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________________ प्रस्तावना। दोसजुत्तत्ता विणस्सेज्ज तेण णागच्छति । “ अवि" पदत्थसंभावणे । कि संभावयति ? जति अगीयाण-अण्णसाहुनन्दिसूत्रम् । परायवत्तयंताण वि सवणं पिण भवति, कओ-उद्देसवायणत्य-सवणाणि, एवं सम्भावयति ।" [निशीथचूणि पृ. ३५] | ॥३८॥ भावार्थ:- कर्मक्षय माटे सर्व अध्ययनो सामर्थ्य धरावे छे. तो आमां-निशीथमा शु विशेष छ ? आना जवाबमां | आचार्य भगवान कहे छ के, 'अगीतार्थ, अतिपरिणामी अने अपरिणामीना कानमां निशीथना अक्षरो पण पडता नथी. शिष्य पूछे छे के 'कया कारणथी एवाओना कानमां पण निशीथना अक्षरो आवता नथी. सूरि महाराज कहे छे के, 'आ सूत्र अपवादथी भरेलु छे, तेथी जो अगीतार्थ वगेरेने आपवामां आवे तो विनाश करी नाखे, तेथी एमनी | कर्णेन्द्रियनो विषय थतु नथी. आ सूत्रनी परावृत्ति पण अगीतार्थ आदि मुनिओना सांभळवामां न आवे तेम कराय छे. तो उद्देश वाचना अने श्रवण करवानी तो वात जशी करवी? अर्थात् अगीतार्थ आदि आ सूत्रना अधिकारी छ ज नहीं, तेमज गृहस्थो, अन्यतीथिको, स्वपक्षीय अगीतार्थ तेमज पाखंडोओ पण श्रवण न करी जाय तेम आ सूत्रनुं अध्ययन करवु जोइए. आ गीतार्थोनी आज्ञा छे. माटे 'श्रुत पुस्तकारूढ थयु त्यारथी ए कोर पण व्यक्तिना हाथमां जइ शके छे' एम कहेवु बराबर नथी. पुस्तकारूढनो मतलब आ तो न ज काढी शकाय के कलम अने खडियानी सहाय लीधा एटले सहु आने वांची शके के भणी शके. आजे एवी घणीये वातो लखाय छे के ए जेना हाथमा आपवी होय तेना ज हाथमा अपाय पण सहु कोइना हाथमा ते IN आवी शकती नथी. जैन संघना कबजामा रहेला आगमो बीजाना हाथमां जाय केवी रीते ? मानो के जाय, तेथी ॥३८॥ । For Private Personal Use Only Jan Education Internal www.jainelibrary.org
SR No.600097
Book TitleNandisutram
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMalaygiri
PublisherDevchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
Publication Year1969
Total Pages294
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_nandisutra
File Size14 MB
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