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________________ २५० चाहिए । इसी प्रकार अन्यान्य सर्वकल्याणकारी बीजों का भी स्मरण करना चाहिए । योग-शास्त्र श्रुतसिन्धु- समुद्भूतं अन्यदप्यक्षरं पदम् । अशेषं ध्यायमानं स्यान्निर्वाणपद सिद्धये ॥ ७८ ॥ श्रुत रूपी सागर से उत्पन्न हुए अन्य समस्त अक्षरों, पदों श्रादि का भी ध्यान करने से निर्वाणपद की प्राप्ति होती है । वीतरागो भवेद्योगी यत्किञ्चिदपि चिन्तयत् । तदेव ध्यानमाम्नातमतोऽन्ये ग्रन्थ-विस्तराः ॥७६॥ जिस किसी भी वाक्य, पद या शब्द का चिन्तन करता हुआ योगी वीतरागता को प्राप्त करने में समर्थ होता है, वही उसका ध्यान माना गया है । अन्य उपाय तो ग्रन्थ का विस्तार मात्र है । एवं च मन्त्र - विद्यानां वर्णेषु च पदेषु च । विश्लेषः क्रमशः कुर्यालक्ष्मी भावोपपत्तये ॥ ८०॥ इस प्रकार मंत्र और विद्याओं का वर्णों और पदों में अनुक्रम से विश्लेषण करना चाहिए । इससे लक्ष्मीभाव की प्राप्ति होती है अथवा धीरे-धीरे लक्ष्यहीन - श्रालम्बन रहित ध्यान की प्राप्ति होती है । आशीर्वाद इति गणधर धुर्याविष्कृतादुद्धृता नि, हृदयमुकुरमध्ये - Jain Education International प्रवचन- जलराशेस्तत्त्वरत्नान्यमूनि । धोमतामुल्लसन्तु, प्रचितभवशतोत्थकुलेशनिर्नाशहेतोः ॥ ८१ ॥ इस प्रकार प्रधान गणधर द्वारा प्रकट किए हुए प्रवचन रूपी समुद्र में से यह तत्त्व-रत्न उद्धृत किये गए हैं । ये तत्त्व - रत्न सैकड़ों भवों के संचित क्लेश – कर्म का विनाश करने के लिए बुद्धिमान् साधकयोगी के जीवन को ज्योतिर्मय बनाते हैं । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004234
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni, Mahasati Umrav Kunvar, Shobhachad Bharilla
PublisherRushabhchandra Johari
Publication Year1963
Total Pages386
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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