Book Title: Yogshastra
Author(s): Samdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
Publisher: Rushabhchandra Johari

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Page 360
________________ २७० योग-शास्त्र घाति-कर्म ज्ञानावरणीयं दृष्ट्यावरणीयंच मोहनीयं च । विलयं प्रयान्ति सहसा सहान्तरायेण कर्माणि ॥ २२ ॥ योगिराज के एकत्व-वितर्क शुक्ल-ध्यान के प्रभाव से ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय-यह चारों कर्म अन्तर्मुहूर्त जितने थोड़े-से समय में हो सर्वथा क्षीण हो जाते हैं। घाति-कर्म-क्षय का फल सम्प्राप्य केवलज्ञान-दर्शने दुर्लभे ततो योगी। जानाति पश्यति तथा लोकालोकं यथावस्थम् ।। २३ ।। घाति-कर्मों का क्षय होने से योगी दुर्लभ केवल-ज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त करके यथार्थ रूप से समग्र लोक और अलोक को जाननेदेखने लगते हैं। देवस्तदा स भगवान् सर्वज्ञः सर्वदर्यनन्तगुणः । विहरत्यवनी-वलयं सुरासुर-नरोरगैः प्रणतः ॥ २४ ॥ केवल-ज्ञान और केवल-दर्शन प्राप्त करके सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, अनन्त गुणवान् तथा सुर, असुर, नर और नागेन्द्र प्रादि के द्वारा नमस्कृत अर्हन्त भगवान् इस भूतल पर जगत् के जीवों को सद्बोध देने के लिए विचरते हैं। वाग्ज्योत्स्नयाखिलान्यपि विबोधयति भव्यजन्तु-कुमुदानि । उन्मूलयति क्षणतो. मिथ्यात्वं द्रव्य-भाव-गतम् ।।२।। भूतल पर विचरते हुए अर्हन्त भगवान् अपनी वचन रूपी चन्द्रिका से भव्य जीव रूपी कुमुदों को विबोधित करते हैं और उनके द्रव्य-मिथ्यात्व एवं भाव-मिथ्यात्व को समूलतः नष्ट कर देते हैं । तन्नामग्रहमात्रादनादिसंसार सम्भवं दुःखम् । भव्यात्मनामशेष परिक्षयं याति सहसैव ॥ २६ ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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