Book Title: Yogshastra
Author(s): Samdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
Publisher: Rushabhchandra Johari

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Page 356
________________ योग-शास्त्र ४. उत्सन्न-क्रिया अप्रतिपात्ति केवलिनः शैलेशीगतस्य शैलवदकम्पनीयस्य । उत्सन्नक्रियमप्रतिपाति तुरीयं परमशुक्लम् ।। ६ ।। पर्वत की तरह निश्चल केवली भगवान् जब शैलेशीकरण प्राप्त करते हैं, उस समय होने वाला शुक्ल-ध्यान 'उत्सन्न-क्रिया-अप्रतिपाति' कहलाता है। शुक्ल-ध्यान में योग विभाग एकत्रियोगभाजामाद्यं स्यादपरमेक-योगानाम् । तनुयोगिनां तृतीयं निर्योगाणां चतुर्थं तु ॥ १० ॥ प्रथम शुक्ल-ध्यान एक योग या तीनों योग वाले मुनियों को होता है, दूसरा एक योग वालों को ही होता है। तीसरा सूक्ष्म काययोग वाले केवली को और चौथा अयोगी केवली को ही होता है । केवली और ध्यान छद्मस्थितस्य यद्वन्मनः स्थिरं ध्यानमुच्यते तज्ज्ञः। निश्चलमङ्ग तद्वत् केवलिनां कोर्तितं ध्यानम् ॥११॥ मन की स्थिरता को ध्यान कहते हैं, परन्तु तीसरे और चौथे शुक्लध्यान के समय मन का अस्तित्व नहीं रहता है। ऐसी अवस्था में उन्हें ध्यान कैसे कहा जा सकता है ? इस प्रश्न का यह समाधान दिया गया है कि-"ध्यान के विशेषज्ञ पुरुष जैसे छमस्थ के मन की स्थिरता को ध्यान कहते हैं, उसी प्रकार केवली के काय की स्थिरता को भी ध्यान कहते हैं। क्योंकि, जैसे मन एक प्रकार का योग है, उसी प्रकार काय भी एक योग है।" प्रयोगी और ध्यान पूर्वाभ्यासाज्जीवोपयोगतः कर्म - जरण - हेतोर्वा । शब्दार्थ-बहुत्वाद्वा जिनवचनाद्वाप्ययोगिनो ध्यानम् ।।१२।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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