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द्वादश प्रकाश
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अमनस्कता की प्राप्ति हो जाने पर रेचक, पूरक, कुम्भक और आसनों के अभ्यास के बिना स्वतः ही पवन का नाश हो जाता है। चिरमाहितप्रयत्नैरपि धत्तु यो हि शक्यते नैव । सत्यमनस्के तिकृति स समीरस्तत्क्षणादेव ।। ४५ ।।
दीर्घकाल तक प्रयत्न करने पर भी जिस वायु का धारण करना अशक्य होता है, अमनस्कता उत्पन्न होने पर वही वायु तत्काल एक जगह स्थिर हो जाता है।
जातेऽभ्यासे स्थिरतामुदयति विमले च निष्कले तत्त्वे । मुक्त इव भाति योगी समूलमुन्मूलित-श्वासः ।। ४६ ।।
इस अभ्यास में स्थिरता प्राप्त होने पर और निर्मल अखण्ड तत्त्वज्ञान प्राप्त होने पर श्वास का समूल उन्मूलन करके योगी मुक्त पुरुष के समान सुशोभित होता है।
यो जाग्रदवस्थायां स्वस्थः सुप्त इव तिष्ठति लयस्थः । श्वासोच्छ्वास-विहीनः स हीयते न खलु मुक्तिजुषः ।। ४७ ।।
ध्यान की अवस्था में योगी जागता हुआ भी सोये हुए व्यक्ति के समान अपने प्रात्मभाव में स्थित रहता है । उस लय-अवस्था में श्वासोच्छवास से रहित वह योगी मुक्तिप्राप्त जीव से हीन नहीं होता, ब्लकि मुक्तात्मा के सदृश ही होता है।
जागरणस्वप्नजुषो जगतीतलवत्तितः सदा लोकाः। . तत्त्वविदो लयमग्ना नो जाग्रति शेरते नापि ।। ४८ ।।
इस पृथ्वीतल पर रहने वाले प्राणी सदा जागृति और स्वप्न की अवस्थाओं का अनुभव करते हैं, किन्तु लय में मग्न हुए तत्त्वज्ञानी न • जागते हैं और न सोते हैं। . भवति खलु शून्यभावः स्वप्ने विषयग्रहश्च जागरणे।
एतद् द्वितयमतीत्यानन्दमयमवस्थितं तत्त्वम् ।। ४६ ।।
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