Book Title: Yogshastra
Author(s): Samdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
Publisher: Rushabhchandra Johari

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Page 349
________________ दशम प्रकाश २५६ होती है और नारकीय जीवों को जो घोरतम विपत्ति प्राप्त होती है, वह पुण्य और पाप-कर्म की ही प्रभुता का फल है। ४. संस्थान-विचय ध्यान अनाद्यनन्तस्य लोकस्य स्थित्युत्पत्तिव्ययात्मनः । प्राकृति चिन्तयेद्यत्र संस्थान-विचयः स तु ॥ १४ ॥ अनादि-अनन्त, किन्तु उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य-परिणामी नित्य स्वरूप वाले लोक की आकृति का जिस ध्यान में विचार किया जाता है, वह 'संस्थान-विचय' धर्म-ध्यान कहलाता है। टिप्पण-दुनिया में कभी भी किसी सत् पदार्थ का विनाश नहीं होता और न असत् की उत्पत्ति ही होती है। प्रत्येक वस्तु अपने मूल रूप में-द्रव्य रूप में अनादि-अनन्त है। परन्तु, जब वस्तु के पर्यायों की ओर देखते हैं, तो उनमें प्रतिक्षण परिणमन होता हुआ दिखाई देता है। अतः प्रत्येक वस्तु अनादि-अनन्त होने पर भी उत्पाद-व्यय से युक्त है। लोक की भी यही स्थिति है । ऐसे लोक के पुरुषाकार संस्थान का तथा लोक में स्थित द्रव्यों का चिन्तन करना 'संस्थान-विचय' ध्यान है। संस्थान-विनय ध्यान का फल . नानाद्रव्य - गतानन्त - पर्याय - परिवर्तनात् । सदासक्तं मनो नैव रागाद्याकुलतां व्रजेत् ॥ १५॥ संस्थान-विचय ध्यान से क्या लाभ होता है ? इस प्रश्न का समाधान यह किया गया है कि लोक में अनेक द्रव्य हैं और एक-एक द्रव्य के अनन्त-अनन्त पर्याय. हैं। उनका विचार करने से, उनमें निरन्तर पासक्त बना हुआ मन राग-द्वेषजनित आकुलता से बच जाता है । टिप्पण-इसका तात्पर्य यह है कि लोकगत द्रव्य किसी न किसी पर्याय के रूप में ही हमारे समक्ष आते हैं और पर्याय अनित्य हैं। पर्यायों का विचार करने में उनकी मनित्यता का विचार मुख्य रूप से Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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