Book Title: Yogshastra
Author(s): Samdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
Publisher: Rushabhchandra Johari

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Page 358
________________ २६८ योग-शास्त्र में प्रतिपादित अर्थ का अनुसरण करने के कारण श्रुताक्लम्बी हैं । वे प्रायः पूर्वो के ज्ञाता छद्मस्थ योगियों को ही होते हैं । 'प्रायशः' कहने का आशय यह है कि कभी-कभी वे विशिष्ट अपूर्वधरों को भी हो जाते हैं। अन्तिम दो प्रकार के शुक्ल-ध्यान समस्त दोषों का क्षय करने वाले अर्थात् वीतराग, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी केवली में ही पाए जाते हैं । शुक्ल-ध्यान का क्रम तत्र श्रुताद् गृहीत्वैकमर्थमर्थाद् व्रजेच्छब्दम् । शब्दात्पुनरप्यर्थं योगाद्योगान्तरं च सुधीः ॥ १५ ॥ बुद्धिमान् पुरुष को श्रुत में से किसी एक अर्थ को अवलम्बन करके ध्यान प्रारम्भ करना चाहिए। उसके बाद उन्हें अर्थ से शब्द के विचार में आना चाहिए। फिर शब्द से अर्थ में वापिस लौट आना चाहिए । इसी प्रकार एक योग से दूसरे योग में और फिर दूसरे योग से पहले योग में आना चाहिये। संक्रामत्यविलम्बितमर्थप्रभृतिषु यथा किल ध्यानी । व्यावर्तते स्वयमसौ पुनरपि तेन प्रकारेण ॥ १६ ॥ ध्यानकर्ता जिस प्रकार शीघ्रता-पूर्वक अर्थ, शब्द और योग में संक्रमण करता है, उसी प्रकार शीघ्रता से उससे वापिस लौट भी आता है। इति नानात्वे निशिताभ्यासः संजायते यदा योगी। आविर्भूतात्म - गुणस्तदैकताया भवेद्योग्यः ॥ १७ ॥ पूर्वोक्त प्रकार से योगी जब पृथकत्व में तीक्ष्ण अभ्यास वाला हो जाता है, तब विशिष्ट आत्मिक गुणों के प्रकट होने पर उसमें एकत्व का ध्यान करने की योग्यता उत्पन्न हो जाती है। इसका तात्पर्य यह है कि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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