Book Title: Yogshastra
Author(s): Samdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
Publisher: Rushabhchandra Johari

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Page 378
________________ २८८ योग-शास्त्र का आस्वादन करता हुमा भी, कोमल पदार्थों का स्पर्श करता हया भी, और चित्त के व्यापारों को न रोकता हुआ भी उदासीन भाव से युक्त है-पूर्ण समभावी है तथा जिसने विषयों संबंधी प्रासक्ति का परित्याग कर दिया है, जो बाह्य और आन्तरिक चिन्ता एवं चेष्टाओं से रहित हो गया है, तन्मय भाव-तल्लीनता को प्राप्त करके अतीव उन्मनीभाव को प्राप्त कर लेता है। गृह्णन्ति ग्राह्याणि स्वानि स्वानीन्द्रियाणि नो रुन्ध्यात् ।। न खलु प्रवर्तयेद्वा प्रकाशते तत्त्वमचिरेण ॥२६॥ साधक अपने-अपने विषय को ग्रहण करती हुई इन्द्रियों को न तो रोके और न उन्हें प्रवृत्त करे । वह केवल इतना ध्यान रखे कि विषयों के प्रति राग-द्वेष उत्पन्न न होने दे। वह प्रत्येक स्थिति में तटस्थ बना रहे। इस प्रकार की उदासीनता प्राप्त हो जाने पर अल्पकाल में ही तत्त्वज्ञान प्रकट हो जाता है । मनः शान्ति चेतोऽपि यत्र यत्र प्रवर्तते नो ततस्ततो वार्यम् । अधिकीभवति हि वारितमवारितं शान्तिमुपयाति ॥ २७ ॥ मत्तो हस्ती यत्नान्निवार्यमाणोऽधिकीभवति यद्वत् । अनिवारितस्तु कामान् लब्ध्वा शाम्यति मनस्तद्वत् ॥ २८ ।। मन जिन-जिन विषयों में प्रवृत्त होता हो, उनसे उसे बलात् रोकना नहीं चाहिए। क्योंकि, बलात् रोकने से वह उस ओर और अधिक दौड़ने लगता है और न रोकने से शान्त हो जाता है। जैसे मदोन्मत्त हाथी को रोका जाए तो वह उस ओर अधिक प्रेरित होता है और उसे न रोका जाए तो वह अपने इष्ट विषयों को प्राप्त करके शान्त हो जाता है। यही स्थिति मन की होती है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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