Book Title: Yogshastra
Author(s): Samdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
Publisher: Rushabhchandra Johari

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Page 377
________________ द्वादश प्रकाश यावत्प्रयत्नलेशो यावत्संकल्प-कल्पना काऽपि । तावन्न लयस्यापि प्रातिस्तत्त्वस्य का तु कथा ॥ २० ॥ जब तक मानसिक, वाचिक या कायिक प्रयत्न का अंश मात्र भी विद्यमान है और जब तक कुछ भी संकल्प वाली कल्पना मौजूद है, तब तक लय - तल्लीनता की भी प्राप्ति नहीं हो सकती है, तो ऐसी स्थिति में तत्त्व की प्राप्ति की तो बात ही दूर ? २८७ उदासीनता का फल यदिदं तदिति न वक्तु ं साक्षाद् गुरुणाऽपि हन्त शक्येत् । औदासीन्यपरस्य प्रकाशते तत्स्वयं तत्त्वम् ॥२१॥ जिस परम तत्त्व को साक्षात् गुरु भी कहने में समर्थ नहीं है कि 'वह यह है' वही परम-तत्त्व उदासीन भाव में परायण योगी के लिए स्वयं ही प्रकाशित हो जाता है । उन्मनी भाव एकान्तेऽति - पवित्रे रम्ये देशे सदा सुखासीनः । आचरणाग्र - शिखाग्राच्छिथिलो भूताखिलावयवः ।। २२ ।। रूपं कान्तं पश्यन्नपि शृण्वन्नपि गिरं कलमनोज्ञाम् । जिघ्रन्नपि च सुगन्धीन्यपि भुञ्जानो रसास्वादम् ।। २३ ।। • भावान् स्पृशन्नपि मृदूनवारयन्नपि च चेतसो वृत्तिम् । परिकलितौदासीन्यः प्रणष्ट-विषय- भ्रमो नित्यम् ॥ २४ ॥ बहिरन्तश्च समन्ताच्चिन्ता - चेष्टापरिच्युतो योगी । तन्मय भावं प्राप्तः कलयति भृशमुन्मनी भावम् ।। २५ ।। एकान्त, अत्यन्त पवित्र और रमणीय प्रदेश में सुखासन से बैठा हुआ, योगी पैर के अँगूठे से लेकर मस्तक के अग्रभाग पर्यन्त के समस्त अवयवों को ढीला करके, कमनीय रूप को देखता हुआ भी, सुन्दर और मनोज्ञ वाणी को सुनता हुआ भी, सुगंधित पदार्थों को सूंघता हुआ भी, रस Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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