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योग-शास्त्र ... अनवच्छित्याम्नायः समागतोऽस्येति कीर्त्यतेऽस्माभिः ।
दुष्करमप्याधुनिकैः शुक्ल-ध्यानं यथाशास्त्रम् ॥ ४॥
वर्तमान काल-युग के मनुष्य न वज्रऋषभनाराच संहनन वाले हैं, न पूर्वधर ही हो सकते हैं, अतः वे शुक्ल-ध्यान के अधिकारी भी नहीं हैं। ऐसी स्थिति में शुक्ल-ध्यान का वर्णन करने की क्या आवश्यकता है ? इस प्रश्न का यहाँ यह समाधान दिया गया है कि आजकल के मनुष्यों के लिये शास्त्रानुसार शुक्ल-ध्यान करना दुष्कर है, फिर भी शुक्ल-ध्यान के सम्बन्ध में अनवच्छिन्न आम्नाय-परम्परा चली आ रही है, इस कारण हम यहाँ उसके स्वरूप का वर्णन कर रहे हैं। शुक्ल-ध्यान के भेद
ज्ञेयं नानात्वश्रुतविचारमैक्य-श्रुताविचारं च।
सूक्ष्म-क्रियमुत्सन्न-क्रियमिति भेदैश्चतुर्धा तत् ।। ५ ।। शुक्ल-ध्यान चार प्रकार का है-१. पृथकत्व-श्रुत सविचार, २. एकत्व-श्रुत अविचार, ३. सूक्ष्म-क्रिया और, ४. उत्सन्न-क्रिया-अप्रतिपाति । १. पृथकत्व श्रुत सविचार
एकत्र पर्यायाणां विविधनयानुसरणं श्रुताद् द्रव्ये। अर्थ-व्यञ्जन-योगान्तरेषु संक्रमण-युक्तमाद्यं तत् ॥ ६ ॥ परमाणु आदि किसी एक द्रव्य में-उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य आदि पर्यायों का, द्रव्याथिक-पर्यायार्थिक आदि नयों के अनुसार, पूर्वगत श्रुत के आधार से चिन्तन रना 'पृथक्त्व-श्रुत सविचार' ध्यान कहलाता है । इस ध्यान में अर्थ-द्रव्य, व्यंजन-शब्द और योग का संक्रमण होता रहता है। ध्याता कभी अर्थ का चिन्तन करते-करते शब्द का
और शब्द का चिन्तन करते-करते अर्थ का चिन्तन करने लगता है। इसी प्रकार मनोयोग से काय-योग में या वचन-योग में, काय-योग से
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