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________________ प्रस्तावना। नन्दिसूत्रम् । ॥१५॥ अर्थात् निवृत्ति, उपकरण, लब्धि अने उपयोग, चारे मळीने शब्दादि विषयचें ज्ञान करती इन्द्रियना व्यपदेशने पामे छे. माटे अहीं भावेन्द्रियनुं ग्रहण करवाथी आत्मानुं ग्रहण थयु अने तेथी तो तमारे इष्ट एवो समन्वय थयो ज नहीं. कारण के समन्वय जेमने इष्ट छे तेमने तो द्रव्येन्द्रियने प्रमाणरूपे स्वीकारवी पडे तेम नथी तो कयी रीते तमारो समन्वय सधायो ते विचारो.. वळो वधारे धृष्टतापूर्वक पूछवामां आवे के इन्द्रियप्रत्यक्षने सांव्यवहारिकप्रत्यक्ष एवं शा माटे कहथु? तेनुं प्रयोजन मात्र समन्वय ज हतुं ? आम कहेनारने केवी रीते समजावयु के आ तो नयवादनी एक विशिष्ट प्ररूपणा छे अने ते विशिष्ट अपेक्षाथी बधांज ज्ञान प्रत्यक्ष छे कोइ ज्ञान परोक्ष नथी. पू. सिद्धसेन दिवाकर सू म. सर्व ज्ञानने प्रत्यक्ष कहे छे. 'एक प्रमाणम् अर्थक्यात्, ऐक्यम् एतल्लक्षणैक्यतः' अने पछी सिद्धसेनगणि पण ते श्लोकनी अवतरणिकामां 'विशुद्धशब्दनयाभिप्रायेण एकमेव प्रत्यक्ष प्रमाणम्' एम कहे छे. वळी इन्द्रियोने पारमार्थिक प्रत्यक्ष माननारना मते तो आंखथी पदार्थज्ञानमां अंधकारमा दीपक अथवा दिवसना आलोकने कारण मानवामां आवे छे. पण दीपक अने आलोकने प्रमाण नथी मानता. तेम ज्ञान करनार आत्माने इन्द्रियो साधनरूप छे तेथी तेने प्रमाण केवी रीते कहेवाय ? तत्त्वतः इन्द्रियो प्रमाण बनी शके नहीं. कोइ कहे, के इन्द्रियो साक्षात् उपलंभक छे तो ते वात टकी शकती नथी. कारण के इन्द्रियोनो नाश थया पछी पण पदार्थनुं स्मरण थाय छे. ते इन्द्रिय साक्षात् उपलंभक ॥१५॥ Jain Education International For Private & Personel Use Only www.jainelibrary.org
SR No.600097
Book TitleNandisutram
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMalaygiri
PublisherDevchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
Publication Year1969
Total Pages294
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_nandisutra
File Size14 MB
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