________________
अष्टम प्रकाश
'नों अर्हन्मुखकमलवासिनि, पापात्मक्षयंकरि, श्रुतिज्ञानज्वालासहस्र, ज्वलिते सरस्वति मत्पापं हन हन, दह दह, क्षां क्षीं क्षू क्ष क्ष क्षीरधवले, श्रमृतसम्भवे, वं वं हूं हूं स्वाहा ।'
पाप - भक्षिरणी विद्या का फल
सिद्धचक्र का स्मररण
प्रसीदति मनः सद्यः पाप-कालुष्यमुज्झति । ज्ञानदीप:
प्रभावातिशयादस्या
यह विद्या इतनी प्रभावोत्पादक है कि इसके स्मरण से तत्काल मन प्रसन्न हो जाता है, पाप की कलुषता दूर हो जाती है और ज्ञान का दीपक प्रकाशित हो उठता है ।
प्रकाशते ॥७३॥ |
ज्ञानवद्भिः समाम्नातं वज्रस्वाम्यादिभिः स्फुटम् । विद्यावादात्समुद्धृत्य बीजभूतं शिवश्रियः ॥७४॥
जन्मदाव - हुताशस्य प्रशान्ति - नव- वारिदम् । गुरूपदेशाद्विज्ञाय सिद्धचक्रं विचिन्तयेत् ॥७५॥
२४ε
Jain Education International
वज्रस्वामी आदि विशिष्ट ज्ञानी जनों ने विद्याप्रवाद नामक श्रुत से जिसका उद्धार किया है और जिसे स्पष्ट रूप से मोक्ष लक्ष्मी का बीज माना है, जो जन्म-मरण के दावानल को शान्त करने के लिए सजल मेघ के समान है, उस सिद्धचक्र को गुरु के उपदेश से जानकर चिन्तन करना चाहिए ।
नाभिपद्म स्थितं ध्यायेदकारं विश्वतोमुखम् । सि-वर्ण मस्तकाम्भोजे आकारं वदनाम्बुजे ॥७६॥ उकारं हृदयाम्भोजे साकारं कण्ठ-पङ्कजे ।
सर्वकल्याणकारीणि बीजान्यन्यान्यपि स्मरेत् ॥७७॥
'असिग्राउसा' इस मंत्र के 'अ' का नाभि-कमल में सर्वत्र ध्यान करना चाहिए, 'सिं' वर्ण का मस्तक - कमल में, 'प्रा' वर्ण का मुख कमल में, 'उ’ वर्ण का हृदय कमल में और 'सा' वर्ण का कंठ - कमल में ध्यान करना
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org