Book Title: Yogshastra
Author(s): Samdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
Publisher: Rushabhchandra Johari

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Page 361
________________ एकादश प्रकाश २७१ उन अरिहन्त भगवान् का नाम उच्चारण करने मात्र से अनादिकालीन संसार में उत्पन्न होने वाले भव्य जीवों के सहसा ही समस्त दुःख सदा के लिए नष्ट हो जाते हैं। अपि कोटीशतसंख्याः समुपासितुमागताः सुरनराद्याः । क्षेत्रे योजनमात्रे मान्ति तदाऽस्य प्रभावेण ॥ २७ ॥ उन अरिहन्त तीर्थकर भगवान् के प्रभाव से उनकी उपासना के लिए आये हुए सैकड़ों-करोड़ों देव और मनुष्य प्रादि एक योजन मात्र क्षेत्रस्थान में ही समा जाते हैं। त्रिदिवौकसो मनुष्यास्तिर्यञ्चोऽन्येऽप्यमुष्य बुध्यन्ते । निज-निज-भाषानुगतं वचनं धर्मावबोधकरम् ॥ २८ ॥ तीर्थकर भगवान् के धर्मबोधक वचनों को देव, मनुष्य, पशु तथा अन्य जीव अपनी-अपनी भाषा में समझते हैं। उक्त सब श्रोताओं को ऐसा लगता है कि मानो भगवान् हमारी भाषा में ही बोल रहे हैं । - आयोजनशतमुग्रा रोगाः शाम्यन्ति तत्प्रभावेण । उदयिनि शीतमरीचाविव तापरुजः क्षितेः परितः।। २६ ।। तीर्थंकर भगवान् जहाँ विहार करते हैं, उस स्थल से चारों ओर सौ-सौ योजन प्रमाण क्षेत्र में, उनके प्रभाव से महामारी आदि उग्र रोग उसी प्रकार शान्त हो जाते हैं, जैसे चन्द्रमा के उदय से गर्मी शान्त हो जाती है। मारीति-दुभिक्षाति - वृष्टयनावृष्टिडमर-वैराणि । न भवन्त्यस्मिन् विहरति सहस्ररश्मौ तमांसीव ॥ ३० ॥ ___तीर्थंकर भगवान् जहाँ विचरण करते हैं, वहाँ महामारी, दुभिक्ष, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, युद्ध और वैर उसी प्रकार नहीं होते, जैसे सूर्य का उदय होने पर अन्धकार नहीं रह पाता। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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