________________
नन्दिसूत्रम् ।
॥१७॥
प्रस्तावना।
।
वळी एम पण दलील करवी सर्वथा अयोग्य छे के तेओए पण 'इन्दियमणोभव' जं तं संववहारं पच्चक्ख' (गाथा ९५ पृ. २४) इन्द्रिय अने मनथी थतो ज्ञानने संव्यवहार प्रत्यक्ष तो कधुं छे माटे तेमणे समन्वय करवा माटे ज आम कयु ते पण योग्य नथी. कारण के ते समन्वय करवा माटे नथी पण व्यवहारनयनी प्ररूपणा छे. तेथी ज पू. जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण तेमज नंदीचूर्णिकार जणावे छे के, "तेषामपि च 'त' संव्यवहारत एव तत् प्रत्यक्षम् न परमार्थतः' अने इन्द्रियोर्नु पण ते संव्यवहारथी (व्यवहारनयथी प्रत्यक्ष छे) परमार्थथी नथी' 'परमत्थओ पुण चिंतमाणं एतं परोक्ख' परमार्थथी विचारता ए परोक्ष ज छे. वळी आगळ वधीने एमज कहेवा जाय छे के व्यवहार अने निश्चयनयनी योजना पण समन्वय माटे ज छ तो कहेवु जरूरी छे के नयवादने ज केवल समन्वयवाद कहेनार अने समजनारना. ज्ञानने धन्यवाद घटे छे.
अहीं वाचकोने इन्द्रियने प्रत्यक्ष प्रमाण माननारानी मान्यता केवी छे, अने ते क्या सुधी योग्य छ तेनो ख्याल आपवा माटे थोडोक विचार करवामां आवे छे. तेओर्नु लक्षण छे के 'प्रमाकरणं प्रमाणम्' ते प्रमाना प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, अने शब्द तेवा चार भेद छे. नेमांथी इन्द्रिय अने। मनथी थता ज्ञानने तेओ प्रत्यक्ष प्रमा कहे छे, अने तेनुं कारण होवाथी इन्द्रियोने पण तेओ प्रत्यक्षप्रमाण कहे छे. आ व्यवस्था द्वारा 'जड'ने पण प्रमाण मानी लीधुं. जो के अनुमानादि प्रमामां ते ज्ञान ज प्रमाण छे.
॥१७॥
Jan Education International
For Private Personal Use Only
www.jainelibrary.org