________________
एकादश प्रकाश
अभिवन्द्यमानपादः सुरासुरनरोरगैस्तदा भगवान् | सिंहासनमधितिष्ठति भास्वानिव पूर्वगिरि शृङ्गम् ॥ ४५ ॥ जिनके चरणों में सुर-असुर, मनुष्य और नाग आदि नमस्कार करते हैं, वन्दन करते हैं । भगवान् जब सिंहासन के ऊपर विराजमान होकर उपदेश देते हैं, तब ऐसा जान पड़ता है कि उदयाचल में सूर्य उदित हुआ है।
२७५
तेजःपुञ्ज-प्रसर-प्रकाशिताशेषदिक् क्रमस्य तदा । त्रैलोक्य-चक्रवत्तित्व-चिह्नमग्रे भवति चक्रम् ॥ ४६ ॥
अपने तेज के समूह से समस्त दिशाओं को प्रकाशित करने वाला और तीनों लोकों के चक्रवर्तीपन को सूचित करने वाला धर्मचक्र उनके आगे-आगे चलता है ।
भुवनपति विमानपति ज्योतिष्पति-वानव्यन्तराः सविधे । तिष्ठन्ति समवसरणे जघन्यतः कोटिपरिमाणाः ॥ ४७ ॥ प्रायः कम से कम एक करोड़ की संख्या में भवनपति, वैमानिक, ज्योतिष्क और वानव्यन्तर, यह चारों प्रकार के देव समवसरण में स्थित रहते हैं ।
तीर्थकर नामसंज्ञं न यस्य कर्मारित सोऽपि योगबलात् । उत्पन्न - केवलः सन् सत्यायुषि बोधयत्युर्वीम् ॥। ४८ ।। यह उन केवली भगवान् की विशेषताओं का वर्णन किया गया है, जो तीर्थंकर होते हैं । किन्तु, जिनके तीर्थंकर नाम कर्म का उदय नहीं हैं, वे भी योग बल से केवलज्ञान प्राप्त करते हैं और श्रायु-कर्म शेष रहता है, तो भूतल के जीवों को धर्मदेशना भी देते हैं । और श्रायु- कर्म शेष न रहा हो तो निर्वाण पद को प्राप्त कर लेते हैं । केवली की उत्तरक्रिया और समुद्घात
Jain Education International
सम्पन्न- केवलज्ञान - दर्शनोऽन्तर्मुहूर्त्त - शेषायुः । अर्हति योगी ध्यानं तृतीयमपि कर्तुमचिरेण ॥। ४६ ।।
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org