Book Title: Yogshastra
Author(s): Samdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
Publisher: Rushabhchandra Johari

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Page 357
________________ एकादश प्रकाश २६७ चवदहवें गुणस्थान में पहुंचते ही आत्मा तीनों योगों का निरोध कर लेती है । अतः अयोगी अवस्था में स्थित केवली में योग का सद्भाव नहीं रहता है, फिर भी वहाँ ध्यान का अस्तित्व माना गया है। उसका कारण यह है-- १. · जैसे कुम्हार का चक्र दण्ड आदि के अभाव में भी पूर्वाभ्यास से घूमता रहता है, उसी प्रकार योगों के अभाव में भी पूर्वाभ्यास के कारण अयोगी अवस्था में भी ध्यान होता है । २. अयोगी केवली में उपयोग रूप भाव-मन विद्यमान है, अतः उनमें ध्यान माना गया है। ३. जैसे पुत्र न होने पर भी पुत्र के योग्य कार्य करने वाला व्यक्ति पुत्र कहलाता है, उसी प्रकार ध्यान का कार्य कर्म-निर्जरा वहाँ पर भी विद्यमान है । अतः वहाँ ध्यान भी माना गया है। ४. एक शब्द के अनेक अर्थ होते हैं। यहाँ 'ध्येय' धातु चिन्तन अर्थ में है, काय-योग के निरोध अर्थ में भी है और अयोगित्व अर्थ में भी है । अतः अयोगित्व अर्थ के अनुसार अयोगी केवली में ध्यान का सद्भाव मानना उपयुक्त ही है। ५. जिनेन्द्र भगवान् ने अयोगी केवली अवस्था में भी ध्यान कहा है, इस कारण उनमें ध्यान का सद्भाव मानना चाहिए । शुक्ल-ध्यान के स्वामी आद्ये श्रुतावलम्बन-पूर्वे पूर्वश्रुतार्थ-सम्बन्धात् । पूर्वधराणां छद्मस्थ-योगिनां प्रायशो ध्याने ॥ १३ ॥ सकलालम्बन-विरहप्रथिते द्वे त्वन्तिमे समुद्दिष्टे । निर्मल-केवलदृष्टि-ज्ञानानां क्षीण-दोषाणाम् ॥ १४ ॥ चार प्रकार के शुक्ल-ध्यानों में से पहले के दो ध्यान पूर्वगत श्रुत Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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