Book Title: Yogshastra
Author(s): Samdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
Publisher: Rushabhchandra Johari

View full book text
Previous | Next

Page 375
________________ द्वादश प्रकाश २८५ जन्मान्तरसंस्करात् स्वयमेव किल प्रकाशते तत्त्वम् । सुप्तोस्थितस्य पूर्वप्रत्ययवन्निरुपदेशमपि ॥ १३ ॥ जैसे निद्रा से जागृत हुए पुरुष को पहले अनुभव किया हुआ तत्त्व दूसरे के कहे बिना स्वयं ही प्रकाशित होता है, उसी प्रकार पूर्व जन्म के विशिष्ट संस्कार से स्वयं ही तत्त्वज्ञान प्रकाशित हो जाता है। अतः विशिष्ट संस्कारयुक्त जीव को परोपदेश की आवश्यकता नहीं रहती। अथवा गुरुप्रसादादिहैव तत्त्वं समुन्मिषति नूनम् । गुरु - चरणोपास्तिकृतः प्रशमजुषः शुद्धचित्तस्य ॥ १४ ॥ जो पूर्व जन्म के उच्च संस्कारों से युक्त नहीं है, उन्हें गुरु के चरणों की उपासना करने, प्रशम भाव का सेवन करने और शुद्ध चित्त होने के कारण गुरु के प्रसाद से आत्म-ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है । गुरु सेवा तत्र प्रथमे तत्त्वज्ञाने संवादको गुरुर्भवति । दर्शयिता त्वपरस्मिन् गुरुमेव भजेत्तस्मात् ।। १५ ॥ तत्त्वज्ञान की प्राप्ति दो प्रकार से बतलाई गई है—पूर्वजन्म के संस्कार से और गुरु की उपासना से । पूर्वजन्म के संस्कार से जो तत्त्वज्ञान प्राप्त होता है, उसका संवाद, उसकी पुष्टि एवं उसकी यथार्थता का निश्चय गुरु के द्वारा ही होता है। दूसरे प्रकार से होने वाले तत्त्वज्ञान का तो गुरु ही दशक होता है। इस प्रकार दोनों प्रकारों से होने वाले तत्त्वज्ञान में गुरु की अपेक्षा रहती ही है। अतः तत्त्वज्ञान की प्राप्ति के लिए निरन्तर गुरु की सेवा-शुश्रूषा करनी चाहिए। गुरु महिमा यद्वत्सहस्रकिरणः प्रकाशको निचिततिमिरमग्नस्य । तद्वद् गुरुरत्र भवेदज्ञान - ध्वान्त - पतितस्य ॥ १६ ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386