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योग शास्त्र
अयमेक एव नः प्रभुरित्याख्यातु विडोजसोन्नमितः। .. अंगुलिदण्ड इवोच्चैश्चकास्ति रत्न-ध्वजस्तस्य ॥ ४१ ।।
भगवान् के आगे इन्द्रध्वज ऐसा सुशोभित होता है, मानों 'यही एकमात्र हमारे स्वामी हैं'-यही बतलाने के लिए इन्द्र ने अपनी अंगुली ऊँची कर रखी हो।
अस्य शरदिन्दुदीधितिचारूणि च चामराणि धूयन्ते। वदनारविन्द - संपाति - राजहंस - भ्रमं दधति ॥ ४२ ।।
भगवान् पर शरद ऋतु के चन्द्रमा की किरणों के समान उज्ज्वल चामर ढुलाये जाते हैं। जब वे चामर मुख-कमल पर आते हैं तो राजहंसों-सा भ्रम उत्पन्न करते हैं । इससे ऐसा प्रतीत होता है कि उनके मुख के सामने राजहंस उड़ रहे हों।
प्राकारस्य उच्चैविभान्ति समवसरणस्थितस्यास्य । कृत-विग्रहाणि सम्यक् चारित्र-ज्ञान-दर्शनानीव ।। ४३ ॥
समवसरण में स्थित तीर्थङ्कर भगवान् के चारों ओर स्थित ऊँचे-ऊँचे तीन प्रकार ऐसे जान पड़ते हैं, मानों सम्यक्चारित्र, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन खड़े हों।
चतुराशावर्तिजनान् युगपदिवानुग्रहीतु - कामस्य । . चत्वारि भवन्ति मुखान्यंगानि च धर्ममुपदिशतः ।। ४४ ।।
जब भगवान् धर्मोपदेश देने के लिए समवसरण में विराजते हैं, तो उनके चारों ओर उपस्थित श्रोताओं पर अनुग्रह करने के लिए एक समय में एक साथ चार शरीर और चार मुख परिलक्षित होते हैं । यह तीर्थङ्कर भगवान् का एक अतिशय है । उनकी धर्म-सभा में उपस्थित कोई भी श्रोता, चाहे वह किसी भी दिशा में क्यों न बैठा हो, उनके दर्शनों से वंचित नहीं रहता है।
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