________________
एक परिशीलन
शरीर को जो समाधान मिलता है, वह 'सुख' है, और उस विषय में चित्त की जो एकाग्रता होती है, उसे 'एकाग्रता' कहते हैं और उस विषय से अत्यधिक परिचय होने पर उससे उत्पन्न होने वाली निर्भयता या निष्कंपता को 'उपेक्षा' कहते हैं । ज्यों-ज्यों साधक का अभ्यास बढ़ता है, त्यों-त्यों उसका विकास भी बढ़ता रहता है। समाधि मार्ग में गहरा उतर जाने के बाद साधक को वितर्क और विचार की आवश्यकता नहीं रहती। इसके बिना भी वह आनन्द को प्राप्त कर लेता है। इसके प्रागे
आनन्द के बिना भी उसे सुख की अनुभूति होने लगती है। और अन्त में जब उसमें उपेक्षा या एकाग्रता आ जाती है, तब वह पूर्णतः निर्भय एवं निष्कंप हो जाता है। इस अवस्था में वितर्क, विचार, प्रीति और सुख-किसी के चिन्तन की आवश्यकता नहीं रहती है। यह ध्यान की चरम पराकाष्ठा है।
सूत्तपिटक में प्रान-पान-स्मृति का वर्णन मिलता है। चित्त-वृत्ति को एकाग्न करने के लिए इसका उपदेश दिया गया है । इसमें बताया है कि साधक साँस ग्रहण करते एवं छोड़ते समय पूरी सावधानी रखे, अपने चित्त को साँस लेने एवं छोड़ने की क्रिया के साथ संलग्न करे । चित्त को स्थिर करने के लिए साधक 'भरह' शब्द पर अपने चित्त को
स्थित करके श्वासोच्छ्वास ले । यदि अरहं शब्द पर चित्त स्थिर नहीं . रह पाता है तो उसे गणना, अनुबन्धना, स्पर्श और स्थापना का प्रयोग करना चाहिए।' ... गणना का अर्थ साँस लेते और छोड़ते समय साँस की गणना की जाए। यह गणना न तो दस से अधिक होनी चाहिए और न पांच से कम । यदि दस से अधिक करते रहे तो चित्त अरहं के चिन्तन में न · लगकर केवल गणना में ही लगा रहेगा और पांच से कम करते हैं तो १. विशुटिमण।
-
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org