Book Title: Yogshastra
Author(s): Samdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
Publisher: Rushabhchandra Johari

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Page 371
________________ द्वादश प्रकाश - - - - - - ग्रन्थकार का स्वानुभव श्रुतसिन्धोगुरुमुखतो यदधिगतं तदिह दर्शितं सम्यक् । अनुभवसिद्धमिदानी प्रकाश्यते तत्त्वमिदममलम् ।। १ ।। श्रुत रूपी समुद्र से और गुरु के मुख से योग के विषय में मैंने जो जाना था, यहाँ तक वह सम्यक् प्रकार से दिखलाया है। अब अपने निज के अनुभव से सिद्ध निर्मल तत्त्व को प्रकाशित करूंगा। मन के भेद - . इह विक्षिप्त यातायातं श्लिष्टं तथा सुलीनं च । चेतश्चतुः प्रकारं तज्ज्ञचमत्कारकारि भवेत् ॥ २ ॥ योग का आधार मन है। मन की अवस्थाओं को जाने बिना और उन्हें उच्च स्थिति में स्थित किए बिना योग-साधना संभव नहीं है। अतः आचार्य ने सर्वप्रथम अवस्थाओं के आधार पर मन के भेदों का निरूपण किया है। योगाभ्यास के प्रसंग में मन चार प्रकार का . है - १. विक्षिप्त मन, २. यातायात मन, ३. श्लिष्ट मन, और ४. सुलीन मन । चित्त के व्यापारों की ओर ध्यान देने वालों के लिए यह भेद चमत्कार-जनक होते हैं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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