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नन्दिसूत्रम्।
॥१३॥
प्रस्तावना।
आथी जो कोई अहीं बधा ज ज्ञाननो अधिकार छे. तेम कहे तो पण अयोग्य छे. कारण के आ क्रम मात्र अहीं छे तेम नथी पण सर्वत्र छे. अने तेथी सर्वत्र आ क्रम माटे उपरोक कारण छे. वळी अहीं तो मुख्यपणे सम्यग्दृष्टिना ज्ञाननो अधिकार छ तेम कहे तो पण अयोग्य छे. कारण के आ क्रम मात्र अहीज छे. पण प्रसंगथी श्रुतादिना भेदथी अज्ञान- विवेचन छे. एटले ज अवधिज्ञानर्नु वर्णन छे. पण विभंगज्ञान- नथी. वळी जो एम कहेवामां आवे के विभंग अने अवधिमा मात्र स्वामिनोज भेद छे. बाकी कशो भेद नथी तो ते केवळ अज्ञानविलसित छे. कारण के अहीं जे भेद दर्शाववामां आव्यो छे,
तेमांना केटलाक भेद अवधिज्ञानीने ज होय, विभंगज्ञानीने कदी न होय माटे मुख्यत्वे तेनो अधिकार छे. [७] [A] अहीं ज्ञानना प्रत्यक्ष अने परोक्ष भेद करी ज्ञानना पांच प्रकारोने तेमांज समावी लेवामां आव्या छे. [B] प्रत्यक्षना बे प्रकार इन्द्रियप्रत्यक्ष अने नोइन्द्रियप्रत्यक्ष जणावी इन्द्रियप्रत्यक्षना पांच भेद बताववामां आव्या
छ, केटलाक समन्वयप्रेमीओ आ प्रकारनी रचना जोइने बोली काढे छ के "जैनेतर बधा दर्शनो इन्द्रियजन्यज्ञानने परोक्ष नहीं पण प्रत्यक्ष माने छे. आ लौकिक मतनो समन्वय करवो नंदीसूत्रकारने अभिप्रेत हतो" एमनो आ आशय कया आधारे हतो ते तो तेओए जणावQजोइए ने ? बळी आ प्रमाणे कहेनारने एक प्रश्ननो जवाब आपवो जरूरी छे के अन्य लोको मनथी थता ज्ञानने प्रत्यक्ष कहे छे तो शु अहीं ते भेद नंदीसूत्रकारे जणान्यो छे ?
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