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चाहिए । इसी प्रकार अन्यान्य सर्वकल्याणकारी बीजों का भी स्मरण करना चाहिए ।
योग-शास्त्र
श्रुतसिन्धु- समुद्भूतं अन्यदप्यक्षरं पदम् । अशेषं ध्यायमानं स्यान्निर्वाणपद सिद्धये ॥ ७८ ॥
श्रुत रूपी सागर से उत्पन्न हुए अन्य समस्त अक्षरों, पदों श्रादि का भी ध्यान करने से निर्वाणपद की प्राप्ति होती है । वीतरागो भवेद्योगी यत्किञ्चिदपि चिन्तयत् ।
तदेव ध्यानमाम्नातमतोऽन्ये ग्रन्थ-विस्तराः ॥७६॥ जिस किसी भी वाक्य, पद या शब्द का चिन्तन करता हुआ योगी वीतरागता को प्राप्त करने में समर्थ होता है, वही उसका ध्यान माना गया है । अन्य उपाय तो ग्रन्थ का विस्तार मात्र है ।
एवं च मन्त्र - विद्यानां वर्णेषु च पदेषु च । विश्लेषः क्रमशः कुर्यालक्ष्मी भावोपपत्तये ॥ ८०॥
इस प्रकार मंत्र और विद्याओं का वर्णों और पदों में अनुक्रम से विश्लेषण करना चाहिए । इससे लक्ष्मीभाव की प्राप्ति होती है अथवा धीरे-धीरे लक्ष्यहीन - श्रालम्बन रहित ध्यान की प्राप्ति होती है । आशीर्वाद
इति गणधर धुर्याविष्कृतादुद्धृता नि,
हृदयमुकुरमध्ये
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प्रवचन- जलराशेस्तत्त्वरत्नान्यमूनि । धोमतामुल्लसन्तु, प्रचितभवशतोत्थकुलेशनिर्नाशहेतोः ॥ ८१ ॥
इस प्रकार प्रधान गणधर द्वारा प्रकट किए हुए प्रवचन रूपी समुद्र में से यह तत्त्व-रत्न उद्धृत किये गए हैं । ये तत्त्व - रत्न सैकड़ों भवों के संचित क्लेश – कर्म का विनाश करने के लिए बुद्धिमान् साधकयोगी के जीवन को ज्योतिर्मय बनाते हैं ।
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