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________________ नन्दिसूत्रम् ॥१९३॥ Jain Education झ्याए एक्कारसमे अंगे दो सुअक्खंधे वीसं अज्झयणा वीसं उद्देसणकाला वीसं समुद्दे सणकाला संखिज्जा पयसहस्साई पयग्गेणं संखिज्जा अक्खरो अनंता गमा अनंता पज्जवा परित्ता तसा अणंता थावरा सासयकड निबद्ध निकाइया जिणपन्नत्ता भावा आघविज्वंति पन्नविज्जंति परूविज्जंति दंसिजति निदंसिज्जंति उवदंसिज्जंति से एवं आया से एवं नाया से एवं विन्नाया से एवं चरणकरणपरूवणा आघविज्जह से तं विवागसुयं ॥ ११ ॥ अथ किं तत् विपाकश्रुतं १, विपचनं विपाकः शुभाशुभकर्म्मपरिणाम इत्यर्थः । तत् प्रतिपादकं श्रुतं विपाकश्रुतं, शेषं सर्व आनिगमनं पाठसिद्धं, नवरं संख्येयानि पदसहस्राणि इति एकाशीति एका कोटी चतुरशीति लक्षाः द्वात्रिंशच्च सहस्राणि ॥ से किं तं दिट्ठिवाए ? दिट्ठिवाए णं सव्वभावपरूवणा आघविजंति, से समासओ पंचविहे पन्नते, तंजा परकम्मे सुत्ताई पुगैए अणुओंगे चूलियाँ से किं तं परिकम्मे ? परिकम्मे सत्तविहे पन्नत्ते, तंजहा- सिद्धसेणिआपरिकम्मे, मणुस्ससे णिआपरिकम्मे, पुट्ठसेणिआपरिकम्मे, ओगाढसेणिआपरिकम्मे, उवसंपजसेणिआपरिकम्मे, विप्पजहसेणिआपरिकम्मे चुआचुअसेणिआपरिकम्मे । से किं तं सिद्धसेणिआपरिकम्मे ? सिद्धसेणिआ परिकम्मे चउदसविहे पन्नत्ते, तं जहा- माउगापेयाई, एगहिअपेयाई, अट्ठपैयाई, पाढोआमासपयाई, For Private & Personal Use Only अवचूरिसमलंकृतम् ॥१९३॥ jainelibrary.org
SR No.600097
Book TitleNandisutram
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorMalaygiri
PublisherDevchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
Publication Year1969
Total Pages294
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_nandisutra
File Size14 MB
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