________________
द्वादश प्रकाश
२६१
जब पूर्वोक्त तत्त्व प्रकाशमान होता है, तब स्वेद-पसीना न होने और मर्दन न करने पर भी तथा तेल की मालिश के बिना ही शरीर कोमल और स्निग्ध-चिकना हो जाता है। यह तत्त्वज्ञान की प्राप्ति का चिह्न है।
अमनस्कतया संजायमानया नाशिते मनःशल्ये। शिथिलीभवति शरीरं छत्रमिव स्तब्धतां त्यक्त्वा ॥ ३८ ॥
उन्मनीभाव उत्पन्न होने से मन सम्बन्धी शल्य का नाश हो जाता है । अतः तत्त्वज्ञानी का शरीर छाते के समान अकड़ छोड़ कर शिथिल हो जाता है।
शल्यीभूतस्यान्तःकरणस्य क्लेशदायिनः सततम् । अमनस्कतां विनाऽन्यद्विशल्यकरणौषधं नास्ति ।। ३६ ॥
शल्य के सदृश क्लेशदायक अन्तःकरण को निशल्य करने का अमनस्कता-~-उन्मनीभाव के सिवाय और कोई उपाय नहीं है । उन्मनीभाव का फल
कदलीवच्चाविद्या लोलेन्द्रियपत्रला मनःकन्दा ।
अमनस्कफले दृष्टे नश्यति सर्वप्रकारेण ।। ४० ।। अविद्या कदली के पौधे के समान है। चपल इन्द्रियाँ उसके पत्ते हैं और मन उसका कन्द है। जैसे फल दिखाई देने पर कदली का वृक्ष । नष्ट कर दिया जाता है, उसी प्रकार उन्मनीभाव रूपी फल के दिखाई देने पर अविद्या भी पूर्ण रूप से नष्ट हो जाती है। फल आने पर कदली वृक्ष काट डाला जाता है, क्योंकि उसमें पुनः फल नहीं आते।
अतिचञ्चलमतिसूक्ष्म दुर्लक्ष्यं वेगवत्तया चेतः। अश्रान्तमप्रमादादमनस्क - शलाकया भिन्द्यात् ।। ४१ ।।
मन अत्यन्त चंचल और अत्यन्त ही सूक्ष्म है। वह तीव्र वेगवान होने के कारण उसे पकड़ रखना भी कठिन है। अतः बिना विश्राम लिए
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org