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एकादश प्रकाश
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समस्त कर्मों और शरीरों से मुक्त हो जाने के पश्चात् सिद्ध भगवान् का जीव न लोकाकाश से ऊपर जाता है, न नीचे जाता है और न तिर्छा। यह बात ऊपर के श्लोक में बताई जा चुकी है और उसके कारण भी दे दिये हैं । परन्तु, लोकाकाश तक भी ऊर्ध्वगति क्यों होती है ? इस प्रश्न का समाधान इस प्रकार किया गया है कि सिद्ध भगवान् का जीव लघुता धर्म के कारण धूम की तरह ऊर्ध्वगति करता है । जैसे मृतिकालेप रूप पर-संयोग से रहित तूबा जल में ऊपर की ओर ही गति करता है, उसी प्रकार कर्म-संसर्ग से मुक्त जीव भी ऊर्ध्वगति करता है। जैसे कोश से मुक्त होते ही एरंड का बीज ऊपर की ओर जाता है, उसी प्रकार शरीर आदि से मुक्त होते ही जीव भी ऊर्ध्वगति करता है । मुक्त-स्वरूप
सादिकमनन्तमनुपममव्याबाधं स्वभावजं सौख्यम् । प्रायः सकेवल - ज्ञान - दर्शनो मोदते मुक्तः ॥ ६१ ॥
वह मुक्त पुरुष-जो सर्वज्ञ और सर्वदर्शी है, समस्त कर्मों से रहित होकर सादि अनन्त, अनुपम, अव्याबाध और स्वाभाविक अर्थात् आत्मस्वभावभूत सुख को प्राप्त करके परमानन्द को प्राप्त कर लेता है।
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