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प्रस्तावना।
नन्दिसूत्रम् । ॥२७॥
उत्कृष्टथीः- मोटो पल्योपमनो असंख्यातमो भाग
ऋजुमति करतां वधारे अने निर्मळ भावथी:- अनन्ता भाव
विशेष अनन्ता भाव
केवळज्ञान- स्वरूप जुदी जुदी अपेक्षाए केवळज्ञानना अनेक भेदोन वर्णन कर्यु छे. जेम के १. भवस्थ केवळज्ञान २. सिद्ध केवळज्ञान भवस्थ केवळज्ञानना बे भेद छे. १. सयोगिभवस्थ केवळज्ञान २. अयोगिभवस्थ केवळज्ञान. सयोगिभवस्थ केवळज्ञानना बे भेद छे. १. प्रथमसमय सयोगिभवस्थ केवळज्ञान २. अप्रथमसमय सयोगिभवस्थ केवळज्ञान अथवा १. चरमसमयसयोगिभवस्थ केवळज्ञान २. अचरमसमयसयोगिभवस्थ केवळज्ञान. एवीज रीते अयोगिभवस्थ केवळज्ञानना पण भेदो पाडया छे. सिद्ध केवळज्ञानना बे भेद छे. १. अनंतर सिद्धकेवळज्ञान २. परंपरसिद्धकेवळज्ञान. अनंतरसिद्ध केवळज्ञानना १. तीर्थसिद्ध २. अतीर्थसिद्ध विगेरे पंदर भेदो गणावेला छे.
परंपरसिद्ध केवलज्ञान अनेक प्रकारचें छे. अप्रथमसमय, संख्यातसमयसिद्ध, असंख्यातसमयसिद्ध यावत् , अनन्तसमयसिद्ध. आम केवलज्ञानना भेदोनु वर्णन करीने द्रव्यादि चार विषयोनी अपेक्षाए तेना भेदर्नु वर्णन करे छे.
१. द्रव्य-सर्व द्रव्य २. क्षेत्र-सर्व क्षेत्र ३. काल-सर्वकाल ४. भाव-सर्वभावने जाणे अने जुए.. आम केवलज्ञाननु वर्णन पूर्ण करतां ते ज्ञान अप्रतिपाति, शाश्वत अने एक प्रकारचें छे तेम जणाव्यु छे. [९] आमिनिवोधिकज्ञान (मतिज्ञान)-हवे आगळ निर्देश करेल परोक्षज्ञानना अहीं बे भेद पाडे छे. [१] आभिनिबोधिक
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