________________
२७८
योग-शास्त्र
तदन्तरं समुच्छिन्न - क्रियमाविर्भवेदयोगस्य ।।...
अस्यान्ते क्षीयन्ते त्वघाति-कर्माणि चत्वारि ।। ५६ ।। उसके पश्चात् अयोगी केवली समुछिन्नक्रिया नामक चौथा शुक्लध्यान ध्याते हैं । इस ध्यान के अन्त में शेष रहे हुए चारों अघाति कर्मों का क्षय हो जाता है। निर्वाण प्राप्ति
लघुवर्ण-पञ्चकोदिगरणतुल्यकालमवाप्य शैलेशीम् । क्षपयति युगपत्परितो वेद्यायुर्नाम - गोत्राणि ।। ५७ ॥
तत्पश्चात् 'अ, इ, उ, ऋ, ल'-इन पाँच ह्रस्व स्वरों का उच्चारण करने में जितना काल लगता है, उतने काल तक शैलेशीकरण—पर्वत के समान निश्चल अवस्था प्राप्त करके एक साथ वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र कर्म का पूरी तरह क्षय कर देते हैं। __ औदारिक-तैजस-कार्मणानि संसारमूल-करणानि ।
हित्वेह ऋजुश्रेण्या समयेनेकेन याति लोकान्तम् ।। ५८ ।। साथ ही औदारिक, तैजस और कार्मण रूप स्थूल एवं सूक्ष्म शरीरों का त्याग करके, ऋजु श्रेणी-मोड़ रहित सीधी गति से एक ही समय में लोक के अग्रभाग में पहुंच कर स्थित हो जाते हैं।
नोर्ध्वमुपग्रहविरहादधोऽपि वा नैव गौरवाभावात् । योग-प्रयोग-विगमात् न तिर्यगपि तस्य गतिरस्ति ॥ ५६ ।।
सिद्ध भगवान् की आत्मा लोक से ऊपर-अलोकाकाश में नहीं जाती। क्योंकि वहाँ गति में सहायक धर्मास्तिकाय नहीं है। आत्मा नीचे भी नहीं जाती, क्योंकि उसमें गुरुता नहीं है । तिर्की भी नहीं जाती, क्योंकि उसमें काय आदि योग और प्रयोग अर्थात् पर-प्रेरणा नहीं है।
लाघवयोगाद् धूमवदलाबुफलवच्च संगविरहेण । बन्धन-विरहादेरण्डवच्च सिद्धस्य गतिरूव॑म् ।। ६० ।।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org