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योग-शास्त्र ___जैसे सूर्य प्रगाढ़ अन्धकार में स्थित पदार्थों को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार गुरु अज्ञान अन्धकार में भटकते हुए जीवों को ज्ञान की ज्योति प्रदान करता है।
प्राणायाम-प्रभृति-क्लेश-परित्यागतस्ततो योगी। उपदेश प्राप्य गुरोरात्माभ्यासें रति कुर्यात् ।। १७ ।।।
प्राणायाम आदि कष्टकर उपायों का परित्याग करके योगी को गुरु का उपदेश प्राप्त कर आत्म-साधना में ही संलग्न रहना चाहिए।
वचन-मनःकायानां क्षोभं यत्नेन वर्जयेच्छान्तम। रसभाण्डमिवात्मानं सुनिश्चलं धारयेन्नित्यम् ।। १८ ॥
योग-निष्ठ साधक मन, वचन और काय की चंचलता का त्याग करने का प्रयत्न करे और रस से भरे हुए बर्तन की तरह आत्मा को सदा शान्तप्रशान्त और निश्चल रखे । __टिप्पण-कहने का तात्पर्य यह है कि रस को स्थिर रखने के लिए उसके आधारभूत पात्र को स्थिर रखना आवश्यक है। यदि पात्र जरा-सा डगमगा गया तो उसमें स्थित रसं हिले बिना नहीं रहेगा। उसी प्रकार. प्रात्मा को स्थिर और शान्त रखने के लिए मन, वचन और काय को स्थिर रखना आवश्यक है । इनमें से किसी में भी चंचलता उत्पन्न होने से
आत्मा क्षुब्ध हो उठता है। यद्यपि ऐसा करने के लिए योगी को महान् प्रयत्न करना पड़ता है, तथापि उसमें सफलता मिलती है। मन, वचन और काय की स्थिरता के अभाव में आत्मा का स्थिर होना असंभव है।
औदासीन्य-परायण-वृत्तिः किञ्चिदपि चिन्तयेन्नैव । यत्संकल्पाकुलित चित्तं नासादयेत् स्थैर्यम् ॥ १६ ।।
योगी को चाहिए कि वह अपनी वृत्ति को उदासीनतामय बना ले और किंचित् भी चिन्तन-संकल्प-विकल्प न करे । जो चित्त संकल्पों से व्याकुल होता है, उसमें स्थिरता नहीं पा सकती।
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