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दशम प्रकाश
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होती है और नारकीय जीवों को जो घोरतम विपत्ति प्राप्त होती है, वह पुण्य और पाप-कर्म की ही प्रभुता का फल है। ४. संस्थान-विचय ध्यान
अनाद्यनन्तस्य लोकस्य स्थित्युत्पत्तिव्ययात्मनः ।
प्राकृति चिन्तयेद्यत्र संस्थान-विचयः स तु ॥ १४ ॥ अनादि-अनन्त, किन्तु उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य-परिणामी नित्य स्वरूप वाले लोक की आकृति का जिस ध्यान में विचार किया जाता है, वह 'संस्थान-विचय' धर्म-ध्यान कहलाता है।
टिप्पण-दुनिया में कभी भी किसी सत् पदार्थ का विनाश नहीं होता और न असत् की उत्पत्ति ही होती है। प्रत्येक वस्तु अपने मूल रूप में-द्रव्य रूप में अनादि-अनन्त है। परन्तु, जब वस्तु के पर्यायों की ओर देखते हैं, तो उनमें प्रतिक्षण परिणमन होता हुआ दिखाई देता है। अतः प्रत्येक वस्तु अनादि-अनन्त होने पर भी उत्पाद-व्यय से युक्त है। लोक की भी यही स्थिति है । ऐसे लोक के पुरुषाकार संस्थान का तथा लोक में स्थित द्रव्यों का चिन्तन करना 'संस्थान-विचय' ध्यान है। संस्थान-विनय ध्यान का फल . नानाद्रव्य - गतानन्त - पर्याय - परिवर्तनात् ।
सदासक्तं मनो नैव रागाद्याकुलतां व्रजेत् ॥ १५॥ संस्थान-विचय ध्यान से क्या लाभ होता है ? इस प्रश्न का समाधान यह किया गया है कि लोक में अनेक द्रव्य हैं और एक-एक द्रव्य के अनन्त-अनन्त पर्याय. हैं। उनका विचार करने से, उनमें निरन्तर पासक्त बना हुआ मन राग-द्वेषजनित आकुलता से बच जाता है ।
टिप्पण-इसका तात्पर्य यह है कि लोकगत द्रव्य किसी न किसी पर्याय के रूप में ही हमारे समक्ष आते हैं और पर्याय अनित्य हैं। पर्यायों का विचार करने में उनकी मनित्यता का विचार मुख्य रूप से
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