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योग-शास्त्र उत्पन्न होता है और उस विचार से वैराग्य की वृद्धि होती हैं । ज्यों-ज्यों वैराग्य की वृद्धि होती है, त्यों-त्यों रागादिजन्य आकुलता कम होती जाती है और चित्त में शान्ति की अनुभूति होती है। अस्तु, इस ध्यान का सर्वोत्कृष्ट फल यही है कि इससे आत्मा को अनन्त और अव्याबाध सुख-शान्ति प्राप्त होती है।
धर्म-ध्याने भवेद् भावः क्षायोपशमिकादिकः ।
लेश्या क्रमविशुद्धाः स्युः पीतपद्मसिताः पुनः ।। १६ ॥ धर्म-ध्यान में क्षायोपशमिक आदि भाव होते हैं और ध्याता ज्योंज्यों उसमें अग्रसर होता है, त्यों-त्यों उसकी पीन, पद्म और शुक्ल लेश्याएँ विशुद्ध होती हैं। धर्म-ध्यान का फल
अस्मिन्नितान्त - वैराग्य - व्यतिषंगतरङ्गिते ।
जायते देहिनां सौख्यं स्वसंवेद्यमतीन्द्रियम् ॥ १७ ॥ . वैराग्य-रस के संयोग से तरंगित चार प्रकार के धर्म-ध्यान में योगी जनों को ऐसे सुख की प्राप्ति होती है कि जिसे वे स्वयं ही अनुभव कर सकते हैं और वह इन्द्रियगम्य नहीं है। अर्थात् धर्मध्यान केवल आत्मअनुभूतिगम्य और इन्द्रियों द्वारा अगम्य आनन्द का कारण है। धर्म-ध्यान का पारलौकिक फल
त्यक्तसंगास्तनु त्यक्त्वा धर्म-ध्यानेन योगिनः । ग्रैवेयकादि-स्वर्गेषु भवन्ति त्रिदशोत्तमाः ॥ १८ ।। महामहिमसौभाग्यं शरच्चन्द्रनिभप्रभम् । प्राप्नुवन्ति वपुस्तत्र स्रग्भूषाम्बर-भूषितम् ।। १६ ।। विशिष्टवीर्य-बोधाढ्यं कामार्तिज्वरवर्जितम्। निरन्तरायं सेवन्ते सुखं चानुपमं चिरम् ॥२०॥
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