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योग-शास्त्र
स्वप्न दशा में शून्यता व्याप्त रहती है और जागृत अवस्था में इन्द्रियों के विषयों का ग्रहण होता है । किन्तु आनन्दमय तत्त्व इन दोनों अवस्थाओं से परे लय में स्थित रहता है ।
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जीवों को उपदेश
कर्माण्यपि दुःखकृते निष्कर्मत्वं सुखाय विदितं तु । न ततः प्रयतेत् कथं निष्कर्मत्त्वे सुलभ - मोक्षे ॥ ५० ॥
कर्म दुःख के लिए हैं अर्थात् दुःख का कारण है और निष्कर्मता सुख के लिए है | यदि तुमने इस तत्त्व को जान लिया है, तो तुम सरलता से मोक्ष प्रदान करने वाले निष्कर्मत्व को प्राप्त करके समस्त क्रियानों से रहित बनने के लिए क्यों नहीं प्रयत्न करते ?
मोक्षोऽस्तु मास्तु यदि वा परमानन्दस्तु वेद्यते स खलु । यस्मिन्निखिल सुखानि प्रतिभासन्ते न किञ्चिदिव ॥ ५१||
मोक्ष हो या न हो, किन्तु ध्यान से प्राप्त होने वाला परमानन्द तो प्रत्यक्ष अनुभव में आता है । उस परमानन्द के सामने संसार के समस्त सुख नहीं के बराबर हैं ।
मधु न मधुरं नेता शोतास्त्विषस्तुहिनद्युतेरमृतममृतं नामैवास्याः फले तु मुधा सुधा । तदलममुना संरम्भेण प्रसोद सखे ! मनः,
फलमविकलं त्वय्येवैतत् प्रसादमुपेयुषि ।। ५२ ।। उन्मनी-भाव से प्राप्त श्रानन्द के सामने मधु मधुर नहीं लगता, चन्द्रमा की कान्ति भी शीतल प्रतीत नहीं होती, और अमृत केवल नाम मात्र का अमृत रह जाता है। और सुधा तो वृथा ही है । ग्रतः हे मन ! तू इस ओर दौड़-धूप करने का प्रयास मत कर । तू मेरे पर प्रसन्न हो । तेरे प्रसन्न होने पर ही तत्त्वज्ञान का सम्पूर्ण फल प्राप्त हो सकता है।
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