Book Title: Yogshastra
Author(s): Samdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
Publisher: Rushabhchandra Johari

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Page 351
________________ दशम प्रकाश २६१ इच्छा-सम्पन्न-सर्वार्थ-मनोहारि सुखामृतम् । निर्विघ्नमुपभुजाना गतं जन्म न जानते ॥ २१ ।। दिव्यभोगावसाने च च्युत्वा त्रिदिवतस्ततः । । उत्तमेन शरीरेणावतरन्ति महीतले ॥ २२ ॥ दिव्यवंशे समुत्पन्ना नित्योत्सव-मनोरमान् । भुञ्जते विविधान् भोगानखण्डितमनोरथाः ॥ २३ ॥ ततो विवेकमाश्रित्य विरज्याशेषभोगतः । ध्यानेन ध्वस्तकर्माणः प्रयान्ति पदमव्ययम् ॥ २४ ।। परपदार्थो के संयोग को त्याग देने वाले योगी धर्म-ध्यान के साथ शरीर का त्याग करके ग्रेवेयक या अनुत्तर विमान आदि में उत्तम देव के रूप में उत्पन्न होते हैं। ___ वहाँ उनको शरद ऋतु के निर्मल चन्द्रमा के समान कान्ति से युक्त दिव्य-भव्य शरीर प्राप्त होता है और वह दिव्य पुष्पमालाओं, आभूषणों एवं वस्त्रों से विभूषित होता है। ऐसे शरीर वाले वे देव विशिष्ट वीर्य और बोध से युक्त, कामजनित पीड़ा रूपी ज्वर से रहित, विघ्न-बाधाहीन, अनुपम सुख का चिरकाल तक सेवन करते हैं। उन्हें इच्छा होते ही सब पदार्थ प्राप्त हो जाते हैं । अतः मन को प्रानन्द देने वाले सुखामृत का निर्विघ्न उपभोग करते-करते उन्हें बीता हुए समय का भी मालूम नहीं पड़ता । अर्थात् वे देव सुख में इतने तन्मय रहते हैं कि उन्हें इस बात का पता भी नहीं लगता कि उनकी कितनी आयु व्यतीत हो गई है। . . देवायु पूर्ण होने पर दिव्य भोगों का अन्त आ जाता है। तब वे देव वहाँ से च्युत होकर भूतल पर अवतरित होते हैं और यहाँ भी उन्हें उत्तम शरीर प्राप्त होता है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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