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योग-शास्त्र २. अपाय-विचय ध्यान
रागद्वेष कषायाद्यैर्जायमानान् विचिन्तयेत् ।
यत्रापायांस्तदपाय - विचय • ध्यानमिष्यते ।।१०।। जिस ध्यान में राग, द्वेष, क्रोध आदि कषायों तथा प्रमाद आदि विकारों से उत्पन्न होने वाले कष्टों का तथा दुर्गति का चिन्तन किया जाता है, वह 'अपाय-विचय' ध्यान कहलाता है।
ऐहिकामुष्मिकापाय-परिहार-परायणः ।
ततः प्रतिनिवर्तेत समान्तात्पापकर्मणः ॥ ११ ॥ यहाँ अपाय-विचय ध्यान के तात्कालिक फल का निर्देश किया गया है। अपाय-विचय ध्यान करने वाला इहलोक एवं परलोक संबंधी अपायों का परिहार करने के लिए उद्यत हो जाता है और इसके फलस्वरूप पाप-कर्मों से पूरी तरह निवृत्त हो जाता है, क्योंकि पाप-कर्मों का त्याग किए बिना अपाय से बचा नहीं जा सकता। . ३. विपाक-विचय ध्यान
प्रतिक्षण-समुद्भूतो यत्र कर्म-फलोदयः ।
चिन्त्यते चित्ररूपः स विपाक-विचयोदयः ।। १२ ।। जिस ध्यान में क्षण-क्षण में उत्पन्न होने वाले विभिन्न प्रकार के कर्मफल के उदय का चिन्तन किया जाता है, वह 'विपाक-विचय' धर्म-ध्यान कहलाता है।
या सम्पदार्हतो या च विपदा नारकात्मनः।
एकातपत्रता तत्र पुण्यापुण्यस्य कर्मणः ।। १३ ॥ कर्म-विपाक का चिन्तन किस प्रकार करना चाहिए, उसका यहाँ दिग्दर्शन कराया गया है।
अरिहन्त भगवान् को प्रष्ट प्रतिहार्य आदि जो श्रेष्ठतम सम्पति प्राप्त
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