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योग-शास्त्र
__जब मनुष्यभव संबंधी आयु अन्तर्मुहूर्त शेष रहती है, तब केवलज्ञान
और केवलदर्शन से युक्त योगी शीघ्र ही सूक्ष्मक्रिया-अप्रतिपाति नामक तीसरा शुक्लध्यान प्रारंभ करते हैं।
प्रायुः कर्मसकाशादधिकानि स्युर्यदान्य कर्माणि। . तत्साम्याय तदोपक्रमते योगी समुद्घातम् ।। ५० ॥
यदि आयु कर्म की अपेक्षा अन्य--नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मों की स्थिति अधिक रह जाती है, तो उसे बराबर करने के लिए केवली पहले समुद्घात करते हैं।
टिप्पण-सम् + उत् + घात अर्थात् सम्यक् प्रकार से प्रबलता के साथ कर्मों का घात करने के लिए किया जाने वाला प्रयत्न 'समुद्घात' कहलाता है । समुद्घात करने से नाम आदि कर्मों की स्थिति का और रस-विपाक का घात होता है, जिससे वे आयु-कर्म के समान स्थिति वाले बन जाते हैं । समुद्घात की विधि का उल्लेख आगे कर रहे हैं ।
दण्ड-कपाटे मन्थानकं च समय-त्रयेण निर्माय । तुर्ये समये लोकं निःशेषं पूरयेद् योगी ॥ ५१ ॥ समुद्घात करते समय केवली भगवान् तीन समय में अपने आत्मप्रदेशों को दंड, कपाट और मन्थान के रूप में फैला देते हैं । वे अपने आत्म-प्रदेशों को बाहर निकालकर प्रथम समय में ऊपर और नीचे लोकान्त तक दंडाकार करते हैं, दूसरे समय में पूर्व और पश्चिम में लोकान्त तक फैलाते हैं, तीसरे समय में दक्षिण-उत्तर दिशाओं में लोकान्त तक फैलाते हैं और चौथे समय में बीच के अन्तरों को पूरित करके समग्र लोक में व्याप्त हो जाते हैं।
समयस्ततश्चतुभिनिवर्तिते लोकपूरणादस्मात् । विहितायुःसमकर्मा ध्यानी प्रतिलोम - मार्गेण ॥ ५२ ॥
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