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नवम प्रकाश
रूपस्थ ध्यान
मोक्ष श्री सम्मुखीनस्य विध्वस्ताखिलकर्मणः । चतुर्मुखस्य निःशेष भुवनाभय - दायिनः ॥ | १ ||
इंदुमण्डल - संकाशच्छत्र - त्रितय - शालिनः । लसद्भामण्डल भोग - विडम्बित - विवस्वतः ॥२॥
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दिव्य - दुन्दुभिनिर्घोषगीत साम्राज्य - सम्पदः । रणद्विरेफ-झङ्कार- मुखराशोक शोभिनः ॥ ३॥ सिंहासन - निषण्णस्स वीज्यमानस्य चामरैः । सुरासुर - शिरोरल - दीप्रपादन - खद्युतेः || ४ | दिव्य पुष्पोत्क राकीर्णा संकीर्ण परिषद्भुवः । उत्कन्धरेमृगकुलैः पीयमान - कलध्वनेः 1: 11211 शान्तवैरेभ-सिंहादि - समुपासित - सन्निधेः । प्रभोः समवसरण - स्थितस्य परमेष्ठिनः ॥ ६ ॥ सर्वातिशय-युक्तस्य केवलज्ञान - भास्वतः । अर्हतो रूपमालम्ब्य ध्यानं रूपस्थमुच्यते ॥७॥ जो योगी - साधक मुक्ति लक्ष्मी के सन्मुख जा पहुँचे हैं, जिन्होंने समग्र - चारों घातिक कम का समूलतः ध्वंस कर दिया है, देशाना देते
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