Book Title: Yogshastra
Author(s): Samdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
Publisher: Rushabhchandra Johari

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Page 380
________________ २६० योग-शास्त्र नात्मा प्रेरयति मनो न मनः प्रेरयति यहि करणानि । . .. उभय-भ्रष्टं तर्हि स्वयमेव विनाशमाप्नोति । ३५ ।। उदासीन भाव में निमग्न, सब प्रकार के प्रयत्न से रहित और परमानन्द दशा की भावना करने वाला योगी किसी भी जगह मन को नहीं जोड़ता है। - इस प्रकार प्रात्मा जब मन की उपेक्षा कर देता है, तो वह उपेक्षित मन इन्द्रियों का आश्रय नहीं करता अर्थात् इन्द्रियों में प्रेरणा उत्पन्न नहीं करता। ऐसी स्थिति में इन्द्रियाँ भी अपने-अपने विषय में प्रवृत्ति करना छोड़ देती हैं। - जब आत्मा मन में प्रेरणा उत्पन्न नहीं करता और मन इन्द्रियों को प्रेरित नहीं करता, तब दोनों तरफ से भ्रष्ट बना हुआ मन अपने आप विनाश को प्राप्त हो जाता है। मनोजय का फल नष्टे मनसि समन्तात्सकले विलयं च सर्वतो याते । निष्कलमुदेति तत्त्वं निर्वात-स्थायि-दीप इव ।। ३६ ।। जब मन प्रेरक नहीं रहता तो पहले राख से आवृत्त अग्नि की तरह शान्त हो जाता है और फिर पूर्ण रूप से उसका क्षय हो जाता है अर्थात् चिन्ता, स्मृति आदि उसके सभी व्यापार नष्ट हो जाते हैं। तब वायुविहीन स्थान में स्थापित दीपक जैसे निराबाध प्रकाशमान होता है, उसी प्रकार आत्मा में कर्म-मल से रहित शुद्ध-तत्त्व-आत्म-ज्ञान का प्रकाश होता है। तत्त्वज्ञानी की पहचान अङ्ग-मृदुत्व-निदानं स्वेदनमर्दन विवर्जनेनापि । स्निग्धीकरणमतलं प्रकाशमानं हि तत्त्वमिदम् ।। ३७ ।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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