Book Title: Yogshastra
Author(s): Samdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
Publisher: Rushabhchandra Johari

View full book text
Previous | Next

Page 347
________________ दाम प्रकाश प्रज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान का चिन्तन करने से, के भेद के कारण, धर्म- ध्यान के चार भेद हैं । १. प्राज्ञा ध्यान प्रज्ञां यत्र पुरस्कृत्य सर्वज्ञानामबाधिताम् । तत्त्वतश्चिन्तयेदर्थांस्तदाज्ञा - ध्यानमुच्यते ॥ ८ ॥ किसी भी तर्क से बाधित न होने वाली एवं पूर्वापर विरोध से रहित सर्वज्ञों की आज्ञा को सन्मुख रखकर तात्त्विक रूप से श्रर्थों का चिन्तन करना 'आज्ञा-ध्यान' है । सर्वज्ञ- वचनं सूक्ष्मं हन्यते यन्न हेतुभिः । तदाज्ञारूपमादेयं न मृषा भाषिणो जिनाः ॥ २५७ ध्येय सर्वज्ञ के वचन ऐसे सूक्ष्मतास्पर्शी होते हैं कि वे युक्तियों से बाधित नहीं हो सकते । अतः उन्हें आज्ञा के रूप में अंगीकार करना चाहिए, क्योंकि सर्वज्ञ कभी भी असत्य भाषा का प्रयोग नहीं करते । Jain Education International टिप्पण - कहने का अभिप्राय यह है कि मृषा-भाषण के मुख्य दो कारण होते हैं - १. प्रज्ञान, और २. कषाय । जो मनुष्य वस्तु के यथार्थ स्वरूप को नहीं समझता, वह अपनी विपरीत समझ के कारण मिथ्या भाषण करता है और कुछ मनुष्य जो सही वस्तुस्थिति को जानतेबूझते हुए भी क्रोध, मान - श्रभिमान, माया – छल-कपट या लोभ से प्रेरित होकर मिथ्या बोलते हैं । सर्वज्ञ पुरुष में इन दोनों कारणों में से एक भी कारण नहीं रहता । वीतरागता प्राप्त होने के पश्चात् ही सर्वज्ञता प्राप्त होती है । अतः वीतराग होने से जो निष्कषाय हो गए हैं और सर्वज्ञ होने के कारण जो अज्ञान से मुक्त हो गए हैं, उनके वचन में सत्यता एवं मिथ्यात्व की संभावना नहीं की जा सकती । ऐसा मानकर जो ध्याता सर्वज्ञोक्त द्रव्य, गुण, पर्याय आदि का चिन्तन करता है, वह प्राज्ञा-विचय का ध्याता कहलाता है । १७ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386