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________________ नन्दिसूत्रम् । ॥१८॥ Jain Education Inte त्यारे प्रत्यक्ष माटे ज्ञानथी पृथक् इन्द्रियोने तेमने कारण मानवी पडी. तेथी जैनदर्शनकारनी माफक तेमना मते सामान्यनुं कोई एक कारण रधुं नथी. ते खामीनुं द्योतक छे. वळी जेम इन्द्रियो कारण बने छे ते संनिकर्षादि पण कारण बनी ज जाये छे. कारण के संनिकर्षथी निंविकल्पज्ञान अने ते द्वारा: सविकल्पज्ञान थाय छे. तेथी ते संनिकर्षं पण कारण छे. अर्थात् ते पण प्रमाण बनी गयो आ मतमां इन्द्रिय प्रत्यक्ष मात्र प्रति पण कोइ अनुगत करण नथी पण व्यवस्थानी खामी छे. वळी परतः प्रामाण्यवादीना मते ज्ञान पण कारण बनी जशे त्यारे एक ज्ञानने ज प्रमाण मानवु ते इष्ट छे, अने ते ज जैनशास्त्रकारोए 'स्वपरव्यवसायि ज्ञानं प्रमाणम् कहीने स्वीकार्य छे. तेथी सर्वत्र ज्ञानने ज प्रमाणरूप मानवाथी आवी अव्यवस्थानो संभव थशे नहि आम स्पष्ट प्रतिवाद होवा छतां पण समन्वय समन्वयनी वातो करी मात्र एक ज बाजुने बहार पाडनार पंडितोनी शास्त्रावगाहिताने केवा स्वरूपमां बिरुदाववी ? [७] [C] अहीं 'नो' (शब्दनो) अर्थ सर्व प्रतिषेधमां छे. जेथी चारे प्रकारनी इन्द्रियो तेम ज बन्ने प्रकारना मननो निषेध थाय छे, टीकाकार जगावे छे के 'इन्द्रियप्रत्यक्षं न भवति इति नोइन्द्रियप्रत्यक्षम् ' 'नो' शब्द प्रतिषेधक छे. जो के अहीं इन्द्रिय प्रत्यक्षना पांच भेद गणवामां आव्या छे. तेमां मनने तो गणान्युं नथी. तेथी मनथी थता ज्ञाननो समावेश न थयो माटे अहीं पण ते नंदीसूत्रकारने समन्वय ज इष्ट हृतो तेम कहेनारने पू. जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणना मतनो पण तेनाथी केवी रीते समावेश थाय छे ते बतावे छे, अने For Private & Personal Use Only प्रस्तावना | ॥१८॥ w.jainelibrary.org
SR No.600097
Book TitleNandisutram
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMalaygiri
PublisherDevchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
Publication Year1969
Total Pages294
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_nandisutra
File Size14 MB
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