Book Title: Yogshastra
Author(s): Samdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
Publisher: Rushabhchandra Johari

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Page 372
________________ २-२ विक्षिप्त और यातायात मन विक्षिप्तं चलमिष्टं यातायातं च किमपि सानन्दम् । प्रथमाभ्यासे द्वयमपि विकल्प विषयग्रहं तत्स्यात् ॥ ३ ॥ योग-शास्त्र विक्षिप्त चित्त चंचल रहता है । वह इधर-उधर भटकता रहता है । यातायात चित्त कुछ प्रानन्द वाला होता है । वह कभी बाहर चला जाता है और कभी अन्दर स्थिर हो जाता है । प्राथमिक अभ्यास करने वालों के चित्त की ये दोनों स्थितियाँ होती हैं । वस्तुतः सर्वप्रथम चित्त में चंचलता ही होती है, किन्तु अभ्यास करने से शनैः शनै चंचलता के साथ किंचित् स्थिरता भी आने लगती है । फिर भी मन के यह दोनों भेद चित्त विकल्प के साथ बाह्य पदार्थों के ग्राहक भी होते हैं । - - श्लिष्ट और सुलीन मन रिलष्टं स्थिरसानन्दं सुलीनमतिनिश्चलं परानन्दम् । तन्मात्रक - विषयग्रहमुभयमपि बुधैस्तदाम्नातम् ॥ ४ ॥ " स्थिर होने के कारण आनन्दमय बना हुआ चित्त श्लिष्ट कहलाता है और जब वही चित्त अत्यन्त स्थिर होने से परमानन्दमय होता है तब सुलीन कहलाता है । कहने का तात्पर्य यह है कि जैसे-जैसे क्रम से चित्त की स्थिरता बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे आनन्द की मात्रा भी बढ़ती जाती है । जब चित्त अत्यन्त स्थिर हो जाता है, तब परमानन्द की प्राप्ति होती है । एवं क्रमशोऽभ्यासावेशाद् ध्यानं भजेन्निरालम्बम् । समरस - भावं यातः परमानन्दं ततोऽनुभवेत् ॥ ५ ॥ Jain Education International इस प्रकार क्रम से अभ्यास बढ़ाते हुए अर्थात् विक्षिप्त से यातायात चित्त का, यातायात से श्लिष्ट का और श्लिष्ट से सुलीन चित्त का For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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