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योग-शास्त्र
सिद्धि प्राप्ति का उपाय
पृथगात्मानं कायात्पृथक् च विद्यात्सदात्मनः कायम् । उभयोर्भेद - ज्ञातात्म - निश्चये न स्खलेद्योगी ॥ ६ ॥
शरीर से आत्मा को और आत्मा से शरीर को भिन्न जानना चाहिए । इस प्रकार दोनों के भेद को जानने वाला योगी प्रात्मस्वरूप को प्रकट करने में स्खलित नहीं होता।
अन्तःपिहित-ज्योतिः सन्तुष्यत्यात्मनोऽन्यतो मूढः । तुष्यत्यात्मन्येव हि बहिनिवृत्तभ्रमो योगी ।। १० ।। जिसकी आत्म-ज्योति कर्मों से प्राच्छादित हो गई है, वह मूढ़ पुरुष आत्मा से भिन्न बाह्य पदार्थों में सन्तोष पाता है। किन्तु योगी जो बाह्य पदार्थों में सुख की भ्रान्ति से निवृत्त हो चुका है, अपनी प्रास्मा में ही सन्तोष प्राप्त करता है ।
पुंसामयत्नलभ्यं ज्ञानवतामव्ययं पदं नूनम्।
यद्यात्मन्यात्मज्ञानमात्रमेते समीहन्ते ॥ ११ ॥ प्रबुद्ध पुरुष निश्चय ही बिना किसी बाह्य प्रयत्न के भी अव्ययनिर्वाण पद का अधिकारी हो सकता है। यदि वह प्रात्मा में आत्मज्ञान की ही अभिलाषा रखता है और आत्मा के सिवाय किसी भी अन्य पदार्थ सम्बन्धी विचार या व्यवहार नहीं करता है। कहने का तात्पर्य यह है कि पूर्ण आत्मनिष्ठा प्राप्त हो जाने पर मुक्ति के लिए अन्य कोई बाह्य प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं रहती है ।
श्रयते सुवर्णभावं सिद्धरसस्पर्शतो यथा लोहम् ।।
आत्मध्यानादात्मा परमात्मत्वं तथाऽऽप्नोति ॥ १२ ॥ जैसे सिद्धरस-रसायन के स्पर्श से लोहा स्वर्ण बन जाता है, उसी प्रकार प्रात्मा का ध्यान करने से प्रात्मा परमात्मा बन जाता है ।
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