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एकादश प्रकाश
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मनोयोग में या वचन-योग में और वचन-योग से मनोयोग या काययोग में संक्रमण करता रहता है।
अर्थ, व्यंजन और योग का संक्रमण होते रहने पर भी ध्येय द्रव्य एक ही होता है, अतः उस अंश में मन की स्थिरता बनी रहती है । इस अपेक्षा से इसे ध्यान कहने में कोई आपत्ति नहीं है । २. एकत्व-श्रुत अविचार
एवं श्रुतानुसारादेकत्व-वितर्कमेक-पर्याये ।
अर्थ-व्यञ्जन - योगान्तरेष्वसंक्रमणमन्यत्तु ॥ ७ ॥ श्रुत के अनुसार, अर्थ, व्यंजन और योग के संक्रमण से रहित, एक पर्याय-विषयक ध्यान 'एकत्व-श्रुत अविचार' ध्यान कहलाता है।
टिप्पण-पहला और दूसरा शुक्ल-ध्यान सामान्यतः पूर्वधर मुनियों को ही होता है, परन्तु कभी किसी को पूर्वगत श्रुत के अभाव में अन्यश्रुत के आधार से भी हो सकता है। पहले प्रकार के शुक्ल-ध्यान में शब्द, अर्थ और योगों का उलट-फेर होता रहता है, किन्तु दूसरे में इतनी विशिष्ट स्थिरता होती है कि यह उलट-फेर बन्द हो जाता है। प्रथम शुक्ल-ध्यान में एक द्रव्य की विभिन्न पर्यायों का चिन्तन होता है, दूसरे में एक ही पर्याय को ध्येय बनाया जाता है । ३. सूक्ष्म-क्रिया
निर्वाणगमनसमये केवलिनो दरनिरुद्धयोगस्य । ... सूक्ष्मक्रिया-प्रतिपाति तृतीयं कीर्तितं शुक्लम् ।। ८ ।। .. निर्वाण-गमन का. समय सन्निकट आ जाने पर केवली भगवान् मनोयोग और वचनयोग तथा स्थूल-काययोग का निरोध कर लेते हैं, केवल श्वासोच्छ्वास आदि सूक्ष्म क्रिया ही शेष रह जाती है, तब जो ध्यान होता है. वह 'सूक्ष्मक्रिया-अप्रतिपात्ति' नामक शुक्ल-ध्यान कहलाता है।
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