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बोध हो जाने के बाद साधक को राग-द्वेष, मोह जैसे प्रान्तरिक दोषों को निकालने के लिए प्रात्म-निरीक्षण करना चाहिए। इसके अतिरिक्त इस अन्य में यह भी बताया गया है कि चित्त में स्थिरता लाने के लिए साधक को रागादि दोषों के विषय एवं परिणामों का किस तरह चिन्तन करना चाहिए।
इतना वर्णन करने के बाद प्राचार्य श्री ने यह बताया है कि योग-साधना में प्रवृत्तमान साधक को अपने सद्विचार के अनुरूप कैसा आहार करना चाहिए । इसके लिए ग्रन्धकार ने सर्वसंपत्कारी भिक्षा के स्वरूप का वर्णन किया है। इस प्रकार चिन्तन और उसके अनुरूप प्राचरण करने वाला साधक अशुभ कर्मों का क्षय और शुभ. कर्मों का बन्ध करता है तथा क्रमशः आत्म-विकास करता. हुमा प्रबन्ध अवस्था को प्राप्त करके कर्म-बन्धन से सर्वथा मुक्त-उन्मुक्त हो जाता है। योग-विशिका
प्रस्तुत ग्रन्थ में केवल वीस गाथाएँ हैं । इसमें योग-साधना का संक्षेप में वर्णन किया गया है । इसमें आध्यात्मिक विकास की प्रारम्भिक भूमिकामों का वर्णन नहीं है । परन्तु, योग-साधना की या आध्यात्मिक साधना एवं विचारणा-चिन्तन की विकासशील अवस्थामों का निरूपण है। इसमें चारित्रशील एवं आचारनिष्ठ साधक को योग का अधिकारी माना है और उसकी धर्म-साधना या साधना के लिए की जाने वाली प्रावश्यक धर्म-क्रिया को 'योग' कहा है और उसकी पांच भूमिकाएं बताई हैं-१. स्थान, २ ऊर्ण, ३. अर्थ, ४. आलम्बन, और ५. अनालम्बन । प्रस्तुत ग्रन्थ में इनमें से पालम्बन और अनालम्बन की ही व्याल्या की है। प्रथा के तीन भेदों की मूल में व्याख्या नहीं की गई है। परन्तु सावायचोविजय जी ने योग-विशिका की टीका में
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