्य कारणं यथा घटस्य मृत्पिंडः, मत्युत्कर्षापकर्षवशात् च श्रुतस्य उत्कर्षापकर्षो, ततः कारणं मतिः श्रुतज्ञानस्य, तथा पाल्यते - अवस्थितिं प्राप्यते मत्या श्रुतं श्रुतस्य हि दलं मतिः यथा घटस्य मृत्, तथा हि- श्रुतेषु अपि बहुषु ग्रंथेषु यत् विषयं स्मरणं ईहापोहादि वा अधिकतरं प्रवर्त्तते स ग्रंथः स्फुटतरः प्रतिभाति, न शेषः, एतच्च प्रतिप्राणिस्त्रसंवेदनप्रमाणसिद्धं, ततो यथा उत्पन्नोऽपि घटो मृदभावे
अवचूरिसमलंकृतम्
11 66 11
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अवचूरिसमलंकृतम्
नन्दिसत्रम् 18न भवति तथाखभावायां च मृदि तिष्ठत्यामवतिष्ठते इति सा तस्य कारणं, एवं श्रुतस्यापि मतिः कारण, ततो युक्तं उक्तं मतिपूर्व श्रुतं
| इति । न मतिः श्रुतपूर्विका ॥ ॥८९॥
| स्वामिना अविशेषिता-स्वामिविशेषणपरिग्रहमंतरेण विवक्ष्यमाणा मतिः मतिज्ञानं मत्यज्ञानं च उच्यते । सामान्येन उभयत्रापि मतिशब्दप्रवृत्तेः, विशेषिता-खामिना विशेष्यमाणा सम्यग्दृष्टेः मतिः मतिज्ञानं उच्यते तस्या यथावस्थितार्थग्राहकत्वात् मिथ्यादृष्टेः मतिः मत्यज्ञानं, तस्या एकांतावलंबितया यथावस्थितार्थग्रहणाभावात् । एवं श्रुतसूत्रं अपि व्याख्यम् ,
ततो मतिज्ञानं एव अधिकृत्य शिष्यः प्रश्नयति
से किं तं आभिणिबोहियनाणं । आभिणिबोहियनाणं दुविहं पन्नत्तं तं जहा सुयनिस्सियं च असुयनिस्सियं च । से किं तं असुयनिस्सियं । असुयनिस्सियं चउब्विहं पन्नत्तं तं जहा। उप्पत्तिओं वेणइ कम्मओं परिणामिओं ॥ बुद्धि चउबिहा वुत्ता पंचमी नोवलब्भइ ॥१॥
अथ किं तत् आभिनिबोधिकं ज्ञानं !, सूरिराह-आभिनिवोधिकं ज्ञानं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-श्रुतनिश्रितं च अश्रुतनिश्रितं च, उत्पादकाले शास्त्रार्थपर्यालोचनमनपेक्ष्य एव यत् उपजायते मतिज्ञानं तत् श्रुतनिश्रितं-अवग्रहादि, यत् पुनः सर्वथा शास्त्रसंस्पर्शरहितस्य तथाविधक्षयोपशमभावत एवमेव यथावस्थितवस्तुसंस्पर्शिमतिज्ञानमुपजायते तत् अश्रुतनिश्रितमौत्पत्तिक्यादि, तत्राल्पतरवक्तव्यत्वात् प्रथममश्रुतनिश्रितमतिज्ञानप्रतिपादनायाह-अथ किं तत् अश्रुतनिश्रितं? मूरिराह-अश्रुतनिश्रितं चतुर्विधं प्रज्ञप्त, तद्यथा-उत्पत्तिरेव न शास्त्राभ्यासकर्मपरिशील नादिकं प्रयोजनं-कारणं यस्याः सा औत्पत्तिकी । तथा विनयो-गुरुशुश्रुषा स
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नन्दिपत्रम् ॥९ ॥
समल
प्रयोजनं यस्याः सा इति वैनयिकी। तथानाचार्य कर्म साचार्यकं शिल्पं, अथवा कादाचित्कं शिल्पं सर्वकालिकं कर्म । कर्मणो जाता कर्मजा । तथा परि-समंतात् नमनं परिणामः-सुदीर्घकालपूर्वापरपर्यालोचनजन्य आत्मनो धर्मविशेषः स प्रयोजनं अस्याः सा पारिणामिकी । बुध्यतेऽनया इति बुद्धिः, सा च चतुर्विधा उक्ता तीर्थकरगणधरैः, किमिति ? यस्मात् पंचमी केवलिनापि न उपलभ्यते ॥ १॥ सर्वस्यापि अश्रुतनिश्रितमतिविशेषस्य औत्पत्तिक्यादिबुद्धिचतुष्टय एवांतर्भावात् ॥ औत्पत्तिक्यादिलक्षणं आह - पुवं अदिट्ठमस्सुअमवेइयतक्खणविसुद्धगहिअत्था ॥ अव्बाहयफलजोगा बुद्धि उप्पत्तिआ नाम ॥२॥ भरहसिले पणिय रुक्खे खुडुन पडे सरड काय उचारे॥गये घयण गोल खंभे" खुइंग मैग्गित्थि पई पुत्ते ॥३॥ भरह सिले मिंढे कुक्कुर्ड वालु हत्थी अगडं वर्णसंडे ॥ पायस अहओं पत्ते खाडहिली पंचपिअरो॥४॥ महुसिथ मुद्दि" अंके नाणएँ भिक्खु चेडगनिहाणे"॥ सिकखार्य अत्य॑सत्थे इच्छार्यमहं सयसैहस्से ॥५॥ ___पूर्व बुद्ध्युत्पादात् प्राक् खयं चक्षुषा न दृष्टो नापि अन्यतः श्रुतो मनसापि अविदितो अपर्यालोचितस्तस्मिन् क्षणे बुड्युत्पा- | दकाले विशुद्धो यथावस्थितो गृहीतोऽर्थो यया सा, तथा पुव्वमदिढे इत्यादौ मकारा अलाक्षणिकाः, तथा अव्याहतेन अबाधितेन फलेन | परिच्छेदेन अर्थेन योगो यस्याः सा अव्याहतफलयोगा बुद्धिः औत्पत्तिकी नाम ॥२॥ संप्रति विनेयजनानुग्रहाय अस्या एव खरूपप्रतिपादनार्थ उदाहरणानि आह-भरहसिलपणिय गाहा । भरहसिल गाथा । महुसित्थ गाथा । आसामर्थः कथानकेभ्योऽवसेयः, तानि च कथानकानि विस्तरतोऽभिधीयमानानि ग्रंथगौरवं आपादयंति ततः संक्षेपेण उच्यते-उज्जयिनी नाम पुरी, तस्याः समीपवर्ती कश्चित्
॥९
॥
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नन्दित्रम्
॥९१॥
नटानां एको ग्रामस्तत्र च भरतो नाम नटस्तस्य भार्या परासुरभूत , तनयश्चास्य रोहकाभिधोऽद्यापि अल्पवयास्ततः सत्वरं एव
अवचूरिस्वस्य खतनयस्य च शुश्रूषा करणाय अन्या समानिन्ये वधूः, सा च रोहकस्य सम्यग् न वर्त्तते । ततो रोहकेण सा प्रत्यपादि-मातर्न समलंकृतम् मे त्वं सम्यक् वर्चसे ततो ज्ञास्यसि इति, ततः सा सेयॆमाह रे रोहक! किं करिष्यसि ! रोहकोऽपि आह-तत् करिष्यामि येन त्वं मम पादयोः आगत्य लगिष्यसि इति । ततः सा तं अवज्ञाय तूष्णीं अतिष्टत् । रोहकोऽपि तत्कालात् आरभ्य गाढसंजाताभिनिवेशोऽन्यदा निशि सहसा पितरं एवं अभाणीत् । भो! भो! पितः एष पलायमानो गोहो याति, तदेवं बालकवचः श्रुत्वा पितुः आशंका समुदपादिनूनं विनष्टा मे महेलेति । तत एवं आशंकावशात्तस्यां अनुरागः शिथिलीवभूव, ततो न तां सम्यक् संभाषते, नापि विशेषतस्तस्यै पुष्पताबूलादिकं प्रयच्छति दूरतः पुनः अपास्तं शयनादि, ततः सा चिंतयामास । नूनं इदं बालकविचेष्टितं, अन्यथा कथमकांड एव एष दोषाभावे पराशुखो जातः? [ततो बालकमेवमवादीत , वत्स? रोहक! किमिदं त्वया चेष्टितम् , तव पिता मे संप्रति दूरं पराशुखीभूतः, रोहकआह-किमिति तर्हि न सम्यग् मे वर्तसे तयोक्तं अत ऊर्द्ध सम्यग् वर्तिष्ये] ततो बालक आह-भव्य, तर्हि मा खेदं कार्षीः । तथा करिष्ये यथा मे पिता तथैव त्वयि वर्तते इति, ततः सा तत्कालादारभ्य सम्यग्वर्तितुं प्रवृत्ता, रोहकोऽपि अन्यदा निशि निशाकरप्रकाशितायां प्राक्तनकदाशंकापनोदाय बालभावं प्रकटयन् निजच्छायां अंगुल्यग्रेण दर्शयन् पितरं एवमाह-भोः पितः! एष गोहो याति गोहो याति इति, तत एवं उक्ते स पिता परपुरुषप्रवेशाभिमानतो निःप्रत्याकारं कृपाणं उद्गीर्य प्राधावत् । रे! कथय कुत्र याति इति ?, ततः स
13॥९॥ रोहको बालक्रीडा प्रकटयन् अंगुल्यग्रेण निजच्छायां दर्शयति-पितः! एष गोहो याति, ततः स पिता वीडित्वा प्रत्यावृत्तः चिंतयति स्म खचेतसि-प्राक्तनोपि पुरुषो नूनमेवंविध एव आसीत् इति धिग् मया बालकवचनात् अलीकं संभाव्य विप्रियमेतावंतं कालं कृतं अस्यां
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नन्दिपत्रम्
अवचूरिसमलंकृतम्
॥८९॥
नि
ASARA*XXXSX
न भवति तथास्वभावायां च मृदि तिष्ठत्यामवतिष्ठते इति सा तस्य कारणं, एवं श्रुतस्यापि मतिः कारणं, ततो युक्तं उक्तं मतिपूर्व श्रुतं इति । न मतिः श्रुतपूर्विका ॥
खामिना अविशेषिता-स्वामिविशेषणपरिग्रहमंतरेण विवक्ष्यमाणा मतिः मतिज्ञानं मत्यज्ञानं च उच्यते । सामान्येन उभयत्रापि मतिशब्दप्रवृत्तेः, विशेषिता-खामिना विशेष्यमाणा सम्यग्दृष्टेः मतिः मतिज्ञानं उच्यते तस्या यथावस्थितार्थग्राहकत्वात् मिथ्यादृष्टेः मतिः मत्यज्ञानं, तस्या एकांतावलंबितया यथावस्थितार्थग्रहणाभावात् । एवं श्रुतसूत्रं अपि व्याख्येम् ,
ततो मतिज्ञानं एव अधिकृत्य शिष्यः प्रश्नयति
से किंतं आभिणिबोहियनाणं । आभिणिबोहियनाणं दुविहं पन्नत्तं तं जहा सुयनिस्सियं च असुयनिस्सियं च । से किं तं असुयनिस्सियं । असुयनिस्सियं चउव्विहं पन्नत्तं तं जहा। उप्पत्ति वेणइ कम्मओं परिणामिओं ॥ बुद्धि चउव्विहा वुत्ता पंचमी नोवलम्भइ ॥१॥
अथ किं तत् आभिनिबोधिकं ज्ञानं, सूरिराह-आभिनिबोधिकं ज्ञानं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-श्रुतनिश्रितं च अश्रुतनिश्रितं च, उत्पादकाले शास्त्रार्थपर्यालोचनमनपेक्ष्य एव यत् उपजायते मतिज्ञानं तत् श्रुतनिश्रितं-अवग्रहादि, यत् पुनः सर्वथा शास्त्रसंस्पर्शरहितस्य तथाविधक्षयोपशमभावत एवमेव यथावस्थितवस्तुसंस्पर्शिमतिज्ञानमुपजायते तत् अश्रुतनिश्रितमौत्पत्तिक्यादि, तत्राल्पतरवक्तव्यत्वात् प्रथममश्रुतनिश्रितमतिज्ञानप्रतिपादनायाह-अथ किं तत् अश्रुतनिश्रितं ? मूरिराह-अश्रुतनिश्रितं चतुर्विधं प्रनतं, तद्यथा-उत्पचिरेव न शास्त्राभ्यासकर्मपरिशील नादिकं प्रयोजन-कारण यस्याः सा औत्पत्तिकी । तथा विनयो-गुरुशुश्रुषा स
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नन्दिसूत्रम्
॥ ९३ ॥
न. सू. ८
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| युष्मद्धामस्य बहिरतीव महती शिला वर्त्तते, तामनुत्पाट्य राजयोग्यमण्डपाच्छादनं कुरुत, तत एवमादिष्टे सकलोऽपि ग्रामो राजादेशं कर्तुमशक्यं परिभावयन्नाकुलीभूतमानसो बहिः सभायामेकत्र मिलितवान्, पृच्छति स्म परस्परं - किमिदानीं कर्तव्यं ? दुष्टो राजादेशोऽस्माकमापतितो, राजादेशाकरणे च महाननर्थोपनिपातः, एवं चं चिन्तया व्याकुलीभूतानां तेषां मध्यन्दिनमागतं, रोहकश्च पितरमन्तरेण न भुङ्क्ते, पिता च ग्राममेलापके मिलितो वर्तते, ततः स क्षुधापीडितः पितुः समीपे समागत्य रोदितुं प्रावर्तत पीडितोऽहमतीव क्षुधा ( धया) ततः समागच्छ गृहे भोजनायेति, भरतः प्राह - वत्स ! सुखितोऽसि त्वं न किमपि ग्रामकष्टं जानासि स प्राह-पितः ! किं किं तदिति ?, ततो भरतो राजादेशं सविस्तरमचीकथत्, ततो निजबुद्धिप्रागल्भ्यवशात् झटिति कार्यस्य साध्यतां परिभाव्य तेनोक्तंमाकुलीभवत यूयं खनत शिलाया राज्ञोचितमण्डपनिष्पादनायाधस्तात् स्तम्भांश्च यथास्थानं निवेशयत भित्तीचोपलेपनादिना प्रकारेणातीवरमणीयाः प्रगुणीकुरुत, तत एवमुक्ते सर्वैरपि ग्रामप्रधानपुरुषैर्भव्यमिति प्रतिपन्नं गतः सर्वोऽपि ग्रामलोकः स्वस्वगृहे भोजनाय, भुक्त्वा च समागतः शिलाप्रदेशे, प्रारब्धं तत्र कर्म, कतिपयदिनैश्च निष्पादितः परिपूर्णो मण्डपः कृता च शिला तस्याच्छादनं, निवेदितं च राज्ञे राजनियुक्तैः पुरुषैः - देव ! निष्पादितो ग्रामेण देवादेशः, राजा ग्राह-कथमिति, ततस्ते सर्वमपि मण्डपनिष्पादनप्रकारं कथयामासुः, राजा पप्रच्छ - कस्येयं बुद्धिः १, तेऽवादिषुः, -देव ! भरतपुत्रस्य रोहकस्य, एषा रोहकस्योत्पत्तिकी बुद्धिः । एवं सर्वेष्वपि संविधानेषु योजनीयं ततो भूयोपि - राजा रोहकबुद्धिपरीक्षार्थं मेण्टकं प्रेषितवान् एष यावत्पलः संप्रति वर्त्तते पक्षातिक्रमेऽपि तावत्पलक्रम एव समर्पणीयो, न न्यूनो नापि अधिक इति, तत एवं राजादेशे समागते सति सर्वोऽपि ग्रामो व्याकुलीभूतचेता बहिः सभायां एकत्र मिलितवान्, सगौरवमा
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अवचूरिसमलंकृतम्
॥ ९३ ॥
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नन्दिसूत्रम्
॥ ९४ ॥
कारितो रोहकः, आभाषितश्च ग्रामप्रधानैः पुरुषैः - वत्स ! प्राचीनं अपि दुष्टराजादेशसिंधुं त्वया एव निजबुद्धिसेतुबंधेन समुत्तारितः सर्वोऽपि ग्रामस्ततः संप्रति अपि प्रगुणीकुरु निजबुद्धिसेतुबंधं येन अस्यापि दुष्टराजादेशसिंधोः पारं अधिगच्छाम इति, तत उवाच रोहको - वृकं प्रत्यासन्नं धृत्वा मेण्ठकं एनं यवसदानेन पुष्टीकुरुतः यवसं हि भक्षयन् एष न दुर्बलो भविष्यति, वृकं च दृष्ट्वा न वृद्धिं आप्स्यति इति, ततस्ते तथैव कृतवंतः, पक्षातिक्रमे च तं राज्ञः समर्पयामासुः, तोलने च य तावत्पलप्रमाण एव जातः ॥ २ ॥ ततो भूयोऽपि कतिपयदिनानंतरं राज्ञा कुर्कुटः प्रेषितः । एष द्वितीयं कुर्कुटं विना योधयितव्य इति, एवं संप्राप्ते राजादेशे मिलितः सर्वोऽपि ग्रामो बहिः सभायां आकरितो रोहकः कथितश्च तस्य राजादेशः । ततो रोहकेण आदर्शको महाप्रमाण आनायितो निमृष्टश्च भूत्या सम्यक् ततो धृतः पुरो राजकुर्कुटस्य, ततः स प्रतिबिंबं आत्मीयं आदर्श दृष्ट्वा मत्प्रतिपक्षः अयं अपरः कुर्कुट - इति मत्वा साहंकारं यो प्रवृत्तो, जडचेतसो हि प्रायः तिर्यंचो भवति । एवं च अपरकुर्कुटमंतरेण योधिते राजकुर्कुटे विस्मितः सर्वोऽपि ग्रामलोकः, संपादितो राजादेशः, निवेदितं [च] राज्ञे निजपुरुपैः ॥ ३ ॥ ततो भूयोऽपि कतिपयदिवसातिक्रमे राजा निजादेशं प्रेषितवान् - युष्मत् - ग्रामस्य सर्वतः समीपेऽतीव रमणीया वालुका विद्यते, ततः स्थूला वालुकामयाः कतिपयदवरकाः कृत्वा शीघ्रं प्रेषणीया इति, एवं च राजादेशे समागते मिलितः सर्वोऽपि वहिः सभायां ग्रामः पृष्टश्व रोहकः, ततो रोहण प्रत्युत्तरं अदायि । नटा वयं, ततो नृत्यं एव वयं कर्तु जानीमो न दवरकादि, राजदेशच अवश्यं कर्त्तव्यः, ततो बृहत् राजकुलं इति चिरंतना अपि कतिचित् वालुकामया दवरका भविष्यति इति तन्मध्यात् एकः कश्चित् प्रतिच्छंदभूतः प्रेषणीयो येन तदनुसारेण वयमपि वालुकामयान् दवरकान् कुर्म इति, ततो निवेदितं एतद्राज्ञे नियुक्त पुरुषः, राजा च निरुत्तरीकृतः तूष्णीमास्ते ||४|| ततः पुनरपि कतिचित् दिनानंतरं जीर्णहस्ती रोगग्रस्तो मुमूर्षुः ग्रामे राज्ञा प्रेषितो,
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अवचूरिसमलंकृतम्
॥ ९४ ॥
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नन्दिसूत्रम्
| अवचूरि
॥९५॥
समलंकृतम्
यथाऽयं हस्ती मृतः इति न निवेदनीयो, अथ [च प्रतिदिवसस्य वार्ता कथनीया, अकथने महान् ग्रामस्य दंडः, एवं च राजादेशे समागते तथैव मिलितः सर्वोऽपि बहिः सभायां ग्रामः, पृष्टश्च रोहकः, ततो रोहकेण उक्तं दीयतां अस्मै यवसः पश्चात् यत् भविष्यति तत् करिष्यामः, ततो रोहकादेशेन दत्तं यवसः तस्मै, रात्रौ च स हस्ती पंचत्वं उपगतः, ततो रोहकवचनतो ग्रामेण गत्वा राज्ञे निवेदितंदेव ! अद्य हस्ती न निपीदति नोत्तिष्ठति, न कवलं गृह्णाति, नापि नीहारं करोति, नापि उच्छासनिश्वासौ विदधाति, किंबहुना? देव! कां अपि सचेतनचेष्टां न करोति, ततो राज्ञा भणितं-किं रे! मृतो हस्ती ? ततो ग्राम आह-[देव!] देवपादा एवं ब्रुवते, न वयं इति, तत एवं उक्ते राजा मौनं आधाय स्थितः, आगतो ग्रामलोकः खग्रामे ॥५॥ ततो भूयोऽपि कतिपयदिनातिक्रमे राजा समादिष्टवान्अस्ति युष्माकं ग्रामे सुस्वादुजलपूर्णः कूपः, स इह सत्वरं प्रेषितव्यः, तत एवं आदिष्टो ग्रामो रोहकं पृष्टवान् , रोहकश्च उवाच-एष ग्रामेयकः कूपो, ग्रामेयकश्च स्वभावात् भीरुभवति न च सजातीयमंतरेण विश्वासं उपगच्छति । ततो नागरिकः कश्चिदेकः कूपः प्रेष्यतां येन तत्र एष विश्वस्य तेन सह समागच्छति, इति एवं निरुत्तरीकृत्य मुत्कलिता राजनियुक्ताः पुरुषाः, तैश्च राज्ञे निवेदितं, राजा च स्वचेतसि रोहकस्य बुद्धि-अतिशयं परिभाव्य मौनं अवलंब्य स्थितः ॥७॥ ततो भूयोऽपि कतिपयवासरातिक्रमेऽभिहितवान्वनखंडो ग्रामस्य पूर्वस्यां दिशि वर्तमानः पश्चिमायां दिशि कर्त्तव्य इति, अस्मिन्नपि राजादेशे समागते ग्रामो रोहकबुद्धिं उपजीव्य वनखंडस्य पूर्वस्यां दिशि व्यवतिष्ठत, ततो जातो ग्रामस्य पश्चिमायां दिशि वनखंडः, निवेदितं राज्ञो राजनियुक्तैः पुरुषैः॥८॥ ततः पुनरपि कालांतरे राजा समादिष्टवान्-वह्निसंपर्कमंतरेण पायसं पक्तव्यमिति, सर्वो ग्राम एकत्र मिलित्वा रोहकं अपृच्छत् , रोहकश्च उक्तवान्-तंदुलानतीव जलेन भिन्नान् कृत्वा दिनकरकरनिकरसंतप्तकरीपपलालादीनां ऊष्मणि तंदुलपयोभृता स्थाली निवेश्यतां येन
॥८॥
SUSCULARS
॥९५॥
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नन्दिसूत्रम्
अवचूरिसमलंकृतम्
॥९६॥
परमानं संपद्यते । तथैव कृतं, जातं परमानं, निवेदितं राजे, विस्मितं तस्य चेतः॥९॥ ततो राज्ञा रोहकस्य बुद्धि-अतिशयं अवगम्य तदाकारणाय समादिष्टं येन बालकेन ममादेशाः सर्वेऽपि प्रायः स्वबुद्धिवशात् संपादिताः तेन च अवश्यं आगंतव्यं, परं न शुक्लपक्षे नापि कृष्णपक्षे न रात्रौ न दिवा, न छायायां नापि आतपे न आकाशे न पादाभ्यां, न पथा नापि उत्पथेन न नातेन न अस्नातेन, तत एवं आदिष्टे स रोहका कंठस्नानं कृत्वा गंत्रीचक्रस्य मध्यभूमिभागेन ऊरणमारूढो धृतचालनीरूपातपत्रः संध्यासमये अमावास्याप्रतिपत्संगमे नरेन्द्रपार्श्व अगमत् , स च 'रिक्तहस्तो न पश्येत, राजानं देवतां गुरुं इति लोकश्रुतिं परिभाव्य पृथिवीपिंडमेकं आदाय गतः । प्रणतो राजा, मुक्तश्च तत् पुरतः पृथिवीपिंडस्ततः पृष्टो राज्ञा रोहकः । रे रोहक! किमेतत् ? रोहकोऽवादीव-देव ! देवपादाः पृथिवीपतयः ततो मया पृथिवी समानीता, श्रुत्वा च इदं प्रथमदर्शने मंगलं वचस्तुतोष राजा, मुत्कलितः शेषो ग्रामलोकः, रोहकः पुनः आत्मपार्श्व शायितः, गते च यामिन्याः प्रथमे यामे रोहकः शब्दितो राज्ञा-रे जागर्षि किं वा खपिषि, स प्राह-देव! जागर्मि, रे तर्हि किं चिंतयसि ?, स प्राह-देव ! अश्वत्थपत्राणां किं दंडो महान् उत शिखा इति ?, तत एवमुक्के राजा संशयं आपनो वदति-साधु चिंतितं, कोच निर्णयः, ततो राजा तं एव पृष्टवान्-रे! कथय कोत्र निर्णयः१, इति तेन उक्त-देव! यावदद्यापि | शिखाग्रभागो न शोषमायाति तावत् द्वे अपि समे, ततो राज्ञा पार्श्ववर्ती लोकः पृष्टः, तेन च सर्वेणापि अविगानं ततः प्रतिपानं | ॥१०॥ ततो भूयोऽपि रोहकः सुप्तवान् , पुनः अपि द्वितीये यामेऽपगते राज्ञा शब्दितः पृष्टश्च-किं रे जागर्षि ? किं वा स्वपिषि, स प्राह-देव! जागर्मि!, रे किं चिंतयसि !, देव! छागिकाया उदरे कथं भ्रम्युत्तीर्णा इव वर्तुलगुलिका जायंते । तत एवमुक्ते राजा संशयापन्नः तं एव पृष्टवान्-कथय रे रोहक! कथमिति, स प्राह-देव! संवर्तिकामिधवातविशेषात् ॥ ११॥ ततः
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॥९६॥
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नन्दिसूत्रम्
अवचूरिसमलंकृतम्
॥९७॥
पुनरपि रोहकः सुष्वाप, तृतीये च रजन्या यामेऽपगते भूयो राज्ञा शब्दितः,-कि रे जागर्षि किंवा स्वपिषि ?, सोऽवादीव-देव! जागर्मि, किं रे चिंतयन् वर्तसे?, देव ! पाडहिला जीवस्य यावत् मात्रं शरीरं तावत् मात्रं पुच्छं उत न्यूनाधिकमिति ?, तत एवं उक्ते राजा निर्णयं कर्तुं अशक्तः तं एवापृच्छत्-कोन निर्णयः १, सोवादीव-देव! समं इति ॥ १२ ॥ ततो रोहकः सुप्तः, प्राभातिके च | मंगलपटहकनिखने सर्वत्र प्रसरमधिरोहति राजा प्रबोधं उपाजगाम, शब्दितवान् च रोहकं, स च निद्राभरं उपारूढो न प्रतिवाचं दत्तवान् । ततो राजा लीलाकम्बिकया मनाक् तं स्पृष्टवान् , ततः सोऽपगतनिद्रो जातः, पृष्टश्च किं रे स्वपिषि? स प्राह-देव! जागर्मि, किं रे तर्हि कुर्वन् तिष्ठसि ? देव चितयन् , किं चिंतयसि ? देव ? एतत् चिंतयामि कतिभिर्जातो देव इति, तत एवमुक्ते राजा सवीडं मनाक् तूष्णी अतिष्ठत्, ततः क्षणानन्तरं पृष्टवान् कथय रे कतिमिः अहं जातः? इति ?, स प्राह-देव? पंचभिः, राजा भूयोऽपि पृष्टवान्-केन केन इति ?, रोहक आह-देव एकेन तायत् [वैश्रवणेन], वैश्रवणस्य इव भवतो दानशक्तेः दर्शनात् , द्वितीयेन चंडालेन, वैरिसमूहं प्रति चंडालस्य इव कोपदर्शनात् , तृतीयेन, रजकेन, यतो रजक इव वस्त्रं परं निःपीड्य तस्य सर्व अपहरन् दृश्यसे, चतुर्थेन वृश्चिकेन, यत् मां अपि बालकं निद्राभरसुप्तं लीलाकविकाग्रेण वृश्चिक इव निर्दयं तुदसि, पंचमेन निजपित्रा, येन यथावस्थितं न्यायं सम्यग् परिपालयसि । एवमुक्ते राजा तूष्णीं आस्थाय प्राभातिकं कृत्यं अकार्षीत् । जननी च नमस्कृत्य एकांते पृष्टवान् कथय मातः! कतिभिः अहं जात इति ?, सा प्राह-वत्स! किं एतत् प्रष्टव्यं ?, निजपित्रा त्वं जातः, ततो राजा रोहकोक्तं कथितवान् , वदति च-मातः ! स रोहकः प्रायोज्लीकबुद्धिर्न भवति ततः कथय सम्यक् तत्त्वमिति, तत एवं अतिनिबंधे कृते सति सा कथयामासयदा तव गर्भाधानं आसीत् तदाऽहं बहिरुद्याने वैश्रवणपूजनाय गतवती, वैश्रवणं च यक्षं अतिशायिरूपं दृष्ट्वा हस्तसंस्पर्शेन च
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. नन्दिसूत्रम्
| अवचूरि
समलंकृतम्
॥९८॥
संजातमन्मथोन्मादा भोगाय तं स्पृहितवती, अपांतराले च समागच्छंती चंडालयुवानं एक अतिरूपं अपश्यम्, ततस्तमपि भोगाय स्पृहयामि स्म, ततोक्तिने भागे समागच्छंती तथैव [च] रजकं दृष्ट्वाभिलपितवती, ततो गृहमागता सती तथाविध उत्सववशात् वृश्चिकं कणिकामयं भक्षणाय हस्ते न्यस्तवती, ततः तत्संस्पर्शतो जातकामोद्रेकात् तमपि भोगायाशंसितवती, तत एवं यदि स्पृहामात्रेण तेऽपि पितरः संभवंति तन्न जाने, परमार्थतः पुनरेक एव ते पिता सकलजगत्प्रसिद्ध इति, तत एवमुक्ते राजा जननीं प्रणम्य रोहकबुद्धिविस्मितचेताः स्वावासप्रासादं अगमत् । रोहकं च सर्वेषां मंत्रिणां मूर्धाभिषिक्तं मंत्रिणं अकार्षीत् । तत् एवं 'भरहसिल' इति व्याख्यातम् ॥ १३ ॥३।
संप्रति 'पणियंति व्याख्यायते-दौ पुरुषौ, एको ग्रामेयकोऽपरो नागरिकः, तत्र ग्रामेयकः स्वग्रामात् चिर्भटिकां आनयन् प्रतोलीद्वारे वर्तते । तं प्रति नागरिकः प्राह-यद्येताः सर्वा अपि तव चिर्भटिका भक्षयामि ततः किं मे प्रयच्छसि इति ?, ग्रामेयक आहयोऽनेन प्रतोल्याद्वारेण मोदको न याति तं प्रयच्छामि, ततो बद्धं द्वाभ्यां अपि पणितं, कृताः साक्षिणो जनाः, ततो नागरिकेण ताः सर्वा अपि चिर्भटिका मनाक् मनाक् भक्षयित्वा मुक्ताः, उक्तं च ग्रामेयकं प्रति-भक्षिताः सर्वा अपि त्वदीयाः चिर्भटिकाः, ततो मे प्रयच्छ यथा प्रतिज्ञातं मोदकं इति, ग्रामेयक आह-न मे चिर्भटिका भक्षितास्ततः कथं ते प्रयच्छामि मोदकं, नागरिकः प्राह-भक्षिता मया सर्वा अपि तव चिर्भटिकाः, यदि न प्रत्येषि तर्हि प्रत्ययं उत्पादयामि, तेन उक्तं-उत्पादय प्रत्ययं, ततो द्वाभ्यां अपि विपणि- वीथ्यां विस्तारिता विक्रयाय चिटिकाः, समागतो लोकः क्रयाय, ताश्च चिर्भटिका निरीक्ष्य लोको वक्ति-ननु भक्षिताः त्वदीयाः सर्वा अपि चिर्भटिकाः तत् कथं वयं गृह्णामः?, एवं च लोकेनोक्ते साक्षिणां ग्रामेयकस्य च प्रतीतिरुदपादि, क्षुमितो ग्रामेयका, हा!
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॥९८॥
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नन्दिसूत्रम् ॥९९॥
अवचूरिसमलंकृतम्
कथं नु नाम मया तावत्प्रमाणो मोदको दातव्यः?, ततः स भयेन कंपमानो विनयनम्रो रूपकं एकं प्रयच्छति, नागरिको नेच्छति । ततो द्वे रूपके दातुं प्रवृत्तः तथापि नेच्छति, एवं यावत् शतं अपि रूपकाणां नेच्छति । ततस्तेन ग्रामेयकेण चिंतितं, हस्ती हस्तिनं प्रेर्यते । ततो धूर्त एष नागरिको वचनेन मां छलितवान् न अपरनागरिकधूर्तमंतरेण पश्चात् कर्तुं शक्यते, इति अनेन सह कतिपयदिनानि व्यवस्थां कृत्वा नागरिकधूर्तानवलगामि, तथैव कृतं, दत्ता एकेन नागरिकधूर्तेन तस्मै बुद्धिस्ततः तत्बुद्धिबलेनऽऽपूपिकापणे मोदकं एक आदाय प्रतिद्वंद्विनं धूर्त आकारितवान्, साक्षिणश्च सर्वेऽपि आकारितास्ततः तेन सर्वसाक्षिसमक्षं इंद्रकीलके मोदकोऽस्थाप्यत, भणितश्च मोदको-याहि २, मोदको न प्रयाति । ततस्तेन साक्षिणोऽधिकृत्य उक्तं-मया एवं युष्मत्समक्षं प्रतिज्ञात-यद्यहं जितो भविष्यामि तर्हि स मोदको मया दातव्यो यः प्रतोलीद्वारेण न निर्गच्छति । एषोऽपि न याति, तस्मादहं मुत्कल इति । एतच्च साक्षिभिः अन्यैश्च पार्श्ववर्तिभिः नागरिकैः प्रतिपन्न इति प्रतिजितः । प्रतिद्वंद्वी धूर्तः द्यूतकारः, नागरिकधूतस्य औत्पत्तिकी बुद्धिः।२।
'रुक्खें ति, वृक्षोदाहरणं, तत्भावना-क्वचित् पथि पथिकानां सहकारफलानि आदातुं प्रवृत्तानां अंतराय मर्कटका विदधते, ततः पथिकाः खबुद्धिवशात् वस्तुतत्त्वं पर्यालोच्य मर्कटकानां सन्मुखं लोष्टकान् प्रेषयामासुः, ततो रोपाबद्धचेतसो मर्कटाः पथिकानां सन्मुखं सहकारफलानि प्रचिक्षिपुः । पथिकानां औत्पत्तिकी बुद्धिः। ३ ।
' तथा 'खुट्टग' ति, अंगुलीयकाभरणं, तत्उदाहरणभावना -राजगृहं नगरं, तत्र रिपुसमूहविजेता राजा प्रसेनजित् । भूयांसः तस्य सूनवस्तेषां च सर्वेषां अपि मध्ये श्रेणिको राज्ञा नृपलक्षणसंपन्नः खचेतसि परिभावितो, अत एव च तस्मै न किंचिदपि ददाति, नापि च वचसापि संस्पृशति । मा शेषैः एषः परासुः विधीयेतेति धुझ्या, स च किंचित् अपि अलभमानो मन्युभरवशात् प्रस्थितो
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नन्दिसूत्रम्
॥१००॥
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देशांतरं जगाम । क्रमेण बेनातटं नगरं तत्र च क्षीणविभवस्य श्रेष्ठिनो विपणौ समुपविष्टः तेन च श्रेष्ठिना तस्यां एव रात्रौ स्वमे रत्नाकरो निजदुहितरं परिणयन् दृष्ट आसीत् । तस्य च श्रेणिकपुण्यप्रभावतः तस्मिन् दिवसे चिरसंचितप्रभूतऋयाणकविक्रयेण महान् लाभः समुदपादि । म्लेच्छहस्ताच्च अनर्धाणि महारत्नानि स्वल्पमूल्येन समपद्यन्त ततः सोऽचिंतयत्- अस्य महात्मनो मम समीपं उपविष्टस्य पुण्यप्रभाव एष यत् मया महती विभूतिः एतावती समासादिता, आकृतिं च तस्यातीव सुमनोहरां अवलोक्य स्वचेतसि कल्पयामास स एष रत्नाकरो यो मया रात्रौ खमे दष्टः, ततस्तेन कृतकरांजलिपुटेन विनयपुरस्सरं आभाषितः श्रेणिकः कस्य यूयं प्राघूर्णकाः १, श्रेणिक उवाच - भवतां इति, ततः स एवंभूतवचनश्रवणतो धाराहतकदंबपुष्पमिव पुलकितसमस्ततनुयष्टिः सबहुमानं स्वगृहं नीतवान् श्रेणिकं, भोजनादिकं च सकलमपि आत्मनोऽधिकतरं संपादयामास । पुण्यप्रभावं च तस्य प्रतिदिवस आत्मनो धनलाभवृद्धिसंभवेनासाधारणं अभिसमीक्ष्यमाणः कतिपयदिनातिक्रमे तस्मै स्वदुहितरं नंदानामानं दत्तवान् । श्रेणिकोऽपि तया सह पुरंदर इव पौलोम्या मन्मथमनोरथानापूरयन् पंचविधभोगलालसो बभूव । कतिपयवासरातिक्रमे च नंदाया गर्भाधानमभूत् । इत प्रसेनजित् स्वांतसमयं विभाव्य श्रेणिकस्य परंपरया वार्त्ता अधिगम्य तदाकारणाय सत्वरं उष्ट्रवाहनान् पुरुषान् प्रेषयामास । ते च समागत्य श्रेणिकं विज्ञप्तवंतो- देव ! शीघ्रं आगम्यतां देवः सत्वरं आकारयति । ततो नंदां आपनसत्त्वां आपृच्छ्य 'अम्हे रायगिहे पंडरकुद्दा गोयाला जइ अम्हेहिं कजं तो एज्झह' त्ति एतद्वाक्यं क्वचित् लिखित्वा श्रेणिको राजगृहं प्रति चलितवान् । नंदायाश्च देवलोकच्युत महानुभाव गर्भसत्त्वप्रभावत एवं दौहृदं उदपदि । यदहं प्रबरकुंजरमधिरूढा निखिलजनेभ्यो धनदानपुरस्सरं अभयप्रदानं करोमि इति । पिता च तत् इत्थंभूतं दौहदं उत्पन्नं ज्ञात्वा राजानं विज्ञप्य पूरितवान् । कालक्रमेण च प्रवृत्ते
अवचूरिसमलंकृतम्
॥१००॥
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| अवचूरिसमलंकृतम्
नन्दिसूत्रम् प्रसवसमये प्रातरादित्य बिंब इव दश दिशः प्रकाशयन् अजायत परमसूनुस्तस्य च दौहृदानुसारेण अभय इति नाम चक्रेते
सोऽपि च अभयकुमारो नंदनवनांतर्गतकल्पपादप इव तत्र सुखेन परिवर्द्धते । शास्त्रग्रहणादिकं अपि यथाकाले कृतवान् । ॥१.१॥
| अन्यदा च स्वमातरं प्रपच्छ । मातः! कथं मे पिताऽभूत् इति?, ततः सा कथयामास समूलत आरभ्य सर्व यथावस्थित वृत्तांत, दर्शयामास च लिखितानि अक्षराणि, ततो मातृवचनतात्पर्यावगमतो लिखिताक्षरार्थावगमतश्च ज्ञातं अभयकुमारेण
यथा मे पिता राजगृहे राजा वर्त्तते इति । एवं च ज्ञात्वा मातरं अभाणीत्-व्रजामो राजगृहे सार्थेन सह वयं इति, कसा प्रत्यवादीत्-वत्स ! यद् भणसि तत्करोमि इति । ततो अभयकुमारः स्वमात्रा सह सार्थेन समं ब्रजितः, प्राप्त
राजगृहस्य बहिःप्रदेश, ततोऽभयकुमारः तत्र मातरं विमुच्य किं वर्त्तते संप्रति पुरे? कथं वा राजा दर्शनीय ? इति विचिंत्य राजगृह पुरं प्रविष्टः। तत्र च पुरप्रवेशे एव निर्जलकूपतटे समंततो लोकः समुदायेन अवतिष्ठते । पृष्टं च अभयकुमारेण-किं इति एष लोकमेलापकः, ततो लोकेन उक्तं,-कूपस्य मध्ये राज्ञोंगुल्याभरणमास्ते, तत् यो नाम तटे स्थितः स्वहस्तेन गृह्णाति तस्मै राजा महतीं वृत्रिं प्रयच्छति इति, तत एवं श्रुते पृष्टाः प्रत्यासन्नवर्त्तिनो राजनियुक्ताः पुरुषास्तैः अपि एवं एव कथितम् । ततः अभयकुमारेण उक्तं-अहं तटे स्थितो ग्रहीष्यामि, राजनियुक्तैः पुरुषैः उक्तं-गृहाण त्वं, यत् प्रतिज्ञातं राज्ञा तदवश्यं करिष्यते । ततोऽभयकुमारेण परिभावितं अंगुल्याभरणं दृष्ट्वा सम्यक् तत आगोमयेन आहतं, संलग्नं तत् तत्र, तस्मिन् शुष्क मुक्तं कूपांतरात् पानीयं, भृतो जलेन, परिपूर्णः स कूपः, तरति च उपरि सांगुल्याभरणशुष्कगोमयस्ततस्तटस्थेन सता गृहीतं अंगुल्याभरणं अभयकुमारेण, कृतश्च आनंदकोलाहलो लोकेन, निवेदितं राज्ञो राजनियुक्तैः पुरुषैः, आकारितोऽभयकुमारो राज्ञा, गतो राज्ञः समीपं, मुमोच पुरतः
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नन्दिसूत्रम् ॥१०२॥
अवचूरिसमलंकृतम्
अंगुल्याभरणं, पृष्टश्च राज्ञा-वत्स! कोऽसि त्वं?, अभयकुमारेण उक्तं देव ! युष्मदपत्यं, राजा पाह-कथं ?, ततः प्राक्तनं वृत्तांत कथितवान् । ततो जगाम महाप्रमोदं राजा, चकार उत्संगे अभयकुमारं, चुंबितवान् सस्नेहं शिरसि, पृष्टश्च श्रेणिकेन अभयकुमारोवत्स! व ते माता वर्त्तते । तेन उक्तं-देव! बहिःप्रदेशे, ततो राजा सपरिच्छदः तस्याः सन्मुखं उपागमत् । अभयकुमारश्च अग्रे समागम्य कथयामास सर्व नंदायास्ततः सा आत्मानं मंडयितुं प्रवृत्ता, निषिद्धा च अभयकुमारेण मातः! न कल्पते कुलस्त्रीणां निजपतिविरहितानां निजपतिदर्शनमंतरेण भूषणं कर्तुं इति, समागतो राजा, पपात राज्ञः पादयोः नंदा, सन्मानिता च भूषणादिप्रदानेन अतीव राज्ञा, सस्नेहं प्रवेशिता महाविभूत्या नगरं सपुत्रा, स्थापितश्च अभयकुमारोमात्यपदे अभयकुमारस्य
औत्पत्तिकी बुद्धिः ॥४॥ तथा 'पड'त्ति पटोदाहरणं, तद्भावना-द्वौ पुरुषौ एकस्य आच्छादनपटः सौत्रिकोऽपरस्य और्णमयः, तौ | च सह गत्वा युगपत्स्नातुं प्रवृत्तौ, तत्र उर्णापटस्वामी स्वपटं विमुच्य द्वितीयस्य सत्कं सौत्रिकं पटं गृहीत्वा गंतुं प्रस्थितो, द्वितीयो याचते स्वफ्टं, स न प्रयच्छति, ततो राजकुले व्यवहारो जातः, ततः कारणिकः द्वयोः अपि शिरसी कंकतिकयाञ्चलेखिते, ततोऽवलेखने कृते ऊर्णामयपटस्वामिनः शिरसा और्णावयवा निर्जग्मुः । ततो ज्ञातं-नूनं एप न सौत्रिकपटस्य खामीति निगृहीतो ऽपरस्य समर्पितः सौत्रिकः पटः। कारणिकानां औत्पत्तिकी बुद्धिः॥५॥ ततो 'सरड' त्ति, सरटोदाहरणं, तद्भावना-कस्यचित पुरीपं उत्सृजतः सरटो गुदस्याधस्तात् विलं प्रविशन् पुच्छेन गुदं स्पृष्टवान् । ततस्तस्य एवं अजायत शंका-नूनं उदरे मे सरटः प्रविष्टः, ततो गृहं गतो महती महतीं अधृति कुर्वन् अतीव दुर्बलो बभूव । वैद्यं च पप्रच्छ, वैद्यश्च ज्ञातवान् , असंभवं एतत्, केवलं अस्य कथंचित् आशंका समुदपादि, ततः स अवादीत्-यदि मे शतं रूपकाणां प्रयच्छसि ततोऽहं त्वां निराकुलीकरोमि, तेन प्रतिपन्न,
॥१०२॥
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नन्दिसूत्रम् ॥१०॥
समलंकृतम्
ततो वेद्यो विरेकोषधं तस्य प्रदाय लाक्षारसखरंटितं सरटं घटे प्रक्षिप्य तस्मिन् घटे पुरीपोत्सर्ग कारितवान् । ततो दर्शितो द वैद्येन तस्य पुरीषखरंटितो घटे सरटो, व्यपगता तस्य शंका, जातो बलिष्ठशरीरो, वैद्यस्य औत्पत्तिकी बुद्धिः॥६॥ 'काय'ति | काकोदाहरणं, तत् भावना-वेन्नातटे नगरे केनापि सौगतेन कोऽपि श्वेतपटक्षुल्लकः पृष्टः-भो क्षुल्लक ! सर्वज्ञाः किल तव
अहंतः तत्पुत्रकाच यूयं तत्कथय-कियंतोत्र पुरे चसंति वायसाः ?, ततः क्षुल्लकः चिंतयामास-शठोऽयं प्रतिशठाचरणेन निर्लोठनीयस्ततः स्वबुद्धिवशात् इदं पठितवान्-“सद्विकागसहस्सा इहई विनायडे परि वसंति । जइ ऊणगा पवसिया अब्भहिया पाहुणा आया ॥१॥" ततः स भिक्षुः ततः प्रत्युत्तरं दातुं अशक्नुवन् लकुटाहतशिरस्क इव शिरः कंड्यन् मौनमाधाय गतः । क्षुल्लकस्य औत्पत्तिकी बुद्धिः । अथवाऽपरो वायसदृष्टांतः कोऽपि क्षुल्लका केनापि भागवतेन दुष्टबुद्ध्या पृष्टो-भोः क्षुल्लक ! किं एष काको विष्ठां इतः ततो विक्षिपति?, क्षुल्लकोऽपि तस्य दुष्टबुद्धितां अवगम्य तत् मर्मवित् प्रत्युत्तरं दत्तवान्-युष्मसिद्धांते हि जले च स्थले च सर्वत्र व्यापी विष्णुः अभ्युपगम्यते । ततो यौष्माकीणं सिद्धांत उपश्रुत्य एषोऽपि वायसोऽचिंतयत्-किं अस्मिन् पुरीषे समस्ति विष्णुः किं वा न इति?, ततः स एवं उक्तो बाणाहतमर्मप्रदेश इव चूर्णितचेतसो मौनं अवलंब्य रुषा धूमायमानो गतः, क्षुल्लकस्य औत्पत्तिकी बुद्धिः ॥७॥ 'उच्चारे' ति, उच्चारोदाहरणं, तत् भावना क्वचित् पुरे कोऽपि धिग्जातीयः, तस्य भार्याऽभिनवयोवनोद्भेदरमणीया लोचनयुगलवक्रिमावलोकनमहाभल्लीनिपातताडितसकलकामिकुरंगहृदया प्रबलकामोन्मत्तमानसा,
त सोऽन्यदा धिग्जातीयः तया भार्यया सह देशांतरं गंतुं प्रवृत्तोपांतराले च धृतः कोऽपि पथिको मिलितः, सा च धिग्जातीयभार्या तस्मिन् रतिं बद्धवती, ततो धूर्तः प्राह-मदीया एषा भार्या, धिग्जातीयः प्राह-मदीया इति, ततो राजकुले व्यवहारो जातः, ततः
॥१०३॥
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नन्दिसूत्रम् ॥१०४॥
कारणिकैः द्वयोरपि पृथक् २ कृत्य ह्यस्तनदिनयुक्त आहारः पृष्टो, धिग्जातीयेन उक्तं मया ह्यस्तनदिने तिलमोदका भक्षिता मद्भार्यया च, धूर्त्तेन अन्यकि अपि उक्तं, ततो दत्तं तस्याः कारणिकैः विरेकौषधं, जातो विरेको, दृष्टाः पुरीषांतर्गताः तिलाः, दत्ता सा विजातीयाय, निर्घाटितो धूर्त्तः, कारणिकानां औत्पत्तिकी बुद्धिः ॥ ८ ॥ 'गय'त्ति गजोदाहरणं, तद्भावना - वसंतपुरे नगरे कोऽपि राजा बुद्ध्यतिशयसंपन्नं मंत्रिणमेकमन्वेषमाणञ्चतुःपथे हस्तिनमालानस्तंभे बंधयित्वा घोषणामचीकरत् । यो इमं हस्तिनं तोलयति तस्मै राजा महतीं वृत्तिं प्रयच्छति इति । इमां च घोषणां श्रुत्वा कश्चिदेकः पुमान् हस्तिनं महासरसि नावं आरोहयामास । अस्मिंश्च आरूढे यावत् प्रमाणा नौः मले निमग्ना तावत् प्रमाणां रेखामदात्ततः समुत्तारितो हस्ती तटे, प्रक्षिप्ता गंडशैलकल्पा नाविग्रावाणः, च तावत् प्रक्षिप्ता यावद् रेखां मर्यादीकृत्य जले निमग्ना नौः, ततः तोलिताः सर्वे पाषाणाः, कृतं एकत्र पलप्रमाणं निवेदितं च राज्ञोदेव! एतावत् पलपरिमाणो हस्ती वर्त्तते । ततस्तुतोष राजा, कृतो मंत्रिमंडलमूर्द्धाभिषिक्तः परममंत्री, तस्य औत्पत्तिकी बुद्धिः ॥ ९ ॥ 'घयण'त्ति भांडः, तत् उदाहरणं-विटो नाम कोऽपि पुरुषो राज्ञः प्रत्यासन्नवर्त्ती, तं प्रति राजा निजदेवीं प्रशंसतिअहो निरामया मे देवी या न कदाचित् अपि वातनिसर्ग विदधाति । विटः प्राह - देव ! न भवति इदं जातुचित्, राजावादीत्कथं १, विट आह-देव ! धूर्त्ता देवी, ततो यदा सुगंधीनि पुष्पाणि चूर्णयित्वा वासात् समर्पयति नासिकाग्रे तदा ज्ञातव्यं - वातं मुंचति इति । ततोऽन्यदा राज्ञा तथैव परिभावितं । सम्यग् अवगते च हसितं, ततो देवीहसननिमित्तकथनाय निर्बंधं कृतवती, ततो राजाऽतिनिर्बंधे कृते पूर्ववृत्तांतं अचीकथत् । ततचुकोप देवी तस्मै विटाय, आज्ञप्तो देशत्यागेन, तेनापि जज्ञे - नूनं अकथयत् पूर्ववृत्तांतं देवो देव्यास्तेन मे चुकोप देवी । ततो महांतं उपानहां भरमादाय गतो देवीसकाशं, विज्ञापयामास
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अवचूरिसमलंकृतम्
॥१०४॥
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नन्दिसूत्रम् 5 देवी-देवि ! यामो देशांतराणि, देव्युपानहां भरं पार्श्वे स्थितं दृष्ट्वा पृष्टवती-रे किं एष उपानहांभरः १, सोऽवादीन-देवि ! यावंति|8| अवचूरि
देशांतराणि एतावतीभिः उपानद्भिः गंतुं शक्यानि तावत् सुदेव्याः कीर्तिविस्तारणीया । तत एवं उक्ते मा मे सर्वत्र अपकीर्तिर्जायेत समलंकृतम् ॥१०५॥
इति परिभाव्य देवी बलात्तं धारयामास विटस्य औत्पत्तिकी बुद्धिः॥१०॥ 'गोलो' त्ति गोलकोदाहरणं, तद्भावना-लाक्षागोलक: कस्यापि बालकस्य कथमपि नासिकामध्ये प्रविष्टः, ततस्तन्मातापितरौ अतीव आत्तौं वभूवतुर्दर्शितो बालकः सुवर्णकारस्य, तेन 5 सुवर्णकारेण प्रतप्ताग्रभागया लोहशलाकया शनैः शनैः यत्नतो लाक्षागोलको मनाक् प्रताप्य सर्वोऽपि समाकृष्टः । सुवर्णकारस्य
औत्पत्तिकी बुद्धिः ॥११॥ 'खंभ' ति स्तंभोदाहरणं, तद्भावना-राजा मंत्रिणं एकं गवेषयन् महाविस्तीर्णतटाकमध्ये स्तंभं एक | निक्षेपयामास । तत एवं घोषणां कारितवान्-यो नाम तटे स्थितोऽमुं स्तंभं दवरकेण बध्नाति तस्मै राजा शतसहस्रं प्रयच्छति इति, | तत एवं घोषणां श्रुत्वा कोऽपि पुमान् एकस्मिन् तटप्रदेशे कीलकं भूमौ निक्षिप्य दवरकेण बद्धा तेन दवरकेण सह सर्वतः तटे परिभ्रमन् मध्यस्थितं स्तंभ तं बद्धवान् , लोकेन च बुद्धिअतिशयसंपन्नतया प्रशंसितो, निवेदितश्च राज्ञो राजनियुक्तैः पुरुषैस्तुतोष
राजा, ततस्तं मंत्रिणं अकार्षीत् । तस्य पुरुषस्य औत्पत्तिकी बुद्धिः ॥१२॥ 'खुडुग'त्ति क्षुल्लकोदाहरणं, तद्भावना-कस्मिन्चित् 81 पुरे काचित् परिव्राजिका, यो यत् करोति तदहं कुशलका सर्व करोमि इति राज्ञः समक्षं प्रतिज्ञां कृतवती, राजा च | तत् प्रतिज्ञासूचकं पटहं उद्घोषयामास, तत्र च कोऽपि क्षुल्लको भिक्षार्थ अटन् पटहशब्दं श्रुतवान्, श्रुतश्च प्रतिज्ञार्थः । ततो।
॥१०५॥ धृतवान् पटहं, प्रतिपन्नो राजसमक्षं व्यवहारो, गतो राजकुलं क्षुल्लकस्ततः तं लघु दृष्ट्वा सा परिव्राजिकाऽऽत्मीयं मुखं विकृत्य अवज्ञयाऽभिधत्ते-कथय कुतो मिलामि ? तत एवमुक्त क्षुल्लकः ख मेंदं दर्शितवान् , ततो हसितं सर्वैः अपि जनैः, उद्दष्टं च
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नन्दिसूत्रम् ॥१०६॥
अवचूरिसमलंकृतम्
जिता परिव्राजिका । तस्या एवं कत्तुं अशक्यत्वात् , ततः क्षुल्लक कायिक्या पद्ममाऽऽलिखितवान् , सा कत्तुं न शक्नोति, ततो जिता परिव्राजिका 1 क्षुल्लकस्य औत्पत्तिकी बुद्धिः ॥१३॥ 'मग्ग' त्ति मार्गोदाहरणं, तद्भावना-कोऽपि पुरुषो निजभार्यां गृहीत्वा वाहनेन ग्रामांतरं व्रजति, अपांतराले च क्वचित् प्रदेशे शरीरचितानिमित्तं तद्भार्या वाहनात् उत्तीर्णवती, तस्यां च शरीरचिंतानिमित्तं कियत् भूभागं गतायां तत्प्रदेशवर्तिनी काचित् व्यंतरी पुरुषस्य रूपसौभाग्यादिकं अवलोक्य कामानुरागतः तद्रूपेण आगत्य वाहनं विलग्ना, सा च तत् भार्या शरीरचिंतां विधाय यावत् वाहनसमीपं आगच्छति तावदन्यां स्त्रियं आत्मसमानरूपां वाहनमधिरूढां पश्यति । | सा च व्यंतरी पुरुषं प्रत्याह-एषा काचित् व्यंतरी मदीयं रूपं आरचय्य तव सकाशं अभिलपति । ततः खेटय २ सत्वरं सौरभेयाविति, | ततः पुरुषस्तथैव कृतवान् । सा च आरटंती पश्चाल्लमा समागच्छति । पुरुषोऽपि तां आरटंतीं दृष्ट्वा मूढचेता मंदं मंदं खेटयामास, ततः प्रावर्तत तयोस्तद्भार्याव्यंतोनिष्ठुरभाषणादिकः परस्परं कलहः, ग्रामे च प्राप्ते जातः तयो राजकुले व्यवहारः, पुरुषश्च निर्णयं अकुर्वन् उदासीनो वर्तते, ततः कारणिकैः पुरुषो दूरे व्यवस्थापितो भणिते च ते द्वे अपि स्त्रियौ-युवयोः मध्ये या काचिदमुं प्रथमं हस्तेन | संस्पृक्ष्यति तस्याः पति एष न शेषायाः, ततो व्यंतरी हस्तं दूरतः प्रसार्य प्रथमं स्पृष्टवती, ततो ज्ञातं कारणिकैरेषा व्यंतरीति, ततो निर्घटिता, द्वितीया च समर्पिता स्वपतेः । कारणिकानां औप्तत्तिकी बुद्धिः ॥१४॥ इत्थि'त्ति स्त्रीउदाहरणं, तद्भावना-मूलदेवकंडरिको सहपन्थानं गच्छतः, इतश्च कोऽपि सभार्याकः पुरुषः तेन एव पथा गंतु प्रावर्तत, कंडरीकश्च दूरस्थितस्तद्भार्यागतं अतिशायिरूपं दृष्ट्वा साभिलाषो जातः, कथितं च तेन मूलदेवस्य-यदि इमां मे संपादयसि तदहं जीवामि, न अन्यथा इति, ततो मूलदेवोवादीत, माऽऽतुरी भूः, अहं ते नियमतः संपादयिष्यामि । ततस्तौ द्वौ अपि अलक्षितौ सत्वरं दूरतो गती, ततो मूलदेवः |
| ॥१०६॥
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नन्दिसूत्रम्
॥१०७॥
कंडरीकं एकस्मिन् वननिकुंजे संस्थाप्य पथि ऊर्द्धस्थितो वर्तते । ततः पश्चादायातः सभार्याकः स पुरुषो भणितो मूलदेवेन-भो अवचूरिमहापुरुष! मम महिलायां अस्मिन् वननिकुंजे प्रसवो वर्तते, ततः क्षणमात्रं निजमहिलां विसर्जय, विसर्जिता तेन, गता सा दिसमलंकृतम् पुंडरीकपार्श्व, ततः क्षणमात्रं स्थित्वा समागता । आगंतूण य तयो पडयं घेत्तूण मूलदेवस्स । धुत्ती भणइ हसंती पियं खुणे दारओ जाओ ॥ १ ॥ "द्वयोरपि तयोः औत्पत्तिकी बुद्धिः ॥ १५ ॥ 'पईत्ति पतिदृष्टान्तः, तद्भावनाद्वयोर्धात्रोः एका भार्या, लोके च महान् कौतुकं-अहो द्वयोरपि एषा समानुरागा इति, एतच्च श्रुतिपरंपरया राज्ञा श्रुतं, परं विस्मयं उपगतो राजा, मंत्री ब्रूते । देव ! न भवति कदाचिदपि एतत् । अवश्यं विशेषः कोऽपि भविष्यति, राज्ञा उक्तं कथं एतदवसेयं ?। मंत्री ब्रूते-देव ! अचिरात् एव यथा ज्ञास्यते तथा यतिष्यते । ततो मंत्रिणा तस्याः स्त्रिया लेखः प्रेषितो यथा-तौ द्वौ अपि निजपती ग्रामद्वये प्रेषणीयौ-एकः पूर्वस्यां दिशि विवक्षिते ग्रामे अपरो अपरस्यां दिशि, तस्मिन् एव च दिने द्वाभ्यां अपि स्वगृहे समागंतव्यं, ततस्तयोर्यो मंदवल्लभः स पूर्वस्यां दिशि प्रेषितो अपरोऽपरस्यां दिशि, पूर्वस्यां च दिशि यो गतः तस्य गच्छत आगच्छतश्च संमुखः सूर्यः, यः पुनः अपरस्यां गतः तस्य गच्छत आगच्छत पृष्टतः, एवं च कृते मंत्रिणा ज्ञातं-अयं मंदवल्लभोऽपरोऽत्यंतवल्लभः, ततो निवेदितं राजे, राज्ञा च न प्रतिपन्न, यतोऽवश्यं एकः पूर्वस्यां दिशि प्रेषणीयोऽपरोऽपरस्यां, ततः कथं एषो विशेषोऽवगम्यते ?, ततः पुनरपि मंत्रिणा लेखप्रदानेन सा महिला उक्ता-द्वौ अपि निजपती तयोः एव ग्रामयोः समकं ॥१०७॥ प्रेषणीयौ, तया च तौ तथैव प्रेषितौ, मंत्रिणा च द्वौ पुरुषौ तस्याः समीपे समकं तयोः शरीरापाटवनिवेदको प्रेषितौ, द्वाभ्यां अपि च सा समकमाकारिता, ततो यो मंदवल्लभशरीरापाटवनिवेदकः पुरुषस्तं प्रत्याह-सदैव मंदशरीरो द्वितीयो अद्वितीयो
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नन्दिसूत्रम् अतिआतुरश्च वर्तते ततस्तं प्रति अहं गमिष्यामि, तथैव कृतं, ततो निवेदितं राज्ञे मंत्रिणा, प्रतिपन्न राज्ञा तथा इति । मंत्रिण
अवचूरिWऔत्पत्तिकी बुद्धिः॥१६॥ 'पुत्त' ति पुत्रदृष्टांतः, तद्भावना-कोऽपि वणिक् , तस्य द्वे पत्न्यो, एकस्याः पुत्रोऽपरा बंध्या, परं सापि तं ॥१०८॥
* समलंकृतम् पुत्रं सम्यग् पालयति, ततः स पुत्रो विशेषं न जानीते-इयं मे जननी इयं न इति, सोऽपि वणिक् सभार्यापुत्रो देशांतरं गतो, गतमात्र Pएव च परासुरभूत् । ततो द्वयोः अपि तयोः कलहोजायत, एका भणति-एष मम पुत्रस्ततः अहं गृहस्वामिनी, द्वितीया तु ब्रूते-का
त्वं ?, मम एष पुत्रः ततः अहं एव गृहस्वामिनीति, एवं च तयोः परस्पर कलहे जाते राजकुले व्यवहारो बभूव, ततोऽमात्यः । प्रतिपादयामास निजपुरुषान्-भोः! पूर्व द्रव्यं समस्तं विभजतविभज्य ततो दारकं द्वौ भागौ करपत्रेण कुरुत, कृत्वा च एकं खंडं एकस्यै समर्पयत द्वितीयं द्वितीयस्यै, तत एतत् अमात्यवाक्यं शिरसि महाज्वाला सहस्रावलीढवज्रोपनिपातकल्पं पुत्रमाता श्रुत्वा सोत्कंपहृदयाहृदयांतःप्रविष्टतिर्यक्शल्येव सदुःखं वक्तुं प्रवृत्ता-हा स्वामिन् ! महामात्य ! न मम एष पुत्रो, न मे किंचित् अर्थेन प्रयोजन, एतस्या एव पुत्रो भवतु गृहस्वामिनी च । अहं पुनः अमुं पुत्रं दूरस्थितापि परगृहेषु दारिद्रयं अपि कुर्वती जीवंत द्रक्ष्यामि, तावता च कृतकृत्यं आत्मानं प्रपत्स्ये, पुत्रेण विना पुनः अधुनापि मे जीवलोको अस्तं उपयाति, । इतरा च न किं अपि वक्ति, ततोऽमात्येन तां सदुःखां परिभाव्य उक्तं, एतस्याः पुत्रो न अस्या इति, सा एव सर्वखस्वामिनी कृता, द्वितीया तु निर्धाटिता, | अमात्यस्य औत्पत्तिकी बुद्धिः ॥१७॥
॥१०८॥ ___'भरहसिलमिंढे' इत्यादिका च गाथा रोहकसंविधानकसूचिका, सा च प्राग् उक्तकथानकानुसारेण स्वयमेव व्याख्येया। | 'महुसित्थि' त्यादि, मधुयुक्तं सिक्थं मधुसिक्थं, तत् दृष्टान्तभावना-कश्चित् कोलिकः तस्य भार्या खैरिणी, सा च अन्यदा केनापि
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नन्दि सूत्रम्
॥१०९॥
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पुरुषेण सह कस्मिंश्चित् प्रदेशे जालिमध्ये मैथुनं सेवितवती, मैथुनस्थितया च तया उपरि भ्रमरं समुत्पन्नं दृष्टं, क्षणमात्रानंतरं चं समागता गृहे, द्वितीये च दिवसे खभर्ता मदनं क्रीणंस्तया निवारितो- मा क्रीणीहि मदनं, अहं ते भ्रामरं उत्पन्नं दर्शयिष्यामि । ततः सक्रर्यात् विनिवृत्तो, गतौ च तौ द्वौ अपि तां जालिं, न पश्यति सा कथं अपि कोलिकी भ्रामरं, ततो येन संस्थानेन मैथुनं सेवितवती तेन एव संस्थाने स्थिता, ततो दृष्टवती भ्रामरं दर्शयामास च कोलिकाय, कोलिकोऽपि तथारूपं संस्थानं अवलोक्य ज्ञातवान् नूनं एषा दुश्चारिणी इति । कोलिकस्य औत्पत्तिकी बुद्धिः ॥ १८ ॥ ' मुद्दिय'त्ति मुद्रिका उदाहरणं, तत् भावना - क्वचित् पुरे कोऽपि पुरोधाः सर्वत्र ख्यातसत्यवृत्तिः यथा परकीयान् निक्षेपान् आदाय आदाय प्रभूतकालातिक्रमेऽपि तथा स्थितानेव समर्पयति इति । एतच्च ज्ञात्वा कोऽपि द्रमकः तस्मै स्वनिक्षेपं समर्प्य देशांतरं अगमत् । प्रभूतकालातिक्रमे च भूयोऽपि तत्रागतो याचते स्वं निक्षेप पुरोधसं, पुरोधाच मूलत एवं अपलपति कस्त्वं कीदृशो वा तव निक्षेप इति ? । ततः स रंको वराकः खं निक्षेपं अलभमानः शून्यचित्तो बभूव । अन्यदा च तेन अमात्यो गच्छन् दृष्टो याचितश्च देहि मे पुरोहित ! सुवर्णसहस्रप्रमाणं निक्षेपं इति, तदेतत् आकर्ण्य अमात्यः तद्विपयकृपापरीतचेता बभूव । ततो गत्वा निवेदितं राज्ञः कारितश्च दर्शनं द्रमको, राज्ञापि भणितः पुरोधाः- देहि तस्मै द्रमकाय स् निक्षेपं इति, पुरोहितोऽवादीत् - देव ! न किं अपि तस्याहं गृह्णामि, ततो राजा मौनं अधात्, पुरोधसि च स्वगृहं गते राजा विजने तं द्रमकं आकार्य पृष्टवान् रे ! कथय सत्यमिति, ततस्तेन सर्व दिवस मुहूर्त्तस्थानपार्श्ववर्त्तिमानुषादिकं कथेयं कथितं, ततोऽन्यदा राजा पुरोधसा समं रंतुं प्रावर्त्तत, परस्परं नाममुद्रा च संचारिता, ततो राजा यथा पुरोधा न वेत्ति तथा कस्यापि मानुषस्य हस्ते नाममुद्रां समर्प्य तं प्रति वभाण - रे ! पुरोधसो गृहं गत्वा तद्भार्यां एवं ब्रूहि यथाहं पुरोधसा प्रेषितः, इयं च नाममुद्राऽभिज्ञानं, तस्मिन् दिने
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॥१०९॥
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नन्दिसूत्रम् ॥११०॥
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तस्यां वेलायां यः सुवर्णसहस्रनवलको द्रमकसत्कस्त्वत्समक्षं अमुकप्रदेशे मुक्तोऽस्ति । तं झटति मे समर्पय, तेन पुरुषेण तथैव कृतं । सापि च पुरोधसो भार्या नाममुद्रां दृष्ट्वाभिज्ञानमिलनतश्च सत्यं एवं पुरोधसा प्रेषित इति प्रतिपन्नवती, ततः समर्पयामास तं द्रमकनिक्षेपं तेन च पुरुषेण आनीय राज्ञः समर्पितो, राज्ञा च अन्येषां बहूनां नवलकानां मध्ये सद्रमकनवलकः प्रक्षिप्तः, आकारितो द्रमकः पार्श्वे च उपवेशितः पुरोधाः, द्रमकोऽपि तं आत्मीयं नवलकं दृष्ट्वा प्रमुदितहृदयो विकसितलोचनो अपगतचित्तशून्यताभावः सहर्षो राजानं विज्ञपयितुं प्रवृत्तः - देव ! देवपादानां पुरतः एवमाकारो मदीयो नवलकः । ततो राजा तं तस्मै समर्पयामास । पुरोधसश्च जिह्वाच्छेदं अचीकरत् राज्ञ औत्पत्तिकी बुद्धिः ॥ १९ ॥ ' अंके' त्ति अंकदृष्टांत भावना - कोऽपि कस्यापि पार्श्वे रूपकसहस्रनवलकं निक्षिप्तवान् तेन च निक्षेपग्राहिणा तं नवलकमधः प्रदेशे छित्वा कूटरूपकाणां सहस्रेण स भृतः, तथैव सीवितः, ततः कालांतरे तस्य पार्श्वात् निक्षेपस्वामिना स्वनिक्षेपो गृहीतः, परिभावितः सर्वतः तथैव दृश्यते मुद्रादिकं तत उद्घाटिता मुद्रा यावद्रूपकान् परिभावयति तावत्सर्वान् अपि कूटान् पश्यति, ततो जातो राजकुले [ तयोः ] व्यवहारः, पृष्टः कारणिकैः निक्षेपखामी - मोः कतिसंख्याः तव नवलके रूपका आसीरन् ? स प्राह-सहस्रं ततो गणयित्वा रूपकाणां सहस्रं तेन भृतः स नवलकः, स च परिपूर्ण भृतः, केवलं यावत् मात्रं अधस्ताच्छिन्नः तावता न्यून इति उपरि सीवितुं न शक्यते । ततो ज्ञातं कारणिकैः नूनं अस्यापहृता रूपकास्ततो दापितो रूपकसहस्रं इतरो नवलकखामिनः । कारणिकानां औत्पत्तिकी बुद्धिः ॥ २० ॥ 'नाण' त्ति कोऽपि कस्यापि पार्श्वे सुवर्णपणभृतं नवलकं निक्षिप्तवान् । ततो देशांतरं प्रभूते च कालेऽतिक्रांते निक्षेपग्राही तस्मात् नवलकात् जात्यसुवर्णमयान् पणान् गृहीत्वा हीनवर्णक सुवर्णपणान् तात् संख्याकान् तत्र प्रक्षिप्तवान् । तथैव च स नवलकः तेन सीवितः, ततः कतिपयदिनानंतरं स नवलकखामी देशांतरादागतः,
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॥११०॥
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नन्दिसूत्रम्
॥ १११ ॥
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खं च नवलकं तस्य पार्श्वे याचितवान् सोऽपि तं समर्पयामास, परिभावितं तेन मुद्रादिकं, तथैत्र दृष्टं, ततो मुद्रां स्फोटयित्वा यावत् पणान् परिभावयति तावत् हीनवर्णकसुवर्णमयान् पश्यति, ततो बभूव राजकुले व्यवहारः, पृष्टः कारणिकैः कः कालः स आसीत् ?, यत्र त्वया नवलको मुक्त इति । नवलकस्वामी प्राह- अमुक इति, ततः कारणिकैः उक्तं स चिरंतन कालोऽधुनातनकालकृताश्च दृश्यतेऽमी पणाः, ततो मिथ्याभाषी नूनं एष निक्षेपग्राही इति दंडितो, दापितश्च इतरस्य तावतः पणान् इति । कारणिकानां औत्पत्तिकी बुद्धिः ॥ २१ ॥ ' भिक्खु'त्ति भिक्षूदाहरणं, तद्भावना कोऽपि कस्यापि भिक्षोः पार्श्वे सुवर्णसहस्रं निक्षिप्तवान्, कालांतरे च याचते, स च भिक्षुर्न प्रयच्छति, केवलं अद्य कल्ये वाददामि इति प्रतारयति । ततः तेन द्यूतकारा अवलगिताः, तैः प्रतिपन्नं निश्चितं तव दापयिष्यामः, ततो द्यूतकारा रक्तपटवेषेण सुवर्णखुट्टिकां गृहीत्वा भिक्षुसकाशं गता वदंति च चयं चैत्यवंदनाय देशांतरं यियासवो यूयं च परमसत्यतापात्रं अत एव सुवर्णखोटिका युष्मत्पार्श्वे स्थास्यंति, एतावति च अवसरे पूर्वसंकेतितः स पुरुषः आगतो, याचते स्म चभिक्षो ! समर्पय मदीयां स्थापनिकां इति । ततो भिक्षुणा अभिनवमुच्यमानसुवर्णखुट्टिकालंपटतया समर्पिता तस्य स्थापनिका तस्तै मा एतासामहमनाभागी जायेयेति बुद्धया, तेऽपि च द्यूतकाराः किमपि मिषांतरं कृत्वा स्वसुवर्णखुट्टिकां गृहीत्वा गताः । द्यूतकाराणां औत्पत्तिकी बुद्धिः ॥ २२ ॥ 'चेउग निहाणे'त्ति चेटका - बालका निधानं प्रतीतं, तत् दृष्टान्तभावना - द्वौ पुरुषौ परस्परं प्रतिपन्नसखिभावौ, अन्यदा क्वचित् प्रदेशे ताभ्यां निधानं उपलेभे । तत एको मायावी ब्रूते श्वस्तनदिवसे शुभे नक्षत्रे गृहीष्यामो, द्वितीयेन च सरलमनस्कतया तथैव प्रतिपन्नं, ततः तेन मायाविना तस्मिन् प्रदेशे रात्रौ आगत्य निधानं हृत्वा तत्र अंगारकाः प्रक्षिप्ताः । ततो द्वितीयदिने तौ द्वौ अपि सह भूत्वा गतौ, दृष्टवंता तत्र अंगारकान् ततो मायावी मायया स्वोरस्ताङमाकंदितुं प्रावर्त्तत, वदति च हा हीनपुण्या
अवचूरिसमलंकृतम्
॥ १११ ॥
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अवचूरिसमलंकृतम्
॥११२॥
वयं दैवेन चक्षुषी दत्वाऽस्माकं समुत्पाटिते यत् निधानमुपदिश्य अंगारकाः दर्शिताः, पुनः पुनश्च द्वितीयस्य मुखं अवलोकते, ततो द्वितीयेन जज्ञे-नूनमनेन हृतं निधानमिति, ततः तेनापि आकारसंवरणं कृत्वा तस्यानुशासनार्थ ऊचे-मा वयस्य ! खेदं कार्षीः न खलु खेदं विधानप्रत्यागमनहेतुः, ततो गतौ द्वौ अपि खं स्वं गृहं, ततो द्वितीयेन तस्य मायाविनो लेप्यमयी सजीवा इव प्रतिमाकारि, द्वौ च गृहीतौ मर्कटको, प्रतिमायाश्च उत्संगे हस्ते शिरसि स्कंधे च अन्यत्र च यथायोगं तयोर्मर्कटकयोर्योग्यं भक्ष्यं मुक्तवान् , तौ च मर्कटको क्षुधापीडितौ तत्र आगत्य प्रतिमाया उत्संगादौ भक्ष्यं भक्षितवंती, एवं च प्रतिदिनं करणे तयोः तादृश्यैव शैली समजनि, ततोऽयदा किं अपि 5 पर्वाधिकृत्य मायाविनो द्वौ अपि पुत्रौ भोजनाय निमंत्रितौ, समागतौ च भोजनवेलायां तद्गृहे, भोजितौ च तो तेन महागौरवेण, भोजनानंतरं च तौ महता सुखेन अन्यत्र संगोपितो, ततः स्तोकदिनावसाने मायावी स्वपुत्रसाराकरणाय तद्गृहमागतः, ततो द्वितीयः तं प्रति ब्रूते-मित्र ! तौ तव पुत्रौ मर्कटौ अभूतां, ततः सखेदं विस्मितचेता गृहमध्यं प्राविशत् , ततो लेप्यमयी प्रतिमा उत्साये तत् स्थाने समुपवेशितः, मुक्तौ स्वस्थानात् मर्कटौ, तौ च किलकिलायमानौ तस्य उत्संगे शिरसि स्कंधे हस्ते च आगत्य विलनौ, ततो मित्रं अवादीद-भो! वयस्य ! तौ एतौ तव पुत्रौ, तथा च पश्य तव स्नेहं आत्मीयं दर्शयतः, स मायावी प्राह-वयस्य ! किं मानुषी अकस्मात् मर्कटौ भवतः ? वयस्य आह-भवतः कर्मप्रातिकूल्यवशात् , तथा हि-किं सुवर्ण अंगारी भवति ? परमावयोः कर्मप्रातिकूल्यात् एतदपि जातं, तथा पुत्रौ अपि तव मर्कटौ अभूतां इति, ततो मायावी चिंतयामास-नूनं अहं ज्ञातोऽनेन, ततो यदि उचैः शब्दं करिष्ये ततोऽहं राजग्राह्यो भविष्यामि, पुत्रौ च अन्यथा मे न भवतस्ततः तेन सर्व यथावस्थितं तस्मै निवेदितं, दत्तश्च भागः, इतरेण च समर्पितौ पुत्रौ । तस्य औत्पत्तिकी बुद्धिः ॥ २३ ॥ 'सिखुत्ति शिक्षा धनुर्वेदः, तदुदाहरणभावना-कोऽपि पुमान् अतीव धनुर्वेद
॥११॥
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नन्दिसूत्रम् ॥११३॥
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कुशलः, स परिभ्रमन् एकत्र ईश्वरपुत्रान् शिक्षयितुं प्रावर्त्तत, तेभ्यश्च ईश्वरपुत्रेभ्यः प्रभूतं द्रव्यं प्राप्तवान् ततः पित्रादयस्तेषां चिंतयामासुः प्रभूतं एतस्मै कुमारा दत्तवंतः, ततो यदासौ यास्यति तदा एनं मारयित्वा सर्व गृहीष्यामः, एतच्च कथमपि तेन ज्ञातं, ततः स्वबंधूनां ग्रामांतरवासिनां कथं अपि ज्ञापितं भणितं च यथाहं अमुकस्यां रात्रौ नद्यां गोमयपिंडान् प्रक्षेप्स्यामि भवद्भिः ते ग्राह्या इति, ततस्तैः तथैव प्रतिपन्नं, ततो द्रव्येण संवलिता गोमयपिंडास्तेन कृताः, आतपे च शोषिताः, तत ईश्वरपुत्रानिति उवाच - यथा एषोऽस्माकं विधिर्विवक्षिततिथिपर्वणि स्नानमंत्र पुरस्सरं गोमयपिंडा नद्यां प्रक्षिप्यते इति, तैः अपि यथा गुरवो व्याचक्षते तथा इति प्रतिपन्नं, ततो विवक्षिततिथिरात्रौ तैः ईश्वरपुत्रैः समं स्नानमंत्र पुरस्सरं ते सर्वेऽपि गोमयपिंडा नद्यां प्रक्षिप्ताः, ततः समागतो गृहं, तेऽपि गोमयपिंडा नीता बंधुभिः स्वग्रामे ततः कतिपयदिनातिक्रमे तान् ईश्वरपुत्रान् तेषां च पित्रादीन् प्रत्येकं मुत्कलय्यात्मानं च वस्त्रमात्र परिग्रहोपेतं दर्शयन् जनसमक्षं स्वग्रामं जगाम । पित्रादिभिश्व परिभावितो न अस्य पार्श्वे किं अपि अस्ति इति न मारितः । तस्य औत्पत्तिकी बुद्धिः || २४ || 'अत्थसत्थे 'ति, अर्थशास्त्रं - अर्थविषयं नीतिशास्त्रं, तत् दृष्टान्तभावना - कोऽपि वणिक्, तस्य द्वे पल्यौ, एकस्याः पुत्रो अपरा बंध्या, परं सापि तं पुत्रं सम्यक् पालयति, ततः स पुत्रो विशेषं नावबुध्यते - यथा - इयं मे जननी न इयं इति, सोऽपि वणिक्क सभार्यापुत्रो देशांतरं अगमत्, यत्र सुमतिस्वामिनस्तीर्थकृतो जन्मभूमिः, तत्र च गतमात्र एवं दिवं गतः, सपल्योश्च परस्परं कलहोभूत्। एका ब्रूते मम एष पुत्रः ततः अहं गृहस्वामिनी, द्वितीया ब्रूते ऽहं इति, ततो राजकुले व्यवहारो जातः, तथापि न निर्व्वलति, एतच्च भगवति तीर्थकरे सुमतिखामिनि गर्भे स्थिते तत् जनन्या मंगलादेव्या जज्ञे, तत आकारिते द्वे अपि ते सपत्न्यौ, ततो देव्या प्रत्यपादि कतिपय दिनानंतरं मे पुत्रो भविष्यति ?, स च वृद्धिं अधिरूढोऽस्य अशोकपादपस्य अधास्तात् उपविष्टो युष्माकं व्यवहारं छेत्स्यति,
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॥११३॥
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नन्दिसूत्रम् ॥११४॥
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तत एतावतं कालं यावत् अविशेषेण खादतां पिवतां इति, ततो न यस्याः पुत्रः साऽचिंतयत्- लब्धः तावत् एतावान् कालः पश्चात् किं अपि यद्भविष्यति तन्न जानीमः । ततो हृष्टवदनया प्रतिपन्नं, ततो देव्या जझे-न एषा पुत्रस्य माता इति निर्भत्सिता, द्वितीया च गृहस्वामिनी कृता देव्या औत्पत्तिकी बुद्धिः ॥ २५ ॥ ' इच्छाय महे' त्ति काचित् स्त्री, तस्या भर्त्ता पंचत्वमधिगतः, सा च वृद्धिप्रयुक्तं द्रव्यं लोकेभ्यो न लभते, ततः पतिमित्रं भणितवती - मम दापय लोकेभ्यो धनं इति, ततस्तेन उक्त-यदि मम भागं प्रयच्छसि, तयोक्तं- यदिच्छसि तत् मह्यं दद्यादिति, ततः तेन लोकेभ्यः सर्व द्रव्यं उग्राहितं, तस्यै स्तोकं प्रयच्छति । ततो जातो राजकुले व्यवहारः, कारणिकैः यदुद्राहितं द्रव्यं तत् सर्वं आनायितं, कृतौ द्वौ भागौ, एको महान् द्वितीयोऽल्प इति । ततः पृष्टः कारणिकैः स पुरुषः- किं भागं त्वं इच्छसि ?, स प्राह- महांतं इति, ततः कारणिकैः अक्षरार्थो विचारितो यदिच्छसि तत् मह्यं दद्यादिति त्वं च इच्छसि महांतं भागं ततो महान् भाग एतस्याः, द्वितीयस्तु तव इति । कारणिकानां औत्पत्तिकी बुद्धिः ॥ २६ ॥ 'सयसहस्से 'ति कोsपि परिव्राजकः, तस्य रूप्यमयं महाप्रमाणं भाजनं खोरयसंज्ञं, स च यत् एकवारं शृणोति तत्सर्वं तथैव अवधारयति । स निजप्रज्ञागर्व उद्वहन् सर्वसमक्षं प्रतिज्ञां कृतवान्- यो नाम मां अपूर्वं श्रावयति तस्मै ददामि इदं निजभाजनं इति, न च कोऽपि अपूर्व श्रावयितुं शो, स हि यत् किं अपि शृणोति तत्सर्वं अस्खलितं तथैव अनुवदति वदति च अग्रेऽपि इदं मया श्रुतं कथमन्यथाऽहमस्खलितं भणामि इति । एतत्सर्वत्र ख्यातिं अगमत्ततः केनापि सिद्धपुत्रकेण ज्ञाततत्प्रतिज्ञेन तं प्रति उक्तं - अहमपूर्वं श्रावयिष्यामि ततो मिलितो भूयान् लोको राजसमक्षं व्यवहारो बभूव, ततः सिद्धपुत्रोऽपाठीत् । "तुज्झ पिया मह पिउणो धारेह अणूणगं सयसहस्सं । जइ सुयपुव्वं | दिजउ अह न सुयं खोर देसु ॥ १ ॥ " जितः परिव्राजकः । सिद्धपुत्रस्य औत्पत्तिकी बुद्धिः || २७ ॥ तदेवं उक्ता बुद्धिः औत्पत्तिकी ॥
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नन्दिसूत्रम् ॥११५॥
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सम्प्रति वैनयिक्या लक्षणं प्रतिपादयति
भरनित्थरणसमत्था तिवग्गमुत्तत्थगहिअपेआला ॥ उभओ लोगफलवई विणयसमुत्था हवइ बुद्धी ॥ ६ ॥ निमित्ते' अत्थसत्थे ये लेहे गणिए में कूर्व अस्से र्यं ॥ गद्दर्भे लक्खर्ण गंठी' अग रहिए ये गणिया में ॥ ७ ॥ सीओ साठी दीहं च तणं अवसव्वयं च कुंचस्स ॥ निव्वोदए अ गोणे घोडगपडणं च रुक्खाओ ॥ ८ ॥
भर इत्यादि, इहातिगुरु कार्य दुर्निर्वहत्वात् भर इव भरः तत् विस्तरणे समर्धा भरनिस्तरणसमर्थाः त्रयो वर्गाः त्रिवर्गाः लोकरूढ्या धर्म्मार्थकामाः तत् अर्जनोपायप्रतिपादकं यत्सूत्रं यश्च तत् अर्थः तौ त्रिवर्गसूत्रार्थी तयोः गृहीतं 'पेयालं' प्रमाणं सारो वा यया सा तथाविधा, अत्राह - ननु अश्रुतनिश्रिता बुद्धयो वक्तुं अभिनेताः, ततो यदि अस्याः त्रिवर्गसूत्रार्थगृहीतसारत्वं ततोऽश्रुतनिश्रितत्वं न उपपद्यते, न हि श्रुताभ्यासमंतरेण त्रिवर्गसूत्रार्थगृहीतसारत्वं संभवति, अत्र उच्यते; इह प्रायो वृत्तिं आश्रित्य अश्रुतनिश्रितत्वं उक्तं, ततः खल्पश्रुतभावेऽपि न कश्चित् दोषः । तथा उभयलोकफलवतीं ऐहिके आमुष्मिके च लोके फलदायिनी विनयसमुत्था भवति बुद्धिः ॥ १ ॥ संप्रति अस्या एव विनेयजनानुग्रहार्थं उदाहरणैः स्वरूपं दर्शयति- 'निमित्ते' गाहा, 'सीया' गाहा, गाथाद्वयार्थः कथानकेभ्योऽवसेयः, तानि च ग्रंथगौरवभयात् संक्षेपेण उच्यते तत्र 'निमित्ते इति, क्वचित् पुरे कोऽपि सिद्धपुत्रकः, तस्य द्वौ शिष्यौ निमित्तशास्त्रं अधीतवंतौ, एको
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अवचूरिसमलंकृतम्
नन्दिसूत्रम् | बहुमानपुरस्सरं गुरोः विनयपरायणो यत् किं अपि गुरुः उपदिशति तत्सर्व तथा इति प्रतिपद्य स्वचेतसि निरंतरं विमृशति । विमृशतश्च
यत्र क्वापि संदेह उपजायते तत्र भूयोऽपि विनयेन गुरुपादमूलं आगत्य पृच्छति, एवं निरंतर विमर्शपूर्व शास्त्रार्थ तस्य चिंतयतः प्रज्ञापकर्ष ॥११६॥
उपजगाम, द्वितीयस्तु एतद्गुणविकलः, तौ च अन्यदा गुरुनिर्देशात् क्वचित् प्रत्यासन्ने ग्रामे गंतुं प्रवृत्ती, पथि च कानिचित् महांति पदानि तौ अदर्शताम् , तत्र विमृश्यकारिणा पृष्टं-भोः! कस्य अमूनि पदानि? तेन उक्तं-किं अत्र पृष्टव्यं हस्तिनोऽमूनि पदानि? ततो विमृश्य| कारी प्राह-नैवं भाषिष्टाः, हस्तिन्या अमूनि पदानि, सा च हस्तिनी वामेन चक्षुषा काणा, तां अधिरूढा गच्छति काचित् राज्ञी, सा च सभर्तृका गुम्विणी च प्रजने च कल्या, अद्य श्वो वा प्रसविष्यते । पुनश्च तस्या भविष्यति, तत एवं उक्त सोऽविमृश्यकारी ब्रूते-कथं एतदवसीयते ?, विमृश्यकारी प्राह-'ज्ञानं प्रत्ययसारं' इति अग्रे प्रत्ययतो व्यक्तं भविष्यति, ततः प्राप्तौ तौ विवक्षितं ग्राम, दृष्टा चावासिता तस्य ग्रामस्य बहिःप्रदेशे महासरस्तटे राज्ञी, परिभाविता च हस्तिनी वामेन च चक्षुषा काणा । अत्रांतरे च काचित् दासचेडी महत्तमं प्रत्याह-वयिसे राज्याः पुत्रलाभेन इति, ततः शब्दितो विमृश्यकारिणा द्वितीयः-परिभावय दासचेडीवचनं इति, तेन उक्तं-परिभावितं मया सर्व, न अन्यथा तब ज्ञानं इति, ततस्तौ हस्तपादान् प्रक्षाल्य तस्मिन् महासरस्तटे न्यग्रोधतरोः अधो विश्रामाय स्थिती, दृष्टौ च कयाचित् शिरोन्यस्तजलभृतघटया वृद्धस्त्रिया, परिभाविता च तयोः आकृतिस्ततः चिंतयामास-नूनं एतौ विद्वांसौ, ततः पृच्छामि देशांतरं गतनिजपुत्रागमनं इति, पृष्टं तया, प्रश्नसमकालं एव च शिरसो निपत्य भूमौ घटः शतखंडशो भन्नः। ततो झटिति एव अविमृश्यकारिणा प्रोचे-गतस्ते पुत्रो घट इव व्यापत्ति इति, विमृश्यकारी ब्रूते स्म-मा वयस्य एवं वादीः, पुत्रोऽस्या गृहे समागतो वर्तते, याहि मातः! वृद्धे ! स्वपुत्रमुख अवलोकय, तत एवमुक्ता सा प्रत्युञ्जीवितेवाशीर्वादशतानि विमृश्यकारिणः प्रयुंजाना स्वगृह
॥११६॥
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अवचूरि
नन्दिसूत्रम् ४११७॥
समलंकृतम्
जगाम, दृष्टश्च उद्धूलितजंघः स्वपुत्रो गृहं आगतः, ततः प्रणता स्वपुत्रेण, सा च आशीर्वादं निजपुत्राय प्रायुंक्त, कथयामास च नैमित्तिकवृत्तांत, ततः पुत्रं आपृच्छथ वस्त्रयुगलं रूपकान् च कतिपयानादाय विमृश्यकारिणः समर्पयामास । अविमृश्यकारी च खेदं आवहन वचेतसि अचिंतयत्-नूनं अहं गुरुणा न सम्यक् पाठितः, कथमन्यथाहं न जानामि ?, एष जानातीति, गुरुप्रयोजनं कृत्वा समागतौ द्वौ गुरोः पार्श्वे, तत्र विमृश्यकारी दर्शनमात्र एव शिरो नमयित्वा कृतांजलिपुटः सबहुमानं आनंदाश्रुप्लावितलोचनो गुरोः पादौ अंतरा शिरः प्रक्षिप्य प्रणिपपात । द्वितीयोऽपि शैलस्तंभ इव मनाम् अपि अनमितगात्रयष्टिः मात्सर्यवहिसंपर्कतो धूमायमानो
प्रतिष्ठते, ततो गुरुः तं प्रत्याह-रे! किं इति पादयोन पतसि, स प्राह-य एव सम्यक् पाठितः स एव पतिष्यति, न अहं इति, गुरुः | आह-कथं त्वं सम्यक् न पाठितः, ततः स प्राचीनं वृत्तांतं सकलं अचकथन, यावदेतस्य ज्ञानं सर्व सत्यं न मम इति, ततो गुरुणा विमृश्यकारी पृष्टः-कथय वत्स ! कथं त्वया इदं ज्ञातं इति ?, ततः स प्राह-मया युष्मत्पादादेशेन विमर्शः कर्तुं आरब्धो-यथा एतानि हस्तिरूपस्य पदानि सुप्रतीतानि एव, विशेषचिंतायां तु किं हस्तिन उत हस्तिन्याः ?, तत्र कायिकी दृष्ट्वा हस्तिन्या इति निश्चितं, दक्षिणे | च पार्श्वे वृतिसमारूढवल्लीवितान आलूनविशीर्णो हस्तिनीकृतो कुदृष्टः न वामपार्श्वे ततो नूनं निश्चिक्ये-वामेन चक्षुषा काणा इति । | तथा न अन्य एवंविधपरिकरोपेतो हस्तिन्यां अधिरूढो गंतुं अर्हति, ततोऽवश्यं राजकीयं कि अपि मानुषं याति इति निश्रितं, तच्च मानुषं क्वचित् प्रदेशे हस्तिन्या उत्तीर्य शरीरचिंतां कृतवान् , कायिकी दृष्ट्वा राज्ञी इति निश्चितं, वृक्षावलगरक्तवस्त्रदशालेशदर्शनात | सभर्तृका, भूमौ हस्तं निवेश्य उत्थानाकारदर्शनात् गुर्ची, दक्षिणचरणनिस्सहमोचननिवेशदर्शनात् प्रजने कल्येति । वृद्धस्त्रियाः प्रश्नानंतरं घटनिपाते च एवं विमर्शः कृतः-यथा एष घटो यत उत्पन्नः तत्र एव मिलितः तथा पुत्रोऽपि इति, तत एवमुक्ते गुरुणा स विमृश्यकारी
WESSOIRES GENGURUSEGUSIS
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नन्दिसूत्रम् ॥११८॥
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चक्षुषा सानंदमीक्षितः प्रशंसितश्च द्वितीयं प्रत्युवाच - तव दोषा यत् न, विमर्श करोषि न मम, वयं हि शास्त्रार्थमात्रोपदेशेऽधिकृता विमर्शे तु यूयं इति विमृश्यकारिणो वैनयिकी बुद्धिः || १ || 'अत्थसत्थे 'ति, अर्थशास्त्रे कल्पको मंत्री दृष्टांतो, 'दहिकुंडगउत्थुकलावउय इति संविधानके ॥ २ ॥ 'लेहे' त्ति लिपिपरिज्ञानं ॥ ३ ॥ 'गणिए 'त्ति गणितपरिज्ञानं, एते च द्वे अपि वैनयिक्यौ बुद्धी ॥ ४ ॥ ' कूवे' चि खातपरिज्ञानकुशलेन केनापि उक्तं यथा एतत् दूरे जलमिति, ततः तावत् प्रमाणं खातं परं न उत्पन्नं जलं, ततस्ते खातपरिज्ञाननिष्णाताय निवेदयामासुः - न उसनं जलमिति, तस्तेन उक्तं यथा पाष्णिप्रहारेण पार्श्वान्याहत, आहतानि तैः, ततः पाष्णिप्रहारसमकालं एव समुच्छलितं तत्र जलं, खातपरिज्ञान कुशलस्य पुंसो वैनयिकी बुद्धिः ॥ ५ ॥ 'अस्से' त्ति बहवोऽश्ववणिजो द्वारवतीं जग्मुः, तत्र सर्वे कुमाराः स्थूलान् बृहतश्च अश्वान् गृह्णति, वासुदेवेन पुनः यो लघीयान् दुर्बलो लक्षणसंपन्नः स गृहीतः, स च कार्यनिर्वाही प्रभूताश्वावहश्च जातः । वासुदेवस्य वैनयिकी बुद्धिः || ६ || 'गद्दमे' त्ति कोऽपि राजा प्रथमयौवनिकां अधिरूढः तरुणिमानमेव रमणीयं सर्वकार्यक्षमं च मन्यमानः तरुणानेव निजकटके धारितवान् वृद्धांस्तु सर्वान् अपि निषेधयामास, सोऽन्यदा कटकेन गच्छन् अपतराले अटव्यां पतितवान्, तत्र च समस्तोऽपि जनः तृषा पीड्यते, ततः किंकर्तव्यतामूढचेता राजा केनापि उक्तो- देव ! न वृद्धपुरुषशेमुषीपोतमंतरेणाय मापत्समुद्रस्तरीतुं शक्यते, ततो गवेषयंतु देवपादाः क्वापि वृद्धं इति, ततो राजा सर्वस्मिन् अपि कटके पह उद्घोषितः, तत्र च एकेन पितृभक्तेन प्रच्छन्नो निजपिता समानीतो वर्तते । ततस्तेन उक्तं मम पिता वृद्धोस्ति इति । ततो नीतो राज्ञः पार्श्वे, राजा च सगौरवं पृष्टः- कथय महापुरुष ! कथं मे कटके पानीयं भविष्यति ? तेन उक्तं-देव ! रासभाः खैरं मुच्यतां, ततो यत्र ते भुवं उज्जिघंति तत्र पानीयं अतिप्रत्यासन्नं अवगंतव्यं तथैव कारितं राज्ञा, समुत्पादितं पानीयं स्वस्थीबभूव च समस्तं कटकं इति ।
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नन्दिसूत्रम् ॥११९॥
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समलंकृतम्
| स्थविरस्य वैनयिकी बुद्धिः॥७॥ 'लक्खणति पारसीकः कोऽपि अश्वखामी कस्यापि अश्वरक्षकस्य कालनियमनं कृत्वाऽश्वरक्षणमूल्यं द्वौ अश्वौ प्रतिपन्नवान् । सोऽपि च अश्वस्वामिनो दुहिता समं वर्तते, ततः सा तेन पृष्टा-कौ अश्वौ भव्यौ इति ?, तया उक्तं-अमीषां अश्वानां मध्ये यौ पाषाणभृतकुतुपानां वृक्षशिखरात् मुक्तानां अपि शब्दमाकर्ण्य नोत्रस्यतः तौ भव्यौ, तेन तथैव तौ परीक्षितौ, ततो वेतनप्रदानकाले सोऽभिधत्ते-मह्यं अमुकं अमुकं च अश्वं देहि, अश्वस्वामी प्राह-सर्वान् अपि अन्यान् अश्वान् गृहाण, किं एताभ्यां तव इति? स न इच्छति, ततो अश्वखामिना स्वभार्याय निवेदितं, भणितं च-गृहजामाता क्रियतां एष इति, अन्यथा प्रधानौ अश्वौ एष गृहीत्वा यास्यति, सा नैच्छत् , ततोऽश्वस्खाभी पाह-लक्षणयुक्तेन अश्वेन अन्येऽपि बहवोऽश्वाः संपाते कुटुंबं च परिवर्द्धते, लक्षणयुक्तौ च इमौ अश्वी, तस्मात् क्रियतां एतदिति, ततः प्रतिपन्नं तया, दत्ता तस्मै खदुहिता, कृतो गृहजामाता इति, अश्वस्वामिनो
वैनयिकी बुद्धिः ॥८॥ 'गंठी'त्ति पाटलिपुरे नगरे मुरुंडो राजा, तत्र परराष्ट्रराजेन त्रीणि कौतुकनिमित्तं प्रेषितानि, तद्यथा-'मूद | सूत्रं समा यष्टिः अलक्षितद्वारः समुद्गको जतुना घोलित' तानि च मुरुंडेन राज्ञा सर्वेषां अपि आत्मपुरुषाणां दर्शितानि, परं न | केनापि ज्ञातानि, ततः आकारिताः पादलिप्ताचार्याः, पृष्टा राज्ञा भगवन् ! यूयं जानीत ?, सूरय उक्तवंतो-बाढं, ततः सूत्रं उष्णोदके क्षिप्त उष्णोदकसंपर्कात् च विलीनं मदनं इति लब्धः सूत्रस्यांतः, यष्टिः अपि पानीये क्षिप्ता, ततो गुरुभागो मूलं इति ज्ञातं, समुद्गकेऽपि उष्णोदके क्षिप्ते जतु सर्व गलितं इति द्वार प्रकटं बभूव । ततो राजा सूरीन् प्रत्यवादीत्-भगवन् ! यूयं अपि दुर्विज्ञेयं किं अपि कौतुकं कुरुत येन तत्र प्रेषयामि । ततः सूरिभिः तुंवं एकस्मिन् प्रदेशे खंडं एकं अपहाय रत्नानां भृतं, ततस्तथा तत् खंडं सीवितं यथा न केनापि लक्ष्यते, भणिताश्च परराष्ट्रराजकीयाः पुरुषा:-एतत् अभक्त्वा इतो रत्नानि गृहीतव्यानि, न शक्तं तैः एवं कर्तुम् ।
१ चर्ममयभाजनमित्यर्थः भाषायां 'कुल्लु' इत्युच्यते ।
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बन्दिश्त्रम् ॥१२०॥
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पादलिप्तरीणां वैनयिकी बुद्धिः॥९॥ 'अगए'त्ति क्वचित् पुरे कोऽपि राजा, स च परचक्रेण सर्वतो रोद्धं आरब्धः, ततस्तेन राज्ञा सर्वाणि अपि पानीयानि विनाशयितव्यानि इति विषकरः सर्वत्र पातितस्ततः कोऽपि कियत् विषं आनयति, तत्र एको वैद्यो यवमात्रं विषं आनीय राज्ञः समर्पितवान्-देव ! गृहाण विषं इति, राजा च स्तोकं विषं दृष्ट्वा चुकोप तस्मै, वैद्यो विज्ञपयामास-देव! सहस्रबेषि इदं विषम्, तस्मात् अप्रसादं मा कार्षीः, राजावादी-कथं एतदवसेयम् , स उवाच-देव! आनाय्यतां कोऽपि जीर्णो हस्ती, आनायितो राज्ञा हस्ती, ततो वैद्येन तस्य हस्तिनः पुच्छदेशे बालं एकं उत्पाब्य तदीये रंधे विषं संचारितं, विषं च प्रसरमाददानं यत्र यत्र प्रसरति तत्तत्सर्व विपन्नं कुर्वन् दृश्यते, वैद्यश्च राजानं अभिधत्ते-देव! सर्वोऽपि एष हस्ती विषमयो जातः, योऽपि एनं भक्षयति सोऽपि विषमयो भवति, एवमेतत् विषं सहस्रवेधि ततो राजा हस्तिहानिदनचेताः तं प्रति उवाच-अस्ति कोऽपि हस्तिनः प्रतीकारविधिः?, स अवादीत-बाढं अस्ति, ततस्तस्मिन् एव वालरंधेदप्रदत्तः, ततः सर्वोऽपि झटिति एवं प्रशांतो विषविकारः, प्रगुणीबभूव हस्ती, तुतोष रांजा तस्मै वैद्याय । वैद्यस्य वैनयिकी बुद्धिः॥१०॥ रहिए य गणिया' इति स्थूलभद्रकथानके रथिकस्य यत्सहकारफललंबित्रोटनं यत् च गणिकायाः सर्पपराशेः उपरि नर्तनं ते द्वे अपि वैनयिकी बुद्धिफले ॥ ११ ॥ 'सीआ' इत्यादि, क्वचित पुरे कोपि राजा, तत्पुत्राः केनापि आचार्येण शिक्षयितुं आरब्धाः, ते च तस्मै आचार्याय प्रभृतं द्रव्यं दत्तवंतः, राजा च द्रव्यलोभी तं मारयितुं इच्छति, तैश्च पुत्रैः कथंचिदेतत् ज्ञात्वा चिंतितं-अस्माकं एष विद्यादायी परमार्थपिता, ततः कथं अपि एनं आपदो निस्तारयामः, ततो यदा भोजनाय समागतः स्नानशाटिकां याचते तदा ते कुमाराः शुष्का अपि शाटी वदंति-"अहो सीया साडी" द्वारसंमुखं च तृणं कृत्वा वदंति-अहो दीर्घ तृणं, पूर्व च क्रौंचकेन सदैव प्रदक्षिणीक्रियते, संप्रति तु स तस्यापसव्यं भ्रमितः, तत
॥१२०॥
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नन्दि सूत्रम्
॥१२१॥
आचार्येण ज्ञातं सर्व मम विरक्तं केवलं एते कुमारा मम भक्तिवशात् ज्ञापयंति, ततो यथा न लक्ष्यते तथा पलायामास, कुमाराणां आचार्यस्य च वैनयिकी बुद्धिः ॥ १२ ॥ ' निव्वोदणं' ति कापि वणिग्भार्या, चिरं प्रोषिते भर्तरि दास्या निजसद्भावं निवेदयतिआनय कमपि पुरुषं इति, ततस्तया समानीतो, नखप्रक्षालनादिकं च सर्व तस्य कारितं, रात्रौ च तौ द्वौ अपि संभोगाय द्वितीयभूमिकां आरूढौ, मेघथ वृष्टिं कर्तु आरब्धवान्, ततस्तेन तृषापीडितेन पुरुषेण नीवोदकं पीतं, तदपि च त्वग्-विषभुजंगसंस्पृष्टं इति तत्पानेन पंचत्वं उपगतः, ततस्तया वणिग्भार्यया निशापश्चिमयाम एव शून्यदेवकुलिकायां मोचितः प्रभाते दृष्टो दंडपाशिकैः परिभावितं सद्यः कृतं तस्य नखादिकर्म्म, ततः पृष्टाः सर्वेऽपि नापिताः- केन इदं भो कृतं अस्य नखादिकं कर्म इति १, तत एकेन नापितेन उक्तंमया कृतं अमुकाभिधवणिग्भार्यादासचेट्यादेशेन, ततः सा पृष्टा - सापि च पूर्व न कथितवती, ततो हन्यमाना यथावस्थितं कथया - मास दंडपाशिकानां वैनयिकी बुद्धिः ||२|| 'गोणे घोडगपडणं च रुक्खाओ' कोऽपि अकृतपुण्यो यद्यत्करोति तत्तत्सर्व आपदे प्रभवति, ततोऽन्यदा मित्रबलीवर्दी याचित्वा हलं वाहयति, अन्यदा च विकालवेलायां तौ आनीय वाटके क्षिप्तौ, स च वयस्यो भोजनं कुर्वन् आस्ते, ततः स तस्य पार्श्वे न गतः केवलं तेनापि तौ दृष्ट्यावलोकितौ इति स स्वगृहं गतः । तौ च बलीवर्दो वाटकात् निःसृत्य अन्यत्र गतौ, ततोऽपहृतौ तस्करैः, स च बलीवर्दवामीतं अकृतपुण्यं वराकं बलीवद्द याचते । स च दातुं न शक्नोति, ततो नीयते राजकुलं, पथि गच्छतः तस्य कोऽपि अश्वारूढः पुरुषः संमुखं आगच्छति, स च अश्वेन पातितोऽश्वश्च पलायमानो वर्तते, ततः तेन उक्तं - आहन्यतां एप दंडेन अश्व इति, तेन च अकृतपुण्येन सोऽश्वो मर्मण्याहतः, ततो मृत्युं उपागमत्, ततस्तेनापि पुरुषेण बराको गृहीतस्ते च यावत् नगरमायाताः तावत्करणमुत्थितं इति कृत्वा ते नगरबहिः प्रदेशे एवोषिताः, तत्र च बहवो नटाः सुप्ता वर्तन्ते, स १ पंच इति भाषायाम् ।
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अवचूरिसमलंकृतम्
॥१२१॥
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नन्दिसूत्रम्
अवचूरि
समलंकृतम्
॥१२२॥
चाकृतपुण्योचिंतयद्यथा नास्मात् आपत्समुद्रात् मे निस्तारोऽस्तीति वृक्षे गलपाशेनात्मानं बद्धा म्रियेयेति तेन तथैव कर्तुमारब्धं, परं जीर्णदंडिवस्त्रखंडेन गले पाशो बद्धः, तच्च दंडिवस्त्रखंडं अतिदुर्बलमिति त्रुटितं, ततः स वराकोऽधस्तात्सुप्तनटमहत्तरस्योपरि पपात, सोऽपि च नटमहत्तरः तद्भाराक्रांतगलप्रदेशः पंचत्वमगमत्, ततो नटैरपि स प्रतिगृहीतः, गताः प्रातः सर्वेऽपि राजकुले, कथितः सर्वैः अपि स्वस्खव्यतिकरः, ततः कुमारामात्येन स बराकः पृष्टः, सोऽपि दीनवदनोवादीव-देव! यत् एते ब्रुवते, तत् सर्व सत्यमिति ततस्तस्य उपरि संजाततकृपः कुमारामात्योऽवादी-एष बलीवौ तुभ्यं दास्यति, तव पुनः अक्षिणी उत्पाटयिष्यति, एष हि तदैवानृणो बभूव यदा त्वया चक्षुामवलोकितौ बलिवदौं, यदि पुनः त्वया चक्षुभ्यां नावलोकितौ स्यातां तदा एषोऽपि स्वगृहं न यायात्, नहि यो यस्मै यस्य समर्पणायागतः, स तस्यानिवेदने समर्पणीयं एवमेव मुक्त्वा स्वगृहं याति, तथा द्वितीयोऽश्वस्वामी शब्दितः, एषोऽश्वं तुभ्यं दास्यति, तव पुनः एष जिह्वां छेत्स्यति, यदा हि त्वदीय जिह्वया उक्तं-एनं अश्वं दंडेन ताडय इति, तदाऽनेन दंडेन आहतोऽश्वो, न अन्यदा, तत एप दंडेन आहता दंड्यते तव पुनः न जिह्वा इति कोऽयं नीतिपथः ?, तथा नटान् प्रत्याह-अस्य पार्श्व न किमपि अस्ति ततः किं दापयामः, एतावत् पुनः कारयामः-एषोऽधस्तात् स्थास्यति, त्वदीयः पुनः कोऽपि प्रधानो यथा एष वृक्षे गलपाशेन आत्मानं बद्धा मुक्तवान् तथात्मानं मुंचतु इति, ततः सर्वैः अपि स मुक्तः । कुमारामात्यस वैनयिकी बुद्धिः॥३॥ उक्ता वैनयिकी बुद्धिः॥८॥ कर्मजाया बुद्धेः लक्षणं आह
उवओगदिवसारा कम्मपसंगपरिघोलणविसाला ॥ साहुकारफलवई कम्मसमुत्था हवइ बुद्धि ॥८॥
॥१२२॥
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नन्दिसूत्रम्
अवचूरिसमलंकृतम्
॥१२॥
हेरनिए करिसए कोलिय डोवे ये मुत्ति घर्य पवएँ ॥
तुण्णाएं वहुई ये पूयई घडे चित्तकोरे य॥९॥ 'उवओग' इत्यादि उपयोजनं उपयोगो-विवक्षितकर्मणि मनसोऽभिनिवेशः सार:-तस्य एव विवक्षितकर्मणः परमार्थः, उपयोगेन दृष्टः सारो यया सा उपयोगदृष्टसारा, अभिनिवेशोपलब्धकर्मपरमार्था इत्यर्थः, तथा कर्मणि प्रसंगोऽभ्यासः परिघोलनंविचारस्ताभ्यां विशाला-विस्तारं उपगता कर्मप्रसंगपरिघोलनविशाला, तथा साधुकृतं-सुष्टुकृतं इति विवदद्भयः (विद्गद्भिः) प्रशंसा साधुकारः तेन युक्तं फलं साधुकारफलं तत्-वती, साधुकारपुरस्सरं वेतनादिलाभरूपं तस्याः फलं इत्यर्थः, सा तथा कर्म समुत्था भवति बुद्धिः॥९॥ अस्या अपि विनेयजनानुग्रहार्थ उदाहरणैः स्वरूपं दर्शयति-हेरणिए' इत्यादौ षष्ठ्यर्थे सप्तमी, ततोऽयमर्थः-हैरण्यकोहैरण्यकस्य कर्मजा बुद्धिः, एवं सर्वत्रापि योजना कार्या, हैरण्यको हि स्वविज्ञानप्रकर्षप्राप्तोऽन्धकारेऽपि हस्तस्पर्शविशेषेण रूपकं यथा| वस्थितं परीक्ष्यते ॥ १ ॥ 'करिसग'त्ति अत्र उदाहरणं, कोऽपि तस्करो रात्रौ वणिजो गृहे पद्माकारं खातं खातवान् , ततः प्रातरलक्षितः तस्मिन् एव गृहे समागत्य जनेभ्यः प्रशंसां आकर्णयति, तत्र एकः कर्षकोऽब्रवीत्-किं नाम शिक्षितस्य दुष्करत्वं १, यद्येन सदैव अभ्यस्तं कर्म स तत् प्रकर्षप्राप्तं करोति, न अत्र विस्मयः, ततः स तस्कर एतत् वाक्यं अमर्पवैश्वानरसंधुक्षणसमं आकर्ण्य जज्वाल कोपेन, ततः पृष्टवान् कमपि पुरुषं-कोऽयं कस्य वा सत्क इति ?, ज्ञात्वा च तं अन्यदा क्षुरिकां आकृष्य गतः क्षेत्रे तस्य पार्थे, रे! | मारयामि त्वां संप्रति, तेन उक्तं-किं इति ?, सोब्रवीत्-त्वया तदानीं न मम खातं प्रशंसितं इति कृत्वा, सोऽब्रवीत्-सत्यं एतत् , | यो यस्मिन् कर्मणि सदैव अभ्यासपरः स तत् विषये प्रकर्षवान् भवति, तत्र अहमेव दृष्टान्तः, तथाहि अमून मुद्गान् हस्तगतान् यदि
॥१२३॥
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| अवचूरि
नन्दिसूत्रम् ॥१२४॥
समलंकृतम्
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भणसि तर्हि सर्वान् अपि अधोमुखान् पातयामि यद्वा ऊर्ध्वमुखान् अथवा पावस्थितानिति, ततः सोऽधिकतरं विस्मितचेताः प्राह-पातय सर्वानपि अधोमुखानिति, विस्तारितो भूमौ पटः, पातिताः सर्वेऽपि अधोमुखाः मुद्गाः, जातो महान् विस्मयः चौरस्य, प्रशंसितं भूयोभूयः तस्य कौशलं अहो विज्ञानमिति, वदति चौरो-यदि न अधोमुखाः पातिता अभविष्यन् ततो नियमात् त्वां अहं अमारयिष्यमिति । कर्षकस्य चौरस्य च कर्मजा बुद्धिः ॥२॥ 'कोलिय'त्ति कौलिकः-तंतुवायः, स मुख्या तंतूनादाय जानाति-एतावद्भिः कंडकैः पटो | भविष्यति ॥३॥ 'डोवेत्ति दर्वी वर्द्धकिः जानाति-एतावत् अत्र मास्यति इति ॥ ४ ॥ 'मुत्ति'त्ति मणिकारो मौक्तिकं आकाशे प्रक्षिप्य शूकरवालं तथा धारयति यथा पततो मौक्तिकस्य रंधे स प्रविशति इति ॥ ५॥ 'घय'त्ति घृतविक्रयी स्वविज्ञानप्रकर्षप्राप्तो यदि रोचते तर्हि शकटे स्थितोऽधस्तात् कुंडिकानालेऽपि घृतं प्रक्षिपति ॥ ६॥ 'पवय'त्ति प्लवकः, स च आकाशस्थितानि करणानि करोति ॥७॥ 'तुण्णाए ति सीवनकर्मकर्ता, स च स्वविज्ञानप्रकर्षप्राप्तः तथा सीवति यथा प्रायः केनापि न लक्ष्यते ॥८॥'वड्डई'ति वर्द्धकिः, स च स्वविज्ञानप्रकर्षप्राप्तो अमित्वापि देवकुलरथादीनां प्रमाणं जानाति ॥९॥ 'पूयइति आपूपिकः, स च अमित्वापि आपूपानां दलस्य मानं जानाति ॥ १० ॥ 'घड'चि घटकारः स्वविज्ञानप्रकर्षप्राप्तः प्रथमत एव प्रमाणयुक्तां मृदं गृह्णाति ॥ ११॥ 'चित्तकरे'त्ति चित्रकारः, स च रूपकभूमिकां अमित्वापि रूपकप्रमाणं जानाति तावन्मानं वा वर्ण कुंचिकया गृह्णाति यावन्मात्रेण प्रयोजनं इति ॥ १२॥ उक्ता कर्मजा बुद्धिः। संप्रति पारिणामिक्या लक्षणं आह
अणुमाणहेउदिढतसाहिआ वयविवागपरिणामा । हिअनिस्सेअसफलवई बुद्धी परिणामिआ नाम ॥ ११ ॥
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॥१२॥
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नन्दिसूत्रम् ॥१२५॥
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अभएं सिट्ठि कुमारे देवी' उदिओदए हवइ राया ॥ साहू य नंदिसेणे घणदत्ते सावर्ग अमचे ' ॥ १२ ॥ खम अमचं पुत्ते चाणक्के चैव थूलभद्दे ॐ ॥ नासिक सुंदरिनंदे वइरे" परिणामबुद्धीए ॥ १३ ॥ चलणाहणें आमंडे मणीर्यं सप्पे य खग्गिं धूभिंदे ॥ परिणामियबुद्धीए एवमाई उदाहरणा ॥ १४ ॥ सेतं असुअनिस्सियं ।
'अणुमाण' इत्यादि, लिंगात लिंगिनि ज्ञानं अनुमानं तच्च स्वार्थ अनुमानं इह द्रष्टव्यं, अन्यथा हेतुग्रहणस्य नैरर्थक्यापत्तेः, अनुमानप्रतिपादकं वचो हेतुः, परार्थानुमानं इत्यर्थः, अथवा ज्ञापकं अनुमानं, कारकं हेतुः, दृष्टांतः प्रतीतः, आह- अनुमानग्रहणेन दृष्टान्तस्य गतत्वादलमस्य उपन्यासेन, उच्यते, अनुमानस्य क्वचित् दृष्टांतमंतरेण अन्यथानुपपत्तिग्राहकप्रमाणबलेन प्रवृत्तेः, यथा सात्मकं यावत् जीवच्छशरीरं, प्राणादिमत्त्वाऽन्यथानुपपत्तेः न च दृष्टांतोऽनुमानांगं, यत उक्तं "अन्यथानुपपन्नत्वं, यत्र तत्र त्रयेण किं ?" ततः पृथग्
तस्य उपादानं, तत्र साध्यस्य उपमाभूतो दृष्टांतः, तथा च उक्तं- " यः साध्यस्य उपमानभूतः, स दृष्टांत इति कथ्यते ।" अनुमानहेतुदृष्टांतैः साध्यं - अर्थ साधयति इति अनुमानहेतुदृष्टांतसाधिका, तथा कालकृतो देहावस्थाविशेषो वयस्तत् विपाके परिणाम: - पुष्टता | यस्याः सावयोविपाकपरिणामा, तथा हितं -अभ्युदयो निःश्रेयसं - मोक्षः ताभ्यां फलवती, [ते] द्वे अपि तस्याः फले इत्यर्थः, बुद्धिः पारि
अवचूरिसमलंकृतम्
॥१२५॥
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नन्दिसूत्रम्
॥१२६॥
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णामिकी नाम ॥ ११ ॥ अस्या अपि शिष्यगणहिताय उदाहरणैः स्वरूपं प्रकटयति- 'अभए' इत्यादि गाथात्रयं, अस्यार्थः कथानकेभ्योऽवसेयः, तानि च कथानकानि प्रायोऽतीव गुरूणि प्रसिद्धानि च ततो ग्रंथांतरेभ्योऽवसेयानि, इह तु अक्षरयोजनामात्रं एव केवलं करिष्यते । तत्र 'अभए 'ति अभयकुमारस्य यत् चंडप्रद्योतात् वरचतुष्टयमाणं यत् चंडप्रद्योतं बद्धा नगरमध्येन आरटंतं नीतवान् इत्यादि सा पारिणामिकी बुद्धिः ॥ १ ॥ 'सेडि' त्ति, काष्ठश्रेष्ठी, तस्य यत् स्वभार्यादुश्चरितं अवलोक्य प्रवज्याप्रतिपत्तिकरणं यच्च स्वपुत्रे राज्यं अनुशासति वर्षाचतुर्मासकानंतरं विहारक्रमं कुर्वतः पुत्रसमक्षं धिग्जातीयैः उपस्थापिताया द्व्यक्षरिकाया आपन्नसत्त्वायाः त्वदीयोऽयं गर्भः त्वं च ग्रामांतरं प्रति चलितः ततः कथं अहं भविष्यामि इति वदत्याः प्रवचनाऽयशोनिवारणाय यदि मदीयो गर्भः ततो योनेः विनिर्गच्छतु नो चेत् उदरं भित्त्वा विनिर्गच्छतु इति यत् शापप्रदानं, सा पारिणामिकी बुद्धिः || २ || 'कुमारे' ति, मोदकप्रियस्य कुमारस्य प्रथमे वयसि वर्त्तमानस्य कदाचित् गुणन्यां गतस्य प्रमदादिभिः सह यथेच्छं मोदकान् भक्षितवतोऽजीर्णरोगप्रादुर्भावात् अतिपूतिगंधिं वातकार्यं तत्सृजतो या उद्गता चिंता, यथा अहो ! तादृशानि अपि मनोहराणि कणिक्कादीनि द्रव्याणि शरीरसंपर्कवशात् पूतीगंधानि जातानि तस्मात् घिग् इदं अशुचि शरीरं, धिग् व्यामोहो, यत् एतस्यापि शरीरस्य कृते जंतुः पापानि आरभते, इत्यादिरूपा सा पारिणामिकी बुद्धिः, तत उर्द्ध तस्य शुभशुभतराध्यवसाय भावतो अंतर्मुहूर्त्तेन केवलज्ञानोत्पत्तिः ॥ ३ ॥ 'देवी'ति | देव्याः पुष्पवती - अभिधानायाः प्रव्रज्यां परिपाल्य देवत्वेन उत्पन्नाया यत् पुष्पचूलाभिधानायाः स्वपुत्र्याः खमे नरकदेवलोकप्रकटनेन प्रबोधकरणं सा पारिणामिकी बुद्धिः ॥ ४ ॥ 'उदिओदए 'त्ति, उदितोदयस्य राज्ञः श्रीकांतापतेः पुरिमतालपुरे राज्यं अनुशासतः श्रीकांतानिमित्तं वाराणसीवास्तव्येन धर्म्मरुचिना राज्ञा सर्वबलेन समागत्य निरुद्धस्य प्रभूतजनपरिक्षयभयेन यत् वैश्रवणं उपवासं
अवचूरिसमलंकृतम्
॥१२६॥
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नन्दिसूत्रम्
| अवचूरिसमलंकृतम्
॥१२७॥
कृत्वा समाहूय स नगरस्य आत्मनो अन्यत्र संक्रामणं सा पारिणामिकी बुद्धिः ॥५॥ 'साहू य नंदिसेणेत्ति साधोः श्रेणिकपुत्रस्य | नंदिषेणस्य स्खशिष्यस्य व्रतं उज्झितुकामस्य स्थिरीकरणाय भगवत् वर्द्धमानखामिवंदननिमित्तं चलितमुक्ताभरणश्वेतांबरपरिधानरूपराम- णीयकविनिर्जितामरसुंदरीकस्वांतःपुरदर्शनं कृतं सा पारिणामिकी बुद्धिः। स हि नंदिषेणस्य तादृशमंतःपुरं नंदिषेणपरित्यक्तं दृष्ट्वा दृढतरं संयमे स्थिरीबभूव, ॥ ६॥ 'धणदत्ते'त्ति धनदत्तस्य सुंसुमाया निजपुत्र्याः चिलातीपुत्रेण मारितायाः कालं अपेक्ष्य यत् पललभक्षणं सा पारिणामिकी बुद्धिः॥७॥ 'सावगे'त्ति कोऽपि श्रावकः प्रत्याख्यातपरस्त्रीसंभोगः कदाचित् निजजायासखीं अवलोक्य तत्र | अतीव अध्युपपन्नः, तं च तादृशं दृष्ट्वा तत् भार्या अचिंतयत् । नूनं एष यदि कथं अपि एतस्मिन्नध्यवसाये वर्तमानो म्रियते तर्हि नरकगति तिर्यग्गतिं वा याति तस्मात् करोमि कंचित् उपायमिति, तत एवं चिंतयित्वा स्वपति अभाणीत-मा त्वं आतुरी भूः, अहं ते तां विकालवेलायां संपादयिष्यामि, तेन प्रतिपन्न, ततो विकालवेलायां ईपदंधकारे जगति प्रसरति खसख्या वस्त्राणि आमरणानि परिधाय सा खसखीरूपेण रहसि तं उपासृपत् । स च सेयं मद्भार्यासखीति अवगम्य तां परिभुक्तवान्, परिभोगे च कृतेऽपगतका| माध्यवसायोऽस्मरत् च प्राग् गृहीतं व्रतं, ततो व्रतभंगो मे समुदपादि इति खेदं कत्तु प्रवृत्तः, ततस्तद्भार्या तस्मै यथावस्थितं निवेदयामास । ततो मनाक् स्वस्थीबभूव, गुरुपादमूलं च गत्वा दुष्टमनःसंकल्पनिमित्तव्रतभंगविशुद्ध्यर्थ प्रायश्चित्तं प्रतिपन्नवान्, श्राविकायाः पारिणामिकी बुद्धिः॥८॥ 'अमचे'त्ति वरधनुपितुः अमात्यस्य ब्रह्मदत्तकुमारविनिर्गमनाय यत् सुरंगाऽऽखननं, सा पारिणामिकी बुद्धिः ॥९॥१२॥ 'खमए'त्ति क्षपकस्य कोपवशेन मृत्वा सर्पत्वेन उत्पन्नस्य ततोऽपि मृत्वा जातराजपुत्रस्य प्रव्रज्याप्रतिपत्तौ चतुरः क्षपकान् पर्युपासीनस्य योजनवेलायां तैः क्षपकैः पात्रे निष्ठचूत निक्षेपेऽपि क्षमाकरणं आत्मनिंदनं क्षपकगुणप्रशंसा सा पारिणामिकी
ESCURSOS ESREERESENSE
| ॥१२७॥
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नन्दिसूत्रम् ॥१२८॥
अवचूरिसमलंकृतम्
SSSSSSCHREESORIA
| बुद्धिः॥१०॥ 'अमञ्चपुत्तेति अमात्यपुत्रस्य वरधनुर्नाम्नो ब्रह्मदत्तकुमारविषये दीर्घपृष्ठवरूपज्ञापनादिषु तेषु तेषु प्रयोजनेषु पारिणामिकी बुद्धिः॥११॥'चाणक्के' ति चाणक्यस्य चंद्रगुप्तराज्यं अनुशासतो भांडागारे निष्टिते सति यदेकदिवसजाताऽश्वादियाचनं सा पारि- णामिकी बुद्धिः॥१२॥ 'थूलभद्दे'त्ति स्थूलभद्रस्वामिनः पितरि मारिते नंदेन अमात्यपदपालनाय प्रार्थ्यमानस्यापि यत्प्रव्रज्याप्रतिपत्तिकरणं सा पारिणामिकी बुद्धिः॥१३॥ 'नासिकसुंदरी नंदे'चि नाशिक्यपुरे सुंदरीभर्तुः नंदस्य भ्रात्रा साधुना यव मेरुशिरसि नयनं यच्च देवमिथुनकं दर्शितं सा पारिणामिकीबुद्धिः॥१४॥ 'वइरे'त्ति वज्रखामिनो बालभावेऽपि वर्तमानस्य मातरं अवगणय्य संघबहुमानकरणं सा पारिणामिकी बुद्धिः॥ १५ ॥ 'चलणाहण'त्ति कोऽपि राजा तरुणैः व्युग्राह्यते यथा देव! तरुणा एव पार्थे ध्रियंतां, किं स्थविरैः वलिपलितविशोभितशरीरैः ?, ततो राजा तान् प्रति परीक्षानिमित्तं ब्रूते-यो मां शिरसि पादेन ताडयति तस्य को दंड इति ?, ते पाहुः-तिलमात्राणि खंडानि स विकृत्य मार्यते इति, ततः स्थविरान् प्रपच्छ-नेवीचन्-देव ! परिभाव्य कथयामः, ततस्तैः एकांते गत्वा चिंतितं-को नाम हृदयवल्लभां देवीमतिरिच्य अन्यो देवं शिरसि ताडयितुं ईष्टे, हृदयवल्लभा च देवी विशेषतः सन्माननीया इति, ततस्ते समागत्य राजानं विज्ञपयामासुः-देव! स विशेषतः सत्कारणीय इति, ततो राजा परितोष उपागतस्तान् प्रशंसितवान्-को नाम वृद्धान् विहाय अन्य एवंविधबुद्धिभाग् भवति ?, ततः सदैव स्थविरान् पार्श्वे धारयामास न तरुणान् इति । राज्ञः स्थविराणां [च] पारिणामिकी बुद्धिः॥१६॥ 'आमंडे'त्ति कृत्रिममामलकमिति, कठिनत्वात् अकालत्वाच केनापि यथावस्थितं ज्ञातं | तस्य पारिणामिकी बुद्धिः॥१७॥ 'मणी'त्ति कोऽपि सो वृक्षं आरुह्य सदैव पक्षीणां अंडानि भक्षयति, अन्यदा च वक्षस्थितो निपातितः, मणिश्च तस्य तत्र एव क्वचित् प्रदेशे स्थितः, तस्य च वृक्षस्य अधस्तात् कूपोऽस्ति, उपरिस्थितमणिप्रभाविच्छुरितं च सकल
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॥१२८॥
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नन्दिसूत्रम् मपि कूपोदकं रक्तीभूतं उपलक्ष्यते, कूपात् आकृष्टं च स्वाभाविकं दृश्यते । एतच्च बालकेन केनापि निजपितुः स्थविरस्य निवेदितं.
अवचूरिसोऽपि तत्र समागत्य सम्यक् परिभाव्य मणिं गृहीतवान् । तस्य पारिणामिकी बुद्धिः॥१८॥ 'सप्पेत्ति सर्पस्य चंडकौशिकस्य
समलंकृतम् ११२९॥
भगवंतं प्रति या चिंताऽभूत्-ईदृग् अयं महात्मा इत्यादिका सा पारिणामिकी बुद्धिः॥१९॥ 'खग्गि'ति, कोऽपि श्रावकः प्रथमयौ-12 वनमदमोहितमना धर्म अकृत्वा पंचत्वमुपगतः खड्गः समुत्पन्नः, यस्य गच्छतो द्वयोः अपि पार्श्वयोः चर्माणि लंबते, स जीवविशेषखड्गः, स च अटव्यां चतुःपथे जनं मारयित्वा खादति, अन्यदा च तेन यथा गच्छतः साधून दृष्टवान् , स च आक्रमितुं न शक्नोति ।
ततस्तस्य जातिस्मरणं भक्तप्रत्याख्यानं देवलोकगमनं, तस्य पारिणामिकी बुद्धिः ।। २०॥ 'थुभत्ति, विशालायां पुरि कूलवालकेन II विशालाभंगाय यत् मुनिसुव्रतस्वामिपादुकास्तूपोत्खातनं सा पारिणामिकी बुद्धिः ॥ २१॥ पारिणामिक्या बुद्धेः एवं आदीनि उदाहर-1 181 णानि 'सेत्त'मित्यादि तत् एतत् अश्रुतनिश्रितम् ।
से किं तं सुअनिस्सियं ? सुअनिस्सियं चउविहं पन्नत्तं, तं जहाउग्गहे इहा' अवाओ' धारणा । से किं तं उग्गहे ?
उग्गहे दुविहे पन्नत्ते, तं जहा-अत्थुग्गहे अवंजणुग्गहे अ। से किं तमित्यादि । अथ किं तत् श्रुतनिश्रितं मतिज्ञानं?, गुरुः आह-श्रुतनिश्रितं मतिज्ञानं चतुर्विधं प्रज्ञप्त, तद्यथा-अवग्रह
॥१२९॥ ईहा-अपायो-धारणा च, तत्र अवग्रहणं अवग्रहः, अनिद्देश्यसामान्यमात्ररूपार्थग्रहणं इत्यर्थः, । तथा ईहनं ईहा, सत्भूतार्थपर्यालोचनरूपा चेष्टा इत्यर्थः । किं उक्तं भवति ? अवग्रहात उत्तरकालं अवायात् पूर्व सद्भूतार्थविशेषोपादानाभिमुखोऽसद्भतार्थविशेषपरि
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नन्दिसत्रम् | त्यागाभिमुख:-प्रायो अत्र मधुरत्वादयः शंखादिधर्मा दृश्यते न खरकर्कशनिष्ठुरतादयः शाङ्गादिशब्दधा इति एवंरूपो मतिविशेष | अवचूरि
ईहा, तथा तस्य एव अवगृहीतस्येहितस्यार्थस्य निर्णयरूपोऽध्यवसायोऽवायः शांख एव अयं, शाङ्ग एव अयं इत्यादिरूपोऽवधारणा- समलंकृतम् ॥१३०॥
त्मकः प्रत्ययोऽवाय इत्यर्थः । तस्य एव अर्थस्य निर्णीतस्य धारणं धारणा, सा च त्रिधा-अविच्युतिः वासना स्मृतिश्च, तत्र तदुपयोगात् अविच्यवनं अविच्युतिः, सा च अंतर्मुहर्तप्रमाणा, ततः तया आहितो यः संस्कारः सा वासना, सा च संख्येयमसंख्येयं वा कालं यावत् भवति । ततः कालांतरे कुतश्चित्तादृशार्थदर्शनादिकारणात् संस्कारस्य प्रबोधे यत् ज्ञानं उदयते-तत् एव इदं यन्मया प्रार उपलब्धं इत्यादिरूपं सा स्मृतिः । उक्तं च-"तदनंतरं तदत्थाविञ्चवणं जो उ वासणाजोगो । कालांतरे जं पुण अणुसरणं धारणा | सा उ॥१॥" एताश्च अविच्युतिवासनास्मृतयो धरणलक्षणसामान्याऽन्वर्थयोगाद्धारणाशब्दवाच्याः॥
अथ कोऽयं अवग्रहः १, सरिराह-अवग्रहो द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-अर्थावग्रहश्च व्यंजनावग्रहश्च, तत्र अर्थ्यते इत्यर्थः अर्थस्यावग्रहणं अर्थावग्रहः-सकलरूपादिविशेषनिरपेक्षानिर्देश्यसामान्यमात्ररूपार्थग्रहणं एकसामयिकं इत्यर्थः, तथा व्यज्यतेऽनेन अर्थः प्रदीपेनेवP घट इति व्यंजनं, तच्च उपकरणेन्द्रियस्य श्रोत्रादेः शब्दादिपरिणतद्रव्याणां च परस्पर संबंधः, संबंधे सति सोऽर्थः शब्दादिरूपः श्रोत्रादिइंद्रियेण व्यंजितुं शक्यते, न अन्यथा, ततः संबंधो व्यंजनं, व्यंजनेन-संबंधेन अवग्रहणं संबध्यमानस्य शब्दादिरूपस्यार्थस्य | अव्यक्तरूपः परिच्छेदो व्यंजनावग्रहः। अथवा व्यज्यंते इति व्यंजनानि, 'कृत् बहुलं' इति वचनात् कर्मण्यन, संप्रति तु व्यंजनावग्रहात् ॥१३०॥ ऊर्दू अर्थावग्रह इति क्रमं आश्रित्य प्रथमं व्यंजनावग्रहस्वरूपं प्रतिपिपादयिषुः शिष्यः प्रश्नं करोति
से किं तं वंजणुग्गहे ? वंजणुग्गहे चउविहे पन्नत्ते, तं जहा
KESTISRAKSASSASSASS
SSSSSSSSSSSSSS
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नन्दिसूत्रम्
अवचूरिसमलंकृतम्
॥१३॥
सोइंदियवंजणुग्गहे, घाणेंदियवंजणुग्गहे, जिभिदियवंजणुग्गहे,
फासिंदियवंजणुग्गहे । सेत्तं वंजणुग्गहे। अथ कोऽयं व्यंजनावग्रहः?, आचार्य आह-व्यंजनावग्रहः चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-'श्रोत्रंद्रियव्यंजनावग्रह' इत्यादि, अत्र आह-सत्सु पंचसु इंद्रियेषु षष्ठे च मनसि कस्मात् अयं चतुर्विधो व्यावयेते ?, उच्यते, इह व्यंजनं उपकरणेन्द्रियस्य शब्दादिद्रव्याणां च परस्परं संबंध उच्यते, संबंधश्चतुर्णा एव श्रोत्रंद्रियादीनां, न नयनमनसोः, तयोः अप्राप्यकारित्वात् , आह-कथं अप्राप्यकारित्वं तयोः अवसीयते ?, उच्यते, विषयकृतानुग्रहोपघाताभावात् , तथाहि-यदि प्राप्तं अर्थ चक्षुः मनो वा गृह्णीयात् तर्हि यथा स्पर्शनेंद्रियं स्रक्चंदनादिकं अंगारादिकं च प्राप्तमर्थ परिच्छिदन् तत्कृतानुग्रहोपघातभाग् भवति । तथा चक्षुः मनसी अपि भवेतां, विशेषाभावात् , न च भवतः तस्मादप्राप्यकारिणी ते, ननु दृश्यते एव चक्षुषो विषयकृतौ अनुग्रहोपघाती, तथाहि-घनपटलविनिमुक्ते नभसि सर्वतो निबिडजरठिमोपेतं करप्रसरमभिसर्पयन्तमंशुमालिनमनवरतं अवलोकमानस्य भवति चक्षुषो विघातः, शशांककरकदंबकं यदि वा तरंगमालोपशोभितं जलं तरुमंडलं च शाड्वलं निरंतरं निरीक्ष्यमाणस्य च अनुग्रहः, तदेतदपरिभावितभाषितं, यतो न ब्रूमः सर्वथा विषयकृतानुग्रहोपघातौ न भवतः, किं त्वेतावदेव वदामो-यदा विषयं विषयतया चक्षुरवलंबते तदा तत्कृतावनुग्रहोपघातौ तस्य न भवत इति तदप्राप्यकारि, शेषकालं तु प्राप्तेनोपघातकेनोपघातो भविष्यत्यनुग्राहकेण चानुग्रहः । अथ कतिविधोऽयमर्थावग्रहः १, सूरिराह
से किं तं अत्थुग्गहे ? अत्थुग्गहे छिवहे पन्नत्ते तं जहा-सोइंदिय
॥१३॥
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नन्दिसूत्रम्
| अवचूरि
समलंकृतम्
१३२॥
अत्थुग्गहे । चक्खिदियअत्थुग्गहे । घाणिदियअत्थुग्गहे। जिभिदियअत्थुग्गहे । फासिंदियअत्थुग्गहे । नोइंदियअत्थुग्गहे। तस्स णं इमं एगहिआ नाणाघोसा नाणावंजणा पंच नामधिज्जा भवति, तं जहा-ओगेण्हणया उवधारणया सवणया अवलंबणयाँ
मेहीं । से त्तं उग्गहे। अर्थावग्रहः षविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-श्रोत्रंद्रियार्थावग्रह इत्यादि, श्रोत्रंद्रियार्थावग्रहो व्यंजनावग्रहोत्तरकालं एकसामयिकं अनिर्देश्यसामान्यरूपार्थाऽवग्रहणं श्रोत्रंद्रियार्थावग्रहः, एवं घ्राणजिह्वास्पर्शनेंद्रियार्थावग्रहेष्वपि वाच्यं, चक्षुर्मनसोस्तु व्यंजनावग्रहो न भवति, ततस्तयोः प्रथम एव स्वरूपं द्रव्यगुणक्रियाविकल्पनाऽतीतं अनिर्देश्यसामान्यमात्ररूपार्थावग्रहणं अर्थावग्रहोवसेयः॥ तत्र नोईद्रियं-मनः, तच्च द्विधा-द्रव्यरूपं भावरूपं च, तत्र मनःपर्याप्तिनामकर्मोदयतो यत् मनःप्रायोग्यवर्गणादलिकं आदाय मनस्त्वेन परिणामितं तत् द्रव्यरूपं मनः, तथा द्रव्यमनोऽवष्टंभेन जीवस्य यो मननपरिणामः स भावमनः, तत्र इह भावमनसा प्रयोजनं, तत्ग्रहणे हि अवश्यं द्रव्यमनसोऽपि ग्रहणं भवति, द्रव्यमनोतरेण भावमनसोऽसंभवात् , भावमनो विनापि च द्रव्यमनो भवति, यथा भवस्थकेवलिनः, तत उच्यते-भावमनसा इह प्रयोजनं, तत्र नोइंद्रियेण-भावमनसार्थावग्रहो द्रव्येंद्रियव्यापारनिरपेक्षो | घटाद्यर्थखरूपपरिभावनाऽभिमुखः प्रथमं एकसामयिको रूपाधूोककारादिविशेषचिंताविकलोऽनिर्देश्यसामान्यमात्रचिंतात्मको बोधो नोइंद्रियार्थावग्रहः ॥ 'तस्य' सामान्येन अवग्रहस्य 'ण' इति वाक्यालंकारे 'अमृनि वक्ष्यमाणानि एकाथिकानि नानाघोषा-उदा
॥१३२॥
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नन्दिसूत्रम्
अवचूरिसमलंकृतम्
॥१३॥
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| तादयः स्वरविशेषाः, येषां तानि नानाघोषाणि, तथा नानाव्यंजनानि-कादीनि येषां तानि नानाव्यंजनानि, पंच नामानि एव नामधेयानि भवति । 'तद्यथा' इति तेषां एव उपप्रदर्शने 'ओगेण्हणया' इत्यादि, इह अवग्रहः त्रिधा, तद्यथा-व्यंजनावग्रहः सामान्यार्थावग्रहो विशेषसामान्यार्थावग्रहश्च, तत्र विशेषसामान्यार्थावग्रह औपचारिकः, स च अनंतरमेव अग्रे दर्शयिष्यते, अवगृह्यते अनेन इत्यवग्रहणं,' करणेऽनट्' व्यंजनावग्रहः-प्रथमसमयप्रविष्टशब्दादिपुद्गलाऽऽदानपरिणामः, तत् भावोऽवग्रहणता । तथा धार्यतेऽनेन इति धारण, उप सामीप्येन धारणं [उपधारणं] व्यंजनावग्रहे द्वितीयादिसमयेषु प्रतिसमयं अपूर्वापूर्वप्रविशच्छब्दादिपुद्गलाऽऽदानपुरस्सरं प्राक्तनप्राक्तनसमयगृहीतशब्दादिपुद्गलधारणपरिणामः तद्भाव उपधारणता, तथा श्रूयतेऽनेन इति श्रवणं एकसामयिकः सामान्यार्थावग्रहरूपो बोधपरिणामः तद्भावः श्रवणता, तथाऽवलंब्यते इति अवलंबनं, 'कुदहुल मिति वचनात् कर्मण्यनद्, विशेष| सामान्यार्थावग्रहः । मेधा प्रथमं विशेषसामान्यार्थावग्रह-मतिरिच्य उत्तरः सर्वोऽपि विशेषसामान्यार्थावग्रहः । तदेवमुक्तानि पंचापि नामधेयानि भिन्नार्थानि । 'से तं' इत्यादि निगमनं ॥
से किं तं ईहा ? ईहा छविहा पन्नत्ता, तं जहा-सोइंदियईहा, चक्खिदियईहा, घाणिदियईहा, जिभिदियईहा, फासिंदियईहा, नोइंदियईहा। तीसे णं इमं एगडिआ नाणाघोसा नाणावंजणा पंच नामधिज्जा भवंति,
तं जहा आभोगणया' मग्गणयां गवेसणयाँ चिंता विमंसा । सेत्तं ईहा। अथ का इयं ईहा ? षड्विधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-श्रोत्रंद्रियईहा इत्यादि, तत्र श्रोत्रंद्रियेण ईहा श्रोत्रंद्रियईहा श्रोत्रंद्रियार्थावग्रहं
॥१३३॥
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नन्दिसूत्रम्
॥१३४॥
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अधिकृत्य या प्रवृत्ता हा श्रोत्रेंद्रियईहा इत्यर्थः । एवं शेषा अपि साधनीयाः, 'तीसे णं' इत्यादि सुगमं, नवरं सामान्यत एकार्थिकानि, विशेषा चिंतायां पुनः भिन्नार्थानि तत्र आभोग्यतेऽनेन इति आभोगनं - अर्थावग्रहसमयसमनंतरं एव सभूतार्थविशेषाभिमुखं आलोचनं तस्य भाव आभोगनता । तथा मार्ग्यतेऽनेन इति मार्गणं सद्भूतार्थविशेषाभिमुखं एव तत् ऊर्द्ध अन्वयव्यतिरेकधम्र्मान्वेषणं तद्भावो मार्गणता, तथा - गवेष्यतेऽनेन इति गवेषणं - तत् ऊर्द्ध सत् भूतार्थविशेषाभिमुखं एव व्यतिरेकधर्म्मत्यागतोऽन्वयधर्म्माध्यासालोचनं तद्भावो गवेषणता, ततो मुहुर्मुहुः क्षयोपशमविशेषतः स्वधर्मानुगतसद्भूतार्थविशेषचिंतनं चिंता । तत ऊर्द्ध क्षयोपशम विशेषात् स्पष्टतरं सद्भूतार्थविशेषाभिमुखं एवं व्यतिरेकधर्म्मपरित्यागतोऽन्वयधर्म्मापरित्यागतोऽन्वयधर्म्मविमर्शनं विमर्शः । ' से तं ईहा' इति निगमनम् ॥
से किं तं अवाए ? अवाए छव्विहे पन्नत्ते, तं जहा- सोइंदियअवाए, चक्खिदियअवाए, घाणिदयअवाए, जिभिदिय अवाए, फासिंदियअवाए, नोइंदियअवाए । तस्स णं इमं एगट्टिआ नाणाघोसा नाणावंजणा पंच नामविज्जा पन्नत्ता, तं जहा आउट्टणयां पच्चाउट्टणयां अवाएं बुद्धी विन्नाणे । सेत्तं अवाए । 'से किं तं' इत्यादि, श्रोत्रेंद्रियेण अवायः, श्रोत्रेंद्रियनिमित्तं अर्थावग्रहं अधिकृत्य यः प्रवृत्तोऽपायः [स] श्रोत्रेंद्रिय अपाय इत्यर्थः, एवं शेषा अपि भावनीयाः, 'तस्स णं' इत्यादि प्राग्वत्, अत्रापि सामान्यत एकार्थिकानि, विशेषचिंतायां पुनः नानार्थानि तत्र आवर्त्तते - ईहातो निवृत्त्यापायभावं प्रतिपत्यभिमुखो वर्त्तते येन बोधपरिणामेन स आवर्त्तनः तद्भाव आवर्त्तनता, अर्थविशेषेषु उत्तरोत्तरेषु विवक्षितापाय प्रत्यासन्नतरा बोधविशेषाः ते प्रत्यावर्त्तनास्तद्भावः प्रत्यावर्त्तनता । तथा अपायो निश्वयः सर्वथा ईहाभावात् विनिवृत्तस्य अवधारणाऽवधारितं अर्थ अवगच्छतो यो बोधविशेषः सोऽपाय इत्यर्थः । ततस्तं एव अवधारितं अर्थ क्षयोपशम विशेषात
अवचूरिसमलंकृतम्
॥१३४॥
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नन्दिसूत्रम्
अवचूरि
समलंकृतम्
॥१३५॥
स्थिरतया पुनः, पुनः स्पष्टतरं अवबुध्यमानस्य या बोधपरिणतिः सा बुद्धिः। तथा विशिष्टं ज्ञानं विज्ञान-क्षयोपशमविशेषात् एव अवधारितार्थविषय एव तीव्रतरधारणाहेतुः बोधविशेषः । 'से अवाए' इति निगमनम् ॥
से किं तं धारणा ? धारणा छव्विहा पन्नत्ता, तं जहा सोइंदियधारणा, चक्खिदियधारणा, घाणिदियधारणा, जिभिदियधारणा, फासिंदियधारणा, नोइंदियधारणा। तस्स णं इमं एगहिआ नाणाघोसा नाणावंजणा पंच नामधिज्जा पन्नत्तं, तं जहा धारणा साधारणा' ठवणा' पइट्ठों कोढे । सेत्तं धारणा।
'से किं तं' इत्यादि सुगम, यावत् धारणा इत्यादि, अत्रापि सामान्यत एकार्थानि विशेषार्थचिंतायां पुनः भिन्नार्थानि, तत्र अपायानंतरं अवगतस्य अर्थस्य अविच्युत्याऽन्तर्मुहूर्त कालं यावत् धरणं धारणा, ततस्तं एव अर्थ उपयोगात् च्युतं जघन्यतः अंतमुहूर्त्तात् उत्कर्षतोऽसंख्येयकालात परतो यत्स्मरणं सा धारणा, तथा स्थापनं स्थापना, अपायावधारितस्य अर्थस्य हृदि स्थापनं, वासना | इत्यर्थः, अन्ये तु धारणास्थापनयोः व्यत्यासेन स्वरूपं आचक्षते । तथा प्रतिष्ठा [प] नं प्रतिष्ठा-अपायावधारितस्य एव अर्थस्य हृदि प्रभेदेन प्रतिष्ठापनं इत्यर्थः । कोष्ठ इव कोष्ठोऽविनष्टसूत्रार्थधारणं इत्यर्थः । सा इयं धारणा ॥
सम्प्रति अवग्रहादेः कालप्रमाणप्रतिपादनार्थ आहउग्गहे इक्कसमइए, अन्तोमुहुत्तिआ ईहा, अन्तोमुहुत्तिए अवाए, धारणा संखेनं वा कालं असंखेजं वा कालं । एवं अट्ठावीसइविहस्स आभिणिबोहियनाणस्स वंजणुग्गहस्स परूवणं करिस्सामि । पडिबोहगदिट्टतेण । मल्लग दिट्टतेण य । से किं तं पडिबोहगदिट्टतेण ? पडिबोहगदिढतेण-से जहा नामए केइ पुरिसे कंचि पुरिसं सुतं पडिबोहिज्जा अमुगा अमुगत्ति, तत्थ चोअगे
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॥१३५॥
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नन्दिसूत्रम् ॥१३६॥
पन्नवर्ग एवं वयासी किं एगसमयपविट्ठा पोग्गला गहणमागच्छंति दुसमयपविट्ठा पोग्गला गहण मागच्छंति तिसमयपविट्ठा पोग्गला गहणमागच्छंति जाव दससमयपविट्ठा पोग्गला गहण मागच्छंति संखिजसमयपविट्ठा पोग्गला गहणमागच्छंति असंखिज्जसमयपविट्ठा पोग्गला गहणमागच्छंति ? एवं वदंतं चोअगं पनवए एवं वयासी-नो एगसमयपविट्ठा पोग्गला गहण मागच्छति, नो दुसमयपोग्गला गहणमागच्छंति, नो तिसमयपविट्ठा पोग्गला गहण - मागच्छति, जाव नो दससमयपविट्ठा पोग्गला गहणमागच्छंति, नो संखिजसमयपविट्ठा गहणमागच्छति, असंखिज्जसमयपविट्ठा पोग्गला गहणमागच्छंति । से त्तं पडिबोहगदितेण । उग्गह इत्यादि, अवग्रहः अर्थावग्रह एकसामयिकः, आंतर्मुहूर्तिकी ईहा, आंतर्मुहूर्तिको वायः, धारणा संख्येयं वा कालं असंख्येयं वा कालं तत्र संख्येयवर्षायुषां संख्येयकालं असंख्येयवर्षायुषां असंख्येयकालं, सा च धारणा संख्येयं असंख्येयं वा कालं यावत् वासनारूपा द्रष्टव्या, अविच्युतिस्मृत्योः अजघन्य उत्कर्षेण अंतर्मुहूर्त्त प्रमाणत्वात् एवं उक्तेन प्रकारेण [कथं ] अष्टाविंशतिविधता इति, उच्यते, चतुर्द्धा व्यंजनावग्रहः, षोढार्थावग्रहः, षोढा ईहा, षडिधोऽपायः, षोढा धारणा इति अष्टाविंशतिविधता, एवं अष्टाविंशतिविधस्य आमिनियोधिक ज्ञानस्य संबंधी यो व्यंजनावग्रहः, तस्य स्पष्टतरस्वरूपपरिज्ञापनाय प्ररूपणां करिष्यामि । कथमित्याह-प्रतिबोधकदृष्टांतेन मल्लकदृष्टांतेन च, तत्र प्रतिबोधयति इति प्रतिबोधकः - सुप्तस्य उत्थापकः स एव दृष्टांतः प्रतिबोधकदृष्टांतः तेन, मल्लकं शरावं तदेव दृष्टांतो मल्लकदृष्टांतः तेन, अथ केयं प्रतिबोधकदृष्टांतेन, इयं व्यंजनावग्रहस्य प्ररूपणा इति शेषः । आचार्य आह-प्रतिबोधक
अवचूरिसमलंकृतम्
॥१३६॥
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| अवचूरि
नन्दि सूत्रम् ॥१३७॥
समलंकृतम्
CARCISEMICALCOHOROS
दृष्टांतेन इयं व्यंजनावग्रहप्ररूपणा, स यथानामको यथासंभवनामधेयकः कोऽपि पुरुषः, अत्र सर्वत्रापि एकारो मागधिकभाषालक्षणानुसरणात्, तच प्रागेव अनेकश उक्तं, किंचिदनिर्दिष्टनामानं यथासंभवनामकं पुरुषं प्रतिबोधयेत् । कथमित्याह-'अमुकामुक इति, तत्र एवं उक्ते सति चोदको ज्ञानावरणकर्मोदयतः कथितमपि सूत्रार्थ अनवगच्छन् प्रश्नं चोदयति इति चोदकः, यथावस्थितं | सूत्रार्थ प्रज्ञापयति इति प्रज्ञापको-गुरुः, तं 'एवं वक्ष्यमाणेन प्रकारेण अवादीत् । भूतकालनिर्देशोऽनादिमानागम इति ख्यापनार्थः, वदनप्रकारं एव दर्शयति-किं एकसमयप्रविष्टाः संख्येयसमयप्रविष्टाः पुद्गला ग्रहणमागच्छंति, नवरमयं प्रतिषेधः स्फुटप्रतिभासरूपार्थावग्रहलक्षणविज्ञानग्राह्यतां अधिकृत्य वेदितव्यो, यावता पुनः प्रथमसमयादपि आरभ्य किंचित् किंचिदव्यक्तग्रहणमागच्छंति इति प्रतिपत्तव्यं ?, 'जं च वंजणोग्गहणमिति भणियं विनाणमव्वत्तं इति वचनप्रामाण्यात् । असंखेजेत्यादि, आदित आरभ्य प्रतिसमयप्रवेशेन असंख्येयान् समयान् यावत् ये प्रविष्टास्ते असंख्येयसमयप्रविष्टाः पुद्गला ग्रहणमागच्छंति-अर्थावग्रहरूपविज्ञानग्राह्यतां उपपद्यते । असंख्येयसमयप्रविष्टेषु तेषु चरमसमये अर्थावग्रहविज्ञानं उपजायते इत्यर्थः । अर्थावग्रहविज्ञानात् च प्राक् सर्वोऽपि व्यंजनावग्रहः, एषा प्रतिबोधकदृष्टांतेन व्यंजनावग्रहस्य प्ररूपणा । व्यंजनावग्रहस्य च कालो जघन्यत आवलिकासंख्येयभागः, उत्कर्षतः संख्येया आवलिकाः, ता अपि च संख्येया आवलिका प्राणापानपृथक्त्वकालमाना वेदितव्याः, यत उक्तं-"वंजणावग्गहकालो आवलिया असंखभागतुल्लो उ । थोवोउकोसो पुण आणापाणूपुहुत्तंत्ति । १।" 'सेत्तं' इत्यादि निगमनम् । सा इयं प्रतिबोधकदृष्टांतेन व्यंजनावग्रहस्स प्ररूपणा ।
से किं तं मल्लग दिढतेण । मल्लगदिद्रुतेण से जहानामए केइ पुरिसे आवागसीसाओ मल्लगं गहाय
॥१३७॥
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नन्दिसत्रम्
| अवचूरि
॥१३८॥
समलंकृतम्
तत्थेगं उदगबिंदुं पक्खेविजा से नहे। अन्नेऽवि पक्खित्ते सेऽवि नटे। एवं पक्खिप्पमाणेसु पक्खिप्पमाणेसु होही से उदगबिंदू जे णं तं मल्लगं रावेहिइत्ति, होही से उदगबिंदू जे णं तंसि मल्लगंसि ठाहिति, होही से उदगबिंदू जे णं तं मल्लगं भरिहिति, होही से उदगबिंदू जे णं तं मल्लगं पवाहेहिति एवामेव पक्खिप्पमाणेहिं पक्खिप्पमाणेहिं अणंतेहिं पोग्गलेहिं जाहे त्तं वंजणं पूरिअं होइ ताहे हुंति करेइ। नो चेव णं जाणइ केवि एस सद्दाइ तओ ईहं पविसइ, तओ जाणइ अमुगे एस सद्दाइ। तओ अवायं पविसइ तओ से उवगयं हवइ, तओ णं धारणं पविसइ, तओ णं धारेइ संखिजं वा कालं, असंखिजं वा कालं । से जहा नामए केइ पुरिसे अव्वत्तं सदं सुणिज्जा तेणं सहोत्ति उग्गहिए, नो चेवणं जाणइ के वेस सद्दाइ तओ ईहं पविसइ, तओ जाणइ अमुगे एस सद्दे। तओ णं अवार्य पविसइ, तओ से उवगयं हवइ, तओ धारणं पविसइ, तओणं धारेइ संखिजं वा कालं असंखिज्नं वा कालं । से जहा नामए केई पुरिसे अव्वत्तं रूवं पासेज्जा तेणं रूवत्ति उग्गहिए नो चेव णं जाणइ के वेस रूवत्ति, तओ ईहं पविसइ तओ जाणइ अमुगे एस रूवेत्ति, तओ अवायं पविसइ, तओ से उगवयं हवइ । तओ धारणं पविसइ, तओणं धारेइ संखिजं वा कालं असंखिजं वा कालं । से जहा नामए केई पुरिसे अव्वत्तं गंधं अग्घाइजा तेणं गंधेत्ति उग्गहिए नो चेवणं जाणइ के वेस गंधत्ति । तओ ईहं पविसइ, तओ जाणइ अमुगे एस गंधे, तओ अवायं पविसइ, तओ से उवगयं हवइ ।
14 ॥१३८॥
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नन्दिसत्रम्
अवचूरिसमलंकृतम्
॥१३९॥
KARNERASACREER
तओ धारणं पविसइ, तओ णं धारेइ संखिज्जं वा कालं असंखिजं वा कालं। से जहा नामए केई पुरिसे अव्वत्तं रसं आसाइजा तेणं रसोत्ति उग्गहिए नो चेव णं जाणइ, के वेस रसेत्ति, तओ ईहं पविसइ, तओ जाणइ अमुगे एस रसे, तओ अवायं पविसइ, तओ से उवगयं हवइ, तओ धारणं पविसइ, तओ णं धारेइ संखिजं वा कालं असंखिजं वा कालं । से जहा नामए पुरिसे अव्वत्तं फासं पडिसंवेइज्जा, तेणं फासेत्ति उग्गहिए, नो चेव णं जाणइ, के वेस फासओत्ति, तओ ईहं पविसइ, तओ जाणइ अमुगे एस फासे, तओ अवायं पविसइ, तओ से उवगयं हवइ, तओ धारणं पविसइ, तओ णं धारेइ संखिजं वा कालं असंखिजं वा कालं । से जहा नामए केई पुरिसे अव्वत्तं सुमिणं पासिज्जा, तेणं सुमिणोत्ति उग्गहिए, नो चेव णं जाणइ, के वेस सुमिणोत्ति, तओ ईहं पविसइ, तओ जाणइ अमुगे एस सुमिणे, तओ अवायं पविसइ, तओ से उवगयं हवइ, तओ धारणं पविसइ, तओ धारेइ संखिजं वा कालं असंखिजं वा कालं । सेत्तं मल्लगदिळतेण।
अथ केयं मल्लकदृष्टांतेन व्यंजनावग्रहस्य प्ररूपणा?, सूरिराह-मल्लकदृष्टांतेन व्यंजनावग्रहस्य प्ररूपणा । सो निर्दिष्टस्वरूपो| यथानामकः कश्चित् पुरुषः 'आपाकशिरसः' आपाकः प्रतीतः तस्य शिरसो मल्लकं-शरावं गृहीत्वा, इदं हि किल रूक्षं भवति । ततोऽस्योपादानं, तत्र मल्लके एक उदकबिंदुं प्रक्षिपेत् स नष्टः, तत्र एव तत् भावपरिणतिं आपन्न इत्यर्थः । ततो द्वितीयं प्रक्षिपेत् सोऽपि विनष्टः, एवं प्रक्षिप्यमाणेषु २ भविष्यति स उदकबिंदुः यः तत् मल्लकं 'रावेहिइ' इति देश्योऽयं शब्दः, आर्द्रतां नेष्यति, शेष
३९॥
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नन्दिसूत्रम्
॥१४०॥
सुगमं 'यावत्' एवमेव इत्यादि, एवमेव उदकबिंदुभिः इव निरंतरं प्रक्षिप्यमाणैः २ अनंतैः शब्दरूपतापरिणतैः पुद्गलैः यदा तद् || अवचूरिव्यंजनं पूरितं भवति तदा हुं करोति-हुंकारं मुंचति । तदा तान् पुद्गलान् अनिर्देश्यरूपतया परिच्छिनत्ति इति भावार्थः । अत्र समलंकृतम् व्यंजनशब्देन उपकरणेंद्रियं शब्दादिपरिणतं वा द्रव्यं तयोः संबंधो वा गृह्यते, न कश्चिद्विरोधः । तत्र यदा व्यंजनं उपकरणेंद्रिय अधिक्रियते तदा पूरितं इति कोऽर्थः? परिपूर्णभूतं व्याप्तं इत्यर्थः । यदा व्यंजनं द्रव्यं अभिगृह्यते तदा पूरितं इति-प्रभृतीकृतं खप्रमाणमानीतं खव्यक्तौ समर्थीकृतं इत्यर्थः, यदा तु व्यंजन द्वयोरपि संबंधो गृह्यते तदा पूरितं इति किं उक्तं भवति?-तावत् संबंधोऽभूत् । यावति सति ते शब्दादिपुद्गला ग्रहणं आगच्छंति, अर्थावग्रहरूपेण ज्ञानेन तं अर्थ गृहंति, तं च, नामजात्यादिकल्पनारहितं, तथा च आह-न पुनः एवं जानाति क एष शब्दादिः अर्थ इति, स्वरूपद्रव्यगुणक्रियाविशेषकल्पनारहितं अनिर्देश्य सामान्यमानं गृह्णाति इत्यर्थः, एवं रूपसामान्यमात्रग्रहणकारणत्वात् अर्थावग्रहस्य, एतस्माच पूर्वः सर्वोऽपि व्यंजनावग्रहः, एषा मल्लकदृष्टांतेन व्यंजनावग्रहस्य प्ररूपणा, हुंकारकरणं चार्थावग्रहवलप्रवर्त्तितम् । तत ईहां प्रविशति-किं इदमिदं इति विमर्श कर्तुं आरभते, 'ततः ईहानंतरं क्षयोपशमविशेषभावात् जानाति-अमुक एष शब्दादिः इति, ततः एवंरूपे ज्ञानपरिणामे प्रादुर्भवति सति सोऽपायं प्रविशति । ततोऽपायानंतरं अंतर्मुहूर्त्तकालं यावत् उपगतं भवति-सामीप्येन आत्मनि शब्दादिज्ञानं परिणतं भवति । अविच्युतिः151 अंतर्मुहूर्त्तकालं यावत् प्रवर्तते इत्यर्थः, ततो धारणां प्रविशति, सा च धारणा वासनारूपा द्रष्टव्या, यत आह-ततो धारणायां प्रवेशात् ॥१४०॥ 'ण' इति वाक्यालंकारे संख्येयं वा असंख्येयं वा कालं हृदि धारयति, तत्र संख्येयवर्षायुष्कः संख्येयं कालं, असंख्येयवर्षायुष्कस्तु असंख्येयकालं । अत्राह-सुप्तमंगीकृत्य पूर्वोक्तप्रकारः सर्वोऽपि घटते, जाग्रतस्तु शब्दश्रवणसमनंतरं एव अवग्रहः-इहाव्यतिरेकेण
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अवनिसमलंकृतम्
नन्दिसूत्रम् || अवायज्ञानं उपजायते, तथाप्रतिप्राणिसंवेदनात् । तत् निषेधार्थ आह-स यथानामकः कश्चित् जाग्रत् अपि पुरुषोऽव्यक्तं शब्द
शृणुयात् , अव्यक्तमेव प्रथमं शब्दं शृणोति, अव्यक्तं नाम अनिर्देश्यस्वरूपं नामजात्यादिकल्पनारहितं, अनेन अवग्रहं आह-अर्थाव॥१४॥
ग्रहश्च श्रोत्रंद्रियस्य संबंधी व्यंजनावग्रहमंतरेण न भवति ततो व्यंजनावग्रहोऽपि उक्तो वेदितव्यः । अत्राह-ननु एवं क्रमोन कोऽपि | उपलभ्यते, किंतु प्रथमत एव शब्दापायज्ञानं उपजायते, सूत्रेऽपि च अव्यक्तं इति शब्दविशेषणं कृतं, ततः अयं अर्थो व्याख्येयः
अव्यक्तं-अनवधारितशांखशाङ्गादिविशेषं शब्दं शृणुयादिति, इदं च व्याख्यानं उत्तरसूत्रं अपि संवादयति,-तेन-प्रमात्रा शब्द इति 5 अवगृहीतं, न पुनरेवं जानाति-क एषः शब्दः शांखः शाङ्ग इति वा?, सदाइ इति, अत्र आदिशब्दात् रसादिषु अपि अयमेव न्याय इति ज्ञापयति, तत ईहां प्रविशति इत्यादि सर्व संबद्धमेव, तदेतदयुक्तं, सम्यग् वस्तुतत्वापरिज्ञानात्, इह हि यत् किमपि वस्तु निश्चीयते तत्सर्व ईहापूर्वकमनीहितस्य सम्यग्निश्चितत्वायोगात्, न खलु प्रथमाक्षिसन्निपाते सति धूमदर्शनेऽपि यावत् किं अयं धूमः ? किं वा मशकवर्तिः इति विमृश्य धूमगतकंठक्षणनकालीकरणसोष्मतादिधर्मदर्शनात् सम्यक् धूमं धूमत्वेन विनिश्चिनोति तावत् स धूमो निश्चितो भवति । अनिवर्तितशंकतया तस्स सम्यनिश्चितत्वायोगात्तस्मात् अवश्यं यो वस्तुविशेषनिश्चयः स ईहापूर्वकः, शब्दोऽयं इति च निश्चयो रूपादिव्यवच्छेदात् , ततोऽवश्यं इतः पूर्व ईहया भवितव्यम् । ईहा च प्रथमतः सामान्यरूपेण अवगृहीते भवति, न अनवगृहीते, न खलु सर्वथा निरालंबनं ईहनं क्वापि भवत् उपलभ्यते, न चानुपलभ्यमानं प्रतिपत्तुं शक्नुमः।
सर्वस्यापि प्रेक्षावतां प्रतिपत्तेः प्रमाणमूलत्वात्, अन्यथा प्रेक्षावत्ताक्षतिप्रसक्तः, तस्मात् ईहायाः प्रागवग्रहोऽपि नियमात् प्रतिपत्तव्यः। न.सू.१२ अवग्रहश्च शब्दोऽयं इति ज्ञानात् पूर्व प्रवर्त्तमानोऽनिर्देश्यसामान्यमात्रग्रहणरूप एव उपपद्यते, न अन्यः, अत एव उक्तं सूत्रकृता-'अव्यक्तं
॥१४॥
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नन्दिसूत्रम्
अवचूरिसमलंकृतम्
॥१४२॥
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शब्दं शृणुयादिति, किं उक्तं भवति?-शब्दव्यक्त्यापि व्यक्तं न शृणोति, किंतु सामान्यमानं अनिर्देश्यं गृह्णाति इत्यर्थः । इह यदि वस्तु सुबोधं भवति विशिष्टश्च मतिज्ञानावरणक्षयोपशमो वर्तते । ततोऽतमुहूर्त्तकालेन नियमात् तद्वस्तु विनिश्चिनोति, यदि पुनः वस्तु दुर्बोधं न च तथाविधो विशिष्टो मतिज्ञानावरणक्षयोपशमः तत ईहोपयोगात् अच्युतः पुनः अंतर्मुहूर्त कालं ईहते । एवं ईहोपयोगाविच्छेदेन प्रभूतानि अंतर्मुहूर्तानि यावत् ईहते । तत ईहानंतरं जानाति-अमुक एषोऽर्थः इति । इदं च ज्ञानं अवायरूपं, ततोऽस्मिन् ज्ञाने प्रादुर्भवति 'ण' इति वाक्यालंकारेऽपायं प्रविशति । ततः 'से' तस्य उपगतं-अविच्युत्या सामीप्येन आत्मनि परिणतं भवति, ततो धारणं-वासनारूपां प्रविशति । संख्येयं असंख्येयं वा कालं । 'एवं' अनेन क्रमप्रकारेण एतेन पूर्वदर्शितेन अमिलापेन शेषेषु अपि चक्षुः आदिषु इंद्रियेषु अवग्रहादयो वाच्याः। नवरं अभिलापविषये 'अव्वत्तं सदं सुणिज्जा' इति अस्य स्थाने 'अव्वत्तं रूपं पासेजा' इति वक्तव्यम् । उपलक्षणं एतत्तेन सर्वत्रापि शब्दस्थाने रूपं इति वक्तव्यं, तद्यथा-'तेणं रूवेत्ति उग्गहिए' इत्यादि तदवस्थं एव, नवरं इह व्यंजनावग्रहो न व्याख्येयः, अप्राप्यकारित्वात् चक्षुषो, घ्राणेंद्रियादिषु तु व्याख्येयः, एवं घ्राणेंद्रियविषये-'अव्वत्तं गंधं अग्याइजा' इत्यादि वक्तव्यं, जिहेंद्रियविषये, अवत्तं रसं आसाएजा' इत्यादि, स्पर्शनेंद्रियविषये 'अवत्तं फासं पडिसंवेइजा' इत्यादि, यथा च शब्द इति निश्चिते तत् उत्तरकालं उत्तरधर्मजिज्ञासायां किं शांखः१ किंवा शाङ्गः इत्येवंरूपा ईहा प्रवर्तते तथा रूपं इति | निश्चिते तदुत्तरकालं उत्तरधर्मजिज्ञासायां किं अयं स्थाणुः किं वा पुरुषः? इत्यादिरूपा प्रवर्तते, एवं घ्राणेंद्रियादिषु अपि समान| गंधादीनि वस्तूनि ईहाऽऽलंबनानि वेदितव्यानि । स यथानामकः कोऽपि पुरुषोऽव्यक्तं स्वमं प्रतिसंवेदयेत् । अव्यक्तं नाम सकलविशेष-15 | विकलं अनिर्देश्यं इति प्रज्ञापकः सूत्रकारो वदति, सतु प्रतिपत्ता स्वमादिव्यक्तिविकलं किंचित् अनिर्देश्य एव तदानीं गृह्णाति, तथा तेन
॥१४२॥
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अवचूरि
नन्दिसूत्रम् ॥१४३॥
समलंकृतम्
प्रतिपत्ता 'सुविणोति उग्गहिए' इति खममिति अवगृहीतम् , अत्रापि स्वम इति प्रज्ञापको वदति । स तु प्रतिपत्ता अशेषविशेषवियुक्त एव अवगृहीतवान् , तथा च आह-न पुनः एव जानाति-[क] एष स्वम इति ? स्वम इति अपि तं अर्थ न जानाति इति भावः, ततः ईहां प्रवि- शति इत्यादि प्राग्वत् । एवं स्वप्नं अधिकृत्य नोइंद्रियस्य अर्थावग्रहादयः प्रतिपादिताः । अनेन च उल्लेखेनान्यत्रापि विषये वेदितव्याः, तदेवं मल्लकदृष्टांतेन व्यंजनावग्रहप्ररूपणां कुर्वता प्रसंगतो अष्टाविंशतिसंख्या अपि-मतिज्ञानस्य भेदाः सप्रपंचं उक्ताः । संप्रति मल्लकदृष्टांत उपसंहरति । 'सा इयं' मल्लकदृष्टांतेन व्यंजनावग्रहस्य प्ररूपणा । एते च अवग्रहादयो अष्टाविंशतिभेदाः प्रत्येकं बबादिभिः सेतरैः सर्व संख्यया दशसंख्यैर्भेदैः भिद्यमाना यदा विवक्ष्यते तदा षट्त्रिंशत् अधिकं भेदानां शतत्रयं भवति ।
संप्रति पुनः द्रव्यादिभेदतः चतुःप्रकारतां आहतं समासओ चउविहं पन्नतं तं जहा-दव्वओ, खित्तओ, कालओ, भावओ । तत्थ दवओ णं आभिणिबोहियनाणी आएसेणं सव्वाइं दव्वाई जाणइन पासइ । खेत्तओ णं आभिणिवोहिय नाणी आएसेणं सर्व खेत्तं जाणइ न पासइ । कालओ णं आभिणिबोहियनाणी आएसेणं सव्वं कालं जाणइ न पासइ । भावओ णं आभिणिबोहियनाणी आएसेणं सव्वे भावे जाणइ न पासइ । उग्गहईहाऽवाओ य धारणा एव हुँति चत्तारि ॥ आभिणिबोहियनाणस्स भेयवत्थू समासेणं ॥१॥ अत्थाणं उग्गहणंमि उग्गहे, तह विआलणे ईहा ॥ ववसायंमि अवाओ, धरणं पुण धारणं विति॥२॥ उग्गह इक्कं समयं, ईहावाया मुहुत्तमद्धं तु॥ कालमसंखं संखं च, धारणा होइ नायव्वा ॥३॥
RECASSAMACASSENGACES
॥१४३॥
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बन्दिश्त्रम् ॥१४४॥
SECCCCCCCCCC
पुढे सुणेइ सई, रूवं पुण पासइ अपुढं तु ॥ गंधं रसं च फासं च, बद्धपुढे वियागरे ॥४॥
| अक्यूस्ि भासासमसेढीओ, सदं जं सुणइ मीसियं सुणइ ॥ वीसेढी पुण सई, सुणइ नियमा पराघाए ॥५॥ द समलंकृतम् ईहा अपोह वीमंसा, मग्गणा य गवेसणा ॥ सन्ना सई मई पन्ना, सव्वं आभिणिबोहिअं॥६॥
सेत्तं आभिणिबोहियनाणपरोक्खं । (सेत्तं मइनाणं) 'तन्मतिज्ञानं 'समासतः' चतुर्विधं, प्रज्ञप्तं, तद्यथा द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च, तत्र द्रव्यतो'ण' इति वाक्यालंकारे, आभिनिवोधिकज्ञानी 'आदेसेणं'ति आदेशः-प्रकारः, स च द्विधा-सामान्यरूपो विशेषरूपश्च तत्र इह सामान्यरूपो ग्राह्यः, तत आदेशेन-द्रव्यजातिरूपसामान्योदेशेन सर्वद्रव्याणि-धर्मास्तिकायदीनि जानाति किंचित् विशेषतोऽपि, यथा धास्तिकायो | धर्मास्तिकायस्य प्रदेशाः तथा धर्मास्तिकायो गतिउपष्टंभहेतुः अमूर्तो लोकाकाशप्रमाण इत्यादि, न पश्यति सर्वात्मना धर्मास्तिकायादीन् न पश्यति, । घटादींस्तु योग्यदेशावस्थितान् पश्यति अपि, अथवा आदेश इति-सूत्रादेशः । तस्मात् सूत्रादेशात् सर्वद्रव्याणि धर्मास्तिकायादीनि जानाति, न तु साक्षात्सर्वाणि पश्यति । ननु यत्सूत्रादेशतो ज्ञानं उपजायते तत् श्रुतज्ञानं भवति, शब्दार्थपरिज्ञानरूपत्वात् अथ च मतिज्ञानं अभिधीयमानं वर्तते तत्कथं आदेश इति सूत्रादेशो व्याख्यातः तदयुक्तं, सम्यक् वस्तुतत्त्वापरिज्ञानात् । इह हि श्रुतभावितमतेः श्रुतोपलब्धेषु सूत्रानुसारमात्रेण येऽवग्रहेहापायादयो बुद्धिविशेषाः प्रादुःषति ते मतिज्ञानं एव, न श्रुतज्ञानं,
॥१५॥ सूत्रानुसारनिरपेक्षत्वात, एवं क्षेत्रादिषु वाच्यं, नवरं तान् सर्वथा न पश्यति, तत्र क्षेत्रं लोकालोकात्मकम् । कालः सर्वाद्धारूपोतीतानागतवर्चमानरूपोवा, भावाश्च पंच संख्या औदयिकादयः, संप्रति संग्रहगाथां प्रतिपादयति-'उग्गहो' इत्यादि, अवग्रहः-प्राग्निरूपित
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नन्दिसूत्रम् ॥१४५॥
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शब्दार्थः । तथा ईहा अपायच, चशब्दः पृथगवग्रहादिस्वरूपस्वातंत्र्यप्रदर्शनार्थः, अवग्रहादयः परस्परं पर्याया न भवति इति भावार्थः, अथवा चशब्दः समुच्चये, तस्य च व्यवहितः प्रयोगो धारणा च इत्येषं द्रष्टव्यम् । एवकारः क्रमप्रदर्शनार्थः एवमनेन क्रमेण 'समासेन' संक्षेपेण चत्वारि आभिनिबोधिकज्ञानस्य भिद्यंते इति मेदा विकल्पा अंशा इत्यर्थः । त एव वस्तूनि भवति, तथाहि-न अनवगृहीतं ईझते न अनीहितं निश्चीयते न अनिश्चितं धार्यते इति ॥ १ ॥ इदानीं एतेषां एव अवग्रहादीनां स्वरूपं प्रतिपिपादयिषुराह - अर्थानां - रूपादीनां अवग्रहणं चशब्दो अवग्रहणस्य अव्यक्तत्वसामान्यमात्र सामान्यविशेषविषयत्वापेक्षया स्वगतभेदबाहुल्यसूचकः, अवग्रहं ब्रुवते इति योगः, 'तथा' इति आनंतर्यविचारणं-पर्यालोचनं अर्थानां इति वर्त्तते, ईहां ब्रुवते, तथा विविधोऽवसायो [ व्यवसायो ]-निर्णयः तं च अर्थानामिति वर्त्तते । अपायं ब्रुवते इति संसर्गः, धरणं पुनः अर्थानां अविच्युतिस्मृतिवासनारूपां धारणां ब्रुवते तीर्थकरगणधराः ॥ २ ॥ इदानीं अभिहितस्वरूपाणां अवग्रहादीनां कालप्रमाणं अभिधित्सुराह - अवग्रहोऽर्थावग्रहो नैथयिक एकं समयं यावत् भवति, समयः परम निकृष्टः कालविभागः, स च प्रवचनप्रतिपादितात् उत्पलपत्रशतव्यतिभेदोदाहरणात् जरत्पट्टशाटिकापाटनदृष्टान्तात् च अवसेयः, व्यंजनावग्रहविशेषसामान्यार्थावग्रहौ तु पृथगू २ अंतर्मुहूर्तप्रमाणौ ज्ञातव्यौ, ईहा च अपायश्च ईहापायौ, मुहूर्तो घटिकाद्वय प्रमाणः, कालविशेषः तस्यार्द्धं मुहूर्तार्द्धं, तुशब्दो विशेषणार्थः, स च एतद्विशिनष्टि-व्यवहारापेक्षया एतद्मुहूर्तार्द्ध इति उच्यते, परमार्थतः पुनः अंतमुहूर्त्तमवसेयं, अन्ये पुनः एवं पठंति- " मुहुत्तमं तं तु” अत्र मकारोऽलाक्षणिकः, तत एवं द्रष्टव्यं - मुहूर्तातः - मुहूर्तस्य अंतर्मध्यं मुहूर्तातः, अंतर्मुहूर्तमित्यर्थः । इह 'पारे मध्येऽग्रेऽतः पष्ट्या वा' इति विकल्पेन अंतःशब्दस्य प्राग् निपातो भवति, ततः सूत्रे अंतःशब्दस्य प्राग्निपातो न विहितः । तथा धारणा कालं असंख्येयं - पल्योपमादिलक्षणं, संख्येयं च - वर्षादिरूपं यावत् भवति ज्ञातव्या, धारणा च
अवचूरिसमलंकृतम्
॥१४५॥
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नन्दिसूत्रम्
अवचूरिसमलंकृतम्
॥१४६॥
XX SEASESTUSSEAU
इह वासनारूपा द्रष्टव्या, अविच्युतिस्मृती तु प्रत्येकं अंतमुहर्तप्रमाणे वेदितव्ये । ३। तत एवं अवग्रहादीनां स्वरूपं अभिधाय श्रोत्रंद्रियादीनां प्राप्ताप्राप्तविषयतां प्रतिपिपादयिषुराह-इह श्रोत्रंद्रियेण शब्दं शृणोति स्पृष्टं-स्पृष्टमात्रं, स्पृष्टं नाम आलिंगितं यथा तनौ रेणुसंघातः, अथ कथं स्पृष्टमात्रं एव शब्दं शृणोति ?, उच्यते । इह शेषंद्रियगणापेक्षया श्रोत्रंद्रियं अतिशयेन पटु, तथा गंधादिद्रव्यापेक्षया शब्दद्रव्याणि सूक्ष्मानि प्रभूतानि भावुकानि च, अत एव सर्वतः तदिद्रियं व्याप्नुवंति । ततस्तानि स्पृष्टमात्राणि अपि श्रोत्रंद्रियेण ग्रहीतुं शक्यते, रूपं पुनः पश्यति । अस्पष्टं तु अस्पृष्टं एव, तुः एवकारार्थः, अप्राप्यकारित्वात् चक्षुषः, तथा गंधं रसं च स्पर्श च, चशब्दौ समुच्चयार्थों, बद्धस्पृष्टं घ्राणादिभिः इंद्रियैः विनिश्चिनोति इति व्यागृणीयात् । इह बद्धस्पृष्टं इति स्पृष्टबद्धं इति विज्ञेयं, प्राकृतशैल्या च अन्यथा सूत्रे उपन्यासः, तत्र स्पृष्टं इति आलिंगितं बढ़-तोयवत् आत्मप्रदेशैः आत्मीकृतं आलिंगितानंतरं आत्मप्रदेशैः आगृहीतं इत्यर्थः । इह शब्दं उत्कर्षतो द्वादशयोजनेभ्यः आगतं शृणोति, न परतः, शेषाणि तु गंधादिद्रव्याणि प्रत्येकं नवभ्यो २ योजनेभ्यः आगतानि घाणादिभिः इंद्रियैः गृह्णाति जीवो न परतः, परतः समागतानां द्रव्याणां मंदपरिणामतया इंद्रियग्राह्यत्वासंभवात् । जघन्यतस्तु शब्दादिद्रव्याणि अंगुलासंख्येयभागात् आगतानि, चक्षुषस्तु जघन्यतो योग्यो विषयोऽगुलासंख्येयभागवर्ती | वेदितव्यः, उत्कर्षतस्तु आत्मांगुलेन सातिरेको योजनलक्षः, एतदपि चाभासुरद्रव्यं अधिकृत्य उच्यते । भासुरं द्रव्यं एकविंशतियोजन-| लक्षेभ्योऽपि परतः पश्यति । यथा पुष्करवरद्वीपार्द्ध मानुषोत्तरनगप्रत्यासन्नवर्तिनः कर्कसंक्राती सूर्यबिंब, तथा च उक्तं-"लक्खेहि एक्कवीसाए साइरेगेहि पुक्खरद्धम्मि । उदये पेछंति नरा सूरं उक्कोसए दिवसे ॥१॥" अत्राह-ननु स्पृष्टं शृणोति शब्द इत्युक्तं, तत्र शब्दप्रयोगोत्सृष्टानि एव केवलानि शब्दद्रव्याणि, शृणोति उत अन्यानि एव तत् भावितानि आहोश्चित् मिश्राणि इति, ? उच्यते, न |
॥१४६॥
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नन्दिसूत्रम्
॥१४७॥
SOCISROGRLSAXECRECRECX
तावत् केवलानि, यतो वासकानि शब्दद्रव्याणि शब्दयोग्यानि च द्रव्याणि सकललोकव्यापीनि ततोऽवश्यं तत् वासितानि शृणोति अवत्रिमिश्राणि वा, न केवलानि एव उत्सृष्टानि ।४1, तथा च आह-भाषत इति भाषा-वाक्शब्दरूपतया उत्सृज्यमाना द्रव्यसंततिः सा च समलंकृतम् वर्णात्मिका मेरीभांकारादिरूपा वा द्रष्टव्या तस्याः समश्रेणयः, श्रेणयो नाम क्षेत्रप्रदेशपंक्तयोऽभिधीयते । ताश्च सर्वस्य एव भाषमाणस्य षट्सु दिक्षु विद्युते यामुत्सृष्टा सती भाषा प्रथमसमय एव लोकांतं अनुधावति, भाषासमश्रेणयः, समश्रेणिग्रहणं विश्रेणिव्यवच्छेदार्थ, भाषासमश्रेणीः इतो-गतः प्राप्तो भाषासमश्रेणीतः, भाषासमश्रेणिव्यवस्थित इत्यर्थः, यं शब्दं पुरुषादिसंबंधिनं भेर्यादिसंबंधिनं वा शृणोति । यत्तदोर्नित्याभिसंबंधात् तं मिश्रं शृणोति, उत्-सृष्टशब्दद्रव्यभावितापांतरालस्थशब्दद्रव्यमिश्रं शृणोति इति भावार्थः 'विसेढी' त्यादि, अत्र इत इति वर्तते, ततोऽयमर्थः-विश्रेणिं पुनः इत:-प्राप्तो, विश्रेणिव्यवस्थितः पुनरित्यर्थः, अथवा विश्रेणिस्थितो विश्रेणिः इति उच्यते, शब्दं शृणोति नियमात् पराघाते सति, न अन्यथा, किमुक्तं भवति ?-उत्सृष्टशब्दद्रव्याभिघातेन यानि वासितानि शब्दद्रव्याणि तानि एव केवलानि शृणोति । न कदाचित् अपि उत्सृष्टानि, कुत इति चेदुच्यते, तेषां अनुश्रेणिगमनात् प्रतिघाताभावाच्च ।५), संप्रति विनेयजनसुखप्रतिपत्तये मतिज्ञानस्य पर्यायशब्दान् अभिधित्सुराह-एते ईहादयः शब्दाः सर्वेऽपि परमार्थतो मतिवाचकाः पर्यायशब्दाः, परं विनेयजनबुद्धिप्रकाशनाय किश्चिद्भेदः अमीषां प्रदर्श्यते-ईहनं ईहा-सदर्थपर्यालोचनं अपोहनं अपोहो निश्चय इत्यर्थः। विमर्शनं विमर्शः-अपायादर्वाक् ईहायाः परिणामविशेषः, मार्गणा-अन्वयधर्मान्वेषणं, चः समुच्चये । गवेषणं 8 ॥१४७॥ गवेषणा-व्यतिरेकधर्मालोचनं, तथा संज्ञानं संज्ञा व्यंजनावग्रहोत्तरकालभावी मतिविशेष इत्यर्थः, तथा स्मरण स्मृतिः-पूर्वानुभूतार्थालंबनः प्रत्ययविशेषः, मननं मतिः-कथंचित् अर्थपरिच्छित्तौ अपि प्रेक्ष्मधर्मालोचनरूपा बुद्धिः, प्रज्ञापनं प्रज्ञा-विशिष्टक्षयोपशमजन्या
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नन्दिसूत्रम्
॥१४८॥
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प्रभूतवस्तुगतयथावस्थितधर्म्मालोचनरूपा संवित् । सर्व इदं आभिनिबोधिकं मतिज्ञानमित्यर्थः । ६ । तदेतद् आभिनिवोधिकं ज्ञानं ॥ संप्रति प्रागुपन्यस्तसकल चरणकरणक्रियाधारथुतज्ञानस्वरूपजिज्ञासया शिष्यः प्रश्नयति
अथ किं तत् श्रुतज्ञानं १, आचार्य आह
से किं तं सुयनाण परोक्खं ? सुयनाणपरोक्खं चोद्दसविहं पन्नतं तं जहा - अक्खरसुर्य, अणक्खरसुर्य, सन्नियं, असन्निसुयं सम्मसुयं, मिच्छसुर्य, साइसुयं, अणाइसुंयं सपज्जवसिअसुंयं, अपज्जवसिअसुंयं गमियसुयं, अगमियसुंयं, अंगपविद्वंसुर्य, अणंगपविद्वंसयं ।
श्रुतज्ञानं चतुर्दशविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा - अक्षरथुतं १, अनक्षरश्रुतं २, संज्ञिश्रुतं ३, असंज्ञिश्रुतं ४, सम्यक् श्रुतं ५, मिध्याश्रुतं ६सादि ७, अनादि ८, सपर्यवसितं ९, अपर्यवसितं १०, गमिकं ११, अगमिकं १२, अंगप्रविष्टं १३, अनंगप्रविष्टं च १४ । ननु अक्षरश्रुतानक्षरश्रुतरूप एव भेदद्वये शेषभेदा अन्तर्भवति तत्किमर्थं तेषां भेदानां उपन्यासः १, उच्यते । इह अन्युत्पन्न मतीनां विशेषावगमसंपादनाय महात्मनां शास्त्रारंभप्रयासो न च अक्षरश्रुतानक्षरश्रुतरूपभेदद्वयोपन्यासमात्रात् अन्युत्पन्नमतयः शेषमेदान - वगंतुमीशते, ततो अव्युत्पन्नमतिविनेयजनानुग्रहाय शेषभेदोपन्यास इति । साम्प्रतं उपन्यस्तानां भेदानां स्वरूपं अनवगच्छन् आद्यं भेदं अधिकृत्य शिष्यः प्रश्नं करोति
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से किं तं अक्खरसुयं ? अक्खरसुयं तिविहं पन्नतं तं जहा सन्नखरं- वंजणक्खरं लद्धिअक्खरं । से किं तं सन्नक्खरं ? सन्नक्खरं अक्खरस्स सद्धाणगेइ सेत्तं सन्नक्खरं । से किं तं वंजणक्खरं ?
अवचूरिसमलंकृतम्
॥१४८॥
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नन्दिसूत्रम् ॥१४९॥
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[ वंजणक्खरं] अक्खरस्स वंजणाभिलावो, सेत्तं वंजणक्खरं । से किं तं लद्धिअक्खरं ? लद्धिअक्खरं अक्खरलद्धियस्स लद्धिअक्खरं समुप्पज्जइ, तैजहा- सोइंदियलद्धिअक्खरं चक्खिदियलद्धिअक्खरं, घाणिदियलद्धिअक्खरं, जिन्भिदियलद्धिअक्खरं, फासिंदियलद्धिअक्खरं, नोइंदियलद्धिअक्खरं । सेत्तं अक्खरसुयं । से किं तं अणक्खरसुर्य, अणक्खरसुयं अणेगविहं पन्नतं तं जहाससियं नीससियं निच्छूढं खासियं च छीअं च । निस्सिंधिअमणुसारं अणक्खरं छेलिआइअं ॥ १ ॥ सेत्तं अणक्खरसुयं ।
अथ किं तत् अक्षरश्रुतं ?, सूरिराह - अक्षरश्रुतं त्रिविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-संज्ञाक्षरं व्यञ्जनाक्षरं लब्ध्यक्षरं च । तत्र 'क्षर संचलने' न क्षरति-न चलति इति अक्षरं ज्ञानं, तत् हि जीवस्वाभाव्यात् अनुपयोगेऽपि तत्त्वतो न प्रच्यवते । यद्यपि च सर्व ज्ञानं एवं अविशेषेणाक्षरं प्राप्नोति तथापि इह श्रुतज्ञानस्य प्रस्तावादक्षरं श्रुतज्ञानमेव द्रष्टव्यं न शेषं, इत्थंभूतभावाक्षरकारणं च अकारादिवर्णजातमतः तदपि उपचारात् अक्षरं उच्यते । ततश्च अक्षरं च तत् श्रुतं च श्रुतज्ञानं च अक्षरश्रुतं, भावश्रुतं इत्यर्थः । तच्च लब्ध्यक्षरं वेदितव्यं तथा अक्षरात्मकं अकारादिवर्णात्मकं श्रुतं अक्षरश्रुतं द्रव्यश्रुतमित्यर्थः तच्च संज्ञाक्षरं व्यंजनाक्षरं च द्रष्टव्यं, अथ किं तत् संज्ञाक्षरं ?, अक्षरस्य अकारादेः संस्थानाकारः, तथा हि-संज्ञायते अनया इति संज्ञा-नाम तत् निबंधनं तत् कारणं अक्षरं संज्ञाक्षरं | संज्ञायाश्च निबंधनं आकृतिविशेषः, आकृतिविशेषे एव नाम्नः करणात् व्यवहणात् च, ततोऽक्षरस्य पट्टिकादौ संस्थापितस्य संस्थानाकृतिः
अवचूरिसमलंकृतम्
॥१४९॥
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नन्दिसत्रम् ॥१५०॥
अवचूरिसमलंकृतम्
संज्ञाक्षरं उच्यते । तच्च ब्राझ्यादिलिपिमेदतो अनेकप्रकार, तत्र नागरी लिपि अधिकृत्य किंचित् प्रदर्श्यते-मध्ये स्फाटितचुल्लीसन्निवेशसदृशो रेखासंनिवेशविशेषो णकारो वक्रीभूतश्वपुच्छसन्निवेशसदृशो ढकार इत्यादि, तदेतत् संज्ञाक्षरं, अथ किं तत् व्यंजनाक्षरं? आचार्य आह-व्यंजनाक्षर अक्षरस्य व्यंजनाभिलापः, तथा हि-व्यज्यतेऽनेन अर्थः प्रदीपेन इव घट इति व्यंजनंभाष्यमाणं अकारादिकं वर्णजातं, तस्य विवक्षितार्थाभिव्यंजकत्वात् , व्यंजनं च तदक्षरं च व्यंजनाक्षरं, अथ किं तत् लब्ध्यअक्षरं ?, लब्धि उपयोगः स च इह प्रस्तावात् शब्दार्थपर्यालोचनानुसारी गृह्यते । लब्धिरूपं अक्षरं लब्ध्यक्षरं, भावश्रुतमित्यर्थः, अक्षरेअक्षरस्य उच्चारणेऽवगमे वा लब्धिर्यस्य सोऽक्षरलब्धिकः तस्य, अकारादिअक्षरानुविद्धश्रुतलब्धिसमन्वितस्य इत्यर्थः । लब्ध्यक्षरं | भावश्रुतं समुत्पद्यते, शब्दादिग्रहणसमनंतरं इंद्रियमनोनिमित्तं शब्दार्थपर्यालोचनानुसारिशांखोऽयं इत्यादि अक्षरानुविद्धं ज्ञानं उपजायते इत्यर्थः । ननु इदं लब्ध्यक्षरं संज्ञिनां एव पुरुषादीनां उपपद्यते न असंज्ञिनां एकेंद्रियादीनां, तेषां अकारादिवर्णानां अवगमे उच्चारणे वा लब्ध्यसंभवात् न हि तेषां परोपदेशश्रवणं संभवति । येन अकारादिवर्णानां अवगमादि भवेन् अथ च एकेंद्रियादीनां अपि लब्ध्यक्षरं इष्यते, तथा हि-पार्थिवादीनां अपि भावश्रुतं उपवर्ण्यते-'दव्वसुयाभामिवि भावसुयं पत्थिवाईणं' इति वचनप्रामाण्यात् । भावश्रुतं च शब्दार्थपर्यालोचनानुसारिविज्ञानं, शब्दार्थपर्यालोचनं च अक्षरमंतरेण न भवति इति, सत्यमेतत् , किंतु यद्यपि तेषां एकेंद्रियादीनां परोपदेशश्रवणासंभवः तथापि तेषां तथाविधक्षयोपशमभावतः कश्चित् अव्यक्तोऽक्षरलाभो भवति । यदशादक्षरानुषक्तं श्रुतज्ञानमुपजायते, इत्थं च एतदंगीकर्तव्यं, तथा हि-तेषां अपि आहारादि अभिलाष उपजायते । अभिलाषश्च | प्रार्थना, सा च यदि इदं अहं प्रामोमि ततो भव्यं भवति इत्यादि अक्षरानुविद्वैव, ततः तेषां अपि काचित् अव्यक्ताक्षरलब्धिः अवश्य
॥१५
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बन्दिसूत्रम् ॥ १५१ ॥
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प्रतिपत्तव्या, ततस्तेषां अपि लब्ध्यक्षरं संभवति इति न कश्चित् दोषः । तच्च लब्ध्यक्षरं पोढा, तद्यथा - 'श्रोत्रेंद्रियलब्धि अक्षर' मित्यादि । इह यत् श्रोत्रंद्रियेण शब्दश्रवणे सति शांखोऽयमित्यादि अक्षरानुविद्धं शब्दार्थपर्यालोचनानुसारि विज्ञानं तत् श्रोत्रेंद्रियलब्ध्यक्षरं तस्य श्रोत्रेंद्रियनिमित्तत्वात्, यत्पुनचक्षुषा आम्रफलादि उपलभ्य आम्रफलं इत्यादि अक्षरानुविद्धं शब्दार्थ - पर्यालोचनात्मकं विज्ञानं तत् चक्षुरिंद्रियलब्ध्यक्षरं एवं शेषेंद्रियलब्ध्य अक्षरमपि भावनीयं तदेतत् लब्ध्यक्षरं । तदेतदक्षरश्रुतं । अथ किं तदनक्षरश्रुतं ? अनक्षरात्मकं श्रुतं अनक्षरश्रुतं, आचार्य आह - अनक्षरश्रुतं अनेकविधं - अनेकप्रकारं प्रज्ञप्तं, तद्यथा - उच्छ्रसनं उच्छ्वसितं भावे निष्ठाप्रत्ययः, तथा निःश्वसितं निष्ठीवनं निष्ठयूतं काशनं काशितं चशब्दः समुच्चयार्थः, क्षवणं क्षुतं, एषोऽपि चशब्दः समुच्चयार्थः । परमस्य व्यवहितः प्रयोगः, सेंटितादिकं च इत्येवं द्रष्टव्यः, तथा 'निस्सिघनं निस्सिघितं, अनुखारवत् अनुखारं, सानुखारमित्यर्थः, तथा सेंटितादिकं च अनक्षरश्रुतं, इह उच्च्वसितादि द्रव्यश्रुतं द्रष्टव्यं ध्वनिमात्रत्वात् भावश्रुतकारणकार्यत्वाच्च । तथा हि-यदाभिसंधिपूर्वकं स विशेषतरं उच्छसितादिकस्यापि पुंसः कस्यचिदर्थस्य ज्ञप्तये प्रयुक्ते तदा तत् तत् स्वसितादि प्रयोक्तर्भावश्रुतस्य फलं श्रोतु भावश्रुतस्य कारणं भवति । ततो द्रव्यश्रुतं इति उच्यते । अथ नवीथाः एवं तर्हि करादिचेष्टाया अपि द्रव्यश्रुतत्वप्रसंगः, सापि हि बुद्धिपूर्विका क्रियमाणा तत् कर्तुः भावश्रुतस्य फलं द्रटुश्च भावश्रुतस्य कारणं इति, नैष दोषः । श्रुतमिति अन्वर्थाश्रयणात्, तथा हि-यत् श्रूयते तत् श्रुतं इति उच्यते, न च कारादिचेष्टा श्रूयते ततो न तत्र द्रव्यश्रुतत्वप्रसंगः, उच्छ्वसितादिकं तु श्रूयतेऽनक्षरात्मकं च ततस्तदनक्षरश्रुतमिति उक्तं, तदेतदनक्षरश्रुतं ।
से किं तं सन्निसुर्य ? सन्निसुयं तिविहं पन्नत्तं तं जहा - कालिओवए सेणं हेउवएसेणं दिट्टिवाओवए सेणं ।
अवचूरिसमलंकृतम्
॥१५१ ।।
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नन्दिसूत्रम्
अवचूरि
६ समलंकृतम्
॥१५२॥
से किं तं कालिओवएसेणं ? कालिओवएसेणं जस्स णं अत्थि ईहा अवोहो मग्गणा गवेसणा चिंता विमंसा सेणं सन्नीति लब्भइ, जस्स णं नत्थि ईहा अवोहो मग्गणा वेसणा चिंता विमंसा सेणं असन्नीति लब्भइ । सेत्तं कालिओवएसेणं । से किं तं हेउवएसेणं? हेउवएसेणं जस्स णं अत्थि अभिसंधारणपुब्विआ करणसत्ती से णं सन्नीति लब्भइ । जस्स थ नत्थि अभिसंधारणपुविआ करणसत्ती से णं असन्नीति लब्भइ। सेत्तं हेउवएसेणं । से किं तं दिहिवाओवएसेणं? दिहिवाओवएसेणं सन्निसुयस्स खओवसमेणं सन्नी लब्भइ । असन्निसुयस्स खओवसमेणं असन्नी लब्भइ
सेत्तं दिहिवाओवएसेणं । सेत्तं सन्निसुयं । सेत्तं असन्निसुयं । ... अथ किं तत् संज्ञिश्रुतं ?, संज्ञानं संज्ञा साऽस्यास्तीति संज्ञी तस्य श्रुतं संज्ञिश्रुतं, आचार्य आह-संझिश्रुतं त्रिविधं प्रज्ञप्त, संजिनः त्रिभेदत्वात्तत् एव त्रिभेदत्वं संज्ञिनो दर्शयति, तद्यथा-कालिक्युपदेशेन १ हेतूपदेशेन २ दृष्टिवादोपदेशेन ३, तत्र कालिक्युपदेशेन इति अत्रादिपदलोपात् दीर्घकालिक्युपदेशेन इति द्रष्टव्यम् । अथ कोऽयं कालिक्युपदेशेन संज्ञी, इह दीर्घकालिकी संज्ञा कालिकी इति व्युपदिश्यते, आदिपदलोपात् उपदेशनं उपदेशः-कथनमित्यर्थः दीर्घकालिक्या उपदेशः दीर्घकालिक्युपदेशः तेन, आचार्य आहकालिक्युपदेशेन संज्ञी स उच्यते, यस्य प्राणिनोऽस्ति विद्यते ईहा-सदर्थपर्यालोचनं अपोहो-निश्चयः मार्गणा-अन्वयधर्मान्वेषणरूपा गवेषणा-व्यतिरेकधर्मस्वरूपपर्यालोचनं चिंता-कथं इदं भूतं कथं च इदं संप्रति कर्त्तव्यं कथं च एतत् भविष्यति इति पर्यालोचनं विमर्शः-इदं इत्थं एव घटते इत्थं वा तत् अभूत् इत्थं एव वा तद्भावि इति यथावस्थितवस्तुखरूपनिर्णयः स प्राणी 'ग' इति
॥१५॥
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नन्दिसूत्रम्
॥१५३॥
न. सू. १३
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वाक्यालंकारे संज्ञी इति लभ्यते । स च गर्भव्युत्क्रांतिकः पुरुषादिः - औपपातिकच देवादिर्मनः पर्याप्तियुक्तो विज्ञेयः । तस्य एव त्रिकाल - विषयचिन्ताविमर्शादिसंभवात्, एष च प्रायः सर्वमपि अर्थ स्फुटरूपं उपलभते, तथा हि-यथा चक्षुष्मान् प्रदीपादिप्रकाशेन स्फुटं अर्थ उपलभते तथा एषोऽपि मनोलब्धिसंपन्नो मनोद्रव्यावष्टंभसमुत्थविमर्शवशतः पूर्वापरानुसंधानेन यथावस्थितं स्फुटं अर्थ उपलभते, यस् पुनः नास्ति ईहा अपोहो मार्गणा गवेषणा चिंता विमर्शः सोऽसंज्ञी इति लभ्यते । स च संमूच्छिम पंचेंद्रिय विकलेंद्रियादिर्विज्ञेयः, स हि स्वल्पखल्पतरमनोलब्धिसंपन्नत्वात् अस्फुटमस्फुटतरं अर्थ जानाति । तथा हि-संज्ञिपंचेंद्रियापेक्षया संमूर्छिमपंचेंद्रियोऽस्फुटं अर्थ जानाति । ततोऽपि अस्फुटं चतुरिंद्रियः, ततोऽपि अस्फुटतरं श्रींद्रियः, ततोऽप्यस्फुटतमं द्वींद्रियः, ततोऽपि अस्फुटतमं एकेंद्रियः, तस्य प्रायो मनोद्रव्यासंभवात्, केवलं अव्यक्तं एव किंचित् अतीव अल्पतरं मनो द्रष्टव्यम्, यद्वशात् आहारादिसंज्ञा अव्यक्तरूपाः प्रादुःषंति, सोऽयं कालिक्युपदेशेन संज्ञी । अथ कोऽयं हेतुपदेशेन संज्ञी ?, हेतुः कारणं निमित्तं इति अनर्थांतरं, उपदेशनं उपदेशः हेतोः उपदेशनं हेतूपदेशः तेन किं उक्तं भवति १ । कोऽयं संज्ञित्वनिबंधनं हेतुं उपलभ्य कालिक्युपदेशेन असंज्ञयपि संज्ञी इति व्यवह्रियते १ । आचार्य आह - हेतूपदेशेन संज्ञी यस्य प्राणिनोऽस्ति - विद्यते अभिसंधारण - अव्यक्तेन व्यक्तेन वा विज्ञानेन आलोचनं तत् पूर्विका - तत् कारणिका 'करणशक्तिः करणं क्रिया तस्यां शक्तिः - प्रवृत्तिः स प्राणी 'णं' इति वाक्यालंकारे हेतुपदेशेन संज्ञीति लभ्यते । एतदुक्तं भवति यो बुद्धिपूर्वकं खदेहपरिपालनार्थ इष्टेषु आहारादिषु वस्तुषु प्रवर्त्तते अनिष्टेभ्यश्च निवर्त्तते स हेतुपदेशेन संज्ञी स च द्वींद्रियादिः अपि वेदितव्यः, तथा हि- इष्टानिष्टविषयप्रवृत्तिनिवृत्तिसंचिंतनं न मनोव्यापारमंतरेण संभवति । मनसा च पर्यालोचनं संज्ञा, सा च द्वींद्रियादेः अपि विद्यते, तस्यापि प्रतिनियत इष्टानिष्टविषयप्रवृत्तिनिवृचिदर्शनात् । ततो द्वींद्रियादिः अपि हेतुपदेशेन
अवचूरिसमलङ्कृतम्
॥१५३॥
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नन्दिसूत्रम्
॥१५४॥
संज्ञी लभ्यते, न वरं अस्य संचिंतनं प्रायो वर्तमानकालविषयं च भूतभविष्यद्विषयं इति न कालिक्युपदेशेन संज्ञी लभ्यते । यस्य
अवचूरिपुनः नास्ति अभिसंधारणपूर्विका करणशक्तिः स प्राणी 'ण' इति वाक्यालंकारे हेतूपदेशेन अपि असंज्ञी लभ्यते, स च पृथिव्यादिः
| समलंकृतम् | एकेंद्रियो वेदितव्यः, तस्यामिसंधिपूर्वकं इष्टानिष्टप्रवृत्तिनिवृत्त्यसंभवात् , या अपि च आहारादिसंज्ञा पृथिव्यादीनां वर्तन्ते तार | अपि अत्यंत अव्यक्तरूपा इति तत् अपेक्षयापि न तेषां संजिवव्यपदेशः, अन्यत्रापि हेतूपदेशेन संज्ञित्वं आश्रित्य उक्तं 'कृ पतंगाद्याः समनस्काः जंगमाश्चतुर्भेदाः। अमनस्काः पंचविधाः पृथिवीकायादयो जीवाः । सोऽयं हेतूपदेशेन संज्ञी । अथ कोऽयं दृष्टिवादोपदेशेन संज्ञी?, दृष्टिः दर्शन-सम्यक्त्वादिवदनं वादः तदपदेशेन, तदपेक्षया इत्यर्थः, आचार्य आह-दृष्टिवादोपदेशेन संज्ञिश्रुतस्य क्षयोपशमन संज्ञी लभ्यते, संज्ञानं संज्ञा-सम्यग्ज्ञानं तत् अस्यास्ति स संज्ञी-सम्यग्दृष्टिः तस्य यत् श्रुतं तत् संज्ञिश्रुतं, सम्यग् श्रुतं इति भावार्थः। तस्य क्षयोपशमेन-तदावारकस्य कर्मणः क्षयोपशमभावे संज्ञी लभ्यते, किमुक्तं भवति । सम्यग्दृष्टिः |क्षायोपशमिकज्ञानयुक्तो दृष्टिवादोपदेशेन संज्ञी भवति । स च यथाशक्तिरागादिनिग्रहपरो वेदितव्यः, स हि सम्यग्दृष्टिः सम्यग् | ज्ञानी वा यो रागादीन् निगृहणाति, अन्यथा हिताहितप्रवृत्तिनिवृत्ति अभावतः सम्यग्दृष्टित्वाद्ययोगात् । उक्तं च-तत् ज्ञान एव न भवति यस्मिन् उदिते विभाति रागगणः। तमसः कुतोऽस्ति शक्तिः दिनकरकिरणाग्रतः स्थातुं ॥ अन्यस्तु मिथ्यादृष्टिः असंज्ञी, तथा च आह-'असंज्ञिश्रुतस्य' मिथ्याश्रुतस्य क्षयोपशमेन असंज्ञीति लभ्यते, सोऽयं दृष्टिवादोपदेशेन संज्ञी। तदेवं संज्ञिनः त्रिभेदत्वाद
नोटसाता ॥१५४|| श्रुतमपि तत् उपाधिमेदात् त्रिविधं उपन्यस्तम् । अत्राह-ननु प्रथमं हेतूपदेशेन संज्ञी वक्तुं युज्यते, हेतूपदेशेन अल्पमनोलब्धिसंपन्नस्यापि दींद्रियादेः संशित्वेन अभ्युपगमात् तस्य च अविशुद्धतरत्वात । ततः कालिक्युपदेशेन हेतूपदेशसंज्ञापेक्षया कालिक्युप
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नन्दिसूत्रम् ॥१५५॥
अवचूरिसमलंकृतम्
SASSASSASSASSASSA
देशेन संज्ञिनो मनःपर्याप्तियुक्ततया विशुद्धत्वात् , तत किमर्थ उत्क्रमोपन्यासः? उच्यते । इह सर्वत्र सूत्रे यत्र क्वचित् संज्ञी असंज्ञी वा परिगृह्यते तत्र सर्वत्रापि प्रायः कालिक्युपदेशेन गृह्यते न हेतूपदेशेन नापि दृष्टिवादोपदेशेन, तत एतत् सम्प्रत्ययार्थ प्रथमं कालिक्युपदेशेन संज्ञिनो ग्रहणं ततोऽनंतरं अप्रधानत्वात् हेतूपदेशेन संज्ञिनो ग्रहणं, ततः सर्वप्रधानत्वात् अंते दृष्टिवादोपदेशेन इति । तदेतत् संज्ञिश्रुतं, असंज्ञिश्रुतं अपि प्रतिपक्षाभिधानात् एव प्रतिपादितं, ततः आह-तदेतत् असंज्ञिश्रुतम् ।।
से किं तं सम्मसुयं? जं इमं अरहंतेहिं भगवंतेहिं उपन्ननाणदंसणधरेहिं तेलक्कनिरिक्खिअ महियपूइएहिं तीयपडुप्पन्नंमणागयजाणएहिं सवन्नूहिं सचदरिसीहिं पणीअं दुवालसंगं गणिपिडगं तं जहा-आयारो, सूयगडो, ठाणं, समवाओ, विवाहपंन्नति, नायाधर्मकहाओ, उवासगदसाओ, अंतगडदसाओ, अणुत्तरोववाईदसाओ, पण्हावागरणाई, विवागसुयं, दि8वाओ। इचेअं दुवालसंग गणिपिडगं चोदसपुब्बिस्स सम्मसुयं अभिन्नदसपुबिस्स सम्मसुयं तेण परं भिण्णेसु भयणा, से तं सम्मसुयं।
अथ किं तत् सम्यक् श्रुतं ? आचार्य आह सम्यक् श्रुतं यदिदं अर्हद्भिः-अशोकादिअष्टमहापातिहार्यरूपां पूजां अहंतीति अहंतःतीर्थकरास्तैरर्हद्भिः' भगवद्भिः भगः-समग्र ऐश्वर्यादिरूपः, उक्तं च-"ऐश्वर्यस्य समग्रस्य, रूपस्य यशसः श्रियः । धर्मस्याथ प्रयत्नस्य, षण्णां भग इतींगना १,॥" भगो विद्यते येषां ते भगवन्तः तैर्भगवद्भिः, उत्पन्नज्ञानदर्शनधरैः उत्पन्नं ज्ञानं केवलज्ञानं दर्शनं केवलदर्शनं धरंति इति उत्पन्नज्ञानदर्शनधराः, 'त्रैलोक्यनिरीक्षितमहितपूजितैः' यो लोकाः त्रिलोकाः-भवनपतिव्यंतरविद्याधरज्योतिष्कवैमानिका
AREASALASISSA
॥१५॥
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नन्दिनम्
।।१५६ ।।
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त्रिलोका एव त्रैलोक्यं भेषजादित्वात् स्वार्थे ध्यण् प्रत्ययः, निरीक्षिताश्च ते महिताश्च ते पूजिताश्च ते निरीक्षितमहितपूजिताः । त्रैलोक्येन निरीक्षितमहितपूजिताः त्रैलोक्य निरीक्षितमहितपूजिताः । तत्र निरीक्षिताः- मनोरथपरंपरासंपत्तिसंभवविनिश्चयसमुत्थसम्मद| विकाशिलोचनैः आलोकिताः महिता - यथावस्थिताऽनन्यसाधारणगुणोत्कीर्तन लक्षणेन भावस्तवेन अर्चिताः पूजिताः - सुगन्धिपुष्पप्रचुरप्रक्षेपादिना द्रव्यस्तवेन, 'अतीतप्रत्युत्पन्न अनागतज्ञैः' 'सर्वज्ञैः सर्वदर्शिभिः' प्रणीतं अर्थकथनद्वारेण प्ररूपितं, किं इत्याह- 'द्वादशांगी' श्रुतरूपस्य परम पुरुषस्य अंगानि इव अंगानि द्वादशांगानि - आचारादीनि यस्मिन् तत् द्वादशांगं गणो-गच्छो गुणगणो वा अस्यास्ति इति |गणी - आचार्यः तस्य पिटकं इव पिटकं, सर्वस्वं इत्यर्थः, गणिपिटकं, तद्यथा - ' आयारो' इत्यादि पाठसिद्धं यावत् दृष्टिवादः । अनंगप्रविष्टं अपि आवश्यकादितवतोऽत्प्रणीतत्वात् परमार्थतो द्वादशांगातिरिक्तार्थाभावात् च द्वादशांगग्रहणेन गृहीतं द्रष्टव्यम् । इदं च द्वादशांगादि सर्व एव द्रव्यास्तिकनयमतापेक्षया तत् अभिधेय पंचास्तिकाय भाववत् नित्यं, स्वाम्यसंबंधचिंतायां च स्वरूपेण चिंत्यमानं सम्यक् श्रुतं, स्वामिसंबंधचिंतायां तु सम्यग् दृष्टेः सम्यक् श्रुतं मिथ्यादृष्टेः मिध्याश्रुतम् । एतदेव श्रुतं परिणामतो व्यक्तं दर्शयति-इत्येतत् द्वादशांगं गणिपिटकं यश्चतुर्द्दशपूर्वी तस्य सकलं अपि सामायिकादि बिंदुसारपर्यवसानं नियमात् सम्यक् श्रुतं, ततोऽधोमुखपरिहान्या नियमतः सर्व सम्यक् श्रुतं तावत् वक्तव्यं यावत् अभिन्नदशपूर्विणः - संपूर्णदशपूर्वधरस्य, संपूर्णदशपूर्वरत्वादिकं हि नियमतः सम्यग् दृष्टेः एव न मिथ्यादृष्टेः, तथास्वाभाव्यात्, तथा हि-यथा अभव्यो ग्रंथिदेशं उपागतोऽपि तथा स्वभावत्वात् न ग्रंथेर्भेदमाधातुमलमेवं मिथ्यादृष्टिः अपि श्रुतं अवगाहमानः प्रकर्षतोऽपि तावत् अवगाहते यावत् किंचित् न्यूनानि दश पूर्वाणि भवंति । परिपूर्णानि तु तानि न अवगाढुं शक्रोति, तथास्वभावत्वात् इति, 'तेण परं भन्नइ भयणा' अत्र 'तेण' इति 'व्यत्ययो ऽप्यासा' इति
अवचूरिसमलंकृतम्
॥१५६॥
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नन्दिसत्रम्
अवरि
॥१५७॥
समलंकृतम्
प्राकृतलक्षणवशात् पंचम्यर्थे तृतीया, ततोऽयमर्थः-ततः संपूर्णदशपूर्वधरत्वात् पश्चानुपूर्व्या परं मिनेषु दशसु पूर्वेषु मजना-विकल्पना कदाचित् सम्यक् श्रुतं कदाचित् मिथ्याश्रुतमित्यर्थः, इयमत्र भावना-सम्यग्दृष्टेः प्रशमादिगुणगणोपेतस्स सम्यक् श्रुतं, यथावस्थितार्थतया तस्य सम्यक् परिणमनात्, मिथ्यादृष्टेस्तु मिथ्या श्रुतं, विपरीतार्थतया तस्य परिणमनात् । तदेतत् सम्यक् श्रुतं ।,
से किं तं मिच्छासुयं? मिच्छासुयं जं इमं अन्नाणिएहिं मिच्छादिहिएहिं सच्छंदबुद्धिमइविगप्पिअंतं जहा भारहं, रामायणं, भीमासुरुक्खं, कोडिल्लयं, सगडभद्दिआओ, खोडमुह, कप्पासियं, नागसुहुम, कणगसत्तरी, वइसेसिअं, बुद्धवयणं, तेरासियं, काविलियं, लोगाययं, सद्वितंतं, माढरं, पुराणं, वागरणं भागवं, पायंजली, पुस्सदेवयं, लेहं, गणियं, सउणरु, नाडयाई, अहवा बावत्तरि कलाओ, चत्तारित्र वेआ संगोवंगा एआई मिच्छादिहिस्स मिच्छत्तपरिग्गहिआई मिच्छासुयं, एयाई चेव सम्मदिहिस्स सम्मत्तपरिगहिआई सम्मसुयं अहवा मिच्छदिहिस्सवि एयाई चेव सम्मसुयं, कम्हा ? सम्मत्तहेउत्तणओ जम्हा ते मिच्छदिद्विआ तेहिं चेव समएहिं चोईआ समाणा केइ सपक्खदिडिओ चयंति सेत्तं मिच्छासुयं।
अथ किं तत् मिथ्याश्रुतं; ? आचार्य आह-मिथ्याश्रुतं यदिदं अज्ञानिकैः, तत्र यथाऽस्पधना लोके अधना उच्यते । एवं सम्यक् दृष्टयोऽपि अल्पज्ञानभावात् अज्ञानिकाः उच्यते । तत आह-मिथ्यादृष्टिभिः, किं 'खच्छंदबुद्धिमतिविकल्पितं तत्र अवग्रहे हेतुबुद्धिः, अपायधारणे मतिः, खच्छंदेन-स्वाभिप्रायेण तत्त्वतः सर्वज्ञप्रणीतानुसारमंतरेण इत्यर्थः । बुद्धिपतिभ्यां विकल्पितं स्वच्छंद
| ॥१५॥
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बन्दिसूत्रम् ॥१५८।।
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बुद्धिमतिविकल्पितं, स्वबुद्धिकल्पनाशिल्पिनिम्मितं इत्यर्थः । तद्यथा - 'भारतं इत्यादि यावत् चत्तारि वेयासंगोवंगा' भारतादयश्च ग्रंथा लोके प्रसिद्धाः ततो लोकत एव तेषां स्वरूपं अवगंतव्यम् । ते च स्वरूपतो यथावस्थितवस्तु अभिधानविकलतया मिथ्याश्रुतमवसेयम् । एतेऽपि च स्वामिसंबंधर्चितायां भाज्यास्तथा च आह— एतानि - भारतादीनि शास्त्राणि मिथ्यात्वपरिगृहीतानि भवंति । ततो विपरीताभिनिवेशवृद्धिहेतुत्वात् मिथ्या श्रुतम् । एतानि एव च भारतादीनि शास्त्राणि सम्यग्दृष्टेः सम्यक्त्वपरिगृहीतानि भवंति सम्यक्त्वेनयथावस्थितासारतापरिभावनरूपेण परिगृहीतानि तस्य सम्यग् श्रुतम्, तद्गतासारतादर्शनेन स्थिरतरसम्यक्त्वपरिणाम हेतुत्वात् । अथव मिध्यादृष्टेः अपि सतः कस्यचित् एतानि भारतादीनि शास्त्राणि सम्यक् श्रुतं, शिष्य आह- कस्मात् !, आचार्य आह – सम्यक्त्वहेतुत्वात्, सम्यक्त्वहेतुत्वं एव भावयति, यस्मात् ते मिथ्यादृष्टयः तैः एव समयैः- सिद्धांतैः वेदादिभिः पूर्वापरविरोधेन - यथा रागादिपरीतः पुरुषः तावन्नातींद्रियं अर्थमवबुद्ध्यते रागादिपरीतत्वात् अस्मादृशवत्, वेदेषु च अतींद्रियाः प्रायोऽर्था व्यावर्ण्यतेऽतींद्रियार्थदर्शी च वीतरागः सर्वज्ञो नाभ्युपगम्यते ततः कथं वेदार्थः प्रतीतः इत्येवमादिलक्षणेन नोदिताः संतः केचन विवेकिनः सत्यादय इव स्वपक्षदृष्टीः– स्वदर्शनानि त्यजंति । भगवत्-शासनं प्रतिपद्यन्ते इत्यर्थः । तत एवं सम्यक्त्व हेतुत्वात् वेदादीनि अपि शास्त्राणि केषांचित् मिथ्यादृष्टीनां अपि सम्यक् श्रुतं, तदेतत् मिथ्याश्रुतम् ।
से किं तं साइअं सपज्जवसिअं, अणाइअं अपज्जवसियं सुयं ? साइअं सपज्जवसिअं, अणाइअं अपजवसिअं सुयं-इच्चेइयं दुवालसँगं गणिपिडगं, बुच्छित्ति नयट्टयाए आइअं सपज्जवसिअं, अवच्छित्ति नयट्टयाएअणाइअअपज्जवसिअं तं समासओ चउबिहं पन्नतं तं जहा- दव्वओ, खित्तओ,
अवचूरिसमलंकृतम्
॥ १५८ ॥
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नन्दिसूत्रम्
| अवचूरिसमलं कृतम्
॥१५९॥
कालओ, भावओ, तत्थ दव्वओ णं सम्मसुयं एगं पुरिसे पडुच्च साइ सपज्जवसिअं, बहवे पुरिसे य पडुच्च अणाइअं अपज्जवसि। खेत्तओ णं पंच भरहाई पंच एरवयाइं पडुच्च साइ सपज्जवसिअं पंच महाविदेहाई पडुच्च अणाइअं अपजवसि । कालओणं उस्सप्पिणि ओसप्पिणिं च पडुच्च साइ सपज्जवसिअंनोउस्सप्पिणिं नोओसप्पिणिं च पड्डुच्च अणाइअं अपज्जवसि। भावओ णं जे जया जिणपन्नत्ता भावा आघविनंति पन्नविज्जंति परूविजंति दसिजंति निदंसिज्जंति उवदंसिर्जति तया भावे पडुच्च साइअं सपज्जवसिअंखाओवसमिअं पुण भावं पडुच्च अणाइअं अपज्जवसि। अहवा भवसिद्धियस्स सुयं साइअं सपज्जवसिअंच, अभवसिद्धियस्स सुयं अणाइयं अपज्जवसियं च, सवागासपएसग्गं सवागासपएसेहिं अणंतगुणिअं पजवक्खरं निप्फजइ, सव्वजीवाणं पि अणं अक्खरस्स अणंतभागो निचुग्घाडिओ। 'जइ पुण सोऽवि आवरिजा तेणंजीवो अजीवत्तं पाविजा। सुट्दवि मेहसमुदए होइ पभा चंदसूराणं' । सेत्तं साइअं सपज्जवसिअं, सेत्तं अणाइअं अपज्जवसिअं सुयं ।
अथ किं तत् सादिसपर्यवसितं अनादिअपर्यवसितं च?, तत्र सह आदिना वर्तते इति सादि, तथा पर्यवसानं पर्यवसितं, भावे क्तप्रत्ययः, सह पर्यवसितेन वर्तते इति सपर्यवसितं, आदिरहितं अनादि, न पर्यवसितं अपर्यवसितं, आचार्य आह-इति एतत् द्वादशांगं गणिपिटकं व्यवच्छित्तिप्रतिपादनपरो नयो व्यवस्थितिनयः, पर्यायास्तिकनय इत्यर्थः, तस्य अर्थो व्यवच्छित्तिनयार्थः, पर्याय इत्यर्थः । तस्य भावो व्यवच्छित्तिनयार्थता, तया पर्यायापेक्षया इत्यर्थः, किमित्याह-सादिसपर्यवसितं नारकादिभवपरिणति
SOCTOCENCESCRECCC
॥१५९॥
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मन्दिसत्रम् ॥१६॥
अवसि समलंकन
SARAN
अपेक्षया जीव इव, अव्यवच्छित्तिप्रतिपादनपरो नयः तस्य अर्थों अव्यवच्छिचिनयार्थो, द्रव्यमित्यर्थः, तद्भावः तत्ता तया, द्रव्यापेक्षया इत्यर्थः, किमित्याह-अनाद्यपर्यवसितं त्रिकालावस्थायित्वात् जीववत्, अधिकृतं एव अर्थ द्रव्यक्षेत्रादिचतुष्टयं अधिकृत्य प्रतिपादयति । 'तत् श्रुतज्ञानं 'समासतः संक्षेपेण चतुर्विध प्रज्ञतं, तद्यथा-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च, तत्र द्रव्यतो 'णमिति वाक्यालंकारे सम्यक् श्रुतं एकं पुरुषं प्रतीत्य सादिपर्यवसितं, कथमिति चेद् १, उच्यते । सम्यच्याप्तौ तत् प्रथमपाठतो वा सादि, पुनः मिथ्यात्वप्राप्तौ सति वा सम्यक्त्वे प्रमादभावतो महाग्लानत्वभावतो वा परलोकगमनसंभवतो वा विस्मृति उपगते केवलज्ञानोत्पत्तिभावतो वा सर्वथा विप्रनष्टे सपर्यवसितं । बहून् पुरुषान् कालत्रयवर्चिनः पुनः प्रतीत्य अनादिअपर्यवसितं, संतानेन प्रवृत्त्वात् , कालवद, तथा क्षेत्रतो 'ण' इति वाक्यालंकारे पंच भरतानि पंच ऐरवतानि प्रतीत्य सादिसपर्यवसानं, कथं ?, उच्यते, तेषु क्षेत्रेषु अवसपिण्यां सुखमदुःखमापर्यवसाने उत्सपिण्यां तु दुःखमसुखमाप्रारंभे तीर्थकरधर्मसंघानां प्रथमतया उत्पत्तेः सादि, एकांतदुःखमादौ च काले तदभावात सपर्यवसितं । तथा महाविदेहान् प्रतीत्य अनादि अपर्यवसितं, तत्र प्रवाहापेक्षया तीर्थकरादीनां अव्यवच्छेदात तथा कालतो 'ण' इति वाक्यालंकारे, अवसपिण्यां उत्सपिण्यां च प्रतीत्य सादिसपर्यवसितं, तथाहि-अवसपिण्यां तिसृष्वेव समासु सुखम| दुःखमादुःखमसुखमादुःखमारूपासु, उत्सर्पिण्यां तु द्वयोः समयोः दुःखमसुखमासुखमदुःखमारूपयोः भवति न परतः, ततः सादि सपर्यवसानं अत्र उत्सपिणिअवसप्पिणीखरूपज्ञापनार्थ कालचक्र विंशतिसागरोपमकोटाकोटीप्रमाणं विनेयजनानुग्रहार्थ यथा मूलवृचिकृता दर्शितं तथा वयं अपि दर्शयामः-चचारिसागरोषमकोडाकोडीउ संतई एउ। एग तसुस्समा खलु जिणेहिं सन्वेहि निदिवा ॥११॥ इत्यादि, नोत्सपिणी नोवसर्पिणीं च प्रतीत्य अनादि अपर्यवसितं, महाविदेहेषु हि नोउत्सपिणि नोअवसर्पिणीरूपः
॥१६॥
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नन्दित्रम्
-
सम
॥१६॥
।
XSAROSSASSIS
कालस्तत्र च सदा एव अवस्थितं सम्यक् श्रुतं इति अनादिअपर्यवसितं, तथा भावतो 'ण' इति वाक्यालंकारे, 'य' इति अनिर्दिष्ट निर्देशे ये केचन यदा पूर्वाहादौ जिनैः प्रज्ञप्ता जिनप्रज्ञप्ता भावाः-पदार्थाः। 'आषविजंतिति प्राकृतत्वात् आख्यायंते, सामान्यरूपतया विशेषरूपतया वा कथ्यते इत्यर्थः। प्रज्ञाप्यते नामादिभेदप्रदर्शनेन आख्यायंते, तेषां नामादयो मेदाः प्रदश्यते इत्यर्थः । प्ररूप्यते नामादिभेदस्वरूपकथनेन प्रख्यायंते नामादीनां मेदानां खरूपं आख्यायते इति भावार्थः, तथा दश्यते उपमानमात्रोपदर्शनेन प्रकटीक्रियते । यथा गौः इव गवय इत्यादि, तथा निदश्यते-हेतुदृष्टांतोपदर्शनेन स्पष्टतरीक्रियते । उपदश्यते-उपनयनिगमनाम्यां निःशंक शिष्यबुद्धौ स्थाप्यते । अथवा उपदश्यते-सकलनयाभिप्रायावतारणतः पटुप्रज्ञशिष्यबुद्धिषु व्यवस्थाप्यंते, वान् भावान् 'तदा' तस्मिन् काले तथा आख्यायमानान् प्रतीत्य सादिसपर्यवसितं, एतदुक्तं भवति, तस्मिन् काले तं तं प्रज्ञापकोपयोगं स्वरविशेष प्रयत्नविशेष आसनविशेष अंगविन्यासादिकं च प्रतीत्य सादिसपर्यवसितं, उपयोगादेः प्रतिकालमन्यथाभवनात् । क्षायोपशमिकं भावं पुनः प्रतीत्य अनादि अपर्यवसितं, प्रवाहरूपेण क्षायोपशमिकभावस्य अनादि-अपर्यवसितत्वात् । अथवा इति प्रकारांतरोपदर्शने मवसिद्धिको-भव्यः तस्य सम्यक् श्रुतं सादिपर्यवसितं, सम्यक्त्वलामे प्रथमतया भावात् । भूतो मिथ्यात्वप्राप्तौ केवलोत्पत्तौ वा विनाशात् , अभवसिद्धिकोऽभव्यः तस्य श्रुतं मिथ्याश्रुतं अनादि अपर्यवसितं, तस्य स एव सम्यवादिगुणहीनत्वात् , सर्व च तदाकाशं च-सर्वाकाशं, लोकालोकाकाशं इत्यर्थः, तस्य प्रदेशा:-निर्विभागा भागाः सर्वाकाशप्रदेशाः तेषां अग्रं-परिमाणं सर्वाकाशप्रदेशा तत्सर्वाकाशप्रदेशः अनंतगुपितं अनंतशो गुणितं एकैकस्मिन् आकाशप्रदेशेऽनंतागुरुलघुपर्यायभावात् पर्यायाग्राक्षरं निष्पद्यते-दयमत्र भावना-सर्वाकाशप्रदेशपरिमाणं सर्वाकाशप्रदेशः अनंतशो गुणितं यावत् परिमाणं भवति तावत्प्रमाणं सर्वाकाशप्रदेशपर्यायाणां अग्रं भवति, एकैकस्मिन् आकाशप्रदेशे
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अक्दरि
नन्दिसूत्रम् ॥१६॥
SSSSSSSSSS
यावंतोऽगुरुलघुपर्यायाः ते सर्वेऽपि एकत्र पिंडिता एतावतो भवंति इत्यर्थः, एतावत् प्रमाणं च अक्षरं भवति, इह स्तोकत्वात् धर्मास्ति- कायादयः साक्षात् सूत्रे नोक्ताः, परमार्थतस्तु तेऽपि गृहीता द्रष्टव्याः, ततोऽयमर्थः-सर्वद्रव्यप्रदेशाग्रं सर्वद्रव्यप्रदेशः अनंतशो गुणितं यावत् परिमाणं भवति तावत् प्रमाणं-सर्वद्रव्यपर्यायपरिमाणं, यावत् एतावत्प्रमाणं च अक्षरं भवति । तदपि च अक्षरं द्विधा-ज्ञानं अकारादिवर्णजातं च, उभयत्रापि अक्षरशब्दप्रवृत्ते रूढत्वात् , द्विविध अपि च इह गृह्यते, विरोधाभावात् , ननु ज्ञानं सर्वद्रव्यपर्यायपरि| माणं संभवतु, यतो ज्ञानं इहाविशेषोक्तौ सर्वद्रव्यपर्यायपरिमाणतुल्यताभिधानानुप्रक्रमात् वा केवलज्ञानं ग्रहीष्यते, तत्र च सर्वद्रव्यपर्यायपरिमाणं घटते एव, तथा हि-यावंतो जगति रूपिद्रव्याणां ये गुरुलघुपर्याया ये च रूपिद्रव्याणां अरूपिद्रव्याणां वा अगुरुलघुपर्यायास्तान् सर्वान् अपि साक्षात् करतलकलितमुक्ताफलं इव केवलालोकेन प्रतिक्षणं अवलोकते भगवान्, न च येन स्वभावेन एकं पर्यायं परिच्छिनत्ति | तेन एव स्वभावेन पर्यायांतरं अपि, तयोः पर्याययोः एकत्वप्रसक्तेः, सर्वजीवानां अपि 'ण' इति वाक्यालंकारे अक्षरस्य-श्रुतज्ञानस्य श्रुतज्ञानं च मतिज्ञानाविनाभावि ततो मतिज्ञानस अपि अनंतभागोऽनंततमो भागो 'नित्य उद्घाटितः सर्वदैवानावृतः सोऽपि चअनंततमो भागोऽनेकविधः तत्र सर्वजघन्यः चैतन्यमानं तत्पुनः सर्वोत्कृष्टश्रुतावरणस्त्यानर्द्धिनिद्रोदयभावेऽपि नावियते, तथा जीवखाभाव्यात् , तथा च आह-यदि पुनः सोऽपि अनंततमो भाग आत्रियते तर्हि जीवोऽजीवत्वं प्राप्नुयात्, जीवो हि नाम चैतन्यलक्षणभृतो यदि प्रबलश्रुतावरणः स्त्यानर्द्धिनिद्रोदयभावे चैतन्यमात्रं अपि आवियते । तर्हि जीवस्य स्वस्वभावपरित्यागात् अजीवतैव |8| संपनीपद्यते । सुष्ठ अपि मेघसमुदये भवति प्रभा चंद्रसूर्ययोः, इयमत्र भावना-यथा निबिडनिबिडतरमेवपटलैः आच्छादितयोः अपि सूर्याचंद्रमसोः नैकांते तत् प्रभानाशः संपद्यते, सर्वस्य सर्वथा स्वभावापनयनस्य कर्तु अशक्यत्वात् , एवं अनंतानंतैः अपि ज्ञानदर्शना
॥१६२॥
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नन्दिसूत्रम्
अवचूरि
समलंकृतम्
॥१६॥
ALSO REASOROSCORMSEX
वरणकर्मपरमाणुभिः एकैकस्यापि आत्मप्रदेशस्य आवेष्टितपरवेष्टितस्यापि नैकांतेन चैतन्यमात्रस्यापि अभावो भवति । ततो यत् सर्वजघन्यं तन्मतिश्रुतात्मकं अतः सिद्धोऽक्षरस्यानंतभागो नित्य उद्घाटितः, तथा च सति मतिज्ञानस्य च अनादिभावः प्रतिपद्यमानो न विरुध्यते इति स्थितम् । तदेतत् सादिसपर्यवसितम् ।।
से किं तं गमियं? गमियं दिद्विवाओ, अगमियं कालियं सुयं । सेत्तं गमियं सेत्तं अगमियं । अहवातं | समासओ दुविहं पन्नत्तं तं जहा-अंगपविट्ठ । अंगबाहिरं च ।।
अथ किं तद् गमिकं १, इह आदिमध्यावसानेषु किंचिद्विशेषतो भूयोभूयस्तस्य एव सूत्रस्य उच्चारणं गमः, तत्र आदौ-सुयं मे आउसंतेणं भगवया एवमक्खायं इह खलु" इत्यादि । एवं मध्यावसानयोः अपि यथासंभवं द्रष्टव्यं । गमा अस्य विद्यते इति गमिकं, तत् गमिकं प्रायो दृष्टिवादः, तथा च आह-'गमियं दिहिवाओं' तत् विपरीतं अगमिकं, तत् च प्रायः आचारादिकालिकश्रुतं, असदृशपाठात्मकत्वात् , तथा च आह-'अगमियं कालियसुयं तदेतत् गमिकं अगमिकं, अथवा तत्-सामान्यतः श्रुतं अर्हत् उपदेशानुसारि समासतः-संक्षेपेण द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-अंगप्रविष्टं अंगवाह्यं च, तत्र अंगप्रविष्टं इति । इह पुरुषस्य द्वादश अंगानि भवंति, तद्यथाद्वौ पादौ २, द्वे जंघे ४, द्वे उरुणी ६, द्वे गात्राढे ८ द्वौ बाहू १० ग्रीवा ११ शिरश्च १२ एवं श्रुतरूपस्यापि परमपुरुषस्य आचारादीनि द्वादश अंगानि क्रमेण वेदितव्यानि, श्रुतपुरुषस्य अंगेषु प्रविष्टं अंगप्रविष्टं-अंगभावेन व्यवस्थितमित्यर्थः, यत्पुनः एतस्य एव द्वादशांगात्मकस्य श्रुतपुरुषस्य व्यतिरेकेण स्थितं अंगं बाह्यत्वेन व्यवस्थितं तत् अनंगप्रविष्टं, अथवा यत् गणधरदेवकृतं तदंगप्रविष्टं मूलभूतमित्यर्थः, गणधरदेवा हि मूलभूतं आचारादिकं श्रुतं उपरचयंति, एषां एव सर्वोत्कृष्टश्रुतलब्धिसंपन्नतया तत् रचयितुं ईशत्वात् , न
॥१६३॥
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नन्दिसूत्रम्
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समलंकृतम्
॥१६४॥
COSACCHARO*
शेषाणां, ततस्तत् कृतं सूत्रं मूलभूतः इति अंगप्रविष्ट उच्यते । यत्पुनः शेषैः श्रुतस्थविरैः तदेकदेशं उपजीव्य विरचितं तदनंगप्रविष्टं । दू अथवा यत्सर्वदा एव नियतं आचारादिकं श्रुतं तदंगप्रविष्टं, तथा हि-आचारादिकं श्रुतं सर्वेषु क्षेत्रेषु सर्वकालं चार्थ क्रम चाधिकृत्य
एवमेव व्यवस्थितं ततस्तदंगप्रविष्टं उच्यते । अंगप्रविष्टं अंगभूतं मूलभूतमित्यर्थः, शेषं तु यत् श्रुतं तत् चानियतं अतस्तदनंगप्रविष्टं उच्यते । तत्राल्पवक्तव्यत्वात् प्रथमं अंगबाह्यं अधिकृत्य प्रश्नपूत्रमाह
से किं तं अंगबाहिरं? अंगबाहिरं दुविहं पन्नत्तं, तं जहा-आवस्सयं च आवस्सयवहरि च। से किं तं आवस्सयं? आवस्सयं छविहं पन्नतं, तं जहा-सामाइ, चउवीसत्थओ, वंदणयं, पडिकमणं, काउस्सग्गो, पञ्चक्खाणं । सेत्तं आवस्सयं । से किं तं आवस्सयवइरित्तं ? आवस्सयवइरित्तं दुविहं पन्नत्तं, तं जहा-कालियं च उक्कालियं च । से कितं उक्कालियं? उकालियं अणेगविहं पन्नत्तं, तं | जहा-दसवेआलियं, कप्पिआकप्पियं, चुल्लकप्पसंयं, महाकप्पसुयं, उवाइय, रायपसेणियं, जीवार्मिंगमो, पन्नवणा, महापन्नवा, पमायप्पैमायं, नंदी, अणुओगदौराई, दविंदत्यओ तंदुलवेआलियं, चंदाविज्झयं, सूरपैन्नत्ती, पोरिसिमंडैलं मंडेलपवेसो, विज्वाचरणविणिच्छेओ, गणिविजा, ज्झाणविभत्ती, मरणविभत्ती, आयविसोही, वियरागसुयं, सलेहणासुयं, विहारकप्पो, चरणविही, आउरपचखाणं, महापचखाणं एचमाइ सेत्तं उकालियं से किं तं कालियं । कालियं अणेगविहं पन्नत्तं तं जहा-उत्तरज्झयणाई, | दसाओ, कैप्पो, ववहारो, निसीहं, महानिसीहं, इसीभासिआई जंबूदीवपन्नत्ती चंदपन्नत्ती, दीवसागरपन्नत्ती, |
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नन्दिसूत्रम् | खुजुिआविमाणपविभत्ती, महल्लिाविमाणपविभत्ती, अंगचुलिआ, वग्गचुलिआ, विवाहचुलिआ, अरुणो || अवचूरि
वाए, वरुणोवाए, गरुलोवाए, धरणोवाए, वेसमणोवाए लंधरोवधाए, देविंदोवधाए, उहाणसुख, समलकृतम् नागपरिआवलिआणं, कप्पिआणं, कप्पवडिसिआणं, पुफिआणं, पुप्फचूलिआणं, बण्हीयाणं, वण्हीदेसाणं आसीविसभावणाणं, दिद्विविसभावणाणं, चारणसुमिणभावणाणं, महासुमिणभावणाणं, तेअग्गिनिसगाणं, एवमाइयाई चउरासीइं पइन्नग सहस्साई भगवओ अरहओ उसहसामिस्स आइतित्थयरस्स । तहा संखिज्जाइं पइन्नगसहस्साई मज्झिमगाणं जिणवराणं । चोद्दस पइन्नग सहस्साणि भगवओ बद्धमाणसामिस्स । अहवा जस्स जत्तिआ सीसा उप्पत्तिआए वेणइआए कम्मयाए परिणामिआए चउविहं बुद्धीए उववेसा तस्स तत्तिआई पइन्नग सहस्साई पत्तेअ बुद्धावि तत्तिआ चेव । सेत्तं कालियं सेत्तं उकालियं सुयं । सेत्तं आवस्सयवइरित्तं । सेत्तं अणंगपविढे सुयं ।
अथ किं तत् अंगबाह्य ?, सरिराह-अंगवाह्यश्रुतं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-आवश्यकं च आवश्यकव्यतिरिक्तं च, अत्र अवश्य51 कर्त्तव्यक्रियानुष्ठानमित्यर्थः । अथवा गुणानां अभिविधिनावश्यं आत्मानं करोति इति आवश्यकं-अवश्यकर्त्तव्यसामायिकादिक्रिया
नुष्ठानं तत् प्रतिपादकं श्रुतं अपि आवश्यकं, चशब्दः खगतानेकदसूचकः । अथ किं तदावश्यक ?, सरिराह-आवश्यकं पइविध प्रज्ञप्तं, ॥१६५॥
तद्यथा-'सामायिक' इत्यादि निगदसिद्ध, तदेतदावश्यकं । अथ किं तदावश्यकव्यतिरिक्तं ?, आचार्य आह-आवश्यकव्यतिरिक्तं द्विविधं च.सू.१४ | प्रज्ञतं, तद्यथा-कालिक उत्कालिकं च, तत्र यत् दिवसनिशाप्रथमपश्चिमपौरुषीद्वय एव पठ्यते तत्कालिकं, कालेन निवृत्तं कालिकं इति |
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SAUGAUSA*
अवचूरिसमलंकृतम्
नन्दिसूत्रम् व्युत्पत्तेः । यत्पुनः कालवेलावजं पठ्यते तत् उत्कालिकं । तत्राल्पवक्तव्यत्वात् प्रथमं उत्कालिकं अधिकृत्य प्रश्नसूत्रमाह-अथ किं तत् |
उत्कालिकं श्रुतं ?, सूरिराह-उत्कालिकं श्रुतं अनेकविधं प्रज्ञप्त, तद्यथा-दशवकालिकं तच्च सुप्रतीतं, तथा कल्प्याकल्प्यप्रतिपादकं ॥१६६॥
अध्ययनं कल्प्याकल्प्यं, तथा कल्पनं कल्पः-स्थविरादिकल्पः तत्प्रतिपादकं श्रुतं कल्पश्रुतं । तत्पुनर्द्विभेदं, तद्यथा-'चुल्लकप्पसुयं महाकप्पसुयं' एकं अल्पग्रंथं अल्पार्थ च, द्वितीयं महाग्रंथं महार्थ च । शेषाः ग्रंथविशेषाः प्रायः सुप्रतीताः, तथापि लेशतोप्रसिद्धान् व्याख्यास्यामः, तत्र जीवादीनां पदार्थानां प्रज्ञापनं प्रज्ञापना । सा एव बृहत्तरा महाप्रज्ञापना, तथा प्रमादाप्रमादस्वरूपभेदफलविपाकप्रतिपादकं अध्ययनं प्रमादाप्रमादं, तत्र प्रमादस्वरूपं एवं-प्रचुरकर्मैधनप्रभवनिरंतराविध्यातशारीरमानसाऽनेकदुःखहुतवहज्वालाकलापपरीतं अशेष एव संसारवासगृहं पश्यंस्तन्मध्यवर्त्यपि च तत् निर्गमनोपाये वीतरागप्रणीतधर्मचिंतामणौ यतो विचित्रकर्मोदयसाचिव्यजनितात् परिणामविशेषात् अपश्यन् इव तत् भयं अवगणय्य विशिष्टपरलोकक्रियाविमुख एव आस्ते जीवः स खलु प्रमादः, तस्य च प्रमादस्य ये हेतवो मद्यादयः तेऽपि प्रमादाः तत्कारणत्वात् , उक्तं च-"मजं विसयकसाया निद्दा विगहा य पंचमी भणिया । एवं पंच पमाया जीवं पाडंति संसारे ॥१॥" एतस्य पंचप्रकारस्यापि प्रमादस्य फलं दारुणो विपाकः, एवं प्रतिपक्षद्वारेण अप्रमादस्यापि खरूपादयो वाच्याः । 'नंदी'त्यादि सुगमं । सूर्यचर्याप्रज्ञापनं यस्यां ग्रंथपद्धतौ सा सूर्यप्रज्ञप्तिः, तथा 'पौरुषी मंडलं' इति पुरुषःशंकुः पुरुषशरीरं वा तस्मिन् निष्पन्ना पौरुषी 'तत आगत' इत्यण, इयमत्र भावना-सर्वस्यापि वस्तुनो यदा खप्रमाणाच्छाया जायते
तदा पौरुपी भवति । एतच्च पौरुषीप्रमाणं उसरावणस्यांते दक्षिणायनस्सादौ च एक दिनं भवति, ततः परं अंगुलस्य अष्टौ एकषष्टिद्रभागा दक्षिणायने बर्द्धते । उत्तरायणे च हृसंति, एवं मंडले मंडलेऽन्यान्या पौरुषी यत्र अध्ययने व्यावर्ण्यते तदध्ययनं पौरुषीमंडलं,
RSS RESCROCOCCAR -
॥१६६॥
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अवचूरिसमलंकृतम्
॥१६७॥
तथा यत्र अध्ययने चंद्रस्य सूर्यस्य च दक्षिणेषु उत्तरेषु च मंडलेषु संचरतो यथा मंडलात् मंडले प्रवेशो भवति तथा व्यावयेते तदध्ययनं मंडलप्रवेशः । तथा 'विजाचरणविनिश्चय' इति विद्या इति-ज्ञानं, तत् च सम्यग्दर्शनसहितं अवगंतव्यं, अन्यथा ज्ञानत्वायोगात् , चरण-चारित्रं तेषां फलविनिश्चयप्रतिपादको ग्रंथो विद्याचरणविनिश्चयः, तथा 'गणिविजे ति सबालवृद्धो गच्छो गणः। सोऽस्यास्तीति गणी-आचार्यः तस्य विद्या-ज्ञानं गणिविद्या, सा च इह ज्योतिष्कनिमित्तादिपरिज्ञानरूपा वेदितव्या । ज्योतिष्कनिमित्तादिकं हि सम्यक् परिज्ञापरिव्राजनसामायिकारोपणोपस्थापनश्रुतोद्देशानुज्ञारोपणादिशानुज्ञाविहारक्रमादिप्रयोजनेषु उपस्थितेषु प्रशस्ते तिथिकरणमुहूर्तनक्षत्रयोगे यत् यत्र कर्त्तव्यं भवति तत् तत्र सूरिणा कर्त्तव्यं, तथा चेत् न करोति तर्हि महान् दोषः, ततो यानि सामायिकादीनि प्रयोजनानि यत्र तिथिकरणादौ कर्त्तव्यानि भवंति तानि तत्र यस्यां ग्रंथपद्धतौ व्यावय॑ते सा गणिविद्या, तथा ध्यानविभक्तिः इति, ध्यानानि-आध्यानादीनि तेषां विभजनं-विभक्तिः यस्यां ग्रंथपद्धतौ सा ध्यानविभक्तिः, तथा मरणानि-प्राणत्यागलक्षणानि, तानि च द्विधा-प्रशस्तानि अप्रशस्तानि च, तेषां विभजनं-पार्थक्येन खरूपप्रकटनं यस्यां ग्रंथपद्धतौ
सा मरणविभक्तिः, तथाऽन्मनो-जीवस्याऽऽलोचनं-प्रायश्चित्तप्रतिपत्तिप्रभृतिप्रकारेण विशुद्धिः-कर्मविगमलक्षणा प्रतिपाद्यते यस्यां हा ग्रंथपद्धतौ-सा आत्मविशुद्धिः । तथा वीतरागश्रुतमिति, सरागव्यपोहेन वीतराग स्वरूपं प्रतिपाद्यते यत्र अध्ययने तद् वीतरागश्रुतं,
तथा संलेखनाश्रुतं इति, द्रव्यभावसंलेखना यत्र श्रुते प्रतिपाद्यते तत् संलेखनाश्रुतं, तत्र उत्सर्गत इयं द्रव्यसलेखना। "चत्वारि विचित्ताई. विगई निजहियाई चत्तारि । संवच्छरे उ दोन्नि उ एगंतरियं च आयामं ॥ १ ॥ नाइविगिट्ठो य तवो छम्मासे परिमियं च आयाम । अन्नेवि य छम्मासे होइ विगिहें तंवोकम्मं ॥२॥ वासं च कोडिसहियं आयाम कट्ट आणुपुब्बीए ।
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॥१६७॥
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नन्दिसूत्रम्
अवचूरि
समलंकृतम्
॥१६८॥
गिरिकंदरंमि गंतुं पायवगमणं अह करेइ ॥३॥" भावसंलेखना तु क्रोधादिकषायप्रतिपक्षाभ्यासः । तथा विहारकल्प इति, विहरण विहारः तस्य कल्पो-व्यवस्था स्थविरकल्पादिरूपा यत्र वर्ण्यते ग्रंथे स विहारकल्पः । तथा चरणं-चारित्रं तस विधिः यत्र पर्ण्यते स चरणविधिः । तथा 'आतुरप्रत्याख्यानं' इति, आतुरः-चिकित्साक्रियाव्यपेतः तस्य प्रत्याख्यानं यत्र अध्ययने विधिपूर्वकं उपवर्ण्यते तत् आतुरप्रत्याख्यानं, तथा महत् प्रत्याख्यानं यत्र वर्ण्यते तत् महाप्रत्याख्यानं 'एवं तावत् अमूनि अध्ययनानि-एतानि अध्ययनानि जहाभिहाणत्थाणि भणियाणि' तत् एतत् उत्कालिकं । उपलक्षणं च एतत् इति उक्तं उत्कालिकं । अथ किं तत् कालिकं ? कालिक अनेकविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा इत्यादि, 'उत्तराध्ययनानि' सर्वाणि अपि च अध्ययनानि प्रधानानि एव तथापि अमूनि एव रूढ्या उत्तराध्ययनशब्दवाच्यत्वेन प्रसिद्धानि । दशा इत्यादि प्रायो निगदसिद्ध । निशीथं इति निशीथवत् निशीयः, इदं प्रतीतमेव, तस्मात् परं यत् ग्रंथार्थाभ्यां महत्तरं निशीथाभ्यां महत्तरं तत् महानिशीथं । तथा आवलिकाप्रविष्टानां इतरेषां वा विमानानां वा प्रविभक्तिःप्रविभजनं यस्यां ग्रंथपद्धतौ सा विमानप्रविभक्तिः, सा च एका स्तोकग्रंथार्था, द्वितीया महाग्रंथार्था, तत्र आद्या क्षुल्लकविमानप्रविभक्तिः, द्वितीया महाविमानप्रविभक्तिः। अंगस्य-आचारादेः चूलिका अंगचूलिका । चूलिका नामोक्तानुक्तार्थसंग्रहात्मिका ग्रंथपद्धतिः, वर्गोऽध्ययनानां समूहो यथा अंतकृत् दशासु अष्टौ वर्गा इत्यादि तेषां चूलिका, तथा व्याख्या-भगवती तस्याः चूलिका व्याख्या | चूलिका । तथा अरुणो नाम देवः तद्वक्तव्यताप्रतिपादको यो ग्रंथः परावय॑मानश्च तत् उपपातहेतुः सोऽरुणोपपातः, तथा च अत्र चूर्णिकारो भावनां अकार्षीत् 'जाहे तमज्झयणं उवउत्ते समाणे अणग्रारे परियट्टेइ ताहे से अरुणदेवे समयनिवद्धत्तणओ चलियासणसंभमुभंतलोयणे पउत्तावही वियाणियढे पहढे चलचवलकुंडलधरे दिव्वाए जुईए दिव्वाए विभूईए दिवाए गईए जेणामेव से भयवं
॥१६॥
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नन्दिसूत्रम् ॥१६९॥
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समणे णिग्गंथे अज्झयणं परियट्टेमाणे अच्छइ तेणामेव उवागच्छई, उवागच्छित्ता भत्तिभरोणयवयणे विमुकवारकुसुमगंधवासे ओवयह, ओवरचा ताहे से समणस्स पुरओ ठिच्चा अंतट्ठिए कयंजली उत्रउसे संवेगविसुज्झमाणज्झवसाणे तं अज्झयणं सुणमाणे चिट्ठा, समचे अज्झयणे भइ-भय ! सुसज्झाइयं २ वरं वरेहित्ति, ताहे से इहलोयनिपिवासे समतिणमुत्ता हलले डुकंचणे सिद्धिवर र मणिपडिबद्धनिब्भराणुरागे समणे पडिभणइन मे णं भो ! वरेणं अट्ठोत्ति, ततो से अरुणे देवे अहिगयरजायसंवेगे पयाहिणं करेत्ता बंदर नमसह वंदित्ता नमंसित्ता पडिगच्छइ " एवं गरुडोपपातादिषु अपि भावना कार्या । तथा 'उत्थानश्रुतं' इति उत्थानं उद्वसनं तत् हेतुः श्रुतं उत्थानश्रुतं । तच्च शृङ्गनादिते कार्ये उपयुज्यते, अत्र चूर्णिणकारकृता भावना - "सजेगस्स कुलस्स वा गामस्स वा नगरस्स वा रायहाणीए वा सम कयसंकप्पे आमुरुते चंडकिए अप्पसन्ने अप्पसन्नलेसे विसमासुहासणत्थे उवउत्ते समाणे उट्ठाणसुयज्झयणं परियट्टेइ, तं च एक्कं दो वा तिण्णि वा वारे, ताहे से कुले वा गामे वा जाव रायहाणी वा ओहयमणसंकप्पे चिलवंते दुयं २ पहावेंते उट्ठे - उब्वसति चि भणियं होइ" त्ति, तथा 'समुत्थानश्रुतमिति' समुपस्थानं भूयस्तत्रैव वासनं तद्धेतुः श्रुतं समुपस्थानश्रुतं, वकारलोपाच्च सूत्रे समुट्ठाण सुयंति पाठः, तस्य चेयं भावना-“तओ समत्ते कजे तस्सेव कुलस्स वा जाव रायहाणीए वा से चैव समणे कयसंकप्पे तुट्ठे पसने पसन्नलेसे समसुहासणत्थे उवउत्ते समाणे समुट्ठाणसुयज्झयणं परियट्टेइ, तं च एकं दो तिन्नि वा वारे, ताहे से कुले वा गामे वा जाव रायहाणीए वा पहट्ठचित्ते पसत्थं मंगलं कलयलं कुणमाणे मंदाए गईए सललियं आगच्छ समुवट्ठिए- आवासइतिवृत्तं भवइ, सम्मं उबद्वाणसुयंति वचन्वे वकारलोवाओ समुट्ठापासुयंति भणियं, तहा जइ अप्पणावि पुव्वुट्ठियं गामाइ भवद तहावि जड़ से समणे एवं कय संकप्पे अझयणं परियड्ढे तओ पुणरवि आवासेइ" तथा नागाः - नागकुमारास्तेषां परिज्ञा यस्यां ग्रन्थपद्धतौ भवति सा नागपरिज्ञा, तस्याश्रेय
अवचूरिसमलंकृतम्
॥१६९॥
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नन्दिसूत्रम्
॥१७॥
SMSACARSMSSSSS
चूर्णिकृतोपदर्शिता भावना-"जाहे तं अज्झयणं समणे निग्गंथे परियट्टेइ ताहे अकयसंकप्पस्सवि ते नागकुमारा तत्थत्था चेव तं समणं | अवचूरिपरियाणति-वंदंति नमसंति बहुमाणं च करेंति, सिंगनादितकज्जेसु य वरदा भवंति" तथा यत्रावलिकाप्रविष्टा इतरे च नरकावासाः समलंकृतम प्रसङ्गतस्तद्गामिनश्च नरास्तिर्यश्चो वा वर्ण्यन्ते ता निरयावलिकाः, एकस्मिन्नपि ग्रन्थे वाच्ये बहुवचनशब्दः शक्तिस्वाभाव्यात्, यथा पाश्चाला इत्यादौ, तथा 'कल्पिका' इति याः सौधर्मादिकल्पगतवक्तव्यतागोचरा ग्रन्थपद्धतयस्ताः कल्पिकाः, एवं कल्पावतंसिका द्रष्टव्याः, पुष्पिता इति यासु ग्रंथपद्धतिषु गृहवासमुत्कलनपरित्यागेन प्राणिनः संयमभावपुष्पिताः सुखिता उपिता भूयः संयमभावपरित्यागतो दुःखावाप्तिमुकुलनेन मुकुलिताः पुनस्ततः तत्परित्यागेन पुष्पिताः प्रतिपाद्यन्ते ताः पुष्पिताः उच्यते, अधिकृतार्थविशेषप्रतिपादिकाः पुष्पचूडाः तथा 'वृष्णिदशा' इति, 'नाझपुत्तरपदस्य वेति लक्षणवशादादिपदस्यान्धकशब्दरूपस्य लोपः, ततोऽयं परिपूर्णः शब्दः अन्धकवृष्णिदशा इति, अयं चान्वर्थः-अन्धकवृष्णिनराधिपकुले ये जातास्तेऽपि अन्धकवृष्णयः तेषां दशाः-अवस्थाश्चरितगतिसिद्धिगमनलक्षणा यासु ग्रन्थपद्धतिषु वर्ण्यन्ते ता अन्धकवृष्णिदशाः, अथवाऽन्धवृष्णिवक्तव्यताप्रतिपादिका दश-अध्ययनानि अन्धकवृष्णिदशा । कियन्ति नामग्राहमाख्यातुं शक्यन्ते प्रकीर्णकानि ?, तत एवमादीनि चतुरशीतिः प्रकीर्णकसहस्राणि भगवतोऽर्हतः श्रीऋषभस्वामिनस्तीर्थकृतः, तथा सङ्ख्येयानि प्रकीर्णकसहस्राणि मध्यमानामजितादीनां जिनवरेन्द्राणां तीर्थकराणाम्, एतानि च | यस्य यावन्ति भवन्ति तस्य तावन्ति प्रथमानुयोगतो वेदितव्यानि, तथा चतुर्दशप्रकीर्णकसहस्राणि भगवतोऽर्हतो वर्द्धमानस्वामिनः।
॥१७॥ इयमत्र भावना-इह भगवत ऋषभस्वामिनश्चतुरशीतिसहस्रसङ्ख्याः श्रमणा आसीरन्, ततः प्रकीर्णकरूपाणि चाध्ययनानि कालिको-12 कालिकभेदभिन्नानि सर्वसङ्ख्यया चतुरशीतिसहस्रसङ्ख्यान्यभवन् , कथमिति चेत् ?, उच्यते, इह यद्भगवदर्हदुपदिष्टं श्रुतमनुसृत्य
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नन्दिसूत्रम् ॥ १७१ ॥
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भगवन्तः श्रमणा विरचयन्ति तत्सर्वं प्रकीर्णकमुच्यते, अथवा श्रुतमनुसरन्तो यदात्मनो वचन कौशलेन धर्म्मदेशनादिषु ग्रन्थपद्धतिरूपतया भाषन्ते तदपि सर्व प्रकीर्णकं, भगवत ऋषभस्वामिन उत्कृष्टा श्रमणसम्पदा आसीत् चतुरशीतिसहस्रप्रमाणा, ततो घट प्रकीर्णकान्यपि भगवतश्चतुरशीतिसहस्रसङ्ख्यानि, एवं मध्यमतीर्थकृतां अपि सङ्ख्येयानि प्रकीर्णकसहस्राणि भावनीयानि, भगवतस्तु वर्द्धमानखामिनः चतुर्द्दशभ्रमणसहस्राणि ततः प्रकीर्णकानि अपि भगवतः चतुर्दशसहस्राणि, अत्र द्वे मते- एके सूरयः प्रज्ञापयंति - इदं किल चतुरशीतिसहस्रादिकं ऋषभादीनां तीर्थकृतां श्रमणपरिमाणं प्रधानस्त्रविरचनसमर्थान् श्रमणान् अधिकृत्य वेदितव्यं । इतरथा पुनः सामान्यश्रमणाः प्रभूततरा अपि तस्मिन् तस्मिन्नृषभादिकाले आसीरन् । अपरे पुनः एवं प्रज्ञापयंति - ऋषभादितीर्थकृतां जीवतां इदं चतुरशीतिसहस्रादिकं श्रमणपरिमाणं । प्रवाहतः पुनः एकैकस्मिन् तीर्थे भूयांसः श्रमणा वेदितव्याः । तत्र ये प्रधानस्त्रविरचनशक्तिसमन्वितसुप्रसिद्धतत् ग्रंथा अतत्कालिका अपि तीर्थे वर्त्तमानास्तेऽधिकृता द्रष्टव्याः । एतदेव मतांतरं उपदर्शयन्नाह - ' अथवा ' प्रकारांतरोपदर्शने यस्य ऋषभादेः तीर्थकृतो यावंतः शिष्याः तीर्थे औत्पत्तिक्या वैनयिक्या कर्म्मजया पारिणामिक्या चतुर्विधया बुद्ध्या उपेताः - समन्विता आसीरन्, तस्य - ऋषभादेः तावंति प्रकीर्णकसहस्राणि अभवन्, प्रत्येकबुद्धा अपि तावंत एव, अत्र एके व्याचक्षतेइह एकैकस्य तीर्थकृतः तीर्थे अपरिमाणानि प्रकीर्णकानि भवन्ति, प्रकीर्णककारिणां अपरिमाणत्वात्, केवलं इह प्रत्येकबुद्धरचितानि एव प्रकीर्णकानि द्रष्टव्यानि, प्रकीर्णकपरिमाणेन प्रत्येकबुद्धपरिमाणप्रतिपादनात् स्यादेतत् - प्रत्येकबुद्धानां शिष्यभावो विरुध्यते, तदेतदसमीचीनं यतः प्रव्राजकाचार्य एव अधिकृत्य शिष्यभावो निषिध्यते । ननु तीर्थकरोपदिष्टशासनप्रतिपन्नत्वेनापि ततो न कश्चित्
अवचूरिसमलंकृतम्
॥ १७१ ॥
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नन्दिसूत्रम्
अवचरिसमलंकृतम्
॥१७२॥
दोषः। अन्ये पुनः एवमाहुः सामान्येन प्रकीर्णकैः तुल्यत्वात् प्रत्येकबुद्धानां अत्राभिधानं न तु नियोगः । प्रत्येकबुद्धिरचितानि एव प्रकीर्णकानि इति । तदेतत् कालिकं तदेतत् आवश्यकव्यतिरिक्तं, तदेतदनंगप्रविष्टं इति ।
से किं तं अंगपविट्ठ? अंगपविट्ठ दुवालसविहं पन्नत्तं, तं जहा-आयारो, सूर्यगडो, ठाणं, समवायो, विवाहपन्नत्ती, नायाधमकहाओ उवासगदसाओ, अंतगडदसाओ, अणुत्तरोववाइयदेसाओ, पण्हावागरणाई, विवागसुयं, दिहिवाओ। से किं तं आयारे? आयारे समणाणं निग्गंथाणं आयार, गोयर, विणय, वेणइय, सिक्खा, भासा, अभासा, चरण,करण, माया, जाया, वित्तीओ आघविजंति । से समासओ पंचविहे. पन्नत्ते, तं जहा-नाणायारे, दंसणायारे, चरित्तायारे, तवायारे, वीरियायारे। आयारे णं परित्ता वायणा, संखिज्ज अणुओगदारा, संखिजा वेढा, संखिजा सिलोगा, संखिज्जाओ निजुत्तीओ संखिजाओ पडिवत्तीओ, संखिजाओ संगहणीओ । से णं अंगट्टयाए पढमे अंगे दो सुअक्खंधा, पणवीसं अज्झयणा, पंचासीई उद्देसणकाला, पंचासीई समुद्देसणकाला, अट्ठारसपय सहस्साणि पयग्गेणं । संखिजा अक्खरा, अणंता गमा, अणंता पजवा, परित्ता तसा, अणंता थावरा, सासयकडनिबद्धनिकाइआ जिणपन्नत्ता भावा आपविजंति पन्नविजंति परूविजंति दसिजंति निदसिज्जंति उवदंसिर्जति । से एवं आयासे एवं नाया से एवं विनाया से एवं चरणकरणपरूवणा आघविज्जइ सेत्तं आयारे॥१॥
॥१७२॥
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नन्दिसूत्रम् ॥१७॥
अवचूरिसमलंकृतम्
अथ किं तदंगप्रविष्टं ? सूरिराह-अंगप्रविष्टं द्वादशविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-'आचारः सूत्रकृत'मित्यादि, अथ किं तदाचार इति? अथवा कोऽयं आचारः? आचार्य आह-श्राचरणं आचारः आचर्यते इति वा आचारः, पूर्वपुरुषाचरितो ज्ञामादि आसेवन विधिः इत्यर्थः। तत्प्रतिपादको ग्रंथोऽपि आचार एवं उच्यते । अनेन वाऽचारेण करणभूतेन अथवा आचारे-आधारभूते 'ण' इति वाक्यालंकारे श्रमणानां प्राग्निरूपितशब्दानां निग्रंथानां बाह्याभ्यंतरग्रंथरहितानां, आह-श्रमणा निग्रंथा एव भवंति तत् किमर्थं निग्रंथानां इति विशेषण उच्यते, शाक्यादिव्यवच्छेदार्थ, शाक्यादयोऽपि हि लोके श्रमणा व्यपदिश्यते । तदुक्तं-'निग्गंथ सक्क तावस गेरुय आजीव पंचहा समणा' इति । तेषां आचारादि आख्यायते, तत्र आचारो ज्ञानाचारादि अनेकभेदभिन्नो गोचरो-भिक्षाग्रहणविधिलक्षणः विनयो-ज्ञानादिविनयः, वैनयिक-विनयफलं कर्मक्षयादिशिक्षा-ग्रहणशिक्षा आसेवनशिक्षा वा, विनेय शिक्षा इति चूर्णिकृत् । तत्र विनेयाः-शिष्याः। तथा भाषा सत्या असत्या-मृषा च, अभाषा-मृषा सत्यामृषा च । चरण-व्रतादि, करणं-पिंडविशुद्ध्यादि, उक्तं च-"वयसमणधम्मसंजमवेयावचं च बंभगुत्तीओ। नाणाइतियं तव कोहनिग्गाई चरणमेयं ॥१॥ पिंडविसोहीसमिईभावणपडिमाय इंदियनिरोहो। पडिलेहणगुत्तीओ अभिग्गहा चेव करणं तु ॥२॥" यात्रा-संयमयात्रा तदर्थ एव परिमिताहारग्रहणं वृत्तिःविविधैः अभिग्रहविशेषैः वर्चनं, 'आचारश्च गोचरश्च' इत्यादिः द्वन्द्वः, ता आचारगोचरविनयवैनयिकशिष्याभाषाऽभाषाचरणकरण- 1 यात्रामात्रावृत्तयः आख्यायंते । इदं यत्र क्वचित् अन्यतरोपादानेन अन्यतरगतार्थाभिधानं तत् सर्व तत् प्राधान्यख्यापनार्थ अवसेयं । स आचारः 'समासतः' संक्षेपतः पंचविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-'ज्ञानाचार' इत्यादि, तत्र ज्ञानाचारः, "काले विणए बहुमाणे, उवहाणे तह य निडवणे । वंजणअत्थतदुभए अढविहो नाणमायारो ॥१॥" दर्शनाचारः, "निस्संकिय निकंखिय निन्वितिगिन्छामूढदिट्ठीय ।
| ॥१७॥
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4564
नन्दिसत्रम उववूहथिरीकरणे बच्छलप्पभावणे अट्ठ ॥२॥" प्रभावकाः तीर्थस्य अमी द्रष्टव्याः -'अइसेस इड्डियायरिय वाई धम्मकहि खवग अवचूरि
नेमित्ती । विजा रायागणसंमया य तित्थं पभावंति ॥१॥ चारित्राचारः-'पणिहाणजोग जुत्तो पंचहिं समिईहिं तिहि उ समलंकृतम् ॥१७४॥
गुत्तीहिं । एस चरित्तायारो अट्ठविहो होइ नायव्यो ॥१॥ तप आचारः-चारस विहंमि वि तवे अभितरबाहिरे जिणुवइटे। अगिलाइ अणाजीवी नायव्यो सो तवायारो ॥ १ ॥ वीर्याचारः-"अणिगृहियबलविरिओ परक्कमइ जो जहुत्तमाउत्तो । जुजइ य जहाथाम नायव्बो वीरियायारो ॥१॥" आचारे णं इति वाक्यालंकारे, 'परित्ता' परिमिता तं तं प्रज्ञापकं पाठकं च अधिकृत्य आद्यन्तोपलब्धिः, अथवा उत्सर्पिणी अवसर्पिणी च प्रतीत्य परीत्ता द्रष्टव्याः, कासावित्याह-वाचना' वाचना नाम सूत्रस्य अर्थस्य वा प्रदानं, यदि पुनः सामान्यतः प्रवाह अधिकृत्य चिंत्यते तदा अनंताः, तथा संख्येयानि अनुयोगद्वाराणि उपक्रमादीनि, तानि हि अध्ययनं २ प्रति प्रवर्तते, अध्ययनानि च संख्येयानि इति कृत्वा, तथा संख्येया वेढा, वेढो
नाम छंदोविशेषः, तथा संख्येयाः श्लोकाः-सुप्रतीताः, तथा संख्येया नियुक्तयः, तथा संख्येयाः प्रतिपत्तयः, प्रतिपत्तयो IMI नाम द्रव्यादिपदार्थाभ्युपगमाः प्रतिमादि अभिग्रहविशेषा वा ताः सूत्रनिबद्धाः संख्येयाः, स आचारो 'ण' इति वाक्यालंकारे
अंगार्थतया-अंगार्थत्वेन, अर्थग्रहणं परलोकचिंतायां सूत्राद् अर्थस्य गरीयस्त्वख्यापनार्थ, अथवा सूत्रार्थ-उभयरूप आचारः | इति ख्यापनार्थ, प्रथमं अंग, एकारांतता सर्वत्र मागधभाषालक्षणानुसरणात् वेदितव्या, स्थापनामधिकृत्य प्रथमं अंगमित्यर्थः।।8।
॥१७४॥ तथा द्वौ श्रुत्तस्कंधौ-अध्ययनसमुदायरूपौ, पंचविंशतिः अध्ययनानि, तद्यथा-"सत्थ परिन्ना (१) लोगविजओ (२) सीओसणिज (३) संमत्तं (४) आवंति (५) धूय (६) विमोहो (७) महापरिनो (८) वहाणसुयं (९)॥१॥" एतानि नव अध्ययनानि
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नन्दिवत्रम् ॥१७५॥
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प्रथमथुतस्कंधे । “पिंडेसण (१) सिज्झि (२) रिया ( ३ ) भासजाया ( ४ ) य वत्थ ( ५ ) पाएसा ( ६ ) । उग्गहपडिमा ( १ ) सत्तसत्तिका (१४ ) य भावण (१५) विमुत्ति ( १६ ) ॥ १ ॥ " अत्र 'सेजिरिय'त्ति शय्याध्ययनं ईर्याध्ययनं च । 'वत्थपाएस' त्तिवस्त्र - एषणाध्ययनं पात्र - एषणाध्ययनं च, अमूनि षोडश अध्ययनानि द्वितीयश्रुतस्कंधे । एवमेतानि निशीथवञ्जनि पंचविंशतिः अध्ययनानि भवति, तथा पंचाशीतिः उद्देशनकालाः, कथं चेद् ? उच्यते, इह अंगस्य श्रुतस्कंधस्य अध्ययनस्य उद्देशकस्य च एक एव उद्देशनकालः । एवं शस्त्रपरिज्ञायां सप्त उद्देशन कालाः ७ लोकविजये षट् १३ शीतोष्णाध्ययने चत्वारः १७ सम्यक्त्वा - ध्ययने चत्वारः २१ लोकसाराध्ययने षट् २७ धुताध्ययने पंच ३२ विमोहाध्ययनेऽष्टौ ४० महापरिज्ञायां सप्त ४७ उपधानश्रुते चत्वारः ५१ पिंडैषणायां एकादश ६२ शज्झेषणाध्ययने त्रयः ६५ ईर्याध्ययने त्रयः ६८ भाषाध्ययने द्वौ ७० वस्त्र - एषणाध्ययने द्वौ ७२ पात्रैषणाध्ययने द्वौ ७४ अवग्रहप्रतिमाध्ययने द्वौ ७६ सप्तसप्तिकाध्ययनेषु षट् ८३ भावनायां एकः ८४ विमुक्तौ एक ८५ एवं एते सर्वेऽपि पंडिताः पंचाशीतिः भवंति । एवं समुद्देशनकाला अपि पंचाशीतिर्भावनीयाः, तथा पदाग्रेण परिमाणेन अष्टादशपदसहस्राणि, इह यत्र अर्थोपलब्धिस्तत् पदम् । तथा संख्येयानि अक्षराणि, पदानां संख्येयत्वात् । तथा इह गमाः - अर्थगमा गृह्यंते । अर्थगमा नाम अर्थपरिच्छेदास्ते च अनंताः, एकस्मादेव सूत्रात् अतिशायिमतिमेधादिगुणानां तत्तत् धर्म्मविशिष्टानन्तधर्मात्मकवस्तुप्रतिपत्तिभावात् । तथा अनंताः पर्यायाः ते च खपरमेदभिन्ना अक्षरार्थगोचरा वेदितव्याः, तथा परीताः - परिमिताः त्रसाद्वींद्रियादयः, अनंता ः स्थावराः - वनस्पतिकायादयः, शाश्वता-धर्मास्तिकायादयः कृताः - प्रयोगविस्रसा जन्याः घटसंध्याभ्ररागादयः, एते सर्वेपि त्रसादयो निबद्धा: -सूत्रे स्वरूपतः उक्ता, निकाचिताः - निर्युक्तिसंग्रहणिहेतुउदाहरणादिभिः अनेकधा व्यवस्थापिता
अवचूरिसमलंकृतम्
॥१७५॥
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नन्दिसूत्रम् ॥१७६॥
अवचूरिसमलंकृत
SAGARLSSSS
जिनप्रज्ञप्ता भावाः-पदार्थाः आख्यायते-सामान्यरूपतया विशेषरूपतया वा कथ्यते प्रज्ञाप्यते नामादिमेदोपन्यासेन प्रपंच्यतेप्ररूप्यंते नामादीनां एव मेदानां सप्रपंचं स्वरूपकथनेन पृथग् विविक्तं ख्याप्यते । दर्श्यते-उपमाप्रदर्शनेन यथा गौः इव गवयः इत्यादि निदश्यते-हेतुदृष्टांतोपदर्शनेन उपदश्यते निगमनेन शिष्यबुद्धौ निःशंक व्यवस्थाप्यते । सांप्रतं आचारांगग्रहणे फलं प्रतिपादयति-'स' इति आचारांगग्राहकोऽभिसंबध्यते । एवमात्मा-एवंरूपो भवति, अयमत्र भावः-अस्मिन् आचारांगे भावतः सम्य
अधीते सति तदुक्तक्रियानुष्ठानपरिपालनात् साक्षात् मूर्त इव आचारो भवति इति, तदेवं क्रियां अधिकृत्य उक्तं, सम्प्रति ज्ञान है अधिकृत्य आह-यथाऽऽचाराङ्गे निबद्धा भावाः तथा तेषां भावानां ज्ञाता भवति, यथा नियुक्तिसंग्रहणिहेतुउदाहरणादिभिः विविध [प्ररूपितास्तथा] ज्ञाता भवति, एवं चरणकरणप्ररूपणा आचारे आख्यायते, सोऽयमाचारः॥
से किं तं सूयगडे ? सूयगडे णं लोए सूइज्जइ, अलोए सूइज्जइ, लोआलोए सूइज्जइ, जीवा सूइजइ, अजीवा सूइज्जइ, जीवाजीवे सूइबइ, ससमए सूइज्जइ, परसमए सूइज्जइ, ससमयपरसमए सूइज्जह । सूयगडे णं असीअस्स किरियावाइसयस्स चउरासीए अकरियावाईणं सत्तट्ठीए अन्नाणियवाईणं बत्तीसाए वेणइयवाईणं तिण्हं तेसवाणं पासंडियसयाणं वूहं किचा ससमए ठाविज्जइ । सूयगडे गं परित्ता वायणा, संखिज्जा अणुओगदारा, संखिज्जा वेढा, संखिज्जा सिलोगा, संखिलाओ निजुत्तीओ, संखिज्जाओ पडिवत्तीओ, संखिजाओ संगहणीओ। से णं अंगठ्याए बिइए अंगे दो सुअक्खंधा, तेवीसं अज्झयणा, तित्तीसं उद्देसणकाला, तित्तीसं समुद्देसणकाला, छत्तीसं पयसहस्साणि,
॥१७६॥
Re
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अवचूरि
समलंकृतम्
नन्दिसूत्रम्
पयग्गेणं संखिजा अक्खरा, अणंता गमा, अणंता पज्जवा, परित्ता तसा, अर्णता थावरा, सासय
कडनिबद्धनिकाइया जिणपन्नता भावा आघविजंति पन्नविजंति परूविजंति दसिज्जंति निदंसिज्जंति ॥१७७॥
उवदंसिज्जंति । से एवं आया से एवं नाया से एवं विनाया से एवं चरणकरणपरूवणा आघविज्जइ सेत्तं सूयगडे ॥२॥
अथ किं तत्सूत्रकृतं ?, 'सूच पैशुन्ये सूचनात् सूत्रं निपातनात् रूपनिष्पत्तिः, सा च प्रधानश्च अयं सूत्रशब्दः, ततोऽयमर्थः,सूत्रेण कृतं, सूत्ररूपतया कृतं इत्यर्थः, यद्यपि च सर्वमङ्गं सूत्ररूपतया कृतं तथापि रूढिवशात् एतत् एव सूत्रकृतं उच्यते, न शेष
अंगं, आचार्य आह-सूत्रकृतेन अथवा सूत्रकृते 'ण' इति वाक्यालंकारे लोकः सूच्यते इत्यादि निगदसिद्धं यावत् 'असीयस्स किरिया| वाइसयस्स' इत्यादि । अशीति अधिकस्य क्रियावादिशतस्य, चतुरशीतेः अक्रियावादिनां, सप्तषष्टेः अज्ञानिकानां, द्वात्रिंशतो वैनयिकानां
सर्वसंख्यया त्रयाणां त्रिषष्ट्यधिकानां पाखण्डिशतानां 'व्यूह' प्रतिक्षेपं कृत्वा खसमयः स्थाप्यते । तत्र न करिमंतरेण क्रिया है| पुण्यबंधादिलक्षणा संभवति । तत एवं परिज्ञाय तां क्रियां-आत्मसमवायिनी वदंति तत् शीलाश्च ये ते क्रियावादिनस्ते पुनरात्मादि
| अस्तित्वप्रतिपत्तिलक्षणा अमुनोपायेन अशीत्यधिकशतसंख्या विया । जीवाजीवाश्रवबंधसंवरनिर्जरापुण्यापुण्यमोक्षरूपान् नव पदार्थान् टूपरिपाट्या पट्टिकादौ विरचय्य जीवपदार्थस्याधःखपरभेदावुपन्यसनीयौ, तयोः अधो नित्यानित्यभेदौ, तयोरपि अधः कालेश्वरात्म
| नियतिखभावभेदाः पंच न्यसनीयाः, पुनश्च एवं विकल्पाः कर्त्तव्याः, तद्यथा-अस्ति जीवः खतो नित्यः कालतः इत्येको विकल्पः, | न. सू. १५अस्य च विकल्पस्य अयमर्थः-विद्यते खलु अयं आत्मा खेन रूपेण नित्यश्च कालतः कालवादिनो मते, कालवादिनश्च नाम ते
॥१७७॥
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नन्दिसूत्रम्
॥१७८॥
HURRERAKORRAS KASUTA
| मंतव्याः. ये कालकृतं एव सर्व जगत् मन्यते । तथा च ते आहुः-न कालमंतरेण चंपकाशोकसहकारादिवनस्पतिकुसुमोद्गमफला अवचूरिबंधादयो हिमकणानुपक्तशीतप्रपातनक्षत्रगर्भाधानवर्षादयो वा ऋतुविभागसंपादिता बालकुमारयौवनपलितागमादयो वावस्थाविशेषा समलंकृतम् घटते, प्रतिनियतकालविभाग एव तेषां उपलभ्यमानत्वात् । अन्यथा सर्वमव्यवस्थया भवेत् , न चैतदृष्टमिष्टं वा, अपि च-मुद्गपक्तिः अपि न कालमंतरेण लोके भवंती दृश्यते । किंतु कालक्रमेण अन्यथा स्थालींधनादिसामग्रीसंपर्कसंभवे प्रथमसमयेऽपि तस्याभावप्रसंगो न च भवति, तस्मात् यत्कृतकं तत्सर्व कालकृतं इति । तथा च उक्तं-"न कालव्यतिरेकेण, गर्भवालशुभादिकं । यत्किचिजायते लोके, | तदसौ कारणं किल ॥१॥ किं च कालादृते नैव मुद्गपक्तिरपीक्ष्यते । स्थाल्यादिसंनिधानेऽपि, ततः कालादसौ मता ॥२॥ कालाभावे ६च गर्भादि, सर्व स्यादव्यवस्थया । परेष्टहेतुसद्भावमात्रादेव तदुद्भवात् ॥ ३॥ कालः पचति भूतानि, कालः संहरति प्रजाः । कालः18
सुप्तेषु जागर्ति, कालो हि दुरतिक्रमः॥४॥" अत्र 'परेष्टहेतुसद्भावमात्रादिति पराभिमतवनितापुरुषसंयोगादिमात्ररूपहेतुसद्भाव| मात्रादेव 'तदुद्भवादिति गर्भादि उद्भवप्रसंगात् , तथा कालः पचति-परिपाकं नयति परिणतिं नयति, 'भूतानि' पृथिव्यादीनि, तथा कालः संहरति प्रजाः-पूर्वपर्यायान् प्रच्याव्य पर्यायांतरेण प्रजाः लोकान् स्थापयति । तथा कालः सुप्तेषु जनेषु जागर्ति, काल एव तं तं सुप्तं जनमापदो रक्षति इति भावः, तस्मात् हि स्फुटं दुरतिक्रमोऽपाकर्तुमशक्यः काल इति । उक्तेन एव प्रकारेण द्वितीयोऽपि विकल्पो वक्तव्यः । नवरं कालवादिनः इति वक्तव्ये ईश्वरवादिन इति वक्तव्यं, तद्यथा-अस्ति जीवः स्वतो नित्यः ईश्वरतः, ईश्वरवादिनश्च सर्वे
॥१७८॥ जगत् ईश्वरकृतं मन्यते, ईश्वरं च सहसिद्धज्ञानवैराग्यधम्मैश्वर्यरूपं चतुष्टयं प्राणिनां च वर्गापवर्गयोः प्रेरकं इति । तदुक्तं-"ज्ञानमप्रतिघं यस्य, वैराग्यं च जगत्पतेः । ऐश्वयं चैव धर्मश्च, सहसिद्धं चतुष्टयं ॥१॥ "अन्यो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः ।
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नन्दिसूत्रम् ॥१७९॥
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ईश्वरप्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा ॥ १ ॥" इत्यादि, एवं तृतीयो विकल्प आत्मवादिनां, आत्मवादिनो नाम ये 'पुरुष एवेदं सर्व' इत्यादि प्रतिपन्नाः । चतुर्थो विकल्पो नियतिवादिनां ते हि एवं आहुः - नियतिः नाम' तत्त्वान्तरं अस्ति यद् वशादेते भावाः सर्वेऽपि नियतेन एव रूपेण प्रादुर्भावमनुवते, नान्यथा, तथा हि यत् यदा यदा यतो भवति तत्तदा तत एव नियतेन एव रूपेण भवदुपलभ्यते । अन्यथा कार्यकारणभावव्यवस्था प्रतिनियतरूपावस्था च न भवेत्, नियामकाभावात् । तत एवं कार्यनैयत्यतः प्रतीयमानामेनां नियति को नाम प्रमाणपथकुशलो बाधितुं क्षमते १ मा प्रापदन्यत्रापि प्रमाणपथव्याघातप्रसंगः। तथा च उक्तं- "नियतेनैव रूपेण, सर्वे भावा भवंति यत् । ततो नियतिजा होते, तत्स्वरूपानुवेधतः ॥ १ ॥ यत् यदैव यतो यावत्तत्तदैव ततस्तथा । नियतं जायते न्यायात् क एनां बाधितुं क्षमः १ ॥ २ ॥ पंचमो विकल्पः खभाववादिनां ते हि स्वभाववादिन एवं आहुः - इह सर्वे भावाः स्वभाववशात् उपजायते । तथा हि- मृदः कुंभो भवति न पटादि, तन्तुभ्योऽपि पट उपजायते न कुम्भादि, एतच्च प्रतिनियतं न तथा स्वभावतामंतरेण घटाकोटीसंटंकमाटीकते, तस्मात्सकलं इदं स्वभावकृतं अवसेयं । अपि चास्तामन्यत्कार्यजातं इह मुद्रपक्तिः अपि न स्वभावमंतरेण भवितुं अर्हति तथा हि-स्थालींधनकालादिसामग्री भावेऽपि न कांकटुकमुद्गानां पक्तिः उपलभ्यते । तस्मात् यद्यत् भावे भवति [ यदभावे च न भवति ] तत्तदन्वयव्यतिरेकानुविधायि तत् कृतं इति स्वभावकृता मुद्द्रपक्तिः अप्येष्टव्याः, ततः सकलं एव इदं वस्तुजातं स्वभावहेतुकं अवसेयं इति । ततः एवं स्वतः इति पदेन लब्धाः पंच विकल्पाः, एवं परत इति अनेनापि पंच लभ्यंते, परत इति परेभ्यो व्यावृत्तेन रूपेण विद्यते न खलु अयं आत्मा इत्यर्थः । एवं नित्यत्वापरित्यागेन दश विकल्पा लब्धाः, एवमनित्यपदेनाsपि दश, सर्वे मिलिता विंशतिः, एते च जीवपदार्थेन लब्धाः, एवं अजीवादिषु अपि अष्टसु पदार्थेषु प्रत्येकं
अवचूरिसमलंकृतम्
॥ १७९॥
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नन्दिसत्रम् ॥१८॥
अवचूरिसमलंकृतम्
विंशतिःविकल्पा लभ्यते, ततो विंशतिः नवगुणिताः शतं अशीत्युत्तरं, क्रियावादिनां भवति ॥ तथा न कस्यचित् प्रतिक्षणं अनवस्थितस्य पदार्थस्य क्रिया संभवति उत्पत्त्यनंतरं एव विनाशात् इत्येवं ये वदंति ते अक्रियावादिनः, तथा च आहुःएके"क्षणिकाः सर्वसंस्कारा अस्थिराणां कुतः क्रिया ? भूतियेषां क्रिया सैव, कारणं स एव उच्यते ॥ १ ॥ एते च आत्मादि-5 नास्तित्वप्रतिपत्तिलक्षणा अमुनोपायेन चतुरशीतिसंख्या द्रष्टव्याः, पुण्यापुण्यवर्जितशेषजीवादिपदार्थसप्तकन्यासः, तथैव च जीवादिसप्तकस्य अधः प्रत्येकं स्वपरविकल्पोपादानं, असत्त्वात् आत्मनो नित्यानित्यविकल्पो न स्तः, कालादीनां च पंचानां अधस्तात् षष्ठी यदृच्छा न्यस्यते, इह यदृच्छावादिनः सर्वेऽपि अक्रियावादिन एव, न केचित् अपि क्रियावादिनः ततः प्राग् यदृच्छा नोपन्यस्ता, तत एवं विकल्पाभिलाप:-नास्ति जीवः खतः कालत इति एको विकल्पः, एवं ईश्वरादिभिः अपि यदृच्छापर्यतैः, सर्वेऽपि मिलिताः षड् विकल्पाः, अमीषां च विकल्पानां अर्थः प्राग्वद्भावनीया, नवरं यदृच्छात इति यदृच्छावादिनां मते, अथ के ते- यदृच्छावादिनः ? उच्यते, इह ये भावानां संतानापेक्षया न प्रतिनियतं कार्यकारणभावं इच्छंति किंतु यदृच्छया ते यदृच्छावादिनः, तथा च ते एवं आहुः-"न खलु प्रतिनियतो वस्तूनां कार्यकारणभावस्तथा प्रमाणेन अग्रहणात्, तथा हि शालूकादपि जायते शालूको गोमयात् अपि वढेः अपि वह्निः उपजायते अरणिकाष्ठात् अपि धूमादपि जायते धूमोमीन्धनसंपर्कात अपि कंदात् अपि जायते कदली बीजात् अपि वटादयो बीजादपि जायंते शाखैकदेशात् अपि, ततो न प्रतिनियतः क्वचिदपि कारणकार्यभाव इति यदृच्छातः क्वचित् किंचित् भवति इति प्रतिपत्तव्यं, न खलु अन्यथा च वस्तुसद्भावं पश्यतोऽन्यथा आत्मानं प्रेक्षावंतः परिक्लेशयंति इति । यथा च स्वतः षड् विकल्पा लब्धाः तथा नास्ति परतः कालत इत्येवमपि षड् विकल्पा लभ्यते, सर्वेऽपि मिलिता
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नन्दिसूत्रम्
॥१८१॥
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द्वादश विकल्पा जीवपदे लब्धाः, एवं अजीवादिषु अपि षट्सु पदार्थेषु प्रत्येकं द्वादश द्वादश विकल्पा लभ्यते । ततो द्वादशभिः सप्तगुणिताः चतुरशीतिर्भवंति अक्रियावादिनां विकल्पाः ॥ तथा कुत्सितं ज्ञानं अज्ञानं तदेषां अस्ति इति अज्ञानिकाः, 'अतोऽनेकखरात् ' इति मत्वर्थीय इकप्रत्ययः, अथवा अज्ञानेन चरंति इति अज्ञानिकाः - असंचिंत्य कृतबंधवैफल्यादिप्रतिपत्तिलक्षणाः, तथा हि-एते एवमाहुः - न ज्ञानं श्रेयः, तस्मिन् सति परस्परं विवादयोगतः चित्तकालुष्यादिभावतो दीर्घतरसंसारप्रवृत्तेः । तथाहि - केनचित् पुरुषेण अन्यथा देशिते सति वस्तुनि विवक्षितो ज्ञानी ज्ञानगर्वाध्मातमानसः तस्य उपरि कलुषचित्तस्तेन सह विवादं आरभते, विवादे च क्रियमाणे तीव्रतीव्रतरचित्तकालुष्यभावतोऽहंकारतश्च प्रभूत्तप्रभूततराः अशुभकर्म्मबंधसंभवः, तस्मात् च दीर्घदीर्घतरसंसारः, तथा च उक्तं - " अनेण अन्नहा देसियंमि भावंमि नाणगव्वेणकुणइ विवायं कलुसियचित्तो तत्तो य से बंधो ॥ १ ॥" इत्यादि, येऽपि च विनयवादिनो विनयप्रतिपत्तिलक्षणाः तेऽपि मोहात् मुक्तिपथपरिभ्रष्टाः वेदितव्याः । तथा हि-विनयो नाम मुक्तिअंगं यो मुक्तिपथानुकूलो न शेषः, मुक्तिपथश्च ज्ञानदर्शनचारित्राणि, 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' इति वचनात्, ततो ज्ञानादीनां ज्ञानादिआधारणां च बहुश्रुतादिपुरुषाणां यो विनयो ज्ञानादिबहुमानप्रतिपत्तिलक्षणः स ज्ञानादिसंपत् वृद्धिहेतुत्वेन परंपरया मुक्तिअंग उपजायते । यस्तु सुरनृपत्यादिषु विनयः स नियमात् संसारहेतुर्यतः सुरनृपत्यादिषु विनयो विधीयमानः सुरनृपत्यादिभाव विषयं बहुमानं आपादयति । अन्यथा विनयकरणाप्रवृत्तेः, सुरनृपत्यादिभावश्च भोग प्रधानः, ततस्तत् बहुमाने भोगबहुमानं एव कृतं परमार्थतो भवति इति दीर्घसंसारपथप्रवृत्तिः, येऽपि च यतिविनयवादिनः तेऽपि यदि साक्षात् विनयमेव केवलं मुक्तिअंगं इच्छंति तर्हि तेऽपि असमीचीनवादिनो वेदितव्याः । ज्ञानादिरहितस्य केवलस्य विनयस्य साक्षात् मुक्तिअंगत्वाभावात्, न खलु ज्ञानदर्शनचारित्ररहिताः
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अवचूरिसमलंकृतम्
॥१८१॥
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नन्दिसत्रम 8 केवलं पादपतनादिमात्रेण मुक्तिं अश्नुवते जंतवः, किंतु ज्ञानादिसहिताः, ततो ज्ञानादिकं एव साक्षात् मुक्तिअंगं, न विनयः। 8 अवचूरिकथमेतदवसीयते ?, इति चेदुच्यते । इह मिथ्यात्वाज्ञानाविरतिप्रत्ययं कर्मजालंतत् क्षयात् च मोक्षो 'मुक्तिः कर्मक्षयादिष्टा' इति वचन
समलंकृतम् ॥१८२॥
प्रामाण्यात, कर्मजालक्षयश्च न निर्मूलकारणोच्छेदमंतरेण सर्वथा संभवति । ततो मिथ्यात्वप्रतिपक्षं सम्यद्गर्शनं अज्ञानप्रतिपक्षं च ज्ञानं अविरतिप्रतिपक्षं च चारित्रं सम्यक सेव्यमानं यदा प्रकर्षप्राप्तं भवति तदा सर्वथा कारणापगमतो निर्मूलकम्र्मोच्छेदो भवति इति ज्ञानादिकं साक्षात् मुक्तिअंगं, न विनयमात्रं, केवलं विनयो ज्ञानादिषु विधीयमानः परंपरया मुक्तिअंगं साक्षात तु ज्ञानादिहेतुरिति सर्वकल्याणभाजनं तत्र तत्र प्रदेशे गीयते, यदि पुनः विनयवादिनो ज्ञानादिवृत्तिहेतुतया मुक्तिअंग विनयं इच्छंति तदा तेऽप्यस्मत्पथवर्त्तिन एव इति न कदाचिद्विप्रतिपत्तिः इति कृतं प्रसंगेन, प्रकृति अनुसंधीयते । 'सूयगडस्सणं परित्ता वायणा' इत्यादि सर्व प्राग्वत् , उद्देशानां च परिमाणं कृत्वा उद्देशसमुद्देशकालसंख्या भावनीया । तदेतत् सूत्रकृतं ॥
से किं तं ठाणे? ठाणे जीवा ठाविज्जंति, अजीवा ठाविजंति, जीवाजीवे ठाविजंति। ससमए ठाविजंति, परसमए ठाविजंति, ससमए परसमए ठाविजंति, लोए ठाविजंति, अलोए ठाविजंति, लोआलोए ठाविजंति। ठाणेणं टंका कूडासेला सिहरिणो पन्भाराकुडाइं गुहाओ आगरा दहा नईओ आघविजंति
॥१८२॥ ठाणे णं परित्ता वायणा संखिज्जा अणुओगदारा संखिज्जा वेढा संखिजा सिलोगा संखिज्जाओ निजुत्तीओ संखिजाओ पडिवत्तीओ संखिजाओ संगहणीओ से णं अंगठ्याए तइए अंगे एगे सुअक्खंधे दस अज्झयणा एगवीसं उद्देसणकाला एगवीसं समुद्देसणकाला बावत्तरि पयसहस्सा पयग्गेणं
KARNAGARLSCRECSCRIBE
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नन्दिसूत्रम् ॥१८॥
अवचूरिसमलंकृतम्
RUSSRASHUSHIRISH
संखिजा अक्खरा अणंता गमा अणंता पजवा परित्ता तसा अणंता थावरा सासयकडनिबद्ध निकाइआ जिणपन्नता भावा आघविजंति पन्नविजंति परूविजंति दसिजत्ति निदंसिर्जति उवदंसिजति से एवं आया से एवं नाया से एवं विन्नाया से एवं चरणकरणपरूवणा आपविजइ । सेतं ठाणे ॥३॥
अथ किं तत् स्थानं ?, तिष्ठति प्रतिपाद्यतया जीवादयः पदार्था अस्मिन् इति स्थानं, तथा च आह सूरिः-स्थानेन स्थाने वा' णं'। इति वाक्यालंकारे, जीवाः स्थाप्यते-यथावस्थितखरूपप्ररूपणया व्यवस्थाप्यते । शेष प्रायो निगदसिद्धं, नवरं 'टंकं' छिन्नतटं टंकं, कूटानि पर्वतस्य उपरि यथा वैताढ्यस्य उपरि सिद्धायतनकूटादीनि नव कूटानि, शैला हिमवदादयः, शिखरिणः-शिखरेण समन्वितास्ते च वैताढ्यादयः, तथा यत् कूटोपरि कुब्जाग्रवत् कुब्जं तत्प्राग्भारं, यद्वा यत्पर्वतस्योपरि हस्तिकुम्भाकृतिकुब्जं विनिर्गतं तत्प्राग्भारं, कुण्डानि-गङ्गाकुण्डादीनि, गुहाः-तिमिश्रगुहादयः, आकराः-रूप्यसुवर्णाद्युत्पत्तिस्थानानि, हृदाः-पौण्डरीकादयः, नद्योगङ्गा सिन्ध्वादय आख्यायन्ते, तथा स्थानेनाथवा स्थाने 'ण' मिति वाक्यालंकारे एकाद्यकोत्तरिकया वृद्धया दशस्थानकं यावद्विवद्धितानां भावानां प्ररूपणा आख्यायते, किमुक्तं भवति? एकसंख्यायां यावत् दशसंख्यायां ये ये भावा यथा यथा अन्तर्भवति तथा तथा ते ते प्ररूप्यंते इत्यर्थः, यथा 'एगे आया' इत्यादि, तथा 'जं इत्थं च णं लोके तं सव्वं दुपडोयारं, तं जहा-जीवा चेव अजीवा चेव' इत्यादि । 'ठाणस्स णं परित्ता वायणा' इत्यादि, सर्व प्राग्वत् परिभावनीयं, पदपरिमाणं च पूर्वस्मात् पूर्वस्मात् अंगात् उत्तरस्मिन् उत्तरस्मिन् अंगे द्विगुणं अवसेयं । शेष पाठसिद्धं, यावत् निगमनं ।
से किं तं समवाए ? समवाए णं जीवा समासिजंति, अजीवा समासिज्जंति, जीवाजीवा समासिजंति
**ILISHA RASPOLAGO
॥१८३॥
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नन्दिसूत्रम्
अवचूरि
समलंकृतम्
॥१८४॥
ससमए समासिजति,परसमए समासिजति ससमए परसमए समासिजति, लोए समासिजति,अलोए समासिज्जति, लोए अलोए समासिज्जति, समवाएणं एगइआणं, एगुत्तरिआणं ठाणसयविवडिआणं भावाणं परूवणा आघविजइ दुवालसविहस्स य गणिपिडगस्स पल्लवग्गे समासिजेति,समवायरसणं परित्ता वायणा संखिज्जा अणुओगदारा संखिज्जा वेड्डा संखिज्जा सिलोगा संखिज्जाओ निजुत्तीओ संखिजाओ पडिवत्तीओ संखिज्जाओ संगहणीओ से णं अंगट्टयाए चउत्थे अंगे एगे सुअक्संघे एगे अज्झयणे एगे उद्देसणकाले एगे समुद्देसणकाले एगे चोआले पयसयसहस्से पयग्गेणं संक्खिन्ज अक्खरा अणंता गमा अणंता पज्जवा परित्ता तस्सा अणंता थावरा सासयकडनिबद्धनिकाइया जिणपन्नत्ता भावा आघविजंति पन्नविजंति परूविजंति दंसिर्जति निदंसिज्जति उवदंसिर्जति । से एवं आया से एवं नाया से एवं विन्नाया से एवं चरणककणपरूवणा आघविजइ । से तं समवाए ॥४॥
अथ कोऽयं समवायः, सम्यक्सवायो-निश्चयो जीवादीनां पदार्थानां यस्मात् [स] समवायः, तथा चाह मूरिः-समवायेन समवाये णं' [यद्वा] इति वाक्यालंकारे, जीवाः 'समाश्रीयंते', सं इति सम्यक् यथावस्थिततया आश्रीयंते-बुद्ध्या स्वीक्रियते । अथवा जीवाः समसंते-कुप्ररूपणाभ्यः समाकृष्य सम्यक् प्ररूपणायां प्रक्षिप्यंते, शेषं आनिगमनं निगदसिद्धं, नवरं एकादिकानां एकोत्तराणां शतस्थानकं यावत् विवर्द्धितानां भावानां प्ररूपणा आख्यायते, अयमत्र भावार्थः-एकसंख्यायां द्विसंख्यायां यावत् शतसंख्यायां ये ये भावा यथा यथा यत्र यत्र अंतर्भवंति ते ते तत्र तत्र तथा तथा प्ररूप्यंते, यथा 'एगे आया' इत्यादि ॥
८४॥
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नन्दिसूत्रम् ॥१८५ ।।
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से किं तं विवाहे ? विवाहे णं जीवा विआहिज्जंति, अजीवा विआहिज्जंति, जीवाजीवा विआहिज्जंति ससमए विहिज्जति, लोए विआहिज्जति, अलोए विआहिज्जति, लोआलोए विआहिज्जति विवाहस्सणं परित्ता वायणा संखिजा अणुओगदारा संखिज्जा वेढा संखिज्जा सिलोगा संखिजाओ निज्बुत्तीओ संखिजाओ पडिवत्तीओ संखिजाओ संगहणीओ, से णं अंगट्टयाए पंचमे अंगे एगे सुअक्खंधे एगे साइरेगे अज्झयणसए दस उद्देसगसहस्साई दस समुद्देसगसहस्साइं छत्तीसं वागरणसहस्साई दोलक्खा अट्ठासी पयसहस्साइं पयग्गेणं संखिज्जा अक्खरा अनंता गमा अनंता पज्जवा परित्ता तसा अनंता थावरा सासयकडनिबद्धनिकाइया जिणपन्नता भावा आघविज्जंति पन्नविजंति परूविनंति दंसिज्वंति निदंसिज्जंति उवदंसिज्यंति से एवं आया से एवं नाया से एवं विन्नाया से एवं चरणकरणपरूवणा आघविज्जइ । से तं विवाहे ॥ ५ ॥
से किं तं नायाधम्मक हाओ ? नायाधम्मकहासु णं नायाणं नगराई उज्जाणारं चेइआई वणसंडाई समोसरणाई रायाणो अम्मापियरो धम्मायरिया धम्मकहाओ इहलोइयपरलोइया इड्डिविसेसा भोगपरिच्चाया पव्वज्जाओ परिआया सुअपरिग्गहा तवोवहाणाई संलेहणाआ भत्तपञ्चक्खाणाइं पाओवगमणा देवलोगगमणाई सुकुलपचायाईओ अ पुणबोहिलाभा अंत किरियाओ, आघविज्जंति, नायाधम्मकहाणं दस धम्मकहाणं वग्गा, तत्थ णं एगमेगाए धम्मकहाए पंच पंच अक्खाइआ सयाई एगमेगाए
अवचूरिसमलंकृतम्
॥१८५॥
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नन्दिवत्रम् ॥१८६॥
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अक्साइआए पंच पंच उवक्खाइआ सयाई एगमेगाए उवक्खाइ आए पंच पंच अक्खा इउवक्खाइआ सयाई एवमेव सपुव्वावरेणं अदुट्ठाओ कहाणगकोडीओ हवंतित्ति समक्खायं, नायाधम्मकहाणं परित्ता वायणा संखिज्जा अणुओगदारा संखिज्जा वेढा संखिज्जा सिलोगा संखिजाओ निजुत्तीओ संखिज्जाओ पडिवत्तीओ संखिजाओ संगहणीओ, से णं अंगट्टयाए छट्ठे अंगे दो सुअक्खंधे एगूणवीसं अझ संखिजाएगूणवीसं उद्देसणकाला एगूणवीसं समुद्देसणकाला संखिज्जा पयसहस्सा पयग्गेणं अक्खरा अनंता गमा अनंता पज्जवा परित्ता तसा अनंता थावरा सासयकडनिबद्धनिकाइया जिणपन्नत्ता भावा आघविज्जंति पन्नविज्जंति परुविनंति दंसिज्जंति निदंसिजंति उवदंसिज्जंति से एवं आया से एवं नाया से एवं विन्नाया से एवं चरणकरणपरूवणा आघविज्जइ । से तं नायाधम्मकहाओ ॥ ६ ॥
अथ केयं व्याख्या? व्याख्यायंते जीवादयः पदार्थाः अनया इति व्याख्या, 'उपसर्गादात०' इति अङ्प्रत्ययः, तथा चाह सूरिः – 'विवाहे णं' इत्यादि, व्याख्यायां जीवा व्याख्यायंते, शेषं आनिगमनं पाठसिद्धं । अथ कास्ता ज्ञाताधर्म्मकथाः १, ज्ञातानि - उदाहरणानि तत्प्रधाना धर्म्मकथा ज्ञाताधर्म्मकथाः । अथवा ज्ञातानि - ज्ञाताध्ययनानि प्रथमश्रुतस्कंधे धर्म्मकथा द्वितीये श्रुतस्कंधे या सु ग्रंथपद्धतिषु ताः ज्ञाताधर्म्मकथाः पृषोदरादित्वात् पूर्वपदस्य दीर्घांतता, सूरिराह - ज्ञाताधर्म्मकथासु 'णं' इति वाक्यालंकारे ज्ञातानां - उदाहरणभूतानां नगरादीनि आख्यायंते, तथा 'दसधम्मकहाणं वग्गा' इत्यादि, इह प्रथमश्रुतस्कंधे एकोनविंशतिर्ज्ञाताध्ययनानि ज्ञातानि - उदाहरणानि तत् प्रधानानि अध्ययनानि द्वितीयश्रुतस्कंधे दश धर्म्मकथाः धर्मस्य - अहिंसालक्षणस्य प्रतिपादिकाः कथा धर्म्म
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अवचूरिसमलंकृतम्
॥१८६॥
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जातानि एव भवति । एकात्यायिकाशतानशधर्मकथानां वनप्रमाणायां याथिक उपाख्या
अवचूरिसमलंकृतम्
एवं कृते सति प्रस्ततमनस्ककस्सा धर्मकथायांककया उपाख्यायिकायां ख्यायिकादयः ।
नन्दिसूत्रम्
कथाः, अथवा धर्मादनपेता: धाः धाश्च ताः कथाश्च धर्म्यकथाः, तत्र प्रथमे श्रुतस्कंधे यानि एकोनविंशतिः ज्ञाता अध्ययनानि
तेषु आदिमानि दश ज्ञातानि ज्ञातानि एव न तेषु आक्षा(ख्या?)यिकादिसंभवः, शेषाणि पुनः यानि नव ज्ञातानि तेषु एकैकस्मिन् ॥१८७॥
चत्वारिंशानि पंच पंचाख्यायिकाशतानि ५४० भवंति। एकैकस्यां च पंच आख्यायिकायां पंच पंच उपाख्यायिकाशतानि २४३०००० एकैकस्यां च उपाख्यायिकायां पंच पंच आख्यायिकोपाख्यायिकाशतानि सर्वसंख्या १२१५०००००० एकविंशं कोटिशतं लक्षाः | पंचाशत् , ततः एवं कृते सति प्रस्तुतसूत्रस्य अवतारः, द्वितीये श्रुतस्कंधे दशधर्मकथानां वर्गाः, वर्गः समूहः, दश धर्मकथासमुदाया | इत्यर्थः। तत एव च दशाध्ययनानि, एकैकस्यां धर्मकथायां-कथासमूहरूपायां अध्ययनप्रमाणायां पंच पंच आख्यायिकाशतानि, | एकैकस्यां च आख्यायिकायां पंच पंच उपाख्यायिकाशतानि एकैकस्यां उपाख्यायिकायां पंच पंच आख्यायिक उपाख्यायिकाशतानि सर्वसंख्यया पंचविंशं कोटिशतं, इह नव ज्ञाताध्ययनसंबद्धाख्यायिकादि सदृशा या आख्यायिकादयः पंचशत-लक्षाधिक-एकविंशकोटिशतप्रमाणास्ताः अस्मात् पंचविंशकोटिशतप्रमाणात् राशेः शोध्यंते । ततः शेषा अपि अपुनरुक्ता अर्द्धचतुर्थाः कथानककोट्यो भवति । तथा चाह- 'एवमेव' उक्तप्रकारेण एव गुणेन शोधने च कृते ‘स पूर्वापरेण' पूर्वश्रुतस्कंधापरश्रुतस्कंधकथाः समुदिता अपुनरुक्ता
'अद्भुट्टाओ'त्ति अर्द्धचतुर्थाः कथानककोट्यो भवंति इति आख्यातं तीर्थकरगणधरैः, तथा 'नायाधम्म कहाणं परित्ता 'वायणा' द इत्यादि सर्व प्राग्वत् भावनीयं यावत् निगमनं ।
___नवरं संख्येयानि पदसहस्राणि पदाग्रेण-पदपरिमाणेन, तानि च पंचलक्षाः पद सप्ततिः सहस्राः, पदं अपि च अत्र औपसर्गिकं | 8| नैपातिकं नामिकं आख्यातिकं मिश्रं च वेदितव्यं । अथवा इह पदं सूत्रालापकरूपं उपगृह्यते, ततः तथारूपपदापेक्षया संख्येयानि
पदसहस्राणि भवंति । न लक्षाः, एकमुत्तरत्रापि भावनीयं ॥
॥१८७॥
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नन्दिसूत्रम् ॥१८८॥
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से किं तं वासगदसाओ ? उवासगदशासु णं समणोवासयाणं नगराई उज्जाणाई चेइआई वणसंडाई समोसरणाई रायाणो अम्मापियरो धम्मायरिया धम्मकहाओ इहलोइअपरलोइआ इडिविसेसा भोगपरिचाया पव्वज्जाओ परिआगा सुअपरिग्गहा तवोवहाणाइं सीलव्वयगुणवेरमणपचक्खाण पोसहोववासपडिवज्जणया पडिमाओ उवसग्गा संलेहणाओ भत्तपञ्चक्खाणाई पाओवगमणाई देवलोगगमणाई सुकुलपच्चाईओ पुणबोहिलाभा अंतकिरिआओ अ आघविजंति, उवासगदसाणं परित्ता वायणा संखेज्जा अणुओगदारा संखिज्जा वेढा संखिज्जा सिलोगा संखिज्जाओ निज्जुत्तीओ संखिजाओ संगहणीओ संखिज्जाओ पडिवत्तीओ, से णं अंगट्टयाए सत्तमे अंगे एगे सुअसंघे दस अज्झणा दस उद्देसणकाला दस समुद्देसणकाला संखिज्जा पयसहस्सा पयग्गेणं संखिज्जा अक्खरा अणंता गमा अनंता पज्जवा परित्ता तसा अणंता थावरा सासयकडनिबद्धनिकाइआ जिणपन्नता भावा आघविजंति पन्नविज्जंति परुविज्जंति दंसिजंति उवदंसिज्जंति, से एवं आया से एवं विन्नाया एवं चरणकरणपरुवणा आघविज्जह, से तं उवासगदसाओ ॥ १ ॥
अथ काः ता उपाशकदशाः, १ उपासकाः श्रावकाः तत्गतअणुव्रतगुणत्रतादिक्रियाकलापप्रतिबद्धाः - दशअध्ययनानि उपासकदशाः, तथा चाह सूरिः - 'उवासगदसासु णं' इत्यादि पाठसिद्धं यावत् निगमनं, नवरं संख्येयानि पदसहस्राणि पदाग्रेण इति दशलक्षाः द्विपंचाशत् सहस्रा इत्यर्थः । द्वितीयं तु व्याख्यानं प्रागिव भावनीयं ।
अवचूरिसमलंकृत
॥१८८॥
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नन्दिमूत्रम्
अवचूरिसमलंकृतम्
॥१८९॥
से किं तं अंतगडदसाओ ? अंतगडदसासु णं अंतगडाणं नगराई उजाणाई चेइआई वणसंडाई समोसरणाई रायाणो अम्मापियरो धम्मायरिया धम्मकहाओ इहलोइयपरलोइयाइड्डिविसेसा भोगपरिचाया पव्वजाओ परिआया सुअपरिग्गहा तवोवहाणाई संलेहणाओ भत्तपच्चक्खाणाई पाओवगमणाई अंतकिरियाओ आघविजंति, अंतगडदसासु णं परित्ता वायणा संखिज्ज अणुओगदारा संखिज्जा वेढा संखिजा सिलोगा संखिज्जाओ निजुत्तीओ संखिजाओ पडिवत्तीओ संखिजाओ संगहणीओ से णं अंगठ्याए अट्ठमे अंगे एगे सुअक्खंघे अट्ठ वग्गा अट्ठ उद्देसणकाला अट्ठ समुद्देसणकाला संखिज्जा पयसहस्सा पयग्गेणं संखिजा अक्खरा अणंता गमा अणंता पजवा परित्ता तसा अणंता थावरा सासयकडनिबद्धनिकाइया जिणपन्नता भावा आघविजंति पन्नविजंति परूविजंति दसिज्जंति निदंसिजति उवदंसिजंति से एवं आया से एवं नाया से एवं विन्नाया से एवं चरणकरणपरूवणा आघविजइ। से तं अंतगडदसाओ॥८॥
अथ कास्ताः अंतकृतदशाः ?, अंतो-विनाशः तं कर्मणः तत् फलभूतस्य वा संसारस्य ये कृतवन्तस्तेऽन्तकृतः-तीर्थकरादयः, | तत् वक्तव्यताप्रतिबद्धा दशाध्ययनानि अंतकृत्दशाः । तथा चाह सूरिः-अंतगडदसासु' 'ण' इत्यादि पाठसिद्धं यावत् 'अंतकिरियाउ' त्ति भावापेक्षया, अंताश्च ताः क्रियाश्च अंतक्रियाः शैलेश्यवस्थादिका गृह्यते । शेषं प्रकरार्थ यावत् 'अट्ठवम्ग' त्ति वर्गः समूहः, स च अंतकृतां अध्ययनानां वा वेदितव्यः, सर्वाणि च अध्ययनानि च वर्गवर्गान्तर्गतानि युगपदुद्दिश्यन्ते, अत आह-उद्देशा अष्टौ उद्देशन
॥१८९॥
न. सू. १६
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नन्दिसूत्रम् ॥ १९०॥
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काला अष्टौ समुदेशन कालाः, संख्येयानि पदसहस्राणि पदाग्रेण तानि च किल त्रयोविंशति लक्षाः चत्वारश्च सहस्राः, शेषं पाठसिद्धं यावत् निगमनं ॥
से किं तं अणुत्तरोववाइअदसाओ ? अणुत्तरोववाइअदसासु णं अणुत्तरोववाइ आणं नगराई उज्जाणाई चेइआई वणसंडाणं समोसरणाई रायाणो अम्मापियरो धम्मायरिया धम्मकहाओ इहलोइयपरलोइयाइडिविसेसा भोगपरिचाया पव्वज्जाओ परिआया सुअपरिग्गहा तवोवहाणाई पडिमाओ उवसग्गा संलेहणाओ भत्तपञ्चक्खाणाई पाओवगमणाई अणुत्तरोववाइत्ते उबवत्ती सुकुलपच्चायाईओ पुणबोहिलाभा अंतकिरियाओ आघविजंति, अणुत्तरोववाइअदसासु णं परित्ता वायणा संखिज्जा अणुओगदारा संखिज्जा वेढा संखिजा सिलोगा संखिज्जाओ निजुत्तीओ संखिजाओ पडिवत्तीओ संखिजाओ संगहणीओ से णं अंगट्टयाए नवमे अंगे एगे सुअक्खंधे तिन्निवग्गा तिन्नि उद्देसणकाला तिन्नि समुद्दे सणकाला संखिज्जा पयसहस्साई पयग्गेणं संखिज्जा अक्खरा अणंता गमा अनंता पज्जवा परिता तसा अनंता थावरा सासयकडनिवद्धनिकाइया जिणपन्नता भावा आघविजंति पन्नविज्जंति परूविज्वंति दंसिजंति निदंसिज्जंति उवदंसिजंति से एवं आया से एवं नाया से एवं विन्नाया से एवं चरणकरणपरूवणा आघविजइ । से तं अणुत्तरोववाइअदाओ ॥ ९ ॥ अथ कास्ताः अनुत्तरौपपातिकदशाः १, न विद्यते उत्तरः- प्रधानो येभ्यस्तेऽनुत्तराः - सर्वोत्तमा इत्यर्थः । उपपातेन निर्वृत्ता
अवचूरिसमलंकृतम्
॥ १९० ॥
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नन्दिसूत्रम् ॥१९॥
अवचूरिसमलंकृतम्
औपपातिकाः अनुत्तराश्च ते औपपातिकाश्च अनुत्तरौपपातिकाः, विजयादि अनुत्तरविमानवासिनः इत्यर्थः । तत् वक्तव्यताप्रतिबद्धा दशा अनुत्तरोपपातिकदशाः । तथा चाह सूरिः-'अणुत्तरोववाइयदसासु णं' इत्यादि पाठसिद्धं यावत् निगमनं, नवरं अध्ययनसमूहो वर्गः, | वर्गे वर्गे च दश दश अध्ययनानि, वर्गश्च युगपदेव उद्दिश्यते इति त्रय एव उद्देशनकालाः त्रय एव समुद्देशनकालाः, संख्येयानि च पदसहस्राणि-सहस्राष्टाधिकषट्चत्वारिंशत् लक्षाः प्रमाणानि वेदितव्यानि ॥
से किं तं पण्हावागरणाइं? पण्हावागरणेसु णं अटुत्तरपसिणसयं अट्ठत्तरं अपसिणसयं अठुत्तरं पसिणापसिणसयं, तंजहा-अंगुट्ठपसिणाई बाहुपसिणाई अदागपसिणाई अन्नेवि विचित्ता विजाइसया नागसुवन्नेहिं सद्धिं दिवा संवाया आघविजंति पण्हावागरणाणं परित्ता वायणा संखिज्जा अणुओगदारा संखिज्जा वेढा संखिज्जा सिलोगा संखिज्जाओ निजुत्तीओ संखिजाओ संगहणीओ संखिजाओ पडिवत्तीओ, से णं अंगठ्ठयाए दसमे अंगे एगे सुअक्खंधे पणयालीसं अज्झयणा पणयालीसं उद्देसणकाला पणयालीसं समुद्देसणकाला संखिजा पयसहस्साई पयग्गेणं संखिज्जा अक्खरा अणंता गमा अणंता पन्जवा परित्ता तसा अणंता थावरा सासयकडनिबद्धनिकाइया जिणपन्नता भावा आपविजंति पन्नविजंति परूविजंति दंसिज्जति निदंसिजंति उवदंसिजंति से एवं आया से एवं नाया से एवं विनाया से एवं चरणकरणपरूवणा आघविजइ । से तं पण्हावागराणाई ॥१०॥ अथ कानि प्रश्नव्याकरणानि ?, प्रश्नः-प्रतीतः तत्-विषयं निर्वचनं-व्याकरणं, तानि च बहूनि ततो बहुवचनं, तेषु प्रश्नव्याकरणेषु
॥१९१॥
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नन्दिसूत्रम्
अवचूरिसमलंकृतम्
॥१९
॥
अष्टोत्तरं प्रश्नशतं-या विद्या मंत्रा वा विधिना जप्यमाना पृष्टा एव संतः शुभाशुभं कथयति ते प्रश्नाप्रश्नाः तेषां अष्टोत्तरं शतं आख्यायते । तथा अन्येऽपि च विविधाविद्यातिशयाः कथ्यंते, तथा नागकुमारैः सुवर्णकुमारैः अन्यैश्च भवनपतिभिः सह साधूनां दिव्याः संवादा-जल्पविधयः कथ्यंते, यथा भवंति तथा कथ्यते इत्यर्थः, शेषं निगदसिद्ध, नवरं संख्येयानि पदसहस्राणि द्विनवतिलक्षाः षोडश सहस्रा इत्यर्थः॥
से किं तं विवागसुयं ? विवागसुए णं सुकडदुक्कडाणं कम्माणं फलविवागे आघविजइ, तत्थ णं दस दुहविवागा दस सुहविवागा। से किं तं दुहविवागा ? दुहविवागेसु णं विवागाणं नगराई उजाणाई चेइआई वणसंडाइं समोसरणाइं रायाणो अम्मापियरोधम्मायरिया धम्मकहाओ इहलोइयपरलोइय इडिविसेसा निरयगमणाई संसारभवपवंचा दुहपरंपराओ दुकुलपञ्चायाईओ दुलहबोहिअत्तं आघविजंति से तं दुहविवागा। से किं तं सुहविवागा? सुहविवागेसु णं सुहविवागाणं नगराई उजाणाई चेइआई वणसंडाई समोसरणाई रायाणो अम्मापियरो धम्मायरिया धम्मकहाओ इहलोइयपरलोइयाइडिविसेसा भोगपरिचाइया पव्वजाओ परिआया सुअपरिग्गहा तवोवहाणाई संलेहणाओ भत्तपच्चक्खाणाई देवलोगगमणाई सुहपरंपराओ सुकुलपञ्चायाईओ पुणवोहिलाभा अंतकिरियाओ आघविजंति, विवागसुयस्स णं परित्ता वायणा संखिजा अणुओगदारा संखिज्जा वेढा संखिज्जा सिलोगा संखिजाओ निजुत्तीओ संखिजा संगहणीओ संखिज्जाओ पडिवत्तीओ से णं अंग
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नन्दिसूत्रम् ॥१९३॥
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झ्याए एक्कारसमे अंगे दो सुअक्खंधे वीसं अज्झयणा वीसं उद्देसणकाला वीसं समुद्दे सणकाला संखिज्जा पयसहस्साई पयग्गेणं संखिज्जा अक्खरो अनंता गमा अनंता पज्जवा परित्ता तसा अणंता थावरा सासयकड निबद्ध निकाइया जिणपन्नत्ता भावा आघविज्वंति पन्नविज्जंति परूविज्जंति दंसिजति निदंसिज्जंति उवदंसिज्जंति से एवं आया से एवं नाया से एवं विन्नाया से एवं चरणकरणपरूवणा आघविज्जह से तं विवागसुयं ॥ ११ ॥
अथ किं तत् विपाकश्रुतं १, विपचनं विपाकः शुभाशुभकर्म्मपरिणाम इत्यर्थः । तत् प्रतिपादकं श्रुतं विपाकश्रुतं, शेषं सर्व आनिगमनं पाठसिद्धं, नवरं संख्येयानि पदसहस्राणि इति एकाशीति एका कोटी चतुरशीति लक्षाः द्वात्रिंशच्च सहस्राणि ॥
से किं तं दिट्ठिवाए ? दिट्ठिवाए णं सव्वभावपरूवणा आघविजंति, से समासओ पंचविहे पन्नते, तंजा परकम्मे सुत्ताई पुगैए अणुओंगे चूलियाँ
से किं तं परिकम्मे ? परिकम्मे सत्तविहे पन्नत्ते, तंजहा- सिद्धसेणिआपरिकम्मे, मणुस्ससे णिआपरिकम्मे, पुट्ठसेणिआपरिकम्मे, ओगाढसेणिआपरिकम्मे, उवसंपजसेणिआपरिकम्मे, विप्पजहसेणिआपरिकम्मे चुआचुअसेणिआपरिकम्मे । से किं तं सिद्धसेणिआपरिकम्मे ? सिद्धसेणिआ परिकम्मे चउदसविहे पन्नत्ते, तं जहा- माउगापेयाई, एगहिअपेयाई, अट्ठपैयाई, पाढोआमासपयाई,
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॥१९३॥
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नन्दिसूत्रम् ॥१९४॥
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के भूअं, रासिद्धं, एगंगुणं, दुर्गुणं, तिर्गुणं, केउभूअं, पडिंग्गहो, संसारपडिंग्गहो, नंदावेत्तं, सिद्धात्तं । सेतं सिद्धसेणिआपरिकम्मे ॥ १ ॥
से किं तं मणुस्ससेणिआपरिकम्मे ? मणुस्ससेणिआपरिकम्मे चउदसविहे पन्नत्ते, तंजहा माउगापेयाई, एगहिअपेयाई, अट्ठपैयाई, पाढोआमासयाई, केउभूअं, रासिबद्धं, एगगुणं, दुर्गुणं, तिगुणं के भूअं, पडिग्गहो, संसारपडिग्गेहो, नंदावेत्तं, मणुस्सावेंत्तं ? सेतं मणुस्ससेणिआपरिकम्मे ॥ २ ॥ से किं तं पुसेणिआपरिकम्मे ? पुट्ठसेणिआपरिकम्मे एक्कारसविहे पन्नत्ते, तं जहा - पाढोआमासपा, भू, रासिद्धं, एगगुणं, दुंगुणं, तिगुणं, केउ भूअं, पडिग्गहो संसारपडिंग्गहो, नंदावतं पुट्ठावंत्तं, से तं पुट्टसेणिआपरिकम्मे ॥ ३ ॥
से किं तं ओगाढसेणिआपरिकम्मे ? ओगाढसेणिआपरिकम्मे एक्कारसविहे पन्नत्ते, तं जहा पाढोआमासर्पयाई, केउ भूयं, रासिंबद्धं, एगेंगुणं दुर्गुणं, तिगुणं, केउ भूअं, पडिग्गहो, संसारपडिग्गहो, नंदावत्तं, ओगाढावत्तं, से तं ओगाढसेणिआपरिकम्मे ॥ ४ ॥
से किं तं उपसंपज सेणिआपरिकम्मे ? उपसंपज्जणसेणिआपरिकम्मे एक्कारसविहे पन्नत्ते, तं जहापाढोआमासर्पयाइं, केउ भूअं, रासिद्धं, एगैगुणं दुगुणं, तिर्गुणं, केउ भूअं, पर्डिंग्गहो, संसारपर्डिंग्गहो, नंदावतं, उपसंपर्जणावत्तं, से तं उपसंपजण सेणिआपरिकम्मे ॥ ५ ॥
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नन्दिसूत्रम्
॥ १९५॥
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से किं तं विप्पज्जहणसेणिआपरिकम्मे ? विप्पज्जहणसेणिआपरिकम्मे एक्कारसविहे पन्नत्ते, तं जहा - पाढोआमासर्पयाई, केउ भूअं, रासिंबद्ध, एगगुणं दुगुणं, तिगुणं, केउँ भूअं, पर्डिंग्गहो, संसारडिंग्गहो, नंदार्वत्तं, विप्पज्जहणावत्तं, से तं विप्पज्जहणसेणिआपरिकम्मे ॥ ६ ॥
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से किं तं चुआचुअसेणिआपरिकम्मे ? चुआचुअसेणिआपरिकम्मे एकारस्सविहे पन्नत्ते, तं जहा - पाढोआमासयाई, केउ भूअं, रासिबद्धं, एगैगुणं, दुगुणं, तिगुणं, केउ भूअं, पडिग्गहो, संसार पडिग्गहो, नंदावतं, चुआचुअवत्तं, से तं चुआचुअसेणिआपरिकम्मे ॥ ७ ॥
अथ कोऽयं दृष्टिवादः १, दृष्टयो- दर्शनानि वदनं वादः दृष्टीनां वादो यत्र स दृष्टिवादः । अथवा पतनं पातो दृष्टीनां पातो यत्र दृष्टिपातः, तथाहि -तत्र सर्वनयदृष्टय आख्यायन्ते, तथा चाह सूरिः- दृष्टिवादेन अथवा दृष्टिपातेन यद्वा दृष्टिपाते दृष्टिवादे वा 'णं' इति वाक्यालंकारे सर्वभावप्ररूपणा आख्यायते । सर्वं इदं प्रायो व्यवच्छिन्नं तथापि लेशतो यथागतसंप्रदायं किंचिद् व्याख्यायते, स दृष्टिवादी दृष्टिपातो वा समासतः पंचविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - परिकर्म्मः १ सूत्राणि २ पूर्वगतं ३ अनुयोगः ४ चूलिकाः ५ । तत्र परिकर्म्म नाम योग्यतापादनं तत् हेतुशास्त्रं अपि परिकर्म्म, किमुक्तं भवति ? - सूत्रपूर्वगतानुयोगसूत्रार्थग्रहणयोग्यतासंपादनसमर्थानि परिकर्माणि, यथा गणितशास्त्रे संकलनादीनि आद्यानि षोडश परिकर्माणि शेषगणितसूत्रार्थग्रहणे योग्यतासंपादन समर्थानि तथाहि यथा गणितशास्त्रे गणितशास्त्रगताद्यषोडशपरिकर्म्मगृहीतसूत्रार्थः शेषगणितशास्त्रग्रहणे योग्यो भवति, नान्यथा तथा गृहीतविवक्षितपरिकर्म्मसूत्रार्थः सन् शेषसूत्रादिरूपदृष्टिवादश्रुतग्रहण योग्यो भवति, न इतरथा,
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नन्दिसूत्रम्
अवचूरिसमलंकृतम्
॥१९६॥
छचउकनइआई सत्ततेरासियाई । से तं परिकम्मे ॥१॥
तच्च परिकर्मसिद्धश्रेणिकापरिकर्मादि मूलभेदापेक्षया सप्तविधं, मातृकापदाधुत्तभेदापेक्षया अशीतिविध, तच्च समूलोत्तरभेदं सकलमपि सूत्रतोऽर्थतश्च व्यवच्छिन्नं, यथागतसंप्रदायतो वा वाच्यं, एतेषां च सिद्धश्रेणिकापरिकादीनां सप्तानां अपि परिकाणां। आधानि षट्परिकर्माणि खसमयवक्तव्यतानुगतानि खसिद्धांतप्रकाशकानि इत्यर्थः । ये तु गोशालप्रवर्तिता आजीविका पाखंडिनः तत्मते च्युताच्युतश्रेणिका परिकमसहितानि सप्तापि परिकर्माणि प्रज्ञाप्यते । संप्रति एतेषु एव परिकर्मसु नयचिंता, तत्र नयाः सप्त नैगमादयः, नैगमोऽपि द्विधा-सामान्यग्राही विशेषग्राही च, तत्र यः सामान्यग्राही स संग्रहं प्रविष्टो यस्तु विशेषग्राही स व्यवहारं, शब्दादयश्च त्रयोऽपि नया एक एव नयः परिकल्प्यते। तत एवं चत्वार एव नयाः, एतैश्चतुर्भिः नयः आद्यानि षट्परिकर्माणि स्वसमयवक्तव्यतया परिचित्यते । तथा चाह सूत्रकृत्-छ 'चउक्कनइयाई ति आधानि षट् परिकर्माणि चतुर्नयकानि४ चतुर्णयोपेतानि, तथा त एव गोशालकप्रवर्तिता आजीविकाः पाखंडिनः त्रैराशिका उच्यते । कस्मादिति चेदुच्यते ?, इह ते सर्व वस्तु
व्यात्मकं इच्छंति, तत्यथा-जीवो अजीवो जीवाजीवश्च, लोकाः अलोको लोकालोकश्च, सदसत् सदसत्, नयचिंतायां अपि त्रिविधं नयं इच्छंति, तद्यथा-द्रव्यास्तिकं पर्यायास्तिकं उभयास्तिकं च, तत् त्रिभिः राशिभिः चरंति इति त्रैराशिकाः तत्मतेन सप्तापि परिकर्माणि उच्यते, तथा चाह-सूत्रकृत्-'सत्ततेरासीया' इति, सप्त परिकर्माणि त्रैराशिकानि त्रैराशिकमतानुयायीनि, एतत् उक्तं भवति पूर्व सूरयो नयचिंतायां त्रैराशिकमतं अवलंबमानाः सप्तापि परिकर्माणि त्रिविधयापि नयचिंतया चिंतयंति स्म इति, तदेतत् परिकर्म।.
से किं तं सुत्ताई ? सुत्ताई बावीसं पन्नत्ताई, तंजहा-उजुसुयं, परिणयापरिणयं, बहुभंगिअं, विजय
॥१९॥
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नन्दिसूत्रम्
अवचूरि
समलंकृतम्
॥१९७॥
चरियं, अणंतरं, परंपरं, मासाणं, संजूह, संभिन्नं, आहब्वायं, सोवस्थिआवत्तं, नंदावत्तं, बहुँलं, पुट्ठापुढे, विओवत्तं, एवं अं, दुयावत्तं, वत्तमाणप्पयं, समभिरुढं, सबओभई, पस्सांस, दुप्पडिगह, इच्चेइआई बावीस सुत्ताइं छिन्नच्छेअनइआणि ससमयसुत्तपरिवाडीए, इच्चेइआई बावीस सुत्ताई अच्छिन्नच्छेअनइआणि आजीविअसुत्तपरिवाडीए, इचेइआई बावीस सुत्ताइं तिगणइयाणि तेरासिअसुत्तपरिवाडीए, इच्चेइआई बावीस सुत्ताई चउक्कनइआणि ससमयसुत्तपरिवाडीए एवामेव सपुत्वावरेणं अट्ठासीई सुत्ताई भवंतीति मक्खायं । से तं सुत्ताई ॥२॥ से किं तं पुवगए ? पुत्वगए चउदसविहे पन्नत्ते, तंजहा-उप्पायपुवं, अग्गाणीयं, वीरियं', अत्थिनत्थिप्पायं, नाणप्पवायं, सच्चप्पवायं, आयप्पवायं, कम्मप्पवायं, पञ्चक्खाणपवायं विजाणुप्पंवायं, अवंझं, पाणऊ, किरियाविसालं, लोगबिंदुसारं। उप्पायपुवस्स णं दसवत्थू चत्तारि चूलिआवत्थू पन्नत्ता, अग्गाणीयपुवस्स णं चउदसवत्थू दुवालस चूलिआवत्थू पन्नत्ता, वीरियपुवस्स णं अहवत्थू अट्ठचूलिआवत्थू पन्नत्ता। अत्थिनत्थिप्पवायपुवस्स णं अट्ठारसवत्थू दस चूलिआवत्थू पन्नत्ता। नाणप्पवायपुवस्स णं बारस्स वत्थू पन्नत्ता। सच्चप्पवायपुवस्स णं दोन्नि वत्थू पन्नत्ता, आयप्पवायपुव्वस्स णं सोलसवत्थू पन्नत्ता। कम्मप्पवायपुव्वस्स णं तीसं वत्थू पन्नत्ता। पच्चक्खाणपुवस्स णं वीसं वत्थू पन्नत्ता। विजाणुप्पवायस्स णं पन्नरस वत्थू पन्नत्ता। अवंज्झपुव्वस्स णं बारस वत्थू
॥१९७॥
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नन्दिसूत्रम् ॥१९८॥
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पन्नत्ता । पाणाउपुव्वस्स णं तेरस वत्थू पन्नत्ता । किरियाविसालपुव्वस्स णं तीसं वत्थू पन्नत्ता । लोग बिंदुसारपुवस्स णं पणवीसं वत्थू पन्नत्ता । 'दस चोदस अट्ठ अट्ठारसेव वारस दुवे अ वत्थूणि । सोलस तीसा वीसा पन्नरस अणुष्पवामि ॥ १ ॥
बारस इक्कारसमे बारसमे तेरसेव वत्थूणि । तीसा पुण तेरसमे चउदसमे पन्नविसाओ ॥ २ ॥ चत्तारि दुवालस अट्ठ चेव दस चेव चूल्लवत्थूणि । आइल्लाण चउन्हं सेसाणं चूलिआ नत्थि' ॥ ३ ॥ से तं पुव्वगए ।
से किं तं अणुओगे ? अणुओगे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा- मूलपढमाणुओगे, गंडी आणुओगे। से किं तं मूलपढमाणुओगे ? मूलपढमाणुओगे णं अरहंताणं भगवंताणं पुग्वभवा देवगमणई आउं चवणाई जम्मणाणि अभिसे रायवरसिरीओ पव्वज्जाओ तवा य उग्गा केवलनाणुप्पयाओ तित्थपवत्तणाणि अ सीसा गणा गणहरा अज्जपवत्तिणीओ संघस्स चउव्विहस्स जं च परिमाणं जिणमणपज्जव ओहिनाणी सम्मत्तसुअनाणिणो अ वाई अणुत्तरगई अ उत्तरवेउब्विणो अ मुणिणो जत्तिआ सिद्धा सिद्धिपहो जह देसिओ जचिरं कालं पाओवगया जे जहिं जत्तिआई भत्ताइं छेइत्ता अंतगडे मुणिवरुत्तमे तिमिरओघविपमुक्के मुक्खसुहमणुत्तरं च पत्ते । एवमन्ने एवमाहभावा मूलपढमाणुओगे कहिआ । सेतं मूलपढमाणुओगे । से किं तं गंडिआणुओगे ? गंडिआणुओगे कुलगरगंडिआओ,
अवचूरिसमलंकृतम्
॥१९८॥
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नन्दिसूत्रम्
अवचूरि
समलंकृतम्
॥१९९॥
तित्थयरगंडिआओ, चक्कवद्विगंडिआओ, दसारगंडिआओ, बलदेवगंडिआओ, वासुदेवगंडिआओ, गणधरगंडिआओ, भद्दवाहुगंडिआओ, तवोकम्मगंडिआओ, हरिवंसगंडिआओ, उस्सप्पिणी गंडिआओ, ओसप्पिणीगंडिआओ, चित्तरगंडिआओ अमरनरतिरिअनिरयगइगमणविविहपरियहणेसु एवमाईआओगंडिआओ आघविजंति पन्नविजंति से तं गंडिआणुओगे।सेतं अणूओगे॥४॥ से किं तं चूलिआओ? चूलिआओ आइल्लाणं चउण्हं पुव्वाणं चूलिआ, सेसाइं पुव्वाइं अचूलिआई, से तं चूलिआओ ॥५॥ दिट्ठिवायस्स णं परित्ता वायणा संखिजा अणुओगदारा संखिजा वेढा संखिज्जा सिलोगा संखिजाओ निजुत्तिओ संखिजाओ पडिवत्तिओसंखिज्जाओसंगहणीओ से णं अंगट्टयाए वारसमे अंगे एगे सुअक्खंधे चउदस पुव्वाइं संखिजा वत्थू संखिजा चूलवत्थू संखिजा पाहुडा संखिजा पाहुडपाहुडा संखिजाओ पाहुडिआओ संखिज्जाओ पाहुडपाहुडिआओ संखिज्जाइं पयसहस्साई पयग्गेणं संखिज्जा अक्खरा अणंता गमा अणंता पज्जवा परित्ता तसा अणंता थावरा सासयकडनिबद्धनिकाइया जिणपन्नत्ता भावा आघविजंति पन्नविजंति परूविजंति दंसिर्जति निदसिजंति उवदंसिज्जंति से एवं आया से एवं नाया से एवं विन्नाया से एवं चरणकरणपख्वणा आपविजइ। से तं दिट्ठिवाए ॥१२॥ अथ कानि सूत्राणि, सर्वस्य पूर्वगतसूत्रार्थस्य सूचनात् सूत्राणि, तथाहि-तानि सूत्राणि सर्वद्रव्याणां सर्वपर्यायाणां
OSSEISARUSSASSURHUSES
| ॥१९९॥
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नन्दिसूत्रम्
अवचूरिसमलंकृत
॥२०॥
ARRIOR
| सर्वनयानां सर्वभंगविकल्पानां प्रदर्शकानि, आचार्य आह-सूत्राणि द्वाविंशतिः प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-'ऋजुसूत्र' इत्यादि, एतानि अपि संप्रति सूत्रतोऽर्थतश्च व्यवच्छिन्नानि यथागतसंप्रदायतो वा वाच्यानि, एतानि च सूत्राणि नयविभागतो विभिद्यमानानि अष्टाशीति संख्यानि भवंति । कथमिति चेत् ?, अत आह-'इच्चेइयाई बावीसं सुत्' इत्यादि । इह यो नाम नयः सूत्रं छेदेन छिन्नं एव अभिप्रेतेन द्वितीयेन सूत्रेण सह संबंधयति । यथा 'धम्मो मंगलमुक्किट्ठ' इति श्लोकः, तथा हि-अयं श्लोकः छिन्नछेदनयमतेन व्याख्यायमानो न द्वितीयादीन् श्लोकान् अपेक्षते नापि द्वितीयादयः श्लोका अमुं, अयं अत्राभिप्रायः-तथा कथंचनापि अमुं श्लोकं पूर्वसूरयः च्छिन्नछेदनयमतेन व्याख्यांति स्म यथा न मनाग् अपि द्वितीयादिश्लोकानां अपेक्षा भवति । द्वितीयादीनपि श्लोकान् तथा व्याख्यांति स्म | यथा न तेषां प्रथमश्लोकस्यापेक्षा, तथा सूत्राणि अपि यन्नयाभिप्रायेण परस्परं निरपेक्षाणि व्याख्यांति स्म स छिन्नछेदनयः, छिन्नोद्विधा कृतः पृथक् कृतः छेदः-पर्यतो येन स छिन्नच्छेदः प्रत्येकं कल्पितपर्यंत इत्यर्थः। स चासौ नयश्च छिन्नच्छेदनयः, इति एतानि द्वाविंशतिः सूत्राणि स्वसूत्रसमयपरिपाट्यां-खसमयवक्तव्यतां अधिकृत्य सूत्रपरिपाट्यां विवक्षितायां छिन्नछेदनयिकानि, अत्र 'अतो
अनेकस्वरादि' ति मत्वर्थीय इक् प्रत्ययः, ततोऽयमर्थः-छिन्नछेदनयवंति द्रष्टव्यानि, तथा इत्येतानि द्वाविंशतिः सूत्राणि आजीविक81 सूत्रपरिपाट्यां-गोशालप्रवर्त्तिताजीविकपाखंडिमतेन सूत्रपरिपाट्यां विवक्षितायां अच्छिन्नच्छेदनयिकानि, इयमत्र भावना-अच्छिन्न
च्छेदनयो नाम यः सूत्रं सूत्रांतरेण सह अच्छिन्नं अर्थतः संबंध अभिप्रेति, यथा 'धम्मो मंगलमुक्किटु' इति श्लोकं, तथा हि-अयं श्लोकः अच्छिन्नछेदनयमतेन व्याख्यायमानो द्वितीयादीन् श्लोकान् अपेक्षते द्वितीयादयोऽपि श्लोका एनं श्लोकं, एवमेतानि अपि द्वाविंशतिः सूत्राणि अक्षररचना अधिकृत्य परस्परं विभक्तानि अपि स्थितानि अच्छिन्नच्छेदनयमतेनर्थसंबंध अपेक्ष्य सापेक्षाणि वर्चते ।
॥२०॥
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नन्दिसूत्रम् ॥२०१॥
न. स. १७
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तदेवं नयाभिप्रायेण परस्परं सूत्राणां संबंधासंबन्धावधिकृत्य भेदो दर्शितः, संप्रति अन्यथा नयविभागं अधिकृत्य भेदं दर्शयति । इत्येतानि द्वाविंशतिसूत्राणि त्रैराशिकसूत्रपरिपाठ्यां त्रैराशिकसूत्रनयमतेन सूत्रपरिपाट्यां विवक्षितायां त्रिकनयिकानि, त्रिकेति प्राकृतत्वात् स्वार्थे कः प्रत्ययः, ततोऽयमर्थः - त्रितयिकानि - त्रिनयोपेतानि, किमुक्तं भवति ? । त्रैराशिकमतं अवलम्ब्य द्रव्यास्तिका दिनयत्रिकेण चित्यंते इति । तथा इत्येतानि सूत्राणि द्वाविंशतिसूत्राणि स्वसमयसूत्र परिपाठ्यां - स्वसमयवक्तव्यतां अधिकृत्य सूत्रपरिपाठ्यां विवक्षितायां चतुर्नयकानि - संग्रहव्यवहारऋजुमूत्रशब्दरूपनयचतुष्टयोपेतानि संग्रहादिनयचतुष्टयेन चिंत्यंते इत्यर्थः एवमेव-उक्तेनैवप्रकारेण 'पुव्वावरेणं' ति पूर्वाणि च अपराणि च पूर्वापरं समाहारप्रधानो द्वंद्व, पूर्वापरसमुदाय इत्यर्थः । ततः एतदुक्तं भवतिनय विभागतो विभिन्नानि पूर्वाणि अपराणि च सूत्राणि समुदितानि सर्वसंख्यया अष्टाशीतिः सूत्राणि भवति, चतसृणां द्वाविंशतीनां अष्टाशीतिमानत्वात्, इत्याख्यातं तीर्थकर गणधरैः, तानि एतानि सूत्राणि । अथ किं तत् पूर्वगतं ?, इह तीर्थकरः तीर्थप्रवर्त्तन काले गणधरान् सकलश्रुतार्थावगाहनसमर्थान् अधिकृत्य पूर्वं पूर्वगतं सूत्रार्थ भाषते । ततस्तानि पूर्वाणि उच्यंते, गणधराः पुनः सूत्ररचनां विदधत आचारादिक्रमेण विदधति स्थापयंति वा, अन्ये तु व्याचक्षते - पूर्वं पूर्वगतसूत्रार्थ अर्हद्भाषते, गणधरा अपि पूर्वं पूर्वगतसूत्रं विरचयति पश्चादाचारादिकं, अत्र चोदक आह-ननु इदं पूर्वापरविरुद्धं यस्मादादौ निर्मुक्तौ उक्तं- 'सव्वेसिं आयारो पढमो' इत्यादि, ततः स्थापना अधिकृत्य उक्तं, अक्षररचनां अधिकृत्य पुनः पूर्वं पूर्वाणि कृतानि ततो न कश्चित् पूर्वापर विरोधः, सूरिराह
पूर्वगतं श्रुतं चतुर्दशविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा- 'उत्पादपूर्व' इत्यादि तत्र उत्पादप्रतिपादकं पूर्व उत्पादपूर्व, तथाहि तत्र सर्व पर्यायाणां सर्वद्रव्याणां च उत्पादं अधिकृत्य प्ररूपणा क्रियते । तस्य पदपरिमाणं एका पदकोटी । द्वितीयं अग्रायणीयं, अग्रे - परिमाणं तस्य
अवचूरिसमलंकृतम्
॥२०१॥
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नन्दिसत्रम् ॥२०२॥
अवचूरिसमलंकृतम्
आयनं गमनं परिच्छेद इत्यर्थः, तस्मै हितं अग्रायणीयं, सर्वद्रव्यादिपरिमाणपरिच्छेदकारीति भावार्थः, तथा हि-तत्र सर्वद्रव्याणां | पर्यायाणां सर्वजीवविशेषाणां च परिमाणं उपवर्ण्यते, तस्य पदपरिमाणं षण्णवतिः पदशतसहस्राणि । तृतीयं पूर्व 'विरियं' ति पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात्' वीर्यप्रवादं, 'कर्मणोऽण' इति अण् प्रत्ययः, तस्य पदपरिमाणं सप्ततिपदशतसहस्राणि, चतुर्थ अस्ति नास्ति प्रवादं, तत्र यद् वस्तु लोकेऽस्ति धर्मास्तिकायादि यच्च नास्ति खरशृंगादि तत् प्रवदति इति अस्तिनास्तिप्रवादं, अथवा सर्वे वस्तु स्वरूपेण अस्ति पररूपेण नास्ति इति प्रवदति इति अस्ति नास्ति प्रवादं, तस्य पदपरिमाणं पष्टिः पदशतसहस्राणि । पंचमं ज्ञान| प्रवाई, ज्ञान-मतिज्ञानादिभेदभिन्न पंचप्रकारं तत् प्रपंचं वदति इति ज्ञानप्रवाद, तस्य पदपरिमाणं एका पदकोटी पदेन एकेन न्यूना । षष्टं सत्यप्रवाद, सत्यं-संयमो सत्यवचनं वा तत् सत्यं संयम वचनं वा प्रकण सप्रपंचं वदति इति सत्यप्रवाद, तस्य पदपरिमाणं एका पदकोटी पइभिः पदैः अभ्यधिका । सप्तमं पूर्व आत्मा प्रवाद, आत्मानं-जीवं अनेकधा नयमतभेदेन यत् प्रवदति तत् आत्मप्रवाद, तस्य पदपरिमाणं ट्विंशतिः पदकोटयः । अष्टमं कर्मप्रवाद, कर्म-ज्ञानावरणीयादिकं अष्टप्रकारं तत् प्रकर्षण-प्रकृतिस्थिति-अनुभागप्रदेशादिभिः भेदैः सप्रपंचं वदति इति कर्मप्रवाद, तस्य पदपरिमाणं एका पदकोटी अशीतिश्च पदसहस्राणि । नवम 'पञ्चकखाणं' ति अत्रापि पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात्' प्रत्याख्यानप्रवादं इति द्रष्टव्यं, प्रत्याख्यानं सप्रभेदं यद्वदति तत् प्रत्याख्यानप्रवादं, तस्य पदपरिमाणं चतुरशीतिः पदलक्षाणि । दशमं विद्यानुप्रवादं, विद्या-अनेक अतिशयसंपन्ना अनुप्रवदति-साधनानुकूल्येन सिद्धिप्रकर्षेण वदति इति विद्यानुप्रवादं तस्य पदपरिमाणं एका पदकोटी दश च पदलक्षाः । एकादशं अवंध्यं, वंध्यं नाम निष्फलं न लघुतरं चुल्लकं वस्तु, तानि च आदिमेषु एव चतुर्पु, न शेषेषु, तथा चाह-'आइल्लाणं चउण्हं सेसाणं चुल्लिया णत्थि । तदेतत्पूर्वगतं ।
॥२०२॥
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नन्दिसूत्रम् ॥२०॥
अवचूरिसमलंकृतम्
HANSGROSS OS
अथ कोऽयं अनुयोगः । ? अनुरूपोऽनुकूलो वा योगोऽनुयोगः-सूत्रस्य स्वेनाभिधेयेन सार्द्ध अनुरूपः संबंधः । स च द्विधामूलप्रथमानुयोगो गंडिकानुयोगश्च, इह मूलं-धर्मप्रणयनात् तीर्थकरास्तेषां प्रथम-सम्यक्त्वावाप्तिलक्षणपूर्वभवादिगोचरोऽनुयोगो मूलप्रथमानुयोगः । ईक्ष्वादीनां पूर्वापरपर्वपरिच्छिन्नो मध्यभागो गंडिका गंडिका इव गंडिका-एकार्थाधिकाराः ग्रंथपद्धतिः इत्यर्थः । तस्या अनुयोगो गंडिकानुयोगः । अथ कोऽयं मूलप्रथमानुयोगः ? आचार्य आह-मूलप्रथमानुयोगेन अथवा मूलप्रथमानुयोगे णं इति वाक्यालंकारे अर्हतां भगवतां सम्यक्त्वभवात आरभ्य पूर्वभवात देवलोकगमनानि तेषु पूर्वभवेषु देवभवे यत् देवदेवलोकेभ्यः च्यवनं तीर्थकरभवत्वेन उत्पादः ततो जन्मानि ततः शैलराजे सुरासुरैः विधीयमाना अभिषेका इत्यादि पाठसिद्धं यावत् निगमनम् । अथ कोऽयं गंडिकानुयोगः १ सूरिराह-गंडिकानुयोगेन 'ण' इति वाक्यालंकारे, कुलकरगडिकाः । इह सर्वत्रापि अपांतरालवर्तिन्यो बहव्यां प्रतिनियतैकार्थाधिका रूपा गंडिकाः ततो बहुवचनं, कुलकराणां गंडिकाः कुलकरगंडिकाः, यासु कुलकराणां विमलवाहनादीनां पूर्वमेवजन्मनामादीनि सप्रपंच उपवर्ण्यते । एवं तीर्थकरगंडिकादिषु अपि अभिधानवशतो भावनीयं । 'जाव चित्तंतर गंडिआउ' त्ति चित्ता-अनेका अर्थांतरे-ऋषभाजिततीर्थकरअपांतराले गंडिकाः चित्रांतरगंडिकाः, एतत् उक्तं भवति-ऋषभाजिततीर्थकरांतरे ऋषभवंशसमुद्भूतभूपतीनां शेषगतिगमनव्युदासेन शिवगतिगमनानुत्तरोपपाते प्राप्तिप्रतिपादिका गंडिकाः चित्रांतरगंडिकाः, तासां च प्ररूपणा पूर्वाचार्यैरेवमकारि-इह सुबुद्धिनामा सगरचक्रवर्तिनो महामात्योऽष्टापदपर्वते सगरचक्रवर्तिसुतेभ्यः आदित्ययशःप्रभृतीनां भगवत् वृषभवंशजानां नरपतीनां एवं संख्यां आख्यातुं उपक्रमते म। आदित्ययशःप्रभृतयो भगवत् नामेयवंशजाः त्रिखंडभरताई अनुपाल्य पर्यते पारमेश्वरीं दीक्षां अभिगृह्य तत्प्रभावतः सकलकर्मक्षयं कृत्वा चतुर्दशलक्षा निरंतरं सिद्धिमगमन् । ततः एकः सर्वार्थ
॥२०३॥
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नन्दिसूत्रम्
अवचूरि
॥२०४॥
सिद्धौ, ततो भूयोऽपि चतुर्दशलक्षा निरंतरं निर्वाणे, ततोऽपि एकः सर्वार्थसिद्धे विमाने महाविमाने, एवं चतुर्दश २ लक्षांतरिताः सर्वार्थसिद्धौ एकैकः तावद् वक्तव्यो यावत् तेऽपि एकका असंख्यया भवंति । ततो भूयः चतुर्दश लक्षा नरपतीनां निरंतरं निर्वाणे
समलंकृतम् ततो द्वौ सर्वार्थसिद्धेस्ततः पुनरपि चतुर्दश लक्षा निरंतरं निर्वाणे ततो द्वौ सर्वार्थसिद्धे, ततः पुनः अपि चतुर्दश लक्षा निरंतरं निवाणे ततो भूयो द्वौ सर्वार्थसिद्धे, एवं चतुर्दश २ लक्षांतरितौ द्वौ द्वौ सर्वार्थसिद्धे तावद् वक्तव्यौ । यावत् तेऽपि द्विकद्विकसंख्या असंख्येया | भवंति । एवं त्रिक २ संख्यादयोऽपि प्रत्येकं असंख्येया भवंति । एवं त्रिकसंख्यादयोऽपि प्रत्येकं असंख्येयाः तावद्वक्तव्या यावत् निरंतरं चतुर्दश लक्षा निर्वाणे ततः पंचाशत् सर्वार्थसिद्धे ततो भूयोऽपि चतुर्दश लक्षा निर्वाणे ततः पुनरपि पंचाशत् सर्वार्थसिद्धेः एवं | पंचाशत संख्याकाः अपि चतुर्दश लक्षांतरिताः तावद्वक्तव्याः यावत्तेऽपि असंख्येया भवंति । उक्तं च-"चउद्दसलक्खा सिद्धा निवई-18| | पोक्को य होइसबढे । एवेकिके द्वाणे पुरिसजुगा हुंति असंखिज्जा ॥१॥ पुनरवि चउद्दस लक्खा सिद्धा निवईण दोवि सबढे । दुगठाणे वि असंखा पुरिसजुगा हुंति नायव्या ॥२॥ जाव य लक्खा चउद्दस सिद्धा पन्नास हुंति सबढे । पन्नास ट्ठाणेवि उ पुरिस जुगा हुंति असंखिज्जा ॥३॥ एगुत्तरा उ ठाणा सबढे चेव जाव पन्नासा । एकेकंतर ठाणे पुरिसजुगा होतिऽसंखेजा ॥४॥ स्थापना
| १४|१४|१४|१४ | १४ | १४ | १४ | १४|१४|१४| १४| १।२।३।४।५।६। ९।१०
॥२०४॥ ततोऽनंतरं चतुर्दश लक्षा नरपतीनां निरंतरं सर्वार्थसिद्धे एकः सिद्धौ, भूयः चतुर्दश लक्षाः । सर्वार्थाः एकः सिद्धौ, एवं चतुर्दश |२ लक्षांतरितैः एकः सिद्धौ । एवं चतुर्दश २ लक्षांतरितकैकः सिद्धौ । एवं चतुर्दश २ लक्षांतरितैकैकः सिद्धौ । तावत् वक्तव्यो
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नन्दिसूत्रम् ॥२०५॥
अवचूरिसमलंकृतम्
यावत तेऽपि एकका असंख्यया भवंति । ततो भूयोऽपि चतुर्दश लक्षा नरपतीनां निरंतर सर्वार्थसिद्धौ, ततो द्वौ निर्वाणे, ततः पुनरपिचतुर्दश लक्षाः सर्वार्थसिद्धे ततो भूयोऽपि द्वौ निर्वाणे ततः पुनरपि चतुर्दश लक्षा सर्वार्थसिद्धे भूयोऽपि द्वौ निर्वाणे । एवं चतर्दश | लक्षांतरितौ द्वौ द्वौ निर्वाणे तावत् वक्तव्यौ- यावत् तेऽपि द्विकसंख्या असंख्येया भवंति । एवं त्रिकत्रिकसंख्यादयोऽपि यावत् पंचाशत् संख्याः चतुर्दश चतुर्दश लक्षांतरितौ सिद्धौ प्रत्येकं असंख्येया वक्तव्याः । उक्तं च-" विवरीयं सव्वढे चउद्दस लक्खाउ निव्वुओ एगो । सव्वे य परिवाडी पंनासा जाव सिद्धीए ॥१॥" स्थापना
|२ ३ |४।५६।७।८।९।१०।५०
|१४|१४|१४|१४|१४|१४|१४|१४|१४|१४| १४ | ततः परं वे लक्षे नरपतीनां निरंतरं निर्वाणे, ततो वे लक्षे निरंतरं सर्वार्थसिद्धौ, ततस्तिस्रो लक्षा निर्वाणे, ततो भूयोऽपि तिस्रो लक्षाः सर्वार्थसिद्धे, ततश्चतस्रो लक्षा निर्वाणे, ततः पुनरपि चतस्रो लक्षाः सर्वार्थसिद्धे, एवं पञ्च पञ्च षट् २ यावदुभयत्राप्यसंख्येया लक्षा वक्तव्याः, आह च-"तेण परं दुलक्खाई दो दो ठाणा य समग वच्चति । सिवगइसव्वद्वेहिं इणमो तेसिं विही होइ ॥१॥ दो लक्खा सिद्धीए दो लक्खा नरवईण सबढे । एवं तिलक्ख चउ पंच जाव लक्खा असंखेजा ॥२॥" स्थापना
|२| | ततः परं चतस्रः चित्रांतरगंडिकाः, तद्यथा-प्रथमा एकादिका एकोत्तरा द्वितीया एकादिका द्विउत्तरा तृतीया एकोत्तरा
॥२०५॥
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नन्दिसूत्रम् ॥२०६ ॥
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त्र्युत्तरा, चतुर्थी त्र्यादिका द्वयादिविषमोत्तरा, आह च - " सित गइसच्वडेहिं चित्तंतरगंडिया तओ चउरो । एगा एगुत्तरिया एगाइ बिउत्तरा बिइया ॥ १ ॥ एगाइ तिउत्तराए गाइ विसमुत्तरा चउत्थी उ । " प्रथमा भाव्यते प्रथममेकः सिद्धौ ततो द्वौ सर्वार्थसिद्धे ततस्त्रयः सिद्धौ ततश्चत्वारः सर्वार्थे ततः पञ्च सिद्धौ ततः षट् सर्वार्थे एवमेकोत्तरया वृद्ध्या शिवगतौ सर्वार्थे च तावद्वक्तव्याः यावदुभयत्राप्यसंख्येया भवन्ति, उक्तं च- " पढमाए सिद्धेको दोन्नि उ सव्वट्टसिद्धमि ॥ २ ॥ तत्तो तिनि नरिंद सिद्धा चारि होंति सव्बट्टे । इय जाव असंखेजा सिवगइसव्वसिद्धेहिं ॥ ३ ॥ " स्थापना -
९ ११ १३ १५ १७ १९ १० १२ १४ १६ १८ २०
संप्रति द्वितीया भाव्यते, ततः ऊर्द्धमेकः सिद्धौ त्रयः सर्वार्थे ततो नव सिद्धौ एकादश सर्वार्थे ततः त्रयोदश सिद्धौ पञ्चदश सर्वार्थे एवं व्युत्तरया वृद्ध्या शिवगतौ सर्वार्थे च तावद्वक्तव्यौ यावदुभयत्राप्यसंख्येया भवन्ति, उक्तं च- " ताहे दिउत्तराए सिद्धेको तिन्नि होंति सव्वट्टे । एवं पंच य सत्त य जाव असंखेज दोण्णि वि ॥ १ ॥ " स्थापना
१ ५ ९ १३ १७ २१ २५
७ ११ १५ १९ / २३ २७
सम्प्रति तृतीया भाव्यते, ततः परमेकः सिद्धौ चत्वारः सर्वार्थे, ततः सप्त सिद्धौ दश सर्वार्थे, ततस्त्रयोदश सिद्धौ षोडश सर्वार्थे, एवं त्र्युत्तरया वृद्ध्या शिवगतौ सर्वार्थे च क्रमेण तावदवसेयं यावदुभयत्राप्यसङ्ख्येया गता भवन्ति, उक्तं च- “ एग चउ सत्त
अवचूरिसमलंकृतम्
॥ २०६॥
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अवचरि
नन्दिसूत्रम् १२०७॥
समलंकृतम्
RESOURCESORIA
| दसगं जाव असंखेज होंति ते दोवि । सिवगयसव्वद्वेहिं तिउत्तराए उ नायव्वा ॥१॥" स्थापना-चेयंति
१।७ | १३| १२ | २५ |३१| ३७४३४९५५
४|१०|१६२२|२८|३४|४०1४६ ५२ ५८] चतुर्थी भाव्यते, सा च विचित्रा, ततस्तस्याः परिज्ञानार्थमयमुपायः पूर्वाचार्दर्शितः, इह एकोनत्रिंशत्संख्यास्त्रिका ऊधिःपरिपाट्या पट्टिकादौ स्थाप्यन्ते, तत्र प्रथमे त्रिके न किंचिदपि प्रक्षिप्यते ।, द्वितीये द्वौ प्रक्षिप्येते, तृतीये पंच, चतुर्थे नव, पंचमे त्रयोदश, षष्ठे सप्तदश, सप्तमे द्वाविंशतिः, अष्टमे षड्, नवमे अष्टौ, दशमे द्वादश, एकादशे चतुर्दश, द्वादशे अष्टाविंशतिः, त्रयोदशे| पदिशतिः, चतुर्दशे पंचविंशतिः, पंचदशे एकादश, षोडशे त्रयोविंशतिः, सप्तदशे सप्तचत्वारिंशत् , अष्टादशे सप्ततिः, एकोनविंशे सप्तसप्ततिः, विशे एकः, एकविंशे द्वौ, द्वाविंशे सप्ताशीतिः, त्रयोविंशे एकसप्ततिः, चतुर्विशे द्विषष्टिः, पंचविंशे एकोनसप्ततिः, षड्विंशे | चतुर्विंशतिः, सप्तर्विशे षट्चत्वारिंशत् , अष्टाविंशे शतं, एकोनत्रिंशे षट्विंशतिः, उक्तं च-" ताहे तियगाइविसमुत्तराए अउणतीसंतु तियग ठावेउं । पढमे नत्थि उक्लेवो । सेसेसु इमो भवे खेवो ॥१॥ दुग २ पण ५ नवगं ९ तेरस १३ सत्तरस १७ दुवीसं २२ छच्च ६ अट्टेव ८ । बारस १२ चउद्दस १४ तह अट्ठवीस २८ छव्वीस २६ पणुवीसा २५॥२॥ एक्कारस ११ तेवीसा २३ सीयाला ४७ । सयरि ७० सत्तहत्तरिया ७७ । इग १ दुग २ सत्तासीई ८७ एगहतरि ७१ चेव बावट्ठी ६२॥३॥ अउणहत्तरि | ६९ चउवीसा २४ छायाल ४६ सयं १०० तहेव छव्वीसा २६ ए ए रासिक्खेवातिगं अंतंता जहा कमसे ॥ ४॥" एतेषु च | राशिषु प्रक्षिप्तेषु यत् भवति । तावंतः २ क्रमेण सिद्धौ सर्वार्थे च इत्येवंरूपेण वेदितव्याः। तद्यथा-त्रयः सिद्धौ पंच सर्वार्थे ततः
॥२०७॥
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नन्दिसूत्रम्
॥२०८||
सिद्धौ अष्टौ द्वादश सर्वार्थे ततः षोडश सिद्धौ सर्वार्थे विंशतिः ततः पंचविंशतिसिद्धौ नत्र सर्वार्थे ततः एकादश सिद्धौ पंचदश सर्वार्थे ततः सप्तदश सिद्धौ एकत्रिंशत्सवर्थे तत एकोनत्रिंशत् सिद्धौ अष्टाविंशतिः सर्वार्थे ततः सिद्वौ चतुर्द्दश पइविंशतिः सर्वार्थे ततः पंचाशत् सिद्धौ त्रिसप्ततिः सर्वार्थ ततोऽशीतिसिद्धौ चत्वारः सर्वार्थे ततः पंच सिद्धौ नवतिः सर्वार्थे ततः चतुःसप्ततिः मुक्तौ पंचषष्टिः सर्वार्थ ततः सिद्धौ द्विसप्ततिः सप्तविंशतिः सर्वार्थे ततः एकोनपंचाशत् मुक्तौ त्रिउत्तरशतं सर्वार्थे ततः एकोनत्रिंशत् सिद्धौ । उक्तं च" सिवगसबहिं दो दो ठाणा विसमुत्तरा नेया । जाव अउणतीसहाणे गुणतीसं पुण छब्बीसाए ॥ १ ॥ " अत्र ' जाव' इत्यादि यावत् एकोनत्रिंशत्तमे स्थाने त्रिकरूपे षडविंशतौ प्रक्षिप्तायां एकोनत्रिंशत् भवति, स्थापना चेयं
१६ २५ | ११ | १७ १२ । २० ९ १५३२
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२२ २४ ५० ८०।५ ७४७२४२ / २९ २८ | २६ | ७३ ४९० ६५ | २७ । १०३ ।।
एवं व्यादिविषमोत्तरा गंडिकाः असंख्येयाः, तावत् वक्तव्या यावत् अजितस्वामिपिता जितशत्रुः समुत्पन्नः, नवरं पाश्चात्या यां itsarai यत् अयं अंकस्थानं तत् उत्तरस्यां उत्तरस्यां आदिमं द्रष्टव्यं । तथा प्रथमायां गंडिकायां आदिमं अं स्थानं सिद्धौ द्विती यस्यां सर्वार्थे तृतीयस्यां सिद्धौ चतुर्थ्यां सर्वार्थे, एवं असंख्येयासु अपि गंडिकासु आदिमानि अंकस्थानानि क्रमेण एकांतरितानि शिवगतौ सर्वार्थे च वेदितव्यानि, एतदेव दिग्मात्रप्रदर्शनतो भाव्यते । तत्र प्रथमायां गंडिकायां अंत्थं अंकस्थानं एकोनत्रिंशत् वारान् सा एकोनत्रिंशत्ऊर्द्धाधः क्रमेण स्थाप्यते । तत्र प्रथमे अंके नास्ति प्रक्षेपः, द्वितीयादिषु च अंकेषु 'दुगपणनवर्गतेरस' इत्यादयः क्रमेण प्रक्षेपणीया राशयः प्रक्षिप्यते । तेषु च प्रक्षिप्तेषु च सत्सु यत् यत् क्रमेण भवति तावंतः २ क्रमेण सिद्धौ सर्वार्थ सिद्धौ सर्वाय इत्येवं वेदि -
अवचूरिसमलंकृतस्
॥२०८॥
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नन्दिसूत्रम्
॥२०९॥
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तव्याः । तद्यथा - एकोनत्रिंशत् सर्वार्थ सिद्धौ एकत्रिंशत् ततश्चतुस्त्रिंशत् सर्वार्थ सिद्धौ अष्टत्रिंशत् ततो द्विचत्वारिंशत् सर्वार्थे षट्चत्वारिंशत् सिद्धौ । तत एकपंचाशत् सर्वार्थे पंचत्रिंशत् सिद्धौ सप्तत्रिंशत् सर्वार्थ सिद्धौ एकचत्वारिंशत् त्रिचत्वारिंशत् सर्वार्थ सप्तपंचाशत् सिद्धौ ततः पंचपंचाशत् सर्वार्थे चतुःपंचाशत् सिद्धौ चत्वारिंशत् सर्वार्थे द्विचत्वारिंशत् सिद्धौ सर्वार्थे षट्सप्ततिः सिद्धौ नवनवतिः पट्उत्तरं शतं सर्वार्थे त्रिंशत् सिद्धौ एकत्रिंशत् सर्वार्थे सिद्धौ षोडशाधिकं शतं शतं सर्वार्थे सिद्धौ एकनवतिः सर्वार्थेऽष्टानवतिः त्रिपंचाशत् सिद्धौ पंचसप्ततिः सर्वार्थ सिद्धौ एकोनत्रिंशं शतं पंचपंचाशत् सर्वार्थे, स्थापना चेयं
२९ ३४ ४२ ५१ ३७ ४३ । ५५ ४० ३१ । ३८ ४६ ३५ ४१ | ५७ ५४ ४२
७६ | २०६ | २१ | १०० | ९८ | ७५ ५५ ९९३० ११६ ९१ ५३ | १२९ ।
O
एषा द्वितीया गण्डिका, अस्यां च गण्डिकायामन्त्य मंकस्थानं पंचपंचाशत् ततः तृतीयस्यां गंडिकायां इदं एवं आदिमं अंकस्थानं, ततः पंचपंचाशत् एकोनत्रिंशत् वारान् स्थाप्यते तत्र प्रथमे अंके नास्ति प्रक्षेपो द्वितीयादिषु च अंकेषु क्रमेण द्विकपंचनवकत्रयोदशादयः पूवोक्तराशयः क्रमेण प्रक्षेपणीयाः प्रक्षिप्यते । इह च आदिमं अंकस्थानं सिद्धौ ततस्तेषु प्रक्षेपणीयेषु राशिषु प्रक्षिप्तेषु सत्सु यद्यत्क्रमेण भवति तावतः २ प्रथमादकात् आरभ्य सिद्धौ सर्वार्थे इत्येवंक्रमेण वेदितव्याः, एवं अन्यासु अपि गंडिकासु उक्तप्रकारेण भावनीयं ॥ १ ॥ उक्तं च- " विसमुत्तरा य पढमा एवमसंख विसमुत्तरा नेया । सव्वत्थवि अंतिल्लं अन्नाए आइमं ठाणं ॥ १ ॥ अउणत्तीसं वारा ठावेउं नत्थि पढम उक्खेवो । सेसे अडवीसाए सव्वत्थ दुगाइउक्खेवो || २ || सिवगइ पढमादीए बीआए तह य होइ सव्वट्टे | इय एगंतरियाई सिवगइसव्वठाणाई || ३ || एवमसंखेजाओ चित्तंतरगंडिया मुणेयव्त्रा । जाव जियसरातुया अजय
अवचूरिसमलंकृतम्
॥२०९॥
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नन्दिसूत्रम्
अवचूरिसनलंकृतम्
॥२१॥
GROSS GESCHICHES
जिणपिया समुप्पण्णो ॥४॥" तथा 'अमर' इत्यादि, विविधेषु परिवर्तेषु-भवभ्रमणेषु जंतूनां इति गम्यते । अमरनरतिर्यग्निरयगतिगमनं, एवमादिका गंडिका बहव आख्यायंते । सोऽयं गंडिकानुयोगः। | अथ कास्ताः चूलाः १, इह चूला शिखरं उच्यते । यथा मेरौ चूला, तत्र चूला दृष्टिवादे परिकर्मसूत्रपूर्वानुयोगोऽनुक्तार्थ| संग्रहपरा ग्रंथपद्धतयः, अत्र सूरिराह-चूला आदिमानां चतुर्णा पूर्वाणां, शेषाणि पूर्वाणि अचूलकानि, ता एव चूला आदिमानां चतुर्णा | पूर्वाणां प्राक् पूर्ववक्तव्यताप्रस्तावे चूलावस्तूनि इति भणिताः, एताश्च सर्वस्यापि दृष्टिवादस्य उपरि किल स्थापिताः तथैव च पठ्यते । | ततः श्रुतपूर्वते चूला इव राजते इति चूला इति उक्तः, तासां च चूलाना इयं संख्या-प्रथमपूर्वसत्काः चतस्रः द्वितीयसत्का द्वादश तृतीयपूर्वसत्का अष्टौ चतुर्थपूर्वसत्का दश । सर्वसंख्यया चूलिका चतुस्त्रिंशत् । अथ एता चूलिकाः।
'दिहिवायस्स णं' इत्यादि, पाठसिद्धं, नवरं संख्येयानि वस्तूनि, तानि च पंचविसतिउत्तरे द्वे शते, कथं चेदिति उच्यते । इह प्रथमे पूर्व दश वस्तूनि द्वितीये चतुर्दश तृतीये अष्टौ चतुर्थे अष्टादश पंचमे द्वादश षष्ठे द्वे सप्तमे षोडश अष्टमे त्रिंशत् नवमे विंशति दशमे पंचदश एकादशे द्वादश द्वादशे त्रयोदश त्रयोदशे त्रिंशत् चतुर्दशे पंचविंशतिः । सर्वसंख्यया च अमूनि द्वे शते पंचविंशति अधिके, तथा संख्येयानि चूलवस्तूनि, तानि च चतुस्त्रिंशत् संख्यकानि । वस्त्वंतरवर्ती अधिकारविशेषः प्राभृतं प्राभृतांतरवर्ती अधिकारविशेषः प्राभृतप्राभृतं ।
सांप्रतं ओघतो द्वादशांगाभिधेयं उपदर्शयति । इच्चेइयंमि दुवालसंघे गणिपिडगे अणंता भावा अणंता अभावा अणंता हेउ अणंता अहेड अणंता
SEASESEXSI
॥२१॥
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नन्दिसूत्रम् ॥२११।।
अवचूरिसमलंकृतम्
कारणा अणंता अकारणा अणंता जीवा अणंता अजीवा अणंता भवसिद्धिया अणंता अभवसिद्धिया अणंता सिद्धा अणंता असिद्धा पन्नता
भावमभावा हेउमहेउ कारणमकारणे चेव ॥
जीवाजीवा भविअमभविआ सिद्धा असिद्धा य ॥१॥ इच्चेइ दुवालसंगं गणिपिडगं तीए काले अणंता जीवा आणाए विराहित्ता चाउरंतं संसारकंतारं अणुपरिअहिंसु । इच्चेइ दुवालसंगं गणिपिडगं पडुपन्नकाले परित्ता जीवा आणाए विराहित्ता चाउरंतं संसारकंतारं अणुपरिआहिति । इच्चेइ दुवालसंगं गणिपिडगं अणागए काले अणंता जीवा आणाए विराहित्ता चाउरंतं संसारकंतारं अणुपरिअहिस्संति । इच्चेइअं दुवालसंगं गणिपिडगं तीए काले अणंता जीवा आणाए आराहित्ता चाउरंतं संसारकंतारं वीईवइंसु । इच्चेइ दुवालसंगं गणिपिडगं पडुपन्नकाले परित्ता जीवा आणाए आराहित्ता चाउरतं संसारकंतारं वीईवयंति। इच्चेइ दुवालसंगं गणिपिडगं अणागए काले अणंता जीवा आणाए आराहित्ता चाउरंतं संसारकंतारं वीईवइस्संति । इच्चेइअं दुवालसंगं गणिपिडगं न कयाइ नासी न कयाइ न भवइ न कयाइ न भविस्सइ भुविं च भवइ अभविस्सइअ धुवे निअए सासए अक्खए अव्वए अविट्ठिए निच्चे से जहा
॥२१॥
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नन्दिसूत्रम्
अवचूरिसमलंकृत
॥२१२॥
नामए पंचत्थिकाए न कयाइ नासी न कयाइ नत्थि न कयाइ न भविस्सइ भुवि च भवइ अ भविस्सइ अ धुवे नियए सासए अक्खए अव्वए अवढिए निचे एवामेव दुवालसंगे गणिपिडगे न कयाइ नासी न कयाइ नत्थि न कयाइ न भविस्सइ भुविं च भवइ अ भविस्सइ अ धुवे निअए सासए अक्खए अव्वए अवढिए निचे से समासओ चउविहं पन्नत्तं तं जहा-दवओ। खित्तओ। कालओ। भावओ। तत्थ दवओ णं सुअनाणी उवउत्ते सव्व दव्वाइं जाणइ पासइ । खित्तओणं सुअनाणी उवउत्ते सव्वं खेत्तं जाणइ पासइ । कालओ णं सुअनाणी उवउत्ते सव्वं कालं जाणइ पासइ । भावओ णं सुअनाणी उवउत्ते सव्वे भावे जाणइ पासइ ।
इत्येतस्मिन् द्वादशांगे गणिपिटके एतत् पूर्ववत् एव व्याख्येयं, अनंता भावा-जीवादयः पदार्थाः प्रज्ञप्ता इति योगः । तथा अनंता अभावा:-सर्वभावानां पररूपेणाऽसत्वात् त एव अनंताअभावा द्रष्टव्याः, तथा हि-खपरसत्ताभावाभावात्मकं वस्तुतत्त्वं, तथा जीवो जीवात्मना भावरूपो अजीवात्मना चाभावरूपः, अन्यथाज्जीवत्वप्रसंगात् , अत्र बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते ग्रन्थगौरवमयादिति, तथाऽनन्ता 'हेतवो' हिनोति गमयति जिज्ञासितधर्मविशिष्टमर्थमिति हेतुः, ते चानन्ताः, तथा हि वस्तुनोऽनन्ता धर्मास्ते च तत्प्रतिबद्धधर्मविशिष्टवस्तुगमकास्ततोऽनन्ता हेतवो भवन्ति, यथोक्तहेतुप्रतिपक्षभूता अहेतवः, तेऽपि अनन्ताः, तथा अनन्तानि कारणानि घटपटादीनां निर्वर्तकानि मृत्पिण्डतन्वादीनि, अनन्तान्यकारणानि सर्वेषामपि कारणानां कार्यान्तराण्यधिकृत्याकारणत्वात्, तथा जीवाः-प्राणिनः, अजीवाः-परमाणुव्यणुकादयः, भव्या-अनादिपारिणामिकसिद्धिगमनयोग्यतायुक्ताः, तद्विपरीता अभव्याः, सिद्धा अपगतकर्ममल
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अवचूरिसमलंकृतम्
नन्दिसूत्रम् | कलंकाः, असिद्धाः संसारिणः, एते सर्वेऽप्यनन्ताः प्रज्ञप्ताः, इह भव्याभव्यानामानन्त्येभिहितेऽपि यत्पुनरसिद्धा अनन्ता इत्यभिहितं
तत्सिद्धेभ्यः संसारिणामनन्तगुणताख्यापनार्थ । सम्प्रति द्वादशाङ्गविराधनाफलं त्रैकालिकमुपदर्शयति-इत्येतत् द्वादशांगं गणिपिटकम॥२१३॥
तीते कालेऽनन्ता जीवा आज्ञया-यथोक्ताज्ञापरिपालनाऽभावतो विराध्य चतुरन्तं संसारकान्तारं-विविधशारीरमानसानेकदुःखविटपिशतसहस्रदुस्तरं भवगहनं अनुपरावृत्तवन्त आसन्, इह द्वादशांङ्ग सूत्रार्थोभयभेदेन त्रिविधं, द्वादशांगमेव चाऽऽज्ञा, आज्ञाप्यते जन्तुगणो हितप्रवृत्ती यया साऽऽज्ञेति व्युत्पत्तेः, ततश्चाज्ञा त्रिविधा, तद्यथा-सूत्राज्ञा अर्थाज्ञा उभयाज्ञा च, सम्प्रति अमृषामाज्ञानां विराधनाश्चिन्त्यन्ते-तत्र यदाभिनिवेशवशतोऽन्यथा सूत्रं पठति तदा सूत्राज्ञाविराधना, सा च यथा जमालिप्रभृतीनां, यदा त्वभिनिवेशवशतोऽन्यथा द्वादशाङ्गार्थ प्ररूपयति तदार्थाज्ञाविराधना, सा च गोष्ठामाहिलादीनामवसेया, यदा पुनरभिनिवेशवशतः श्रद्धाविहीनतया हास्यादितो वा द्वादशाङ्गस्य सूत्रमर्थं च विकुट्टयति तदा उभयाज्ञाविराधना, सा च दीर्घसंसारिणामभव्यानां चानेकेषां विज्ञेया, अथवा पञ्चविधाचारपरिपालनशीलस्य परोपकारकरणैकतत्परस्य गुरोहितोपदेशवचनं आज्ञा, तामन्यथा समाचरन् परमार्थतो द्वादशांगं विराधयति ।
तदेवं अतीते काले विराधनाफलमुपदय सम्प्रति वर्तमानकाले दर्शयति-'इच्चेइय' इत्यादि सुगम, नवरं 'परित्ता' इति परिमिता न तु अनंता असंख्येया वा, वर्तमानकालचिन्तायां विराधकमनुष्याणां संख्येयत्वात् , अनुपरावर्त्तन्ते-भ्रमन्तीत्यर्थः, भविष्यति काले विराधनामुपदर्शयति- इच्चेइयं' इत्यादि, इदमपि पाठसिद्धं, नवरं अनुपरावर्त्तिष्यंति-पर्यटिष्यंति इत्यर्थः, तदेवं विराधनाफलं त्रैका
लिकमुपदर्य संप्रति आराधनाफलं त्रैकालिकं दर्शयति-' इच्चेइय' मित्यादि, सुगम नवरं व्यतिक्रांतवंतः व्यतिक्रमति संसारकांतारं न. सू..१८ उल्लंघ्य मुक्ति अवाप्ता इत्यर्थः । व्यतिक्रमिष्यंति, एतच्च त्रैकालिकं विराधना आराधनाफलं च द्वादशांगस्य सदावस्थायित्वे सति युज्यते
॥२१३॥
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नन्दिसूत्रम्
अवचूरिसमलंकृतम्
॥२१४॥
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नान्यथा, ततः सदावस्थायित्वं तस्य आह-इत्येतत् द्वादशांगं गणिपिटकं न कदाचित् नासीत् , सर्वदा एव आसीदिति भावः, अनादि- त्वात् , तथा न कदाचित् न भवति, सर्वदा एव वर्तमानकालचिंतायां भवति इति भावः, सदैव भावात् , तथा न कदाचिन्न भविष्यति, किन्तु भविष्यचिन्तायां सदा एव भविष्यतीति प्रतिपत्तव्यं, अपर्यवसितत्वात, तदेवं कालत्रयचिन्तायां नास्तित्वप्रतिषेधं विधाय संप्रति अस्तित्वं प्रतिपादयति । अभृद्भवति भविष्यति च इत्येवं त्रिकालावस्थायित्वात् ध्रुवं मेर्वादिवत् । ध्रुवत्वादेव सदा एव जीवादिषु पदार्थेषु प्रतिपादकत्वेन नियतं पंचास्तिकायेषु लोकवचनवत् नियतत्वादेव च शाश्वतं-शाश्वत् भवनखभावं शाश्वतत्वात् एव सततं गंगासिंधुप्रवाहप्रवृत्तौ अपि पौंडरीकहूद इव वाचनादिप्रदानेऽपि अक्षयं-नास्य क्षयोऽस्ति इति अक्षयं अक्षयत्वात् एव अव्ययं मानुषोत्तरात् बहिः समुद्रवत् , अव्ययत्वात् एव सदा एव स्वप्रमाणे अवस्थितं जंबूद्वीपादिवत् । एवं च सदा अवस्थानेन चिंत्यमानं नित्यं आकाशवत् । सांप्रतं अत्र एव दृष्टान्तमाह तद्यथा-नाम पंचास्तिकायाः-धर्मास्तिकायादयः न कदाचित् नासीत् इत्यादि पूर्ववत् , 'एवमित्येव' इत्यादि निगमनं निगदसिद्धं । तत् द्वादशांगं समासतश्चतुर्विधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतच, तत्र द्रव्यतो 'ण' इति वाक्यालंकारे श्रुतज्ञानी उपयुक्तः सर्वद्रव्याणि जानाति पश्यति, तत्राह-ननु पश्यति इति कथं ?, नहि श्रुतज्ञानी श्रुतज्ञान यानि सकलानि वस्तूनि पश्यति, न एष दोषः ॥ उपमाया अत्र विवक्षितत्वात् , पश्यति इति पश्यति । तथा हिमेरु आदीन पदार्थान् अदृष्टानपि आचार्यः शिष्येभ्यः आलिख्य दर्शयति । ततस्तेषां श्रोतॄणां एवं बुद्धिः उपाजयते भगवान् एष गणी साक्षात् पश्यन् इव व्याचष्टे इति । एवं क्षेत्रादिषु अपि भावनीयं, ततो न कश्चिद्दोषः, अन्ये तु न पश्यति इति पठति । तत्र चोद्यस्य | अनवकाश एव, श्रुतज्ञानी चेहामित्रदशपूर्वधरादिश्रुतकेवली परिगृह्यते, तस्य एव नियमतः श्रुतज्ञानबलेन सर्वद्रव्यादिपरिज्ञानसंभवात् ,
॥२१४॥
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नन्दिसूत्रम् ॥२१५॥
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तत् आरतस्तु ये श्रुतज्ञानिनः ते सर्वद्रव्यादिपरिज्ञाने भजनीयाः । केचित् सर्वद्रव्यादि जानंति केचित् न इति भावः, इत्थंभूता च भजनां मतिवैचित्र्यात् वेदितव्याः । सम्प्रति संग्रहगाथामाह
अक्खर सन्नी सम्मं । साइअ खलु सपज्जवसिअं च । गमिअं अंगपविङ्कं । सत्तवि एए सपडिवक्खा ॥ १ ॥ आगम सत्थग्गणं । जं बुद्धिगुणेंहिं अट्ठहिं दिनं । बिंति सुअनाण लंभं । तं पुव्व विसारया धीरा ॥ २ ॥ सुस्सूसई पडिपुच्छई । परोई गिण्हइ ईहएयाऽवि । तत्तो अपोहए वा । धारेई करेइ वा सम्मं ॥ ३ ॥ मूअं हुंकारं वा बाढक्कार पडिपुच्छविमंसा । तत्तो पसंग पारायणं च परिनिट्ठ सत्तमाए ॥ ४ ॥
सुत्तत्थो खलु पढमो बीओ निज्जुत्ति मीसिओ भणिओ । तइओ य निरवसेसो एस विही होइ अणुओगे ॥ ५ ॥
सेत्तं अंगपविहं । सेत्तं सुअनाणं । सेत्तं परोक्खनाणं । सेत्तं नंदी सम्मत्ता ।
॥ इति श्री नंदी सूत्रमूलपाठः ॥
अवचूरिसमलंकृतम्
॥२१५॥
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नन्दिसत्रम्
॥२१६॥
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'अक्खरसनी 'त्यादि गतार्था, नवरं सप्तापि एते पक्षाः सप्रतिपक्षाः, ते च एवं - अक्षरश्रुतं अनक्षरश्रुतमित्यादि । इदं च श्रुतज्ञानं सर्वातिशयरत्नकल्पं प्रायो गुर्वधीनं च ततो विनेयजनानुग्रहार्थं यो यथा च अस्य लाभस्तं तथा दर्शयति - १ 'आगमे ' त्यादि, आ-अभिविधिना सकलश्रुतविषयव्याप्तिरूपेण मर्यादया वा यथावस्थिलप्ररूपणारूपया गयंते- परिच्छिद्यते अर्था येन स आगमः, स च एवं व्युत्पच्या अवधिकेवलादिलक्षणोऽपि भवति ततस्तद्व्यवच्छेदार्थं विशेषणांतरं आह- ' शास्त्रे 'ति शिष्यते अनेन इति शास्त्रं आगमरूपं शास्त्रं आगमशास्त्रं, आगमग्रहणेन षष्टितंत्रादिकुशास्त्रव्यवच्छेदः, तेषां यथावस्थितार्थप्रकाशनाभावतो न आगमत्वात् आगमशास्त्रस्य ग्रहणं आगमग्रहणं यत् बुद्धिगुणैः वक्ष्यमाणैः कारणभूतैः अष्टभिः दृष्टं तत् एव ग्रहणं श्रुतज्ञानस्य लाभं ब्रुवते पूर्वेषु विशारदा-विपश्चिताः धीराः व्रतपालने स्थिराः, किं उक्तं भवति यदेव जिनप्रणीत प्रवचनार्थपरिज्ञानं तदेव परमार्थतः श्रुतज्ञानं, न शेषं इति । बुद्धिगुणैः अष्टभिः इत्युक्तं । ततस्तानेव बुद्धिगुणानाह - 'सुस्सूस' इत्यादि, पूर्वं तावत् शुश्रूषते - विनययुक्तो गुरुवदनअरविंदात् विनिर्गच्छत् वचनं श्रोतुमिच्छति, यत्र शंकितं भवति तत्र भूयोऽपि विनयनम्रतया वचसा गुरुमनः प्रल्हादयन् पृच्छति । पृष्ठे च यद्गुरुः कथयति तत्सम्यक् व्याक्षेपपरिहारेण सावधानः शृणोति श्रुत्वा च अर्थरूपतया गृह्णाति, गृहीत्वा च ईहते - पूर्वापराविरोधेन पर्यालोचयति । चशब्दः समुच्चयार्थः, अपिशब्दः पर्यालोचयन् किंचित् खबुद्ध्यापि उत्प्रेक्षिते इति सूचनार्थः । ततः स पर्यालोचनानंतरं अपोहते । एवं तत् यदादिष्टं आचार्येण न अन्यथा इति अवधारयति, ततस्तं अर्थ निश्चितं स्वचेतसि विस्मृत्य भावार्थ सम्यग् धारयति, करोति च सम्यग् - यथोक्तं अनुष्ठानं, यथोक्तानुष्ठानं अपि श्रुतज्ञानप्राप्तिहेतुः । तत् आवरणक्षयोपशमनिमित्तत्वात् । तदेवं गुणा व्याख्याताः || ३ || संप्रति यत शुश्रूषते इति उक्तं तत्र श्रवणविधिं आह- 'मूक' इति प्रथमतो मूकं शृणुयात्, किं उक्तं भवति ?
अवचूरिसमलंकृतम्
॥२१६॥
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नन्दिसूत्रम् ॥२१७॥
ESCLUSOSHARES
प्रथमश्रवणे संयमगात्रस्तूष्णीं आसीत् । ततो द्वितीये श्रवणे हुंकारं दद्यात्, वंदनं कुर्यादित्यर्थः, तृतीये वा ढक्कारं कुर्यात, बाढं । | अवचूरिएवमेतत् न अन्यथा इति, ततः चतुर्थश्रवणे तु गृहीतपूर्वापरसूत्राभिप्रायो मनाक् प्रति पृच्छां कुर्यात्, कथं एतदिति ?, पंचमे मीमांसा | समलंकृत प्रमाणजिज्ञासां कुर्यादिति भावः, षष्ठे श्रवणे तत् उत्तरोत्तरगुणप्रसंगः पारगमनं च अस्य भवति । ततः सप्तमे श्रवणे परिनिष्ठा-गुरु-15 वदनुभाषते । एवं तावत् श्रवणविधिः उक्तः ॥४॥ संप्रति व्याख्यानविधि अभिधित्सुराह-'सुत्तत्थो' इत्यादि, प्रथमानुयोगः सूत्रार्थः-16 सूत्रार्थ-प्रतिपादनपरः, खलु शब्द एवकारार्थः, स च अवधारणे, ततोऽयमर्थः-गुरुणा प्रथमोऽनुयोगः सूत्रार्थाभिधानलक्षण एव | कर्तव्यः । माभूत् प्राथमिकविनेयानां मतिमोहः, द्वितीयोऽनुयोगः सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिमिश्रितो भणितस्तीर्थकरगणधरैः, सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिमिश्रितं द्वितीयं अनुयोगं गुरुः विदध्यात् इति आख्यातं तीर्थकरगणधरैः इति भावः, तृतीयश्च अनुयोगो निरवशेषः-प्रसक्तानुप्रसक्तप्रतिपादनलक्षणः इत्येषः-उक्तलक्षणो विधिः भवति । अनुयोगे व्याख्यायां आह-परिनिष्ठा सत्तमे इति उक्तं, त्रयश्च अनुयोगप्रकाराः तदेतत् कथं ? उच्यते, त्रयाणां अनुयोगानां अन्यतमेन केनचित् प्रकारेण भूयो भूयो भाव्यमानेन सप्त वाराः श्रवणं कार्यते ततो न कश्चित् दोषः । अथ किंचित् मंदमतिविनेयमधिकृत्य तदुक्तं द्रष्टव्यं, न पुनः एष एव सर्वत्र श्रवणविधिनियमः, उद्घटितज्ञविनेयानां सकृत् श्रवणत एव अशेषग्रहणदर्शनात् इति कृतं प्रसंगेन, तदेतत् श्रुतज्ञानं, तदेतत् परोक्षं ॥ इति ।। श्रीनन्यध्ययनअवचूरी परिसमाप्तिमगमत् ॥
॥२१७॥
RESSOUS SERRASSA
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શેઠ દેવચંદ લાલભાઇ જૈન પુસ્તકોદ્ધાર ફંડ
હાલમાં મળતા ગ્રન્થો
ગ્રંથાંક
ગ્રંથાંક
રૂા.આ. ... ૧-૦ ... .....
૮૬ લોકપ્રકાશ મૂળ ચોથો વિભાગ (પ્રત) ૮૭ ભરતેશ્વરબાહુબલિવૃત્તિ દ્વિતીય વિભાગ સંપૂર્ણ ૮૮ પ્રશમરતિપ્રકરણ-બૃહદ્ગચ્છીય શ્રીહરિભદ્રસૂરિષ્કૃત વિવરણસમેત૧–૪ ૮૯ અધ્યાત્મકલ્પદ્રુમ રત્નચંદ્રગણિવર્ધનવિજયગણિકૃત ટીકાયુક્ત ૩-૦ ૯૦ ગૌતમીયકાવ્ય રૂપચંદ્રગણિકૃત
... 9-0
૯૧ સટીક વૈરાગ્યશતકાદિ ગ્રંથપંચકર્
... ૧-૦ ...-
૨-૮
૯૨ અભિધાનચિન્તામણિકોશ ૯૩ જૈનકુમારસંભવ
૯૪ સિદ્ધહેમશબ્દાનુશાસન ગ્રહનૃત્યવચૂર્ણિનવપાદ, અવચૂર્ણિકાર શ્રીમદઅમરચંદ્ર
...
૫-૦
૧-૨
૯૫ વીતરાગસ્તોત્ર અવચૂર્ણિ વિવરણ અને ભાષાંતર સમેત ૯૯ શ્રમણુસૂત્રાદિ અવસૂરિ ૧૦૦ વંદનપ્રતિક્રમણ 15
૧-૦
૧-૮
ભક્તામરસ્તોત્ર પાદપૂર્તિરૂપ કાવ્ય પ્રથમ વિભાગ ટીકા ભાષાંતર ૩-૦
કાવ્ય બીજો વિભાગ ટીકા ભાષાંતર ૩-૮
૧-૨
610
',
જીવસમાસપ્રકરણ શતક સ્તુતિચતુર્વિશતિકા સચિત્રા શ્રીશોભનમુનિકૃતા સંસ્કૃતા
રૂા.આ.
-o
સ્તુતિચતુર્વિશતિકા સચિત્રા શ્રીબપ્પભટ્ટીસૂરિકૃતા ભાષાંતરયુક્તા ૬-૦ સ્તુતિચવૈશતિકા સચિત્રા કવિ ધનપાલકૃતા વ. અઁદ્રસ્તુતિ ચતુર્દાવંશતિકા જિનાનંદ સ્તુતિ સચિત્રા મેરૂવિજયકૃતા ભાષાંતરસમેતા ૬-૦ નંદ્યાદિ ( સપ્તસૂત્ર ) ગાથાદ્યકારાદિયુતો વિષયાનુક્રમ આવશ્યકસૂત્ર મલયગિરિષ્કૃત ટીકાયુક્ત બીજો ભાગ, ત્રીજો ભાગ (દે. લા. એક ૮૫)
૨-૦ ... ૨-૮ ... ૨-૮
૩-૮
લોકપ્રકાશ પ્રથમ વિભાગ દ્રવ્યલોક સર્ગ ૧ થી ૧૧ ભાષાંતર દ્વિતીય વિભાગ ક્ષેત્રલોક સર્ગ ૧૨ થી ૨૦ વેચાણમાં નવીન પુસ્તકો
૩-૮
૧૦૨ શ્રાવકધર્મપંચાશકચૂર્ણિ ૧૦૩ દશવૈકાલિક અવસૂરિ
...
૧૦૪ ઉત્તરાધ્યયન અવસૂરિ પ્રથમ વિભાગ ૧૦૫ પિંડનિયુક્તિ અવસૂરિ
૧૦૬ શ્રાદ્ધવિધિ (વિધિકૌમુદી) સારાંસ-મરાઠી
૧૦૭ નંદી અવસૂરિ ૧૦૯ સુત્રકૃતાંગદીપીકા
...
: : : :
...
...
...
...
...
...
...
32
...
...
⠀⠀⠀⠀⠀⠀⠀⠀
...
...
...
...
૨-૦
3-0
3-0
3-0
૪-૦
૧-૦
--
3-0
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________________
श्रीनन्दि
सूत्रम् । ॥२१९॥
पृष्ठम्
३ दुर्गतिप्रसृतान्
सज्झायज्झाण०
""
उद्धरणम् ।
टीकान्तर्गत- उद्धरणानि
"पृष्ठम्
उद्धरणम् ।
१५ गर्गादेः यत्र ( ६-१-४२) ०
ऐश्वर्यस्य
"
६ पश्चाश्रवाद् विरमणं०
८ ' नन्द्यादिभ्योऽन' (सि. हे. ५-१-५२)
यः समः सर्वभूतेषु०
"
९-१० 'शेषाद्वे 'ति कः प्रत्ययः (७-३ - १७५) ०
११ 'लिहादिभ्यः' इत्यच् प्रत्ययः (५-१-५०) आपूर्णः उद्घुमायशब्द०
""
१४ ' [ स्वार्थे] कथ [वा] इति ( ८- २ - १६४)
१५ गर्गादेः यञ् (६-१-४२) ०
गर्गादेर्यञ् (६–१–४२)०
19
विदादेवृद्ध ( ६-१-४१) इत्यञ् प्रत्ययः
"
१६ 'ऋषिवृष्ण्यन्धककुरुभ्य ( ६-१-६१ ) ० १७ 'धृञ् धारणे'•
'लिहा दिभ्य' ०
27
१८ ' [ स्वार्थे] [वा ] कथ' ०
22
१९
२३
२५
२७
एकग्रहणे तज्जातीयग्रहणम् इति०
पिंडविसोही ०
'ज्ञो जाणमुणी' (८-४-७)
' आमे घडे निद्दित्तं ०
आचार्यस्यैव तज्जाड्यं •
२७ आयरिए सुत्तंमि य परिवाओ ०
टीकान्तर्गतउद्धरणानि ।
।।२१९॥
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________________
श्रीनन्दिसूत्रम्। ॥२२०||
|| टीकान्तर्गत
उद्धरणानि ।
पृष्ठम्
उद्धरणम् । २८ वुढे वि दोणमेहे. ३० सेले य छिद चालिणिक
एगेण विसइ बीएण तावस-खउर-कढिणयं०
वक्खाणाईसु दोसा० , सव्वण्णुपाहण्णा दोसा०
'अंबत्तणेण जीहाए'
मोत्तृण दंडदोसे० , सयमवि न पियइ महिसो. , जलगा व अमितोल ३२ अन्नो दोजिहि कल्ले.
, सीसा पडिगच्छगाणं० ३९ अणासवा धूलवया कुसोला०
पृष्ठम्
उद्धरणम् । ४० 'ज्ञा अवबोधने' , गुणदोसविसेसण्णू० , पगई मुद्ध अयाणिय. ४१ किचिम्मत्तग्गाही पल्लवगाहीयः
'उपसर्गादात, (सि.हे. ५-३-११०) इत्यप्रत्ययः,
अत्थं भासइ अरहा. ४२ 'विनयादिभ्य' (सि.हे. ७-२-१६९)
'आवरण-देसविगमे 'अशू भोजने' 'अशूङ व्याप्ती'
जीवो अक्खो० , पृषोदरादय (सि.हे. ३-२-१५५). ,, अक्खस्स पोग्गलमया०
॥२२॥
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T
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________________
श्रीनन्दि
सूत्रम्। ॥२२॥
टीकान्तर्गतउद्धरणानि ।
पृष्ठम्
उद्धरणम् । ४४ इदु परमैश्वर्ये
, 'उदितो नुमिति नुम् ४६ 'पुंनाम्नी'ति घप्रत्ययः
प्रत्ययः शपथे ज्ञाने ४८ अणुगामिओऽणुगच्छइ० ,, 'कुत्सिताल्पाज्ञाते' (सि.हे. ७-३-३३).
, हीयमाणं पुव्वावत्थाओ० ५० फड्डा य असंखेज्जा ५१ 'अतः सौ पुंसि' ५५ नाम नाम्नकार्ये समासो बहुलं (सि.हे.३-१-१८) ५६ मच्छो महल्लकाओ० ५६ सण्हयरा सण्हयरो ५६ पढमबीएऽतिसण्हो जायइ थूलो०
उद्धरणम् । ५६ तेयाभासादव्याणमंतरा० ५६ दव्वाई अंगुलासंखेज्जातीतभागविसयाई० ५८ एक्केकागासपएस० ५८ सामत्थमेत्तमुत्तं दद्वव्वं० ५८ वड्ढंतो पुण बाहि ५८ परमोहिनाणठिओ० ५९ तत्थेव य जे दव्वा० ६० संखेज्जंगुलभागे आवलियाए. ६० आवलियं मुणमाणो. ६७ एगं दव्वं पेच्छं. ६८ दो पज्जवे दुगुणिए. ७३ जहा णालिकेर ७६ 'द्वयोः प्रकृष्टे तरपू'.
॥१२॥
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श्रीनन्दि
सूत्रम् । ॥२२२॥
Jain Education In
उद्धरणम् ।
पृष्ठम्
७९ तात्स्थ्यात् तद्व्यपदेश०
८०
षिधू संराद्वौ ०
८० कम्मे सिप्पे०
८० कायवाङ्मनः कर्म योगः
८६ सव्वदव्वाण पओगवीससामीसया ०
८६ तेसि भावो सत्ता सलक्खणं ० ८६ वइजोग सुर्य हव तेसि १०३ सट्टिकागसहस्सा० १०७ आगंतूण य तयो पडयं०
११४ तुज्झ पिया मह पिउणोः
१२० 'अहो सीया साडी' ० १२१ 'गोणे घोडगपडणं च रुक्खाओ ० १२५ अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किं १०
पृष्ठम्
उद्धरणम् ।
१२५ यः साध्यस्य उपमानभूतः स दृष्टान्त इति कथ्यते ० १३० तदनन्तरं तदत्थाविच्चवणं०
१३७ जं च वंजणोग्गहण मिति ० १३७ वंजणावग्गहकालो०
१४५ न अनवगृहीतं ईसते०
१४५ पारे मध्यग्रेऽन्तः षष्ठया वा० ( ३-१-३०)
१४६ लक्खेहि एकवीसाए० १४९ क्षर संचलने
१५० दव्वसुयाभावंमि वि भावसुयं पत्थिवाईणं •
१५४ कृमिकीट- पतंगाद्याः ०
१५५ ऐश्वर्यस्य समग्रस्य ० १५६
व्यत्ययोऽप्यासां०
१६० चत्तारि सागरोवमकोडाको डीओ ०
टीकान्तर्गतउद्धरणानि ।
॥२२२॥
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Page #269
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________________
श्रीनन्दिसूत्रम् । ॥२२३॥
टीकान्तर्गतउद्धरणानि ।
पृष्ठम्
उद्धरणम् । १६६ मज्ज विसयकसाया० १६६ 'नंदी'त्यादि सुगम १६७ चचारि विचित्ताई १६७ नाइविगिट्ठो य तवो १६७ वासं च कोडिसहियं १६९ सजेगस्स कुलस्स० १६९ सओ समत्ते कज्जे० १७० जाहे तं अज्झयणं समणे निग्गंथे० १७३ निग्गंथ सक्क० १७३ वयसमणधम्मसंजमवेयावच्च १७३ पिंडविसोही समिई० १७३ काले विणए १७३ निस्संकिय निकखिय
पृष्ठम
उद्धरणम् । १७४ अइसेस इढियायरिय बाई १७४ पणिहाणजोगजुत्तो १७४ बारस विहंमि वि तवे० १७४ अणिगृहियवल विरिओ० १७७ सूच पैशुन्ये १७८ न कालव्यतिरेकेण १७८ कि' च कालाइते नैव १७८ कालाभावे च म दि. १७८ कालः पचति भूतानि० १७८ ज्ञानमप्रतिघं यस्य. १७८ अज्ञो जन्तुरनीशो० १७९ पुरुष एवेद सर्व १७९ नियतेनैव रूपेण
॥२२॥
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________________
श्रीनन्दि
सूत्रम् ।
॥२२४॥
Jain Education
पृष्ठम्
उद्धरणम् ।
यत् यदैव यतो०
क्षणिकाः सर्वसंस्कारा०
१७९
१८०
१८१ अतोऽनेकस्वरात्०
१८१ अन्नेण अन्नहा देसियंमि०
१८१ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः
१८३ जं इत्थं च णं लोके तं०
२०० धम्मो मंगलमुकि● २०१
सव्वेसि आयारो पढमो० चउदसलक्खा सिद्धा०
२०४
२०४ पुनरवि चउदसलक्खा सिद्धा०
२०४
जाव य लक्खा चउद्दस ०
२०४
एगुत्तरा उ ठाणा
पृष्ठम्
उद्धरणम् । २०५ विवरीयं सव्वट्ठे चउदस० २०५ तेण परं दुलक्खाई दो दो० २०६ सिवगइ सव्वट्ठेहिं •
२०६ पढमाए सिद्धेको०
२०६ ताहे दिउत्तराए०
२०६ एग चउ सत्त०
२०७ ताहे तिगा विसमुत्तराए० २०८ सिauseast दो दो०
२०९ विसमुत्तरा य पढमा०
२०९ सिवग पढमादीए०
२०९ एवमसंखेज्जाओ ०
卐
टीकान्तर्गतउद्धरणानि ।
॥२२४॥
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________________
श्रीनन्दिसूत्रम्। २२५।।
मूलसूत्राणामशुद्धिपत्रकम् ।
पृष्ठम् पंक्तिः अशुद्धम् ।
६ २ तुंबर ६ २ पारियालस्स ६ १० संघरहस्स ८ ९ अकीरि० ८ ९ निच्चं ! १० ६ वरद्दढ ११ २ नियमुच्छिय ११ १२ धातु ११ १२ रुद्ध १३ १० सुगंधि० १३ १० सुयवर
मूलसूत्राणामशुद्धेः शुद्धिपत्रकम् । शुद्धम् ।
पृष्ठम पंक्तिः शुद्धम् ।
१३ १० सिहरं महामं तुंबार
१३ १२ पुष्पंदंत पारियल्लस्स संघरहस्स भगवओ
१४ ४ बीए अकिरि०
१४ ४ तईए निच्चं
१५ ५ मोरिय पुत्ते ०वइरदढ ।
"१४ ५ अयल भायाय नियमृसिय
१४ ५ मे अज्जेय धाउ
१४ ८ जिणि दवर वीर
१५ ४ जम्बु सुगन्ध०
१५ ४ कासवं पभवं । सुयबार
१६ १३ हारियगुत्तं
अशुद्धम् । सिहरं संघमहामं० पुष्पदंत कुंथु बीओ तइए मोरियपुत्ते अयलमाया य मेअज्जे य जिणिंदवरवीर
जम्बू । कासवं । पभवं हारियगोतं
रुद्द
॥२२५॥
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________________
श्रीनन्दिसूत्रम् ।
॥२२६॥
Jain Education Int
पृष्ठम् पंक्तिः शुद्धम् ।
१६ १३ कोसिआ
१७
७ गंभिरं
१८ ६ तत्तोय
१८ ८ भूआ
२१ ४ पुव्वि २१ ५ गोवं दाणं
२१
५ अणुयोगो
२१ ५ विउलधारिणि'
२१ ५ दाणं निच्च'
२१ ५ स्वति दुयाणं
२१ ५
२१ ६
२१
६
परुवणे दुल्लभिदाणं
तत्तोय
संजमं विह
अशुद्धम् ।
कोसिअ
गंभीरं
तत्तो य
भूओ
पुव्विं
गोविंदाणं
अणुयोगे
'विउलधारणि'
निच्च'
खंतिदयाणं
परूवणे दुल्लभिदाणं ततो य
संजमविह
पृष्ठम् पंक्तिः शुद्धम् ।
२२ ८ अप्प
२२
२२(१) १२ तत्थं
८ रिसीण
२३ ७ वखाण
२३
७ पयईइ
२३ १२ संजमं विणय
२३ १२ वरयणं
२३ (१) १२ जुगव्व
२४ १ एहि
२५ ३ जलुग
२५ ३
१
२
१४०
છું.
आमेरी ॥
खीरमिव
परिसा
अशुद्धम् ।
अयप्प
रिसी
तत्थं [ णिच्च']
वक्खाण
पयईए
संजमविणय
रयाणं
जुगप्प
एहि
जलूग आभीरी ॥
'खीरमिव
परिसा ॥१॥
मूलसूत्राणामशुद्धिपत्रकम् ।
॥२२६॥
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________________
श्रीनन्दिसूत्रम् । ॥२२७॥
शुद्धम् । ओहिनाणपच्च० नाणपश्च०
मूलसूत्राणामशुद्धिपत्रकम् ।
दोण्हं भवपञ्चइयं
पृष्ठम् पंक्तिः अशुद्धम् ।
पृष्ठम् पंक्तिः अशुद्धम् । ४० ३ यमुआ
यभूआ
४५ ७ ओहिनाणं नो ४४ २ पञ्चक्ख । पच्चक्रव? | ४५ ८ नाणंनो. ४४ २ पनतं
पन्नतं, ४४ २ पञ्चक्ख नो इंदिय पञ्चक्ख च नोइंदिय० ४५ १ इंद्रियप्रत्यक्ष से कि त इंदियपच्चक्ख इंदिअपञ्चक्ख
१० भवपञ्चइयं दोण्हं पंचविहं पण्ण, तंजहासोइंदियपञ्चक्वं
, ११ मणू० चक्खि दियपञ्चव
", आण पाणि दियपश्चक्ख ४९ २ गयं । रसणे दियपञ्चक्ख' ५३ ६ नाणं फासि दियपच्चक्ख । । ५४ ९ तस्स । से तं इंदियपञ्चक्ख । । " " "
|
"
,
पन्न
मणु० आणं गयं ? नाणं? तस्स
।।२२७॥
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________________
निन्दि
मूलसूत्राणामशुद्धिपत्रकम् ।
सूत्रम्। ॥२२८॥
| पृष्ठम् पंक्तिः अशुद्धम् ।
६७ ७ पच्चईओ
ओहि. खिज्ज
पच्चइओ
पृष्ठम् पंक्तिः अशुद्धम् । ५५ ६ ओही ५९ १ खिज्जा ,, ३ जम्बू०
४ असंखेज्जा ६१ १३ अब ६२ १३ यर ६४ २ नाणं , ३ बाल.
असंखेज्जे अव्वा यर
नाणं जणं वाल
९ गोयमा ! ७३ ६ गब्भम०
, ६ भूमिय: ७५ १ लवो
बह गोयमा ! संजय० गब्भवतियम० भूमियगब्भवतिय० लओ
मई ज० ज्ज
, ६ वाजोअ० ६५ २ जेणं
, १३ खिजा. ६७ ७ ओहि
वा जोअ० जंणं खिज्जा ओही
३ मईज. , ३ ०ज्जय० , ४ ०डग० , ६ सन्नि , ७ तरागं
डाग० सन्नीणं
॥२२८॥
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________________
पृष्ठम् पंक्तिः अशुद्धम् । ७५ ८ ०वमस्स , ९ अब्भहियतरागं
शुद्धम् । चरिम
श्रीनन्दिसूत्रम्। ॥२२९॥
मूलसूत्राणामशुद्धिपत्रकम् ।
" १० बावे
शुद्धम् । | पृष्ठम् पंक्तिः अशुद्धम् । वमस्स असंखेज्जमागं | ८.११ चरम
, १४ , भावे
१४ अचरम
८१ १० नाणं । मणपरिचि
,, ११ नाणं । इ
८४ ११ ०भावं ०णप०
८६ १ केवल नाणं?
, २ जोगे
१० चेब ,, ११ मणविचिं. ,, १२ इणं
१२ ०णव ७९ ९ नाणं
, ९ नाणं ? ,, ९ नाणं? '" ९. अयोगि ८० १० सयोगि०
चैव
अचरिम० नाणं ? नाणं ? ०भावे केवलं जोग्गे
नाणं?
परो०
नाणंअजोगि सजोगि०
on cccc
॥२२९॥
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________________
श्रीनन्दिसूत्रम् । ॥२३॥
पृष्ठम् पंक्तिः अशुद्धम् । ८७ ९ मइ अ०
मूलसूत्राणामशुद्धिपत्रकम् ।
शुद्धम् । मइअ० सु, सुअअ० सुअअ० नाणं? स्सियं? कम्मि०
८७ ९ सुअ अ०
१० सुअ अ० ८९ ७ नाण। ८९ ८ स्सियं ।
९ कम्म ८९ ९ बुद्धि ८९ ९ चमी ९० ६ बुद्धि ११५ ६ साढी १२२ १४ बुद्धि १२३ २ ०ण्णाए
पृष्ठम् पंक्तिः अशुद्धम् । १२४ १४ ०स्से १२४ १४ ॥११॥ १२६ २ घण १२६ २ ॥१२॥ १२६ ३ ०च्च पुरु १२६ ४ सिक. १२६ ५ ॥१३॥ १२६ ४ दरि १२६ ६ ॥१४॥ १२९ १० इहा १३२ ४ भवति १३३ १२ इमं १३५ ४ तम्स
०स्सेस ॥१०॥ धण ॥११॥ ०च्चपु०
सिक्क० ॥१२॥ ०दरी ॥१३॥
बुद्धी
०चमा
बुद्धी
साडी
भवन्ति
बुद्धी
इमे
॥२३०॥
०ण्णाग
Jain Education insanee
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--------------------------------------------------------------------------
________________
नन्दिइत्रम् । २३१॥
शुद्धम् । पन्नता
मूलसूत्राणामशुद्धिपत्रकम् ।
धरणा
धारणा तत्थ य दुसमयपविट्ठा पविट्ठा पोग्गला.
| पृष्ठम् पंक्तिः अशुद्धम् । १३५ ५ पनत्तं १३५ ५ धारणा १३५ ५ साधारणा १३५ १५ तत्थ १३६ ५ दुसमय १३६ ६ पविट्ठा १३७ १४ ०तेण । १३८ ४ तं १३८ ४ हुंति १३८ ९ तओ १३८ १० रुवत्ति १३८ ११ स्वत्ति, १३८ १३ गंधत्ति ।
पृष्ठम् पंक्तिः अशुद्धम् । १३९ २ रसोत्ति १३९ २ रसोत्ति, १३९ ४ नामए १३९ ६ फासओत्ति, १३९ ८ ०णोति १३९ ८ सुमिणोत्ति, १३९ ९ सुमिणे १३९ ९ तो १३९ १० तओ १४८ ४ नाण प० १४८ ५ मिच्छ० १४८ ५ सुर्य १४८ ५ सुयं
रसेति रसेत्ति नामए केई फासएत्ति?
त्ति सुमिणेत्ति ? सुमिणेत्ति तओणं तओ गं
नाणप० मिच्छा०
तेण?
तओणं रूवेत्ति रुवेत्ति गंधेत्ति
॥२३१॥
०
०
०
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--------------------------------------------------------------------------
________________
शुद्धम् ।
शुद्धम् ।
निन्दि- सूत्रम्। ॥२३२॥
मूलसूत्राणाम शुद्धिपत्रकम् ।
गवअं,
| पृष्ठम् पंक्तिः अशुद्धम् ।
१४८ ५ सुर्य १४८ ६ सुर्य १४८ ६ सुयं १४८ ६ सुयं १४८ ६ सुर्य १४८ ६ सुर्य १४८ १४ सद्धाणगइ १४९ ४ सेत्तं
तिन
| पृष्ठम् पंक्तिः अशुद्धम् । १५७ ७ गवं, १५७ ७ सउणरु १५७ ७ नाडयाई १५८ १२ सयं १५८ १३ सयं १५८ १३ तिन० १५८ १४ इ. १५९ १ पुरिसे १५९ २ य १५९ ६ तय १५९ १० सुय १६४ १० दविं १६५ २ •सुए,
पुरिसं
संठाणागिई सेत्तं लद्धिअक्रवरं । सेतं उप्प
ते तया
१५५ ५ उप० १५५ ६ नं १५५ ८ ईद. १५५ ८ दिट्ठ
देवि सुए, समुट्ठाणसुए
॥२३॥
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?
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--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीनन्दि
सूत्रम् ।
॥२३३॥
पृष्ठम् पंक्तिः अशुद्धम् । १६५ ३ लिआणं,
१६५ ३ चण्डी०
१६५
७
० व्विहं
८ सेत्तं उक्कालियं सुयं ।
१६५
१६५ ९ सुयं । १७२ ३ वायो
१७२ ६ माया
१७२ ६ जाया १७२ ८ ० खिज्ज
१७२ १२ वड
१७२ १३ से
१७६ ८ ० ज्जइ
१७६ ९ ०ज्जइ
१७६ ९ ०ज्जइ
शुद्धम् ।
लिणं, निरयावलयाणं | १७७ ३ से
१८२ ९ ठाणे
१८२ ९ ० जीवे
१८२ ९ ज्जंति
१८२ १०
वही ०
० व्विद्दाए
८००
०२
वाओ
जाया
माया
० खिज्जा
कड
८०
०ज्जन्ति
पृष्ठम् पंक्तिः अशुद्धम् ।
०ज्जन्ति
०ज्जन्ति
91
29
"1
"
**
77
"
""
""
71
99
११
"
१२ णं परिता
99
शुद्धम् ।
०००
ठाणे णं
० जीवा
ज्जइ
"
99
""
""
19
गाइआए एगुरियाए बुड्ढीए दसट्टाणगविवद्रियाणं भावाणं परूवणया आघविज्जति ठाणेणं परिचा
मूलसूत्राणामशुद्धिपत्रकम् ।
॥२३३॥
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--------------------------------------------------------------------------
________________
नन्दि
श्रम् |
२३४॥
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पृष्ठम् पंक्तिः अशुद्धम् ।
१८३ ३ से
१८४
17
""
====
२० एणं
17
१८५ २
१८५
17
९ से
ठाण
"
ककण
०ति, लोए
८ से
१२
१३ याओ
०णाआ
नायाधम्मकहाण
19
४ क्खघे
शुद्धम् ।
०००
ए
ठाणग
०००
ससमयपरसमए विहिजति लो
000
०णाओ
याओ अ
०००
पृष्ठम् पंक्तिः अशुद्धम् ।
१८६ ६ अक्ख०
०च्चाइ०
करण
१०
परु०
"
• ति, परसमए विआहि- १८९ ४ ० ज
अति,
९
से
क्खघा
99
17
१८८ ५
27
१९० ४
""
७ परु
८ से
""
""
१९१
""
०डाणं
६० इत्ते ओ०
60
१३ से
५ ० तरप०
१३ से
शुद्धम् । संखिज अक्ख०
परू
०००
०वायाइ०
परू०
OC
डा
• इयत्ते
ओय०
०००
०त्तरं प०
००
मूलसूत्राणाम शुद्धिपत्रकम् ।
॥२३४॥
Page #281
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीनन्दि
सूत्रम् । ॥२३५||
पृष्ठम् पंक्तिः अशुद्धम् । १९२ ६ णं वि०
११
० आया
१२
पच्चक्खाणाई
17
27
१९३ १
४
"1
"9
"
११
० क्वंघे
से
० पञ्ज०
४
१३ पाढोआ ०
५
१९४ १ ० भूअ
बर्द्ध
१ एवं द्वितीयसूत्रेऽपि ज्ञेयम् ।
शुद्धम् । णं दुहवि०
● आगा
पच्चक्खाणाई पाओवग
माई
० कसंधा
०००
० पञ्जण०
४
५
पाढो आ०
६
• भूअं
७
०बर्द्ध
पृष्ठम् पंक्तिः अशुद्धम् ।
७
१९४ १ ० गुणं
27
""
99
""
"
"
"
12
४
४ पाढोआ०
"
""
९
०गुणं
१०
११
भूअं पडि०
५
०भूअं
बर्द्ध
शुद्धम् ।
८
०गुणं
९
१०
गुणं
११
० भूअपडि०
४ ५
पाढो आ०
६
० भूअ
मूलसूत्राणामशुद्धिपत्रकम् ।
||२३५||
Page #282
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृष्ठम् पंक्तिः
अशुद्धम् ।
शुद्धम् ।
पृष्ठम् पंक्तिः अशुद्धम् ।
शुद्धम् ।
निन्दिसूत्रम्। ॥२३६॥
मूलसूत्राणामशुद्धिपत्रकम् ।
४
गुणं
गुणं
१९४ ७१० १३ गुणं
गुणं
,
,
गुणं
,,, गुणं
गुणं
१०
,
गुणं
गुणं
"
,
,
, गुणं
गुणं
६
भूअं पडि.
भूअपडि
, ,, भूअं पडि० ०भूअपडि० जह
जह
९-१३ पाढोआ० पाढो आ०
१९५ १
१०- ,
भू
भू
त्थिअ०
१९७ १ स्थिआ० , २ स्सा. , ९ पाण.
"
०न्ना० पाणा
"
"
,
बटुं
ब ई
॥२३६।।
Jain Education
T
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--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीनन्दिसूत्रम् ।
॥२३७॥
पृष्ठम् पंक्तिः अशुद्धम् । •ओगे
१९८ ७
७
= = =
::
V
८
"
० मण०
०सेआ
९
१० अज०
१०
""
० णीओ
११ सम्म०
वाई
• आसि
17
१२ ०गया
१३ तिमिः १४ ०ओगे
शुद्धम् ।
• ओगे अ
""
० मणा०
० सेया
अञ्जा य
णीओ अ
सम०
वाई अ
• आसि०
o गओ
तम०
० ओगे णं
6
पृष्ठम् पंक्तिः अशुद्धम् ।
१९९ ४ पनविज्ञंति
१३ से
"
२१० १४ ० संघे
"
11
०उ
27
""
२११ १४ अवि०
२१२ ६
फ
३
२१५ ७ परोइ
२१५ ७ ०अ २.१५ ७ ० एया०
२१५१०
० माए
०व्व द०
→
शुद्धम् ।
००००
०००
० संगे
हे
• हेऊ
अव०
०व्वद०
३
सुणेइ
०इ अ
०ए या० ० मए
मूलसूत्राणामशुद्धिपत्रकम् ।
॥२३७॥
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________________
JAN
श्रीनन्दिसूत्रम् । ॥२३८॥
शुद्धम् । उज्ज्वला
टीकायाः शुद्धिपत्रकम् ।
चूरि
घिई
पृष्ठम् पंक्तिः अशुद्धम् । १६ चूरी २१ आध्ययने ,, ३ ङीप , ५ स्मोति
९ यथा व्य ,,१३ स्वलि ङ्गा
मेरु
‘टीकायाः शुद्धिपत्रकम् । शुद्धम् ।
पृष्ठम् पंक्तिः अशुद्धम् ।
९ ९ उज्वला अध्ययने
१० १ घिई डीपप्र.
, ५ मेरू स्मीति
११ ५ उज्वलानि यथाव्य
११ ८ नन्द स्वलिङ्गं
११ ९ तत्ववि०
१२ २ निष्पंद० सुखसुहिता
१२ ४ निष्पंद० गुम्फिलं
१२ ४ रत्वा लौघः
१२ ७ कारित्वा पातादि
१३ ३ चूरी | १५ १० पथःशा०
४ ११ सुखहिता ५ ६ गुम्पिलं ७१० लौष ७ , पादि ९ ४ वर्ति
उज्ज्वलानि नन्दन तत्तु वि० निस्यन्द० निस्यन्दमा० रत्वात् कारित्वात्
चूरि पथशा०
॥२३८॥
वृत्ति
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________________
पीनन्दिसूत्रम् । १२३९॥
टीकायाः शुद्धिपत्रकम् ।
पृष्ठम् पंक्तिः अशुद्धम् । १४ ६ निवृत्ति १४ १२ सत् १५ २ कथोक्त १५ ३ इदं युगी १५ ७ तच्छष्यं
शुद्धम् । निवृति तत् यथोक्त ऐदंयुगी तच्छिष्य
पृष्ठम् पंकिः अशुद्धम् । २३ ५ तय्यं २५ २ नाअयो २५ २ ०मागोउप० २५ १० मअश० २६ ११ मवमास २७ ३ जुमित २७ ६ शिष्यानाब २७ ७ एवं वि० २७ १२ श्रोतृणा २८ १ परिचाओ २८ २ दिवेयः २८ ४ मिच्छित्ति २८ ५ प्रत्येवा
शुद्धम् । तथ्य नायो भागोप० मश० मवभास ज्जंभित० शिष्या नाव एवंवि० श्रोतृणा परिवाओ विनेयः मच्छिति प्रत्येव
अण कीर्ति
१६ ३ अग १७ ९ कीर्ति १८ ६ वंदो १९ ८ पडिमाई २० ९ प्रभत २१ २ ०दादिनां २३ २ सुज्ञा ज्ञात
पडिमा य प्रभूत दादीनां सुज्ञात
।।२३९॥
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--------------------------------------------------------------------------
________________
शुद्धम् ।
नन्दिसूत्रम्। ॥२४०||
| टीकायाः शुद्धिपत्रकम् ।
वर्तन्ते
पृष्ठम् पंक्तिः अशुद्धम् । २८ ९ वर्त्तते २८ ११ भाविधाः २९ ८ पश्चादअपि ३० ११-१३ चालिनी
भाविताः पश्चादपि चालनी
पृष्ठम् पंक्तिः अशुद्धम् ।
४ ०वक्ख , ४ गम्मिय , ४ दोसाय , ५ योग्यः , १० सज्जस ३१ ६ नज
उक्तं
,, १ सेलेय चालिणी
२ बीसइ वीए २ सुरामि
२ आह , २ धन्नोत्थ , ५ समानो ,, ४ कठिणयं ,, ७ नीसरह
सेले य चालिणि विसइ बीए सरामि आह! धन्नो स्थ समानोड कढिणयं निस्सरह
बक्खो गम्मि य दोसा य ऽयोग्यः ०सज्जा नय सचा चरणगवी वि (व) ह मुकुलित निवेशित. मारेमे मुकुलितं
३२ १२ चरणमवि
, १२ बिहु ३४ ७ मकलितं ३४ १२ निशित ३४ ९ मारमे० ३४ १३ मकलितं
॥२४०॥
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________________
श्रीनन्दिसूत्रम्। ॥२४॥
पृष्ठम् पंक्तिः अशुद्धम् । ३६ १४ तद्रूप ३५ १ खडू. ३५ ८ नीचद्धे ३५ ११ अचकथत् ३५ १२ कुइम ३६ १ पर्यते
शुद्धम् । तद्रूप खड्डा. नीचयुद्धे अचीकथत्
टीकायाः शुद्धिपत्रकम्।
पृष्ठम् पंक्तिः अशुद्धम् । ३७ ८ निरोपितो ३७ ११ जंत्नां ३८ ३ पापीयसि ?
, ३ दुःशीले ३८ ५ क्षिपत् ४० २ परिसा ।
परिसा ॥१॥ ३ णुओं ४० ४ बस्थिन
५ ॥२॥ "१० एसा ॥ १. कुडग
निरूपितो जन्तूना पापीयसि ! दुःशीले! क्षिपती परिसा ॥१॥ परिसा ॥२॥ भूआ बस्थिव्व
पर्यन्ते
मेरी धर्षित्वा तच्छक व्यतरिष्ट
॥३॥
३६ १३ घषित्वा ३७ १ तच्छशक ३७ १ व्यतीरिष्ट ३७ १ ततः ३७ ६ शक्नुवती ३७ ६ निभालमास
तत्
सा
॥२४॥
शक्नोति निमालयामास
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--------------------------------------------------------------------------
________________
पीनन्दि- सूत्रम् । ||२४२।।
शुद्धम् । अवधेर० ऊन
टीकायाः शुद्धिपत्रकम् ।
पृष्ठम् पंक्तिः अशुद्धम् । ४१ १४ पवत्तह ४३ ५ प्रत्यक्ष ४३ ९ नयत्वात् ४३ १. रुपासद्धिः ४५ १३ प्रत्यक्षो ४६ १२ गमनग० ४९ १३ नानावधि ५१ ६ ०त्वभवत्वं
५१ १ मणि | ५२ २ कपनि
शुद्धम् । पवत्ता प्रत्यक्ष ०मयत्वात् रूपसिद्धिः प्रत्यक्षा गमनाग० नानाविध
पृथ०
अपिशब्दात् महानेकोऽपि आनव०
पृष्ठम् पंक्तिः अशुद्धम् । ५९. ५ अवधि ६० ४ ऊणं ६० ५ पृय०. ६० ११ अपि शब्दात्महा
ने कोपि ६४ १३ ओनव० ६८ ६ ॥१॥ ६९ १३ तथाच्च ७० ९ पयाप्ना० ७४ १२ ०दुष्टैवेति ७६ १ अनन्तान्त ७६ ८ रुपैमनो ७७ ३ ०धडो
त्वम्
मणिः कपनि
तथा च पर्याप्ता० •दुष्टमेवेति अनन्तानन्त रूपमनो धोः
५२ १४ यथा क्षयो ५६ १ ससहुस्खा
यथाक्षयो. सहस्रा
॥२४२॥
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________________
नन्दि
पुत्रम् ।
॥२४३॥
पृष्ठम् पंक्ति: अशुद्धम् ।
७७ ४ प्रतर
७८ ८ भूमिसु
७८ ८ द्वीपेसु
८० १
तिष्टती
८२
F F F
८ तीथ
न्नव
बुद्धयते
६ विहार०
४
८२ १३ ४
अप्रथमाः स
८
यद्य
१ धारणाथ
८८
८८ ८ अथ
८९ १४ ० शील ना०
शुद्धम् ।
प्रतरं
भूमिषु
द्वीपे
तिष्ठती
तीर्थ
नेव
बुद्धयन्ते
विहर०
अप्रथमस
यद्यपि
धारणार्थ
अर्थ
● शीलना •
पृष्ठम् पंक्तिः अशुद्धम् ।
९१ ६ महेले
९४ ४ भव्य
९५ १२ राज०
९२ ५ सप्रकारां
१०० १४ दौहर्द
१०१ १ दौहृदा०
१०२ ११ चित
१०२ १४ रुप०
१०३ १० ० चेतसो
१०३ १२ योवन
१०४ ४ यो १०४ ६ मले
शुद्धम् ।
महिला
भव्यं
राजा०
सप्राकारां
दौर्हृदं
दौहदा०
चित्
रूप्य
• चेता
यौवन
य
जले
टीकायाः शुद्धिपत्रकम् ।
॥२४३॥
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--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीनन्दिसूत्रम् ।
॥२४४॥
पृष्ठम् पंक्तिः अशुद्धम् ।
१०४ १३ त्यागेन
१०५ ४ वभू० १०६ १
पद्ममाss
१०
पति
११
निर्घटिता
११ औत्पत्तिकी
पुंडरीक
परस्पर
० ज्वाला स
हृदयाहृद०
""
""
"
१०७ ३
१०८ ५
७
८
९ दारिद्रयं
""
१०९ ३ क्रर्यात् ११० १० परिपूर्ण
"
""
शुद्धम् ।
त्यागाय
बभू०
पद्माss
पतिः
निर्धाटिता
औत्पातिकी
पुंडरीकं
परस्परं
ज्वालास
हृदया हृद०
दारिद्रय
क्रयात्
परिपूर्ण:
पृष्ठम्
पंक्ति:
११० ११ इतरो
१३ देशांतरं
22
१११ ६ वाददामि
१०
तस्तै
12
१४
"2
११२ १४ 'सिखु '
17
अशुद्धम् ।
११३ १४ अधास्तात्
११४ ५ दधादिति
"
19
०ता तत्र
"
११६ ३ गुरुर्निर्दे०
८ चेडी
९
12
99
२ ० पकर्ष
""
शुद्धम् ।
इतरस्य देशांतरं गतः )
वा ददामि
तस्मै
० तावत्र
सिक्खा
अधस्तात्
दद्या इति
"
प्रकर्ष गुरुनिदें
चेटी
०
टीकायाः शुद्धिपत्रकम् ।
॥२४४॥
Page #291
--------------------------------------------------------------------------
________________
शुद्धम् । कृतवत्
उत्पन्न
श्रीनन्दिमूत्रम्। ॥२४५||
शुद्धम् । विशेषात् धरणा ०बल० ईहा
टीकायाः शुद्धिपत्रकम् ।
पृष्ठम् पंकिः अशुद्धम् । |११७१२ कृतवान् ११८ ५ उप्तन्न १२१ ११ स्वामी १२२ ५ संजाततकृपः १२३ ५ (विद्गद्भि?) १२३ ६ तस्माः १२५ ११ जीवच्छटा १२६ ५ घिग १२६ १० पूती १२७ ४ सुसुमा १२७ १० कर्नु १२८ २ निष्टिते १३३ ७ विशेष
स्वामी तं संजातकृपः विवदद्भिः तस्याः जीवच्छटी
पृष्ठम् पंक्तिः अशुद्धम् । | १३४ १४ विशेषात १३५ ७ धारणा १४. ९ ०वल. १४० १४ इहा १४३ २ एव १५४ ७ काय० १५० ५ लब्धि ... ९ भवेन् १५१ ४ लब्ध्य अक्ष. १५१ १२ कारा १५२ ९ तत्
११ व्युप० ।१५३ १४ नियतइष्टा.
काया० लब्धिः
धिग् पूति
भवेत्
सुसुमा
लब्ध्यक्ष करा० ०त्तत व्यप० नियतेष्टा
निष्ठिते तद्भावोऽवलंबनता] विशेष
॥२४५॥
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________________
निन्दित्रम् । २४६॥
11 टीकायाः
शुद्धिपत्रकम् ।
पृष्ठम् पंक्तिः अशुद्धम् । १६२ २ ०स्यानंत. १६५ १४ कालिक १६६ १४ अध्वयने १७१ ८ सिद्धः १७२ १ बुद्धि १७५ ७ ०० १७६ ५ अधी० १७८ १४ अन्यो १८० ३ उच्यते १८१ ६ तराः अशु० १८८ १२ उपाशक.
१० कर्मः १९६ ८ परिचिंत्यते
स्यानंततम कालिकं अध्ययने सिद्धाः
बुद्ध ०स० गधी० अज्ञो चोच्यते
तराशु० उपासक
कर्म परिचित्यंते
पृष्ठम् पंक्तिः अशुद्धम् । २०१ ३ त्रितयि० २०२ ८ आत्मा प्र. २०३ ३ ईक्ष्वा० " ८ बहव्यां , ९ भेव , ११ पात्ते २०४ ३ स्ततः
, १३ सर्वार्थाः २०८ १ पंचविंशति । , ३ सर्वार्थ i , अशीति २०० १० अंकंस्थान , १४ ०सरात्तुया
शुद्धम् । त्रिनयिक आत्मप्र० इक्ष्वा० बयां ०भव ०पाते ततः सर्वार्थे पंचविंशतिः सर्वार्थ अशीतिः अंकस्थान सत्तुराया
॥२४६।
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________________
श्रीनन्दिसूत्रम् ।
॥२४७॥
पृष्ठम् पंकिः अशुद्वम् ।
२१० ६ ० पूर्वते
21
"
++
८
उक्तः
०वि सति०
विशति
९
17
२१४ ११ इति
पृष्ठम् पंक्तिः अशुद्धम् ।
६९ १३ तथाच्च
७० १४ चैकका
शुद्धम् ।
पर्वते
उक्ताः
० विंशति०
विंशतिः
इव
पृष्ठम् पंक्ति: अशुद्वम् ।
१२ उपाजयते
१४ केवली'
शुद्धम् ।
तथा च
च शरीरादि०
11
"
२१५ १ च
""
२ भजनां २१७ ८ सत्तमे २१७१२ ० चूरी
टीप्पणकस्य शुद्धिपत्रकम् ।
फ
पृष्ठम्
पंक्तिः अशुद्धम् । ७४११ ० दुष्टैवेति
८२ १३ नव
Elite
शुद्धम् । उपजायते
केवली
भजनाः सप्तमे
शुद्धम् । • दुष्टमेवेति नेव
टीकायाः शुद्धिपत्रकम् ।
टीप्पणकस्य शुद्धिपत्रकम् ।
॥२४७॥
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________________ For Private & Personel Use Only