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एकादश प्रकाश
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इस प्रकार चार समयों में, लोक में आत्म-प्रदेशों को व्याप्त करके बह योगी अन्य कर्मों को आयु कर्म के बराबर करके प्रतिलोम क्रम से अर्थात् पाँचवें समय में अन्तरों में से प्रात्मप्रदेशों का संहरण करके, छठे समय में दक्षिण-उत्तर दिशाओं से संहरण करके, सातवें समय में पूर्व-पश्चिम से संहरण करके, आठवें समय में समस्त प्रात्म-प्रदेशों को पूर्ववत् शरीरव्यापी बना लेते हैं। इस प्रकार समुद्घात की क्रिया पूर्ण हो जाती है। योग-निरोध
श्रीमानचिन्त्यवीर्यः शरीरयोगेऽथ बादरे स्थित्वा । अचिरादेव हि निरुणद्धि बादरौ वाङ्मनसयोगौ ॥ ५३ ।। सूक्ष्मेण काययोगेन काययोगं स बादरं रुन्ध्यात्।। तस्मिन्निरुद्धे सति शक्यो रोद्धं न सूक्ष्मतनुयोगः ।। ५४ ॥ वचन-मनोयोगयुग सूक्ष्म निरुणद्धि सूक्ष्मतनुयोगात्। विदधाति ततो ध्यानं सूक्ष्मक्रियमसूक्ष्मतनुयोगम् ॥ ५५ ॥ समुद्घात करने के पश्चात् आध्यात्मिक विभूति से सम्पन्न तथा अचिन्तनीय वीर्य से युक्त वह योगी बादर काय-योग का अवलम्बन करके बादर वचन-योग और बादर मनोयोग का शीघ्र ही निरोध कर लेते हैं।
फिर सूक्ष्म काय-योग में स्थित होकर बादर काय-योग का निरोध करते हैं। क्योंकि बादर काय-योग का निरोध किए बिना सूक्ष्म काययोग का निरोध करना शक्य नहीं है। ... तत्पश्चात् सूक्ष्म काय-योग के अवलम्बन से सूक्ष्म मनोयोग और वचन-योग का निरोध करते हैं। फिर सूक्ष्म काय योग से सूक्ष्मक्रिया नामक तीसरा शुक्ल-ध्यान करते हैं।
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